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ग़ज़ल
यही परचम निशान-ए-लश्कर-ए-बातिल न बन जाए
हम इक ख़ंजर सही लेकिन कफ़-ए-सफ़्फ़ाक से निकलें
मोहम्मद अहमद रम्ज़
ग़ज़ल
बहुत नाज़ुक हैं मेरे सर्व क़ामत तेग़ज़न लोगो
हज़ीमत ख़ुर्दगी मेरी सफ़-ए-लश्कर पे लिख देना
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
लश्कर-ए-क़ल्ब-ए-सफ़-ए-उश्शाक़ में है ग़लग़ला
यक्का-ताज़-ए-आह कूँ किस ने किया है ना-रसीद
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
ये हक़ परस्तियाँ मिरी मरहून-ए-कुफ़्र हैं
ये दिन तो फ़ैज़-ए-सोहबत-ए-बातिल से आए हैं
अलीम उस्मानी
ग़ज़ल
अब तो 'सरवर' 'इश्क़ ने आज़ाद ईमाँ कर दिया
लाख बहकाया करे फ़र्क़-ए-हक़-ओ-बातिल मुझे