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ग़ज़ल
मुझे आता है क्या क्या रश्क वक़्त-ए-ज़ब्ह उस से भी
गला जिस दम लिपट कर ख़ंजर-ए-क़ातिल से मिलता है
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
'मुल्ला' का गला तक बैठ गया बहरी दुनिया ने कुछ न सुना
जब सुनने वाला हो ऐसा रह रह के पुकारा कौन करे