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नज़्म
जा के होते हैं मसाजिद में सफ़-आरा तो ग़रीब
ज़हमत-ए-रोज़ा जो करते हैं गवारा तो ग़रीब
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
आज क़ासिद को इधर से जो गुज़रते दिखा
मुझ को ऐसा लगा जैसे कि तिरा ख़त आया
विनोद कुमार त्रिपाठी बशर
नज़्म
तुझ से जो मैं ने प्यार किया है तेरे लिए? नहीं अपने लिए
वक़्त की बे-उनवान कहानी कब तक बे-उनवान रहे
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
एक अजीब सा जंगल है इस शहर के बीच उग आया
घना मुहीब और गहरा जिस की ख़ूब घनेरी छाया