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नज़्म
तुम यूँही ज़िद में हुए ख़ाक-ए-दर-ए-मय-ख़ाना
मुझ को ये ज़ोम कि मैं ने तुम्हें टोका कब था
शाज़ तमकनत
नज़्म
तेरी ख़िदमत पर जो बाँधेंगे कमर ऐ ख़ाक-ए-हिंद
होंगे वो तेरे लिए सिल्क-ए-गुहर ऐ ख़ाक-ए-हिंद
सफ़ीर काकोरवी
नज़्म
ख़ाक-ए-पाक-ए-हिंद का गंज-ए-गिराँ-माया था तू
अह्ल-ए-दुनिया के लिए पैग़ाम-ए-हक़ लाया था तू
सुदर्शन कुमार वुग्गल
नज़्म
ख़ुदा से कर चुके हैं जो कलाम वो कलीम अपनी बाज़गश्त छोड़ के चले गए
और ख़ाक-ए-बाज़-गश्त आज
अहमद हमेश
नज़्म
ज़र्रा-ए-ख़ाक-ए-वतन मेहर-ए-दरख़्शाँ है मुझे
वो समझते रहें इंग्लैण्ड का माल अच्छा है