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नज़्म
छलक रहे हैं नशात-ए-ख़ुद-आगही के सुबू
चमक रहा है फ़ज़ा में ख़ुलूस का परचम
अफ़सर सीमाबी अहमद नगरी
नज़्म
ये कैसे रंज हैं आलाम हैं ग़म हैं तबाही है
मिरी ख़ुद-आगही के सब्ज़ चश्मे ख़ुश्क से क्यूँ हैं