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ग़ज़ल
जिन को रह के काँटों में ख़ुश-मिज़ाज होना था
वो मक़ाम-ए-गुल पा कर बे-दिमाग़ हैं यारो
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
फ़ी-ज़माना है यही मस्लहत-ए-अक़्ल-ओ-शुऊर
दिल में ख़्वाहिश कोई उभरे तो दबा ली जाए
शान-ए-हैदर बेबाक अमरोहवी
ग़ज़ल
आले रज़ा रज़ा
ग़ज़ल
हट जाए इक तरफ़ बुत-ए-काफ़िर की राह से
दे कोई जल्द दौड़ के महशर को इत्तिलाअ
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
नसीम-ए-सुब्ह भी लेती है याँ पे इज़्न-ए-ख़िराम
है ये मक़ाम मक़ाम-ए-क़रार-ए-निकहत-ए-गुल