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ग़ज़ल
इक ज़रा सी गंध क्या पाई कि मंडराने लगीं
कुछ तमन्नाएँ हैं मुर्दा-ख़ोर चीलों की तरह
रहमान मुसव्विर
ग़ज़ल
लग चुका है अब हमें अपने लहू का ज़ाइक़ा
शहर-ए-मर्दुम-ख़ोर में मुर्दा ग़लत ज़िंदा ग़लत
सरमद सहबाई
ग़ज़ल
तन्हाई की क़ब्र से उठ कर मैं सड़कों पर खो जाता हूँ
चेहरों के गहरे सागर में मुर्दा आँखें फेंक आता हूँ
यूसुफ़ आज़मी
ग़ज़ल
पटख़ देता है साहिल पर समुंदर मुर्दा जिस्मों को
ज़ियादा देर तक अंदर के खोट अंदर नहीं रहते
नाज़ ख़यालवी
ग़ज़ल
तुम अपने शिकवे की बातें न खोद खोद के पूछो
हज़र करो मिरे दिल से कि इस में आग दबी है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
चाहते हैं कि परेशाँ पस-ए-मुर्दन भी रहूँ
खोल देते हैं मिरी गोर पर आ कर गेसू
मुंशी अमीरुल्लाह तस्लीम
ग़ज़ल
खो चुका है उस को जब तो ख़ुद ही ऐ सुल्तान-'रश्क'
अब धड़कता है दिल-ए-बे-मुद्दआ किस के लिए