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नज़्म
जिस की जाँकाही से टपकाती है अमृत नब्ज़-ए-ताक
जिस के दम से लाला-ओ-गुल बन के इतराती है ख़ाक
जोश मलीहाबादी
नज़्म
जिस के बल-बूते पे इतराती है लैला-ए-ज़मीं
जिस की हैबत से लरज़ जाता है चर्ख़-ए-अम्बरीं
शातिर हकीमी
नज़्म
जब देख के मयख़ाने का समाँ रिंदों की नज़र इतराती है
जब दौर में साग़र होता है जब रक़्स में मीना आती है
सयय्द महमूद हसन क़ैसर अमरोही
नज़्म
मिरी नज़्मों के आईने में ख़ुद को देख कर अपने पे इतराती तो होंगी
मगर मेरी ये मुश्किल है
अमित गोस्वामी
नज़्म
चाँद क्यों रात के पहलू में बुरा लगता है
सुब्ह के साथ पे इतराती हुई बाद-ए-नसीम
ज़हीर मुश्ताक़ राना
नज़्म
अल्फ़ाज़ की इफ़रात होती है
मगर फिर भी, बुलंद आवाज़ पढ़िए तो बहुत ही मो'तबर लगती हैं बातें
गुलज़ार
नज़्म
ये दोशीज़ा जो बाज़ारों से इठलाती गुज़रती थी
लबों की नाज़ुकी जिस की गुलाबों सी बिखरती थी
मंज़र भोपाली
नज़्म
तराने गूँज उठे हैं फ़ज़ा में शादयानों के
हुआ है इत्र-आगीं ज़र्रा ज़र्रा मुस्कुराता है