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नज़्म
कितने ही हम से रूप के रसिया आए यहाँ और चल भी दिए
तुम हो कि इतने हुस्न के होते एक न दामन थाम सके
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
अक्सर मेरी ग़ज़लें गा कर मुझे सुनाया करती थी
छाया की रसिया थी वो और छाया रचाया करती थी