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बरसो राम धड़ाके से

मोईनुद्दीन  जीनाबड़े

बरसो राम धड़ाके से

मोईनुद्दीन जीनाबड़े

MORE BYमोईनुद्दीन जीनाबड़े

    स्टोरीलाइन

    यह कहानी मुस्लिम समाज के अलग-अलग समुदायों, संप्रदायों और गुटों के बीचे फैले ईर्ष्या, नफ़रत और चिढ़ की दास्तान बयान करती है। वह अपने मुस्लिम दोस्त से सालों बाद मिला था। उस दोस्त से जो देश विभाजन के समय पाकिस्तान चला गया था। शुरू में उन्होंने आपस में बीते दिनों की बातें की थी और फिर राम बाबू ने उसे बताया था कि दस आशूरे को जब उसे घर में दरूद-शरीफ़़ पढ़वाने के लिए मुसमलान की ज़रूरत पड़ी तो उसे सारे शहर में एक भी मुसलमान नहीं मिला।

    बरसू राम धड़ाके से : मोईनुद्दीन जीनाबड़े

    पिछले दिनों हिन्दुस्तान में मेरे मुख़्तसर से क़ियाम के दौरान अचानक ठंडी राम से मुलाक़ात हुई। बरसों बाद ग़ैर मुतवक़्क़े जब वो मुझे मिला तो मैं उससे लिपट गया। उसने भी मुझे भींच लिया, बड़ी देर तक हम एक दूसरे से गुथे रहे, वैसे अगर आप उस वक़्त हम दोनों को देखते तो यही कहते कि ये भरत मिलाप चंद लम्हों का था और आपकी बात कुछ ग़लत भी होती क्योंकि घड़ी की सूइयों के हिसाब से हम चंद सेकंड ही आपस में लिपटे रहे लेकिन वाक़िआ ये है कि हम दोनों उस वक़्त एक दूसरे से मिलने की ख़ुशी में कुछ ऐसे पागल हो गए थे कि वक़्त को नापने वाले इस आले की टिक-टिक हमारे लिए बेमानी हो गई थी।

    जब हम अलग हुए तो ज़रा फ़ासले से हमने एक दूसरे को नज़र भर कर देखा। अब इस उम्र में देखने जैसा क्या रह गया है, फिर भी मेरे बालों की सफ़ेदी उसके बालों से झाँक रही थी और उसकी आँखों की नमी मेरी आँखों में तैर रही थी। मैंने पहली बार जाना कि वक़्त वाक़ई बड़ा सफ़्फ़ाक होता है और पहली बार मुझे एहसास हुआ कि मैं बूढ़ा हो गया हूँ। हम एक दूसरे की सुनने और अपनी सुनाने के लिए अन्दर ही अन्दर छटपटाते रहे। लेकिन पहल दोनों में कोई नहीं कर पा रहा था। दरअसल हुआ ये था कि हमारा रोवाँ रोवाँ बोल रहा था और लफ़्ज़ गूँगे हो गए थे... और जब लफ़्ज़ गूँगे हो जाते हैं तो हर चीज़ को ज़बान मिल जाती है, मुस्कुराहट को भी... मेरी मुस्कुराहट के जवाब में ठंडी ने गर्दन हिलाई और कहा,

    हम लोग तो सच-मुच ही बूढ़े हो गए, राम का नाम ले के, मुझे शरारत सूझी। ये भला कैसे हो जाएगी कि ठंडी मिल जाये और मैं उसके चुटकी लूँ चाहे वो पच्चास बरस बाद ही क्यों मिला हो। मैंने कहा,

    अपने साथ मुझे क्यों बूढ्ढा कह रहे हो बुढ़उ? और तू कोई आज बूढ़ा थोड़े ही हुआ है! तू तो पैदाइशी बूढ़ा है।

    तो मैं पैदाइशी बूढ़ा हूँ राम का नाम ले के, और तू?

    और मैं सदा का जवान हूँ राम का नाम ले के।

    मेरे इस तरह राम का नाम लेने से वो बड़ा महज़ूज़ हुआ। क़हक़हे मार कर हँसने लगा और मुझसे लिपट गया। मैंने भी उसे भींच लिया। अब हम दोनों मिलकर हँस रहे थे और रास्ता चलती भीड़ में से कुछ राहगीर हमारी तरफ़ देखकर मुस्कुरा रहे थे... राम का नाम ले के!

    राम का नाम ले के बचपन ही से ठंडी का तकिया कलाम रहा है। कभी जुमला इस फ़िक़रे से शुरू होता तो कभी इस पर ख़त्म और बाज़-औक़ात जुमले के बीच ही में कहीं जब वो अटकने लगता तो राम का नाम ले के उसे पूरा कर देता। उसकी ये आदत पूरे गाँव के लिए मुस्तक़िल तफ़रीह का बाइस थी। हम उसे राम का नाम ले-ले कर चिढ़ाते थे और छेड़ का मज़ा उस वक़्त दो बाला हो जाता जब वो हमें राम ही का नाम लेकर सलवातें सुनाता। इस पर हम उसे बड़े सख़्त लहजे में टोकते कि अबे राम जी का नाम लेकर गालियाँ बकता है और उसका जवाब उससे बन पड़ता। वो झल्ला जाता और ख़िफ़्फ़त मिटाने के लिए और ऊँची आवाज़ में अपने तकिया कलाम के सहारे हमें बेनुक़्त सुनाने लगता।

    बाज़ औक़ात छेड़-छाड़ में हाथा पाई की नौबत आजाती और कभी-कभार बात इस से भी आगे बढ़ जाती जैसे उस शाम हुआ था जब ठंडी ने राम का नाम ले के एक नोकदार पत्थर उठाया था और निशाना बाँध कर मुझे लहूलुहान कर दिया था। वो बरसात के दिन थे शाम का वक़्त था, ख़ूब घने बादल छाए हुए थे लेकिन बरस नहीं रहे थे और हम सब कोरस में राम जी की दुहाई दे रहे थे।

    बरसू राम धड़ाके से

    बुढ़िया मर गयी फ़ाक़े से

    मुझे ये सवाल हर बार परेशान करता था कि हम दुहाई तो बुढ़िया के मरने की देते हैं लेकिन कहा यही जाता है कि राम जी की दुहाई दे रहे हैं। आख़िर इसकी वजह क्या है? पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगा कि इस सवाल का जवाब ठंडी के पास होगा। अपने सा​िथयों से ज़रा अलग हो कर मैंने ठंडी को अपने पास बुलाया था और वाक़ई बड़ी सन्जीदगी के साथ उसके सामने अपना सवाल रखा था। ये तो मेरे वहम-ओ-गुमान में भी था कि इस सवाल से ठंडी चिड़ जाएगा। मेरा सवाल सुनते ही उसके चेहरे का रंग बदल गया था। उस वक़्त मैं ठंडी को छेड़ने के मूड में हर्गिज़ नहीं था, लेकिन अब ठंडी गर्मी खा चुका था।

    दुहाई चाहे जिसकी देते हों, तुम राम का नाम लिया करो।

    क्यों लें?

    ठंडी के पास कोई माक़ूल वजह नहीं थी, हो भी नहीं सकती थी। लेकिन चुप रहने में बड़ी सुबकी होती इसलिए उसने जो मुँह में आया सो कह दिया।

    तू मुसलमंटा जो है।

    मुसलमान हैं तो क्या राम जी का नाम लें!

    हाँ लें।

    और तू जो मुहर्रम की दसवीं के रोज़ निशान के साथ सबसे आगे आगे चलता है?

    वो तो हम अपने बापू के साथ चलते हैं।

    चलते तो हो।

    हम कोई आज से थोड़े ही चल रहे हैं।

    हम भी कोई आज से थोड़े ही राम का नाम ले रहे हैं।

    जो भी हो तुम राम का नाम लिया करो।

    क्यों?

    कह जो दिया।

    ये क्यों नहीं कहता कि तुझे मिर्चें लगती हैं, राम का नाम ले के।

    मेरा इरादा जैसा कि मैं कह चुका हूँ, उस वक़्त ठंडी से लड़ने झगड़ने का हर्गिज़ नहीं था लेकिन मैं ख़ुद को रोक नहीं सका और मैंने भी वही कह दिया जो मुँह में आया। अगर ये आख़िरी जुमला मेरे मुँह से निकलता तो वो नोकदार पत्थर वहीं सामने ज़मीन पर पड़ा रहता और मेरी दाईं आँख के ऊपर भौं के बालों से झाँकता हुआ ज़ख़्म का जो निशान आप इस वक़्त देख रहे हैं, वो होता... ठंडी की नज़रें उसी निशान पर जमी हुई थीं। उसने मुजरिम की सी काँपती आवाज़ में कहा, मैं समझा था, इन बरसों में राम का नाम ले के ये धुँदला गया होगा। मैंने ठंडी की आँखों में झाँक कर देखा, वहाँ अब भी नमी तैर रही थी और नमी के पीछे बहुत दूर तक उदासियाँ बिछी हुई थीं। मैंने निशान पर ऊँगली फेरते हुए कहा,

    ठंडी तेरा दिया हुआ ये निशान अब मेरी पहचान बन गया है, मेरे पासपोर्ट और तमाम सरकारी काग़ज़ात में इसकी वही अहमियत और हैसियत है जो मेरे नाम और वलदियत की है। इसके बग़ैर मैं, मैं हूँ मेरी तस्वीर मेरी। सरकारी काग़ज़ात से क़त-ए-नज़र अब तो ख़ुद मैं भी इसके बग़ैर अपने होने का तसव्वुर भी नहीं कर सकता। शायद मेरे होने में कहीं कुछ कमी रह गई थी जिसे इस निशान ने पूरा कर दिया है।

    ठंडी ने बुझी बुझी सी आवाज़ में बहुत धीरे से कहा, अपने निशान को तो सँभाल के रखे हो भय्या पर कभी हमारे निशान की भी फ़िक्र की होती, राम का नाम ले के।

    मैं ठंडी से क्या कहता। उसे कैसे समझाता कि जब ज़मीनदारों और जागीरदारों की औलाद को गाँव की ज़मीन बेदख़ल कर देती है तो उन पर क्या गुज़रती है, उन्हें क्या-क्या सहना पड़ता है और वो इन बातों और ऐसे तानों को सहने के लिए कहाँ से जिगर लाते हैं।

    ठंडी मुझे अपने साथ घर ले गया। बड़ा शानदार फ़्लैट था उस का। वहाँ पहुँच कर मालूम हुआ कि उसकी बीवी परलोक सिधार चुकी है। लड़के ने शादी कर ली है। बहू सुघड़ और ख़ुश-अख़्लाक़ है लेकिन सास से उसकी निभ सकी। ठंडी ने बीवी को समझाने की बहुत कोशिश की। यहाँ तक कह दिया कि ये ग़रीब सिर्फ़ मुसलमान के घर पैदा होने की गुनहगार है वर्ना तो उसे राम का नाम ले के कलमे याद हैं क़ुरआन की आयतें।

    उसकी बीवी गँवार थी लेकिन उसने दुनिया देखी थी। वो बस एक ही बात कहती रही कि इस लड़की के पहनने-ओढ़ने और उठने-बैठने से ज़ाहिर नहीं होता कि ये किस मज़हब और कैसे घर की है। ठंडी ने लाख उससे कहा कि आजकल का ढँग ही ये है। इन बातों को अब बुरा नहीं समझा जाता लेकिन उसकी बीवी टस से मस हुई, दूसरे चाहे इन बातों को बुरा समझते हों। उसके नज़दीक यही बातें अधर्मी होने के लक्षण थे... वर्ना इतनी बात तो वो भी समझती थी कि मुसलमान होना कोई पाप नहीं। मन मार कर लड़के की पसन्द को वो भी पसन्द कर लेती पर मुश्किल ये थी कि लड़की ढँग की मुसलमान भी नहीं थी और बुढ़ापे में अधर्मियों की संगत के ख़याल ही से उसकी रूह काँपने लगती।

    ठंडी ने चाय के लिए बहू को आवाज़ दी और मुझसे कहा,

    मुसलमान तो ख़ैर बड़ी चीज़ होता है। राम का नाम ले के हमने मुसलमान देखे हैं। अब तो ढँग का आदमी ही पैदा नहीं होता।

    ठंडी की बहू ने आकर मुझे हलो कहा और ज़रा तवक़्क़ुफ़ के बाद अंकल का इज़ाफ़ा भी कर दिया। फिर उसने ख़बर दी कि ड्राईवर होटल गया है। ज़रा सी देर में मेरा सामान लेकर आजाएगा। उसने मुझसे मेरे ख़ुर्द-ओ-नोश के मामूलात दर्याफ़्त किए। ये भी पूछा कि गाँठ फ़ार्बिड ज़ियाब्तीस या दिल के मर्ज़ जैसे किसी आरिज़े की वजह से परहेज़ी खाना तो नहीं खाता। मैंने जब उसकी तरफ़ देखा तो बस देखता ही रह गया। उसके लब-ओ-लहजे और नाक नक़्शे ने मुझे मेरी बेटी की याद दिला दी थी। अब ये कहना तो मुश्किल है कि मेरी बेटी और ठंडी की बहू में वाक़ई बड़ी मुशा​िबहत थी या मेरे अन्दर के किसी जज़्बे ने अपने तौर पर दोनों को एक रूप में ढाल दिया था। लेकिन ये सच है कि ढूँढने से मुझे दोनों के चेहरे-मोहरे और रंग-ढँग में कोई ख़ास फ़र्क़ नज़र नहीं आर हा था, सिवाए इसके कि मेरी बेटी ने जिस ब्वॉय फ़्रैंड से शादी की वो इत्तिफ़ाक़ से मुसलमान है।

    मैंने ठंडी की बहू से कहा कि वो मेरे लिए कोई ख़ास ज़हमत उठाए बस इस बात का ख़याल रखे कि मैं ज़ियाब्तीस का मरीज़ हूँ। इस पर उसने इत्मिनान का साँस लिया और ये कहती हुई किचन की तरफ़ चली गई कि हमारे यहाँ वैसे भी शक्कर इस्तिमाल नहीं की जाती। मैंने सवालिया नज़रों से ठंडी की तरफ़ देखा। उसने अपने डाइबेटिक होने या होने के तअल्लुक़ से कुछ कहना ज़रूरी नहीं समझा और मुझे ये मुनासिब नहीं मालूम हुआ कि मैं उसे इस तअल्लुक़ से कुछ कहने पर मजबूर करूँ। दरअसल अपनी बीवी को याद करके ठंडी बहुत जज़्बाती हो गया था।

    आज जैसे तू इत्तिफ़ाक़ से मुझे मिल गया वैसे ही चार-छः महीने पहले मिल जाता तो कितना अच्छा होता।

    क्यों?

    मैं तुझे अरूण की माँ से मिलवाता। वो बेचारी किसी ढँग के मुसलमान से मिलने की हसरत अपने साथ ले गई। मैं तो ये समझता हूँ कि अगर उसकी ये हसरत पूरी हो जाती तो राम का नाम ले के वो कुछ बरस और जी लेती।

    मैंने ख़ुश-तबई का मुज़ा​िहरा करते हुए कहा,

    मुझसे मिलकर किसी की हसरत क्या पूरी होती। मैं तो बेढब आदमी हूँ। तू ये बता तुझे बड़े शहर में एक मुसलमान नहीं मिला?

    मिल जाता तो बात ही क्या थी?

    और जो ये तेरे पड़ोस के मुहल्ले में मस्जिद है?

    मस्जिद तो है, मैं वहाँ गया भी था। मस्जिद के दरवाज़े पर ही ब-हुक्म-ए-अराकीन-ए-मस्जिद-ए-हाज़ा राम का नाम ले के एक अहम ऐलान टँगा हुआ देखा।

    नमाज़ी हज़रात को मालूम हो इस मस्जिद के अराकीन, इमाम, मोअज़्ज़िन अहल-ए-सुन्नत, जमात हैं और हनफ़ी मसलक पर ही नमाज़ अदा की जाती है जो ऐन क़ुरआन और अहादीस के मुताबिक़ है। लिहाज़ा उन हज़रात से अदब के साथ अर्ज़ है जो लोग आमीन बुलन्द आवाज़ से कहते हैं और तकबीर से पहले या शुरू होते ही खड़े हो जाते हैं, वो मसलक हनफ़ी की ख़िलाफ़वर्ज़ी कर के फ़ित्ना पैदा करें वर्ना उसकी ज़िम्मेदारी उन्हीं के सर होगी।

    ठंडी ने मुझे बताया कि ये ऐलान पढ़ने के बाद अन्दर जाने या बाहर ही किसी से बात करने की हिम्मत वो नहीं जुटा पाया। जहाँ मसलक के फ़र्क़ से फ़ित्ने उठ खड़े हो सकते हैं वहाँ मज़हब का फ़र्क़ जो करे वो कम है! और फिर ठंडी डरा हुआ भी था। दिसंबर और उसके बाद जनवरी के फ़साद की हौलनाकियाँ उसके हवास पर छाई हुई थीं... पुलिस की मदद बल्कि उसकी सरपरस्ती में मुसलमानों का क़त्ल-ए-आम हुआ था और फ़साद के बाद ठंडी जैसे बेक़सूर और मासूम हिन्दू मुसलमानों के मुहल्लों से गुज़रने से कतराते थे। ब-हालत-ए-मजबूरी अगर उनका वहाँ से गुज़र होता तो ​िनदामत के बोझ से उनकी गर्दनें झुकी हुई होती थीं और दिल में ये धड़का भी लगा रहता था कि कहीं कोई शोहदा गली में खींच कर काम ही तमाम कर दे।

    ठंडी वहाँ से उल्टे पैरों लौट आया। उस इलाक़े में ज़रा फ़ासले पर एक मस्जिद और है। नाके से बाएँ मुड़कर बीस क़दम चलें तो मार्कीट के सामने की गली में पड़ती है। अस्र और मग़रिब के बीच का वक़्त था। अस्र के नमाज़ी जा चुके थे। मग़रिब के नमाज़ी अभी आए नहीं थे। ठंडी ने बाहर ही से बग़ौर जायज़ा लिया। अराकीन-ए-मस्जिद के हक़ में दिल से दुआ निकली कि उन्होंने दरवाज़े पर कोई बोर्ड नहीं टाँग रखा था। ठंडी ने सर पर रूमाल बाँधा और राम का नाम लेकर मस्जिद में क़दम रखा।

    अन्दर दाएँ जानिब कोने में एक बा-रीश शख़्स चंद नौजवानों को दीन के अरकान याद करवा रहा था। लड़कों से फ़ारिग़ हो कर वो ठंडी की तरफ़ मुतवज्जा हुआ। ठंडी के सलाम का जवाब देकर उसने मुसाफ़े के लिए अपना हाथ बढ़ाया। उसके हाथ को अपने हाथों में लेते हुए ठंडी ने अपना तआरुफ़ पेश किया। नाम सुनकर बा​िरश शख़्स उसके साथ बड़ी गर्मजोशी से पेश आया। वहीं मस्जिद के दाएँ कोने में पंखे के नीचे बैठ कर दोनों बातें करने लगे। उन्होंने बाबरी मस्जिद की शहादत पर एक दूसरे को पुर्सा दिया। समाज में फैल रही लामज़हबियत पर तन्क़ीद की। जब ये सब हो चुका तो ठंडी ने बड़ी उम्मीद के साथ अपने आने का मक़सद बयान किया।

    ठंडी ने उससे कहा कि भाई हम मुसलमान हैं हुसैनी, ब्रहमन, लेकिन हम लोग हज़रत इमाम हुसैन के पुश्तैनी अक़ीदतमन्द हैं। आज आशूरे का दिन है। मेरे घर में मीठा पका है। मैं किसी दीनदार मुसलमान की तलाश में हूँ कि उससे फ़ातिहा पढ़वाऊँ। अगर आप मेरी मदद करें तो बड़ी मेहरबानी होगी।

    उस शख़्स ने ठंडी की मदद नहीं की। फ़ातिहा का नाम सुनकर उसकी गर्मजोशी की जगह सर्दमेहरी ने ले ली। ठंडी ताड़ गया कि ये मस्जिद उन मुसलमानों की है जिनकी वजह से अब गाँव में ताज़ीए नहीं रखे जाते और मुहर्रम का जलूस निकलता है। निशान की मस्जिद अब सिर्फ़ नाम ही की निशान की मस्जिद रह गई है। मस्जिद के जिस कमरे में ज़रीह और अलम रखे जाते थे पिछले दस बरसों से उसके दरवाज़े पर एक बड़ा सा ताला झूल रहा है। ठंडी के इस इन्किशाफ़ ने मेरा कलेजा छलनी कर दिया कि चाचा बिलायती राम पर दिल का दौरा और उस दरवाज़े पर ताला दोनों एक साथ पड़े थे।

    ठंडी के वालिद बिलायती राम वल्द शालिग्राम की गाँव में नून-मिर्च की दुकान थी। दुकानदारी के साथ थोड़ी बहुत साहूकारी भी कर लिया करते थे। कारोबारी हिस बहुत तेज़ थी और ख़ुश मिज़ाज भी बहुत थे। बिदेसी माल के बाईकॉट के दिनों में वो अपने नाम की वजह से अच्छा ख़ासा मज़ाक़ बन कर रह गए थे। यार-दोस्त तो यार-दोस्त गाँव के बच्चों तक ने उन्हें बख़्शा था। पहले कोई उन्हें चाचा जी बुलाता तो कोई चाचा बिलायती राम। लेकिन अब वो हर एक के लिए बिलायती चाचा हो गए थे। जब कोई लौंडा उन्हें बिलायती चाचा बुलाता तो वो चमक कर जवाब देते, बोल देसी भतीजे!

    इस ख़याल से कि कहीं इस हँसी-मज़ाक़ का असर उनकी दुकानदारी पर पड़े, चाचा बिलायती राम ने अपनी दुकान पर जिस पर पहले कभी किसी ने कोई साइनबोर्ड नहीं देखा था, एक तख़्ता टाँग दिया। उस तख़्ते पर जली हर्फ़ों में लिखा था, ख़ालिस और सिर्फ़ देसी माल की दुकान। मालिक फ़र्ज़ंद-ए-शालिग्राम मरहूम

    अब तो फ़र्ज़ंद शालिग्राम मरहूम ख़ुद मरहूम हो चुके हैं। हुआ ये कि सरयू के किनारे मस्जिद की शहादत के बाद मुल्क भर में मुसलमानों को क़त्ल करने और उनकी इम्लाक लूटने या जलाने का एक सिलसिला सा चल पड़ा। बाज़ जगहों पर उनकी इबादतगाहों को मिस्मार करने की कोशिशें भी हुईं। ऐसी कुछ कोशिशें कामयाबी से हम-कनार हुईं और कुछ कामयाबी से हम-कनार होने पाईं... निशान की मस्जिद के मीनार एक ऐसी ही नाकाम कोशिश के गवाह हैं।

    हुजूम ने चाचा बिलायती राम से बहुत कहा कि वो एक बेगुनाह हिन्दू की हत्या का पाप अपने सर लेना नहीं चाहता लिहाज़ा वो उसके रास्ते से हट जाएँ लेकिन चाचा बिलायती राम बस यही कहते रहे कि मेरे जीते जी आप लोग निशान की मस्जिद तक नहीं पहुँच सकते। इस तकरार में ख़ासा वक़्त निकल गया। आख़िरकार मजबूर हो कर उन लोगों ने चाचा बिलायती राम को रौंदते हुए अपनी राह बनाई।

    इस दौरान मुसलमानों को इतना वक़्त ज़रूर मिल गया कि वो मस्जिद के दिफ़ा के लिए सफ़-आरा हो सकें। उनके मुक़ाबले पर उतर आने की देर थी कि हुजूम तितर बितर हो गया। अब हुजूम की जगह पुलिस ने ले ली। तर्बीयत याफ़्ता पुलिस जवानों ने लाठी और बल्लम बर्दार मुसलमानों पर वो अंधा धुंद गोलियाँ बरसाईं कि कुश्तों के पुश्ते लग गए। नमाज़ियों का हौज़ ख़ून से भर गया और शाम की शफ़क़ मस्जिद के दर-ओ-दीवार से लिपट कर रोने लगी!

    बचे खुचे मुसलमानों को पुलिस ने बलवा करने और बिलायती राम वल्द शालिग्राम के क़त्ल के इल्ज़ाम में गिरफ़्तार कर लिया और फाईल क़ानूनी कार्रवाई के लिए आगे बढ़ा दी। वो तो कहीए कि चाचा बिलायती राम ने दस बरस क़ब्ल ही जब उन पर दिल का दौरा पड़ा था बंबई से ठंडी को बुलवाकर वसीयत कर दी थी वर्ना उनकी ज़िन्दगी के साथ ही सब कुछ ख़त्म हो गया होता। ठंडी को उनका एक एक लफ़्ज़ आज भी याद है। उन्होंने कहा था,

    बेटा! हम इमाम हुसैन के ग़म के अमीन हैं। ये हमारे पुरखों की विरासत है। हज़रत इमाम हुसैन की अज़मत पर मुट्ठी भर लोगों का इजारा नहीं हो सकता। इस ग़म को सहारने के लिए पहाड़ जितना बड़ा कलेजा चाहिए। हर किसी के बस की ये बात है भी नहीं। ऐसे लोगों की हरकत का क्या बुरा मानना जो इस ग़म की अज़मत को समझ सके। मैं आख़िरी साँस तक अपने धर्म का पालन करूँगा। मेरे बाद मुझे यक़ीन है तुम अपना पुत्र धर्म निभाओगे लेकिन एक बात की ताकीद ज़रूर करना चाहूँगा। फ़ातिहा के लिए किसी दीन-दार मुसलमान को ही बुलाना। ज़रा सा वक़्फ़ा देकर उन्होंने कहा था,परेशान क्यों होता है, ढूँढने से ख़ुदा भी मिल जाता है।

    इस साल बंबई में आशूरा जून की आख़िरी तारीख़ या जुलाई की पहली को पड़ा था और उससे पहले आठ दिसंबर के रोज़ ठंडी गाँव के शमशान से फूल चूम कर लौटा था। वो ये सोच कर हैरान रह गया कि इन छः महीनों के अर्से में इतना वक़्त गुज़र गया था कि दीनदार मुसलमान की तलाश में उसे ख़ुदा याद गया!

    ठंडी की बीवी बड़ी मज़हबी औरत थी। उसने ज़िन्दगी में कभी ठाकुर जी को भोग लगाए बग़ैर एक दाना मुँह में नहीं रखा था। उसे अपनी सेवा और श्रद्धा पर बड़ा विश्वास था। वो नियाज़ का बर्तन लिए तमाम रात बैठी यही मनाती रही कि इश्वर चाहे उस के प्राण ले लें पर ऐसा कुछ करें कि हम अपने अज्दाद की रूहों के सामने शर्मसार और गुनहगार होने से बच जाएँ। रात आँखों में ही कट गई। बर्तन रखा रह गया और पड़ोस के मुहल्ले से मोअज़्ज़िन ने अज़ान दी!

    चाचा बिलायती राम ने कहा था ढूँढने से ख़ुदा भी मिल जाता है तो फिर ठंडी को मुसलमान क्यों नहीं मिला?अब ठंडी किस से कहे कि ख़ुदा किसी भी जगह मिल सकता है क्योंकि वो हर जगह है लेकिन दीनदार मुसलमान का हर जगह पाया जाना शर्त नहीं, वो तो वहीं मिलेगा जहाँ होगा। पता नहीं इतनी बड़ी दुनिया में वो कहाँ है?

    ठंडी के नज़दीक बंबई कुछ ऐसा बुरा शहर नहीं है मगर वहाँ के मुसलमान को आसमान पर ढूँढने से चाँद नहीं मिलता और क़मरी महीने की तारीखें राम का नाम लेकर बढ़ती जाती हैं। उस का कहना है कि ऐसे शहर से कोई क्या उम्मीद रखे जो गुज़श्ता कई बरसों से एक शरई गवाह फ़राहम कर सका। क्या शहर में एक भी ऐसा शरा का पाबन्द मुसलमान नहीं रहा, जिसकी बीनाई सलामत हो और अगर है तो क्या वजह है कि बंबई के मुसलमानों के नज़दीक उस की शहादत काबिल-ए-क़ुबूल नहीं!

    ये नहीं कि ठंडी के दोस्तों में कोई मुसलमान नहीं है। बहुत हैं। सब के सब बड़ी ख़ूबीयों के मालिक हैं और तक़्‍रीबन हर एक के बारे में वो यक़ीन-ए-कामिल के साथ कह सकता है कि उन्होंने कभी ज़िन्दगी में ईदैन की नमाज़ नाग़ा नहीं की लेकिन मुसलमान और दीनदार मुसलमान में बड़ा फ़र्क़ होता है वही फ़र्क़ जो ज़मीन और आसमान में है, या फिर वो फ़र्क़ जो बसारत और बसीरत में है!

    क़िस्सा मुख़्तसर ये कि इस आशूरे के दिन बंबई में वो सब कुछ हुआ जो हर साल होता आया है लेकिन ठंडी के यहाँ फ़ातिहा हो सकी। ठंडी की बीवी इस सदमे को झेल नहीं पाई और दो-चार महीनों में वो ग़रीब परलोक ​िसधार गई। ठंडी भी बुझ सा गया। उस दिन के बाद ठंडी के घर में मीठा नहीं पका। मैंने ठंडी को ये कहते हुए सुना कि यहाँ के शकर में अब मिठास बाक़ी नहीं रही। ठंडी ने कहा था,

    अब हमारी ज़िन्दगी में रस है जस,बस जिए जा रहे हैं। जी भी क्या रहे हैं बैठे थूक निगल रहे हैं। जब शकर ही से मिठास निकल जाये तो ज़िन्दगी में क्या रह जाता है। तू मेरा एक काम कर, वहाँ मम्लकत-ए-ख़ुदादाद में अगर शकर जैसी शकर मिलती है तो मेरे लिए भेज देना। मरने के बाद मुझे अपनी पुरखों की रूहों का सामना करना है!

    ठंडी अपनी पुरखों की रूहों का जब सामना करेगा तब करेगा मैं इस ज़िन्दगी में दुबारा ठंडी का सामना करने का हौसला अपने अन्दर नहीं पाता। मैं पाकिस्तान का शहरी और कराची का बाशिन्दा ज़रूर हूँ लेकिन जैसा कि आप जानते हैं ज़ियाबत्तीस का पुराना मरीज़ हूँ मुझे शकर का ज़ायक़ा तक याद नहीं रहा और दूसरे जिस चीज़ को शकर क़रार देते हैं उसे शकर क़ुबूल करने में मुझे तअम्मुल है ये शहर जो रोज़ाना टनों के हिसाब से शकर खा जाता है अगर वाक़ई श​कर खाता रहा है तो यूँ दिन रात ज़हर उगलता।

    कुछ दिन हुए नाशते की मेज़ पर सब जमा थे। मस्जिद में नमाज़ियों को गोलीयों से भून डालने के वाक़ेए पर बहस हो रही थी। मेरी बीवी, बेटे, बहू हत्ता कि पोते और पोती के पास भी इस वाक़ेए पर कहने के लिए बहुत कुछ था। रात मैंने दो एक पैग ज़ियादा ही पी लिए थे, कसल-मन्दी सी छाई हुई थी इसलिए बड़ी देर तक ख़ामोश बैठा सबकी सुनता रहा, यहाँ तक कि ख़ुद मुझे अपना सुकूत अखरने लगा। अभी मैं बहस में हिस्सा लेने का इरादा कर ही रहा था कि पता नहीं कैसे मेरे मुँह से निकल गया। आप लोग नमाज़ियों की शहादत को रो रहे हैं अब तो बंबई में जो हो सो कम है। घरवालों ने मुझे तक़्‍रीबन पुचकारते हुए समझाया कि ये वाक़िआ कराची का है बंबई का नहीं और फिर मैंने अपने आपको ये कहते हुए सुना क्या फ़र्क़ पड़ता है, बंबई में हुआ कराची में हो गया। यहाँ के भी तो कई वाक़ेए यहाँ हो कर वहाँ हो चुके हैं।

    मेरी इस क़िस्म की बहकी बहकी बातों के घर वाले आदी हो चुके हैं बिल्कुल उसी तरह जिस तरह बंबई वाले बंबई के और कराची वाले कराची के आदी हो गए हैं!

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