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नज़्म
चार-सू राह-ए-सफ़र पर दौड़ती है जब नज़र
ज़िंदगी को कारवाँ-दर-कारवाँ पाता हूँ मैं
सय्यद वहीदुद्दीन सलीम
नज़्म
यूँ कहने को राहें मुल्क-ए-वफ़ा की उजाल गया
इक धुँद मिली जिस राह में पैक-ए-ख़याल गया
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
यही वो मंज़िल-ए-मक़्सूद है कि जिस के लिए
बड़े ही अज़्म से अपने सफ़र पे निकले थे