aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
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फिर रात की लाँबी पलकों परतख़य्युल के मोती ढलते हैं
ख़ुश-आमदीद कहूँ क्या ये शब अज़ाब की हैयहाँ मिली हो जो मंज़िल शिकस्त-ए-ख़्वाब की
आख़िर-ए-शब थीवो सेहन-ए-मस्जिद में बे-सुध पड़ा सो रहा था
कि आख़िर-ए-शब कोई मुसाफ़िरभटक के राह-ए-तरब से आए
बसी हुई है फ़ज़ा में हयात की ख़ुशबूफ़लक पे आख़िर-ए-शब की लकीर दौड़ चली
आख़िर-ए-शब की उदासी नम फ़ज़ाओं का सुकूतज़ख़्म से महताब के रिसता है किरनों का लहू
क़रीब-ए-आख़िर-ए-शब है मिरे गले लग जाओविदा-ए-शाम-ए-तरब है मिरे गले लग जाओ
मक़ाम-ए-आख़िर-ए-शब से गुज़र रहे हैं आज
कि ऐ फ़िराक़ की रातें गुज़ारने वालोख़ुमार-ए-आख़िर-ए-शब का मिज़ाज कैसा था
आख़िर शबशब-ए-आख़िर ठहरे
बन भी सकती है कभी आख़िर-ए-शब का पैग़ाम
आख़िर शब का गिर्याउस के ताने-बाने का हिस्सा है
शम्अ की लौ ने जब आख़िरी साँस लीआख़िर-ए-शब
ख़ुद को ढूँडते ढूँडते आख़िरशब के ये बे-नाम मुसाफ़िर
अपने ही दिल के शो'लों में जलता रहाआख़िर-ए-शब
और आख़िर शब के कुछ ख़्वाब को जो गँवायावो कम था
एक गागर कमर में लटका करआसमाँ पर चढ़ेगा आख़िर-ए-शब
है आख़िर-ए-शब भी दूर बहुतइस बार सहर के लम्हों से
इतनी फ़सुर्दा कि आख़िर-ए-शबसहर ख़ुद अपना ही चेहरा लहूलुहान कर डाले
दिसम्बर की इकत्तीस और ‘उरूज-ए-माह की वो आख़िर शब थीकहा जाता है
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