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ग़ज़ल
कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में
कि हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं मिरी जबीन-ए-नियाज़ में
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
करते हो वा'दा आने का है आँख मुंतज़र
कब तक गुज़ारे दिन ये है मेहमाँ किसी तरह
यासीन अली ख़ाँ मरकज़
ग़ज़ल
मैं मुंतज़िर हूँ तो फिर मुंतज़र भी आएगा
चराग़-ए-जाँ की तरह रह-गुज़र में रौशन हूँ
शहबाज़ नदीम ज़ियाई
ग़ज़ल
सरफ़राज़ बज़्मी
ग़ज़ल
जो इंतिज़ार में दिन भी गुज़ार लेते थे वो
मुसाफ़िरों से मिले मुंतज़र को भूल गए