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ग़ज़ल
ये किस ने कह दिया है क़स्र-ए-सुल्तानी में रहता हूँ
मैं अपनी ज़ात में फैली बयाबानी में रहता हूँ
अज़हर कमाल ख़ान
ग़ज़ल
तुम्हें लाहौर के फ़ुट-पाथ का परमिट मिला है
लिहाज़ा राय-विंड के क़स्र-ए-सुल्तानी से बचना
खालिद इरफ़ान
ग़ज़ल
ये मेरा हुजरा सुकून-ए-क़ल्ब ये सज्दे मियाँ
राहतें कब ये मयस्सर क़स्र-ए-सुल्तानी में हैं
काशिफ़ अख़तर
ग़ज़ल
क़स्र-ए-सुल्तानी मुबारक हो ये ऐ ज़ाग़ तुझे
मैं तो शाहीं हूँ पहाड़ों में भी पल जाऊँगा
मंज़ूर अली आक़िब
ग़ज़ल
ख़ुलूस अख़्लाक़ है कच्चे मकानों के मकीनों में
हसद बुग़्ज़-ओ-अदावत क़स्र-ए-सुल्तानी में रक्खा है
इमरान साग़र
ग़ज़ल
यही दरवेश की कुटिया है क़स्र-ए-क़ैसर-ओ-किसरा
वो अपने झोंपड़े को क़स्र-ए-सुल्तानी समझता है
मसऊद अहमद
ग़ज़ल
ग़रीबों के घरों में एक भी रौनक़ नहीं बाक़ी
बहार-ए-क़स्र-ए-सुल्तानी जो पहले थी वो अब भी है
रूमाना रूमी
ग़ज़ल
नींद रोती रही सुनसान खंडर में छुप कर
क़स्र-ए-शाही का हसीं मख़मलीं बिस्तर ख़ामोश
औलाद-ए-रसूल क़ुद्सी
ग़ज़ल
गदाई में भी मुझ पर शान-ए-इस्तिग़ना बरसती है
मिरे सर से हवा-ए-ताज-ए-सुल्तानी नहीं जाती
मख़मूर देहलवी
ग़ज़ल
दर-ए-रूहानियाँ की चाकरी भी काम है अपना
बुतों की मम्लिकत में कार-ए-सुल्तानी भी करते हैं
इरफ़ान सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
क़स्र-ओ-महल-ए-मुनइम तुझ को ही मुबारक हों
बैठे हैं हम आसूदा गोशे में क़नाअत के