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नज़्म
कि जिस को सुनते ही हुकूमतों के रंग-ए-रुख़ उड़ें
चपेटें जिन की सरकशों की गर्दनें मरोड़ दें
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
उन जाने वाले दस्तों में ग़ैरत भी गई बरनाई भी
माओं के जवाँ बेटे भी गए बहनों के चहेते भाई भी
साहिर लुधियानवी
नज़्म
वही बा'द-ए-मर्ग की राहतें वही ज़िंदगी की क़बाहतें
वही नफ़रतें वही चाहतें अभी इंक़लाब कहाँ हुआ