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ग़ज़ल
ग़ुलामी क्या है ज़ौक़-ए-हुस्न-ओ-ज़ेबाई से महरूमी
जिसे ज़ेबा कहें आज़ाद बंदे है वही ज़ेबा
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
तजल्ली चेहरा-ए-ज़ेबा की हो कुछ जाम-ए-रंगीं की
ज़मीं से आसमाँ तक आलम-ए-अनवार हो जाए
असग़र गोंडवी
ग़ज़ल
क्या क्या हसीं थे जम्अ' परिस्ताँ का तख़्ता था
नज़रों में फिरते हैं रुख़-ए-ज़ेबा-ए-लखनऊ
वाजिद अली शाह अख़्तर
ग़ज़ल
एक के घर की ख़िदमत की और एक के दिल से मोहब्बत की
दोनों फ़र्ज़ निभा कर उस ने सारी उम्र इबादत की