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ग़ज़ल
एवज़ अपने गरेबाँ के किसी की ज़ुल्फ़ हात आती
हमारे हात के पंजे मगर शाने हुए होते
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
वो राह-ए-ज़िंदगी में मुस्कुराना भूल जाता है
ग़रीबी जिस को अपनी ज़ुल्फ़ के पंजे में कसती है
क़मर अंजुम
ग़ज़ल
हुई जिन से तवक़्क़ो' ख़स्तगी की दाद पाने की
वो हम से भी ज़ियादा ख़स्ता-ए-तेग़-ए-सितम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
शाम के साए ज़िंदाँ की दीवारें ऊँची गिरने लगे
फूल सा दिल लोहे के पंजे में फिर आया रात हुई
बशीर बद्र
ग़ज़ल
जहाँ के ज़ुल्म सहते सहते फ़ाख़्ता भी बारहा
अक़ब से पंजे मारती है फिर उक़ाब की तरह