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ग़ज़ल
यूँ काकुल-ओ-रुख़ अपने तसव्वुर में हैं 'जुम्बिश'
इक मरहला-ए-शाम-ओ-सहर देख रहा हूँ
जुंबिश ख़ैराबादी
ग़ज़ल
मेरी हस्ती भी तिरे जल्वों में गुम होती गई
तेरा जल्वा भी फ़रोग़-ए-ला-मकाँ बनता गया
जुंबिश ख़ैराबादी
ग़ज़ल
क़यामत में लबों पर शिकवा-हा-ए-पुर-जफ़ा ला कर
तिरी मासूम फ़ितरत को पशेमाँ कौन देखेगा
जुंबिश ख़ैराबादी
ग़ज़ल
धुआँ जो बे-कसों की आह का उट्ठा तो ऐ 'जुम्बिश'
चमन वाले पुकार उट्ठे कि वो अब्र-ए-बहार आया
जुंबिश ख़ैराबादी
ग़ज़ल
यक जुम्बिश-ए-लब उस की ने लाखों को जिलाया
ईसा को ये क़ुदरत थी तुम ए'जाज़ तो देखो