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नज़्म
बे-तेरे क्या वहशत हम को, तुझ बिन कैसा सब्र ओ सुकूँ
तू ही अपना शहर है जानी तू ही अपना सहरा है
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
हाँ देखा कल हम ने उस को देखने का जिसे अरमाँ था
वो जो अपने शहर से आगे क़र्या-ए-बाग़-ओ-बहाराँ था
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
ज़िक्र-ए-मा'बूद-ए-हक़ीक़ी में ज़बान से 'शातिर'
साया-ए-रहमत-ए-ग़फ़्फ़ार गुरु-नानक थे