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नज़्म
ख़ज़ीना हूँ छुपाया मुझ को मुश्त-ए-ख़ाक-ए-सहरा ने
किसी को क्या ख़बर है मैं कहाँ हूँ किस की दौलत हूँ
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
लहद में सो रही है आज बे-शक मुश्त-ए-ख़ाक उस की
मगर गर्म-ए-अमल है जागती है जान-ए-पाक उस की
हफ़ीज़ जालंधरी
नज़्म
तेरी ख़िदमत पर जो बाँधेंगे कमर ऐ ख़ाक-ए-हिंद
होंगे वो तेरे लिए सिल्क-ए-गुहर ऐ ख़ाक-ए-हिंद
सफ़ीर काकोरवी
नज़्म
ऐ ख़ाक-ए-हिंद तेरी अज़्मत में क्या गुमाँ है
दरिया-ए-फ़ैज़-ए-क़ुदरत तेरे लिए रवाँ है
चकबस्त बृज नारायण
नज़्म
ऐ ख़ाक-ए-हिंद तेरी 'अज़्मत में क्या गुमाँ है
दरिया-ए-फ़ैज़-ए-क़ुदरत तेरे लिए रवाँ है
चकबस्त बृज नारायण
नज़्म
बे-तेरे क्या वहशत हम को, तुझ बिन कैसा सब्र ओ सुकूँ
तू ही अपना शहर है जानी तू ही अपना सहरा है
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
क्या लेगा ख़ाक-ए-मुर्दा-ओ-उफ़्तादा बन के तू
तूफ़ान बन कि है तिरी फ़ितरत में इंक़लाब
सय्यद वहीदुद्दीन सलीम
नज़्म
शरफ़ में बढ़ के सुरय्या से मुश्त-ए-ख़ाक उस की
कि हर शरफ़ है इसी दर्ज का दुर-ए-मकनूँ
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
इस बाग़ में कौन सी मुश्त-ए-ख़ाक खुली ख़ुश्बू आज़ाद हुई
बे-बस और सात बहारें और खिज़ाएँ
जावेद अनवर
नज़्म
आप ने फ़ित्ना-ए-जुनूँ आप से आप उठा दिया
हाथ में ले के मुश्त-ए-ख़ाक आप ने दिल बना दिया