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नज़्म
हाँ बे-कल बे-कल रहता है हो पीत में जिस ने जी हारा
पर शाम से ले कर सुब्ह तलक यूँ कौन फिरेगा आवारा
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
जो भी धारा था उन्हीं के लिए वो बेकल था
प्यार अपना भी तो गँगा की तरह निर्मल था
राजेन्द्र नाथ रहबर
नज़्म
मैं एक बेकल सा आदमी हूँ बहुत ही बोझल सा आदमी हूँ
समझ रही है ये दुनिया मुझ को मैं एक पागल सा आदमी हूँ
तारिक़ क़मर
नज़्म
सुनते ही ग़म को मारे छाती है उमंडी आती
पी पी की धुन को सुन कर बे-कल हैं कहती जाती