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ग़ज़ल
सर-कशी शम्अ की लगती नहीं गर उन को बुरी
लोग क्यूँ बज़्म में गुल-गीर लिए फिरते हैं
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
हमें सर-कशी से मुक़द्दरों को बदलना आया नहीं अभी
मगर ऐसा करना मोहब्बतों में रिदा न हो कहीं यूँ न हो
साबिर ज़फ़र
ग़ज़ल
हवा से सर-कशी में फूल का अपना ज़ियाँ देखा
सो झुकता जा रहा है अब ये सर आहिस्ता आहिस्ता
परवीन शाकिर
ग़ज़ल
हवा से सर-कशी में फूल का अपना ज़ियाँ देखा
सो झुकता जा रहा है अब ये सर आहिस्ता आहिस्ता
परवीन शाकिर
ग़ज़ल
सरकशी ही है जो दिखलाती है इस मज्लिस में दाग़
हो सके तो शम्अ साँ दीजे रग-ए-गर्दन जला
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
सर-कशी इतनी नहीं ज़ालिम है ओ ज़ुल्फ़-ए-सियह
बस कि तारीक अपनी आँखों में ज़माना हो गया
भारतेंदु हरिश्चंद्र
ग़ज़ल
हम सर-कशी से मुद्दतों मस्जिद से बच बच कर चले
अब सज्दे ही में गुज़रे है क़द जो हुआ मेहराब सा