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बेड़ियाँ

इस्मत चुग़ताई

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MORE BYइस्मत चुग़ताई

    स्टोरीलाइन

    ज़िंदगी चाहे कितनी ही ख़ुशगवार क्यों न हो, कोई एक लम्हा ऐसा आता है कि सब कुछ बिखेर कर रख देता है। घर वालों के ताने-तश्ने सुनने के बाद भी वह अपने शौहर के साथ काफ़ी ख़ुश थी। हर मुसीबत और मुश्किल से निकल कर जब वह उसकी बाँहों के घेरे में जाकर गिरती तो उसे लगता है कि वह किसी जन्नत में आ गई। इसी जन्नत के घेरे में पड़े-पड़े उसने एक रात ऐसा ख़्वाब देखा कि उस ख़्वाब के ख़ौफ़ ने उसकी पूरी दुनिया को ही बदल दिया।

    “तो ये है तुम्हारी क़ब्र आपा... लाहौल-व-ला-क़ुव्वत...” वहीद ने अच्छा भला लंबा सिगरेट फेंक कर दूसरा सुलगा लिया। कोई और वक़्त होता तो जमीला उससे बुरी तरह लड़ती उसे यही बुरा लगता था कि सिगरेट सुलगाली जाये और पी ना जाये बल्कि बातें की जाएं। जब सुलगाई है तो पियो। धुआँ बनाकर उड़ा देने से फ़ायदा। मुफ़्त की तो आती नहीं। मगर उस वक़्त वो हंसी को दबाने में ऐसी मशग़ूल थीं कि घरेलू इक़तिसादीयात का बिलकुल ध्यान ना रहा।

    “ऊई अल्लाह... कुबरा आपा सुन लें तो...”

    “हमारी बला से, सुन लें... च्च च्च... सरासर धोका... ज’अल यानी हम यहां प्यारी सी चटाख़ चटाख़ साली के तख़य्युल में घुल रहे हैं। यार दोस्तों को अधमरा कर दिया है... रश्क के मारे, हटाओ भी निरी वो हो तुम।”

    “तो... क्या आप समझते थे, मैं सच-मुच उन्हें हसीन कहती थी। यूंही ज़रा आपको छेड़ने को कह दिया था। हुंह, बड़े आए वहां से जैसे मेरी बहनें टकेहाईआं हैं जो तुमसे ठिटोल करने ही तो जाएँगी यहां।”

    “अरे तो क्या हर्ज है ठिटोल में... खा तो नहीं जाऊँगा बाबा... ऐसा तुमने क्या निगल लिया जो... तुम्हारी इन क़ब्र...”

    “होश में ज़रा... इतराए ही चले जा रहे हैं।”

    “तो फिर क्यों दिया धोका।”

    “किस कम्बख़्त ने धोका दिया आपको? जमीला बनी। हालाँकि ख़ूब जानती थी।”

    “अरे हम समझते थे चली रही होगी रस-गुल्ले जैसी मीठी कोई मुन्नी सी साली...”

    “चुप रहो जी... हुंह... तो क्या बुराई है उन में...”

    “किस में? क़ब्र में आपा हैं? कोई नहीं बेहतरीन, जितनी क़ब्र हैं... ऐसी कि बस देखते ही मर जाने को जी चाहे। क़ब्र की आग़ोश में... वाह।”

    “मैं कहती हूँ क्या ऐब है। ऐसी कतारा जैसी नाक... इतना सुबुक दहाना... हाँ आँखें ना बहुत अच्छी हैं और ना बहुत बुरी। मगर नाक नक़्शा तो...”

    “यहां नाक नक़्शा कौन कम्बख़्त नाप रहा है... और किस कम्बख़्त ने तुमसे कहा कि हमें कतारा जैसी नाक चाहिए। हम कहते हैं औरत के चेहरे पर नाक की ज़रूरत ही नहीं। बेकार में हारिज होती है।”

    “तौबा कैसे बुरे हैं आप?”

    “और किया? यही तो तुम में ख़ूबी है कि नाक...”

    “ओई ये चुइयाँ जैसी नाक कम्बख़्त... मेरी नाक भी कोई नाक है।”

    “बस ठीक है, और नहीं तो क्या फावड़े बराबर होती। मगर बाबा ये तुम्हारी बेचारी बहन... हमें तो... सफ़ा बात है कुछ...”

    “हटीए... बड़े आए बेचा कहने वाले...”

    “सूखी हड़, च्च तौबा... हमें तो...”

    “क्या?” जमीला शौक़ से आगे झुक गई।

    “यही... कि क्या हो गया इन बेचारी को? मा’लूम होता है पड़े पड़े दीमक लग गई।”

    “च्च... कोई नहीं। सेहत अच्छी नहीं रहती। रंगत जल गई। रंग ऐसा अनार का दाना था कि क्या बताऊं।”

    “अजी कभी होगा अगले वक़्तों में... अब तो बस निरी क़ब्र रह गई हैं और वो भी घुनी घुनाई...”

    “तो कोई ऐसी ज़्यादे उम्र थोड़ी है...”

    “ना होगी मगर मा’लूम होता है डाल में लटके-लटके निचुड़ गईं। कोयल ने ठोंग मार दी शायद।”

    “हाय अल्लाह... चुप रहिए... क्या गंदी ज़बान है कम्बख़्त!”

    “मैं कहता हूँ एक सिरे से औरत ही नहीं...”

    “ईं...? वाह... अ...”

    “हाँ... शर्त बदलो, आओ... हीजड़ा हैं... तुम्हारा कुबरा आपा...”

    “हाय तौबा... आप नहीं माँगेंगे।”

    “ख़ुदा क़सम... सच कहता हूँ, सूंघ के बता सकता हूँ कि...”

    “मैं नहीं सुनती... में नहीं...” जमीला कानों में उंगलियाँ डाल कर चिल्लाने लगी।

    “सच... क़ब्र हैं पूरी... और हमें क़ब्र से डर लगता है...”

    “मैं रो दूँगी कहने।” से पहले ही जमीला ने मोटे मोटे आँसू बहाना शुरू किए।

    “अरे रे रे ... रो दीं... अच्छा नहीं नहीं... हमारी जम्मो... पुच्च... हमारी जम्मो बिटिया...”

    “फिर-फिर आपने मुझे बेटी कहा। पता है ये गाली है,” जमीला आँसूओं की लड़ियाँ बिखेरती हुई दहशत-ज़दा हो कर चिल्लाई।

    “ईं? गाली... कैसी गाली... बिटिया नहीं बेटा सही... क्यों बेटा तो पसंद है... बेटा चाहिए?”

    “हाय अल्लाह मैं...”

    “रो दूँगी...” वहीद ने नक़्ल की।

    “मज़ाक़ की हद होती है एक, कितनी दफ़ा कह चुकी हूँ कि निकाह टूट जाता है बेटी,माँ या बहन कह देने से।”

    “अरे...? ये बात है और तुमने हमें पहले से बताया भी नहीं।” वहीद फ़िक्रमंद हो गया। “अब फिर से निकाह करना होगा... चलो... चलो उट्ठो।”

    “मैं... मैं तो मर जाऊँ अल्लाह करे... नहीं जाती... हटीए।”

    “अच्छा तो फिर यहीं सही...”

    “हाय!” उचक कर जमीला भागी। इससे क़ब्ल कि वहीद उठे वो चबूतरे पर से धम से कूद बावर्ची-ख़ाने में जा चौकी पर फसकड़ा मार कर गई।

    “है है नहीं सुनती नेक-बख़्त... किधर सर पेट के निकल जाऊं मेरे अल्लाह?” मुल्लानी बी ने सरौता छोड़कर पूरी ताक़त से माथे पर हथेली मारी। परेशान बाल, काँधों पर दुपट्टा फैला, जैसे अलगनी पर सुखाने के लिए डाल दिया हो। गाल दहकते, आँखें आँसूओं में नहाती मगर होंट मुस्कुराहट में मचलते हुए... जमीला ने लापरवाई से चिमटा उठाकर चूल्हे की राख बिखेर दी। जलन थी उसे मुल्लानी बी की लेकचर-बाज़ी से। जिधर जाओ नसीहतों की पोटलियाँ साथ, सारे घर की ज़नानी पौद की ख़ुदाए मजाज़ी समझो। जब तक ज़च्चा की पट्टी पर पेट पकड़ कर ना बैठें तो नई रूह की मजाल नहीं जो दुनिया में पर भी मार सके। कुँवारी ब्याही सब ही के मरहले चुटकियों में तै करा देतीं। मुम्किन नहीं जो कोई केस बिगड़ जाये... लड़की बालियों को इशारे किनाया से बहुओं के घूँघट में मुँह डाल कर अपना सबक़ पढ़ा ही देतीं। जूँ ही कोई उम्मीद से होती। मुल्लानी बी उस के गिर्द घेरा डाल पंजे गाड़ कर बैठ जातीं।

    “है है बन्नो... दुल्हन... अल्लाह का वास्ता ये जहाज़ का जहाज़ पलंग घसीट रही हो और जो कुछ दुश्मनों को हो गया तो... सहज-सहज मेरी लाडली, कितनी दफ़ा कहा कुँवारी ब्याही एक समाँ नहीं। बन्नो वो दौलतियाँ उछालने के दिन गए... बेटी जान पंडा सँभाल के चटख़ा घड़ा समझो, ठेस लगी और लेने के देने पड़ जाएंगे।”

    मगर जितने-जितने फेरे लगाए जाते, उतने ही चटख़े घड़ों की दराड़ें चौड़ी होती जातीं। आज उस के पेच ढीले तो कल उस की कीलें ख़राब। आज एक के नले ऐंठे तो कल दूसरी की नाफ़ ग़ायब तौबा क्या घिनौनी चिप-चिपाती ज़िंदगी है कि आए दिन कोठड़ियों में तेल कड़कड़ाए जा रहे हैं। बसांदी छचाँदी चीज़ें जल रही हैं। मालिशों के घूंसे चल रहे हैं, लेप बंध रहे हैं। क्या कम्बख़्त औरतों के मर्ज़ भी... मगर मर्दों को कौन से कम रोग लगे हैं? ना बच्चे जनें,ना ख़ून चुसाएं, फिर अल्लाह मारे क्यों रिंझे जाते हैं। एक से एक लाजवाब बीमारी। पटे पड़े हैं दवा ख़ाने... दवाओं से कैसा जी कुढ़ता है मगर जमीला को बैर था। मुल्लानी बी से कंवार पने में तो ख़ैर उसने सुना ही नहीं उस का कहना मगर यहां भी अम्माँ-जान ने लाडली की जान को रोग की तरह लगा दिया था, कम्बख़्त उठते बैठते कचोके ही देतीं मगर वो उन्हें जलाने को धमा-धम कूदती। एक सपाटे में ज़ीने से इतराती, ख़ूब अहाते में साईकल चलाती। रस्सी फलांगती और मुल्लानी बी सीना-कोब लेतीं। वहीद से शिकायत करतीं...। वो और शह देता है और जब एक महाज़ पर उन्हें शिकस्त हो जाती तो दूसरी तरफ़ रुख़ करके हमला करतीं। ये उनकी आदत थी।

    “अरे बन्नो यही तो दिन हैं ओढ़ने पहनने के... कब सुनो हो तुम...” वो समझातीं।

    “भई हमारा जी बोलता है...” किस क़दर जाहिल थीं मुल्लानी बी... भला जब तक गाल चिकने हों और बाहें गुद-गुदी हों तो हिमाक़त है ज़ेवर लादना। ये लीपा-पोती तो जब ज़रूरी होती है जब इमारत ज़रा दो-चार बरसातें झेल कर कुछ इधर से टपकने लगे कुछ इधर से झुक जाये मगर मुल्लानी बी कब मानती थीं। उनका फ़लसफ़ा ही दूसरा था। चूने से पहले ही क्यों ना छाल लगा दो बर्तन में! अक़लमंदी!

    “ए बेगम दम बोलाता है! कोई तुम ही निराली तो हो नहीं... ख़ैर हमारा क्या आप ही तरसोगी।”

    “क्यों तरसूँगी। जब जी चाहेगा पहन लूँगी।”

    “अरे चांद मेरे जब बेड़िया पड़ जाएंगी तो फिर जी भी ना चाहेगा।”

    “बेड़ियाँ?”

    “हाँ और किया। बेड़ियाँ ही होवें हैं... अब अल्लाह रखे, गू-मूत करोगी कि गहना-पाता करोगी।

    तौबा! क्या ज़बान है मुल्लानी बी की जैसे कीचड़ भरी नाली। और साथ-साथ क्या लफंगों जैसी आँखें बनाती थीं कि अच्छा भला इन्सान झेंप कर रह जाये। उठते बैठते बस यही एक दुआ थी। अल्लाह गोद हरी-भरी रखे बेटा हो। गोद भरते वक़्त जो समधनों ने उसे दूधों नहाते और पूतों फलने की दुआ देना शुरू की तो ये दिन हो गया... किसी सलाम का जवाब ढंग का नहीं मिलता। वही मुर्ग़े की एक टांग। झटपट बच्चा दो।

    सांस लेना दुश्वार है। उधर सेहरे के फूल खुले और इधर खटाक से फल लगा और फिर जो लगी आम के पेड़ जैसी फलवार, कभी बोर, कभी आमियाँ और कभी पतझड़।

    वो एक झपाके से वहां से भागी... और सहम कर वहीद की आग़ोश में छुप गई। वो उस का तरफ़-दार था। शादी करता है इन्सान शौहर के लिए, वरना बच्चे तो वैसे भी मिल सकते हैं और फिर यूं भी जब चाहो, जब इन्सान ही क्या कुत्ते, बिल्ली, बंदर जिसके बच्चे को चाहो दुम के साथ लगालो। दमा बन जाएगा और फिर यही चंद महीनों की बात होती तो और बात थी। वहां तो सारी उम्र के रट्टे-घिस्से और धूनियाँ लो, और ऊपर से पिल्ले की प्याओं-प्याओं।

    अंधेरे में उसने आँखें फाड़-फाड़ कर रास्ता ढूंढना चाहा मगर चकरा कर गिर पड़ी। वो कानों तक धुनकी हुई रूई के रेशों बराबर इन्सानी कीड़ों की दलदल में धँस गई। देखते-देखते उस के जिस्म की जागीर पर लुटेरे टूट पड़े और उसके वुजूद को दीमक की तरह चाट लिया। दो-चार जुओं की तरह बालों में क़ला-बाज़ियाँ लगाने लगे। चंद एड़ीयां धमकाते उस की मोती जैसी आँखों की जिल्द को खुर्चने लगे। दो-चार ने हथौड़ियां लेकर दाँतों का खलियान कर दिया और दम-भर में भरा हुआ मुँह खन्डर बन गया। बड़े-बड़े आहनी औज़ार चला कर उन्होंने उस की रीढ़ की हड्डी की एक एक गिरह झिंझोड़ डाली और वो पिचकी हुई मश्क की तरह नीचे बैठ गई।

    उसके हाथ बे-सत हो गए जैसे बुझी हुई लकड़ियाँ। वो लंबी नागिन जैसी चोटी कोढ़ मारी छिपकली बन गई। वो गुदाज़ बाज़ू जिन पर वहीद शरारत से नील डाल कर उन्हें संग-ए-मरमर से तशबीह दिया करता था। वो गुदगुदी के ख़ौफ़ से बेचैन पाँव जिन्हें वो डरकर शलवार के पांचों में छिपा लिया करती थी। उसकी दौलत जिसके दब-दबे से वो वहीद के दिल-ओ-दिमाग़ पर राज करती थी... नीचे ढय गई जैसे तूफ़ान और आंधी के ज़ोर के आगे कच्चा मकान।

    वहीद उसका वहीद तोता। चिल्ला-चिल्ला कर वो उसे पुकारने लगी। जोंकों का चूसा हुआ फोग, ज़ंगहेआई हुई हड्डियाँ और सुकड़ी हुई खाल की पूरी ताक़तें लगा कर उसने वहीद को पुकारा। उसका हल्क़ फटा हुआ था मगर आवाज़ ना थी। इस जम-ए-ग़फ़ीर के गुल में उसकी हर चीख़ फ़ना हो गई। वो अभी मौजूद थे... उसका जिस्म और रूह चचोड़ लेने के बाद वो हाथों में लंबी-लंबी झाड़ुएं और होंटों पर मुसर्रत भरी किलकारियाँ लिए सफ़ाया करने पर तुले हुए थे। चश्म-ए-ज़दन में उसके जहेज़ के झिलमिलाते जोड़े जो उसने दम बोलाने के डर से नहीं पहने थे। आँखों को ख़ीरा करने वाले ज़ेवर लंबे झुमके और बाले अँगूठियाँ और चन्दनहार, उस के चीनी के सेट और चांदी के ज़रूफ़ उन लंबी झाड़ुओं के लंबे सपाटों में लिपटे दूर बहते चले जा रहे थे... वहीद... उसने फिर पुकारा और फिर अपने से दूर उसने उसे बाद मुख़ालिफ़ से लड़ता हुआ पाया... लुंड-मुंड तन्हा दरख़्त की तरह वो उदास और झुका हुआ था, उस का चौड़े सीने वाला जवान शौहर... वो चीख़ मार कर लिपट गई।

    “वहीद... वहीद।”

    “क्या है जमीला...” वहीद ने जवाब दिया। मगर वो उस के सीने से लगी चीख़ती रही।

    “क्या ख़ाब में डर गईं जम्मो?” वहीद ने उसे समेट कर क़रीब कर लिया।

    और सुबह से उसे किसी ने हंसते ना देखा। वो ख़ामोश और डरी हुई किसी नामा’लूम हादसे के इंतिज़ार में लर्ज़ां थी। उसका रंग मटीला हो गया था... जैसे पड़े-पड़े दीमक चाट रही हो। उसने अपना चाले का भारी पोथ का पाजामा पहन डाला। जैसे वो उसे चोर उचक्कों से बचा डालना चाहती हो। मगर उस की निगाहों की थकी हुई उदासी और मुर्दनी ना गई। चलते-चलते एक दम ज़ोर-ज़ोर से पैर पटख़ने लगती। गोया कोई भारी सी लोहे की रुकावट झाड़ फेंकना चाहती हो।

    उसे वहीद के मज़ाक़ पर रोना आने लगा... और जब उसने सिर्फ उसे हंसाने के लिए क़ब्र की आग़ोश में सो जाने की धमकी दी तो वो बदमिज़ाज चुड़ैलों की तरह उस की जान को गई। उसने साफ़ साफ़ गालियाँ और ज़लील कोसने देना शुरू किया कि वाक़ई कुबरा आपा पर आशिक़ है और उसे कुबरा आपा से ऐसी नफ़रत हो गई कि हद नहीं। वो मुश्तबा नज़रों से हर वक़्त उन्हें एक मुख़्तसर घेरे में लेटे ताका करती। उनके हर फे़अल पर दिल धड़काती। वहीद भौंचक्का उसे देखा करता और वो डायनों जैसे ख़ौफ़नाक जुमले बका करती। उसका मिज़ाज और बिगड़ा, यहां तक कि रात की नींद और दिन का चैन ग़ायब हो गया। घंटों किसी ग़ैर इन्सानी ताक़त से सहमी हुई वो ख़ामोश आँसू बहाया करती।

    एक-बार उसने अपने सब जोड़े बारी-बारी निकाले। वो चुस्त फंसी हुई सदरियाँ, तंग कमर के कुरते, फ़ैशनेबल जम्पर सब देखे और ठंडी साँसें भर कर रख दिए। कपड़ों के संदूक़ को क़ब्र के पट की तरह भेड़ कर वो ख़ामोश रोया की। उसे और भी चुप लग गई।

    मगर फिर उसने एक झटका मारा और छना-छन करती आहनी ज़ंजीरें दूर बिखर गईं... क़ह-क़हा मारती, खिलखिलाती हुई जमीला मौत से कुश्तियाँ लड़ने लगी। मुल्लानी बी ने सर कूट लिया। बेगम साहिब चोंडा ना मूंड दें... हाँ बेचारी के सदियों के तजुर्बे पर पानी फिर गया... और जमीला?

    देखते ही देखते वो हल्की फुल्की तीतरी की तरह हवा में तहलील हो गई।

    स्रोत:

    Ek Shohar Ki Khatir (Pg. 30)

    • लेखक: इस्मत चुग़ताई
      • प्रकाशक: रोहतास बुक्स, लाहौर
      • प्रकाशन वर्ष: 1992

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