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नज़्म
आइंदा की फ़र्ज़ी इशरत के वादों से न कर बेताब हमें
कहता है ज़माना जिस को ख़ुशी आती है नज़र कमयाब हमें
अख़्तर शीरानी
नज़्म
जिस पर नाज़ है हम को इतना झुकी है अक्सर वही जबीं
कभी कोई सिफ़्ला है आक़ा कभी कोई अब्ला फ़र्ज़ीं
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
क्या ये स्टेज है जिस पर जीवन का नाटक होता है
क्या हम इस बे-नाम ड्रामे के हैं बस फ़र्ज़ी किरदार?
सलाम मछली शहरी
नज़्म
फ़र्ज़ करो हम अहल-ए-वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों
फ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूटी हों अफ़्साने हों
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
जिस ने इस का नाम रखा था जहान-ए-काफ़-अो-नूँ
मैं ने दिखलाया फ़रंगी को मुलूकियत का ख़्वाब