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नज़्म
हिजाब-आलूद नज़रों में ज़रा बेबाकियाँ भर दे
लबों की भीगी भीगी सिलवटों को मुज़्महिल कर दे
साहिर लुधियानवी
नज़्म
लहरों की मुँह ज़ोर सिलवटों में नदी बस घोल रही थी
धीमे धीमे मधुर सुरों में शायद कुछ बोल रही थी
तख़्त सिंह
नज़्म
वो सुब्ह-ए-नूर का बोसा तिरी निगाहों से
बहुत से ख़्वाब थे बिस्तर की सिलवटों में छुपे
तसनीम आबिदी
नज़्म
अब अपने बिस्तर की सिलवटों पर बदन को महसूस करते सोचा है
मैं भी दुनिया के उस ईरीना में लड़ रहा हूँ