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ग़ज़ल
है मिरा दश्त-ए-जुनूँ सात आसमानों से दो-चंद
रुब-ए-मस्कूँ वादी-ए-वहशत की चौथाई नहीं
मुनीर शिकोहाबादी
ग़ज़ल
तिरी उल्फ़त में जितनी मेरी ज़िल्लत बढ़ती जाती है
क़सम है रब्ब-ए-इज़्ज़त की कि इज़्ज़त बढ़ती जाती है
वासिफ़ देहलवी
ग़ज़ल
दयार-ए-दोस्त में उश्शाक़ बेचारे जहाँ बैठे
पकड़ कर कान उठाया ख़ाक-रूब-ए-कू-ए-जानाँ ने