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नज़्म
कहीं मस्जिद को ख़तरा है शिवाले के महंतों से
कहीं है ख़ानकह वालों से देव स्थान को ख़तरा
अहमक़ फफूँदवी
नज़्म
ले के इक चंगेज़ के हाथों से ख़ंजर तोड़ दूँ
ताज पर उस के दमकता है जो पत्थर तोड़ दूँ
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
सिनान ओ गुर्ज़ ओ शमशीर ओ तबर ख़ंजर नहीं लाज़िम
बस इक एहसास लाज़िम है कि हम बुअदैन हैं दोनों