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ग़ज़ल
गंदहा-ए-ना-तराशीदा हैं हम सोहबत मिरी
इन दिनों तो मैं भी ख़ुशबू की तरह संदल में हूँ
हातिम अली मेहर
ग़ज़ल
कहीं और बाँट दे शोहरतें कहीं और बख़्श दे इज़्ज़तें
मिरे पास है मिरा आईना मैं कभी न गर्द-ओ-ग़ुबार लूँ