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ग़ज़ल
निकाला चाहता है काम क्या ता'नों से तू 'ग़ालिब'
तिरे बे-मेहर कहने से वो तुझ पर मेहरबाँ क्यूँ हो
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
कहीं इस फूटे-मुँह से बेवफ़ा का लफ़्ज़ निकला था
बस अब ता'नों पे ता'ने हैं कि बे-शक बा-वफ़ा तुम हो
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
मुझे दुनिया के ता'नों पर कभी ग़ुस्सा नहीं आता
नदी की तह में जा के सारे पत्थर बैठ जाते हैं
मुकेश आलम
ग़ज़ल
झुके हुए पेड़ों के तनों पर छाप है चंचल धारे की
हौले हौले डोल रही है घास नदी के किनारे की
ज़ेब ग़ौरी
ग़ज़ल
हबीब जालिब
ग़ज़ल
मरा हूँ इक बुत-ए-ग़ारत-गर-ए-दीं की मोहब्बत में
कफ़न मेरा सिले तारों से ज़ुन्नार-ए-बरहमन के
रंजूर अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
आबिद हशरी
ग़ज़ल
जो ज़ख़्म ज़ख़्म हूँ ता'नों के तीर खा खा के
तो मार क्यूँ नहीं देते हो अब के जाँ से मुझे
अरशद महमूद अरशद
ग़ज़ल
फ़िरोज़ नातिक़ ख़ुसरो
ग़ज़ल
न कह मुतरिब मिरी चुप से तिरे गानों पे क्या गुज़री
ज़रा पूछ अपनी तानों से मिरे कानों पे क्या गुज़री
नवाब सय्यद हकीम अहमद नक़्बी बदायूनी
ग़ज़ल
'आज़म' बजा है सीम-तनों का ग़ुरूर-ए-हुस्न
क़ुदरत है उन की बात में जादू नज़र में है