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नज़्म
चाँद क्यूँ अब्र की उस मैली सी गठरी में छुपा था
उस के छुपते ही अंधेरों के निकल आए थे नाख़ुन
गुलज़ार
नज़्म
गीत गाते हुए ज़ख़्म बुनते हुए ख़्वाब चुनते हुए
दश्त-दर-दश्त जीवन की गठरी उठाए ही चलते रहे