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दम

MORE BYअब्दुस्समद

    स्टोरीलाइन

    दंगों में घिरे एक परिवार की कहानी। वे तीन भाई थे। तीनों में से दो घर पर थे और एक बाहर गया हुआ था। तीसरा जब बाहर से लौटकर घर आया तो उसने अपनी रोती हुई माँ को बताया कि वह तीन को ठिकाने लगाकर आया है। माँ उससे हर बात को विस्तार से पूछती है। बाहर गलियों में पुलिस गश्त कर रही होती है और दोनों पक्ष नारा लगा रहे होते हैं। बाद में पता चलता है कि नारे तो मोहल्ले का पागल आदमी लगा रहा है। नारा सुनकर पुलिस उस घर में घुस आती है, लेकिन पुलिस उस पागल को पकड़ने के बजाय घर वालों को पकड़ ले जाती है।

    रात की तारीकी माहौल की संगीनी में घुल मिल गई।

    तारीकी, सन्नाटा और चारों खूंट गूँजती हुई ख़ामोशी की चीख़ जो बंद कमरे में भी यूं घुसी आरही थी जैसे उसे रोक-टोक की पर्वा हो। ख़ामोशी की मौजूदगी में कमरे में फिर और किस चीज़ का गुज़र हो सकता था। अभी अभी वहाँ शतरंज की बिसात बिछी थी। बिछी तो अब भी थी लेकिन ख़ामोशी ने सारे निज़ाम को यूं दरहम-बरहम कर दिया था कि बिसात उल्टी हुई दिखाई देती थी।

    ख़ामोशी की मौजूदगी में भी वो साँसें थीं, जिनकी रफ़्तार गुम थी, वो आँखें थीं जिनकी सिम्त लापता थी। वो मौजूद थे जिनकी इन्फ़िरादियत खो चुकी थी।

    अचानक एक धमाके के साथ आवाज़ आई, नुक्कड़ के पीपल के दरख़्त पर से एक परिंदा चीख़ा। कहीं क़रीब ही से एक जाना बूझा नारा बुलंद हुआ। जवाब में इधर से भी एक नारा लगा जिससे कमरे के अंदर की ख़ामोशी लरज़ गई।

    “ये किस की हरकत है?” बज़ाहिर उल्टी हुई बिसात के क़रीब बैठे हुए फ़र्द के मुँह से निकला। वैसे शायद वो वाक़िफ़ था कि,

    “और कौन हो सकता है।”

    “ख़ैर उस बेचारे के बारे में क्या कहना, वो बेचारा तो...”

    “वाह खूब, बेचारा वो घर वालों के लिए होगा, बाहर वाले उसे क्यों पागल मानने लगे।”

    “देखो कहीं वो फिर नारे बाज़ी करने लगे।”

    “भला उसे कौन रोक सकता है, जब भी नारे लगेंगे वो जवाब देगा ही।”

    “उसे कमरे में बंद क्यों कर दें?”

    “सभी रोशन दान तो टूटे पड़े हैं। खिड़कियाँ तक अपने हवास में नहीं, सिर्फ़ किवाड़ बंद कर देने से फ़ायदा?”

    “दीवारें तो हैं।”

    बे सिम्त आँखों ने कमरे का जाइज़ा लिया। अगरचे कमज़ोर और ख़स्ताहाल, लेकिन इसका दरवाज़ा बंद था। टूटे हुए रोशनदान और खिड़कियाँ बंद थीं। इसमें बंद हो कर लोग अपने आपको महफ़ूज़ समझने पर मजबूर ही नहीं, मूसिर थे।

    “लेकिन इसमें तो... आख़िर हम लोग कहाँ जाएं?”

    “कहीं भी... जब बंद ही रहना है हमें।”

    “ये कमरा भी क्या... बस ये है कि यहाँ से आवाज़ बाहर नहीं जाती।”

    “या यूं कहो कि हमने अपनी आवाज़ों को अपने अंदर क़ैद कर लिया है।”

    बाहर फिर कुछ शोर सा हुआ, कुछ फड़फड़ाहट... कुछ चीख़ें, नारे।

    उधर से फिर जवाबी नारा बुलंद हुआ। बंद कमरे की कमज़ोर दीवारें हल सी गईं। अपने आपको बंद किए हुए लोग लरज़ से गए। ख़ामोशी का ज़ोर हुआ तो उनमें से एक बोला,

    “यूं बंद होने से काम नहीं चलेगा। वो जवाबी नारे बुलंद करता रहेगा और हम कुत्ते की मौत मारे जाएंगे।”

    सब ख़ामोश रहे तो हौसला पाकर वो शख़्स आगे बढ़ा और बंद दरवाज़ा आहिस्ता से खोल दिया। दरवाज़ा एक कमज़ोर सी कराह के साथ खुला और बाहर की हवाओं में तैरती हुई तरह तरह की आवाज़ें अंदर आगईं।

    बाहर दालान में वो बैठा था। बे-तरतीब लिबास, अबतर जिस्म, उलझे हुए गंदे बाल, सुर्ख़ आँखें और हाथों में एक ज़ंगआलूद छुरी, जिसे वो बार-बार फ़िज़ा में बुलंद करता जिसके साथ ही उसके चेहरे पर कामयाबी के रंग आजाते। पास की पलंगड़ी पर बैठी हुई बूढ़ी औरत मुँह पर पल्लू रखे रो थी।

    “अब क्या किया जाये?”

    चारों बाहर आकर एक साथ सोचने लगे। उनमें दो पागल के सगे भाई थे और दो उनके दोस्त पड़ोसी जो वक़्त और मौक़ा देखकर आगए थे और अब माहौल की संगीनी ने जिनके पैर पकड़ लिये थे।

    “क्या किया जाये?”

    सोच तो रहे थे चारों। लेकिन दरअसल अगर कुछ करना था तो सिर्फ़ इन दो ही को, जो अपने घर के थे। अभी वो किसी नतीजे पर पहुंचे भी नहीं थे कि एक चीख़ ने बाहर की ख़ामोशी को एक-बार फिर चाक कर दिया।

    दौड़ने की आवाज़ें, बूटों की संगीन चाप और वही मानूस नारा।

    पागल अपनी जगह से उठा और छुरी वाला हाथ फ़िज़ा में लहरा के उसने बड़े जोश-ओ-ख़रोश के साथ नारे का जवाब दिया। ऐसा लगा जैसे इस बोसीदा मकान के अंदर ही अंदर एक मैदान-ए-जंग खुल गया हो।

    “अम्मां, उस पागल को रोलिए। ये हम सबको मरवा देगा।”

    अम्मां की हिचकियाँ और तेज़ हो गईं। पागल ने सुर्ख़ आँखों से उनकी तरफ़ देखा।

    “मैं रुक गया तो फिर तुम बच नहीं सकोगे।” उन्होंने उसकी बात जैसे सुनी ही नहीं।

    “वो अगर नारे लगाते हैं तो लगाएं। इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है, लेकिन जवाबी नारा तो खुल्लम खुल्ला इश्तिआल अंगेज़ी है।”

    अम्मां बस रोए जा रही थी। वो जैसे किसी की बात सुन ही नहीं रही थी।

    “अम्मां कुछ बोलोगी भी या बस रोती ही रहोगी?”

    “तुम लोग बड़े ख़ुद-ग़रज़ हो। अपने को बंद किए पड़े हो। राजा की तुम्हें कोई फ़िक्र नहीं, आख़िर वो तुम्हारा सगा भाई है। चौबीस घंटे हो गए उसे गए हुए, पता नहीं वो...” वो और ज़ोर से रोने लगी।

    “राजा...” एक ज़ेर-ए-लब बड़बड़ाया।

    “आख़िर राजा ग़ायब कहाँ है?” ये सवाल पड़ोसी दोस्त ने पूछा।

    “ग़ायब कहाँ, उसकी तो आदत ही यही है। हाँ, कहो कि आज फ़िज़ा ख़राब है। इसलिए अम्मां को ज़्यादा फ़िक्र है। वरना उसका तो काम ही ये है।”

    “तशवीश की बात तो है। शहर में छुरे बाज़ी हो रही है। अब तो लाशें भी नहीं मिलतीं।”

    “उसे छुरे बाज़ी की क्या पर्वा, वो तो ख़ुद, हाँ ये कहो कि पुलिस...”

    अम्मां जो उनकी बातें सुनने के लिए सिसकियाँ लेने लगी थीं। पुलिस का नाम सुनकर फिर ज़ोर ज़ोर से रोने लगीं।

    “उफ़,रोना बंद तो करो अम्मां। कुछ सोचने तो दो हमें।”

    “लो अम्मां, मैं आगया और तीन को ठिकाने लगा आया हूँ।”

    दरवाज़े से राजा की आवाज़ आई और वो वहशी सा उन लोगों के सामने आगया। अम्मां ने उसे सही सलामत देखा तो दौड़ कर उससे लिपट गई और चट चट बलाएं लेने लगी। उसके पीछे पता नहीं कौन सी अनदेखी ताक़त थी जो सबको नज़र आरही थी।

    दोनों भाई उसे घूर रहे थे। पागल अपने आप में मस्त बार-बार छुरी को फ़िज़ा में बुलंद करता और जोश के साथ हवाओं पर वार कर के सुस्त पड़ जाता।

    राजा सबकी नज़रों से बेपर्वा पानी की भरी बाल्टी से मुँह हाथ धोने लगा।

    “अम्मां हमें गाजर मूली समझ रखा है। ऐसा सबक़ देकर आया हूँ कि बस याद ही करते होंगे। कहते हैं कि ये लोग... भला हम क्या जानें ये सब। हम तो किसी की टेढ़ी आँखें तक बर्दाश्त नहीं करें।

    भला बताइए, मैं तो मास्टर के यहाँ से चुपचाप चला आरहा था। हालाँकि देखो अम्मां, मेरी तो शक्ल भी ऐसी वैसी है। लिबास भी कुछ ऐसा वैसा है। फिर भी सालों ने मेरी चाल से मुझे पहचान लिया और लगे दौड़ाने। मैंने भी उन्हें वो छकाईयां दीं। उन्हें ऐसी ऐसी गलियों की सैर करा लाया कि बेटा याद रखेंगे...”

    “फिर तूने तीन कैसे मारे?”

    अम्मां ने बहुत डरते डरते पूछा। उन्होंने अपना रोना धोना कब का बंद कर दिया था।

    राजा बहुत ज़ोर से हंसा।

    “अरे वो... अम्मां, वो तो मुझे सुनसान गली में मिल गए थे। भागते भूत की लंगोटी की तरह। साले दवाओं की शीशियां लेकर भागे जा रहे थे। मैंने भी उन्हें उनकी चालों से पहचान लिया और फिर...”

    वो फिर हंसा और हंसते हंसते उसने मुँह बना के आवाज़ बदल के मरने की नक़ल सी की। अम्मां ने अपनी आँखों पर हाथ रख लिए और पागल ने एक-बार फिर नारा बुलंद किया।

    फ़िज़ा थर्रा उठी। बाहर से दौड़ने भागने की आवाज़ आई। इस वक़्त दालान पर खड़े हुए चारों अफ़राद ने महसूस किया कि वहाँ पर दरअसल सिर्फ़ तीन ही फ़र्द हैं। अम्मां, पागल और राजा।

    वो वहाँ से चल कर फिर कमरे में आगए।

    बाहर के जो दो फ़र्द थे वो बड़े सुस्त से थे। उनके रास्ते मख़दूश हो गए थे। यूं वो जहाँ थे वो जगह भी अब महफ़ूज़ नहीं थी। फिर भी ख़ामोशी से संगीनी और बढ़ती थी।

    “मुझे तो ऐसा लगता है कि बात अब ख़त्म नहीं होगी... कोई चाहता ही नहीं है ना।”

    “सारा फ़साद नारेबाज़ी का है। नारा लगा के या सुनके इंसान अपने आप में नहीं रहता।”

    “अगर नारे का जवाब नहीं दिया जाये तब...”

    “तब फिर नारा जन्म लेने से पहले ही दम तोड़ दे। ये कोई मामूली बात तो नहीं।”

    “नारे का जवाब नहीं देना तो नारा लगाने से ज़्यादा हिम्मत की बात है।”

    “पता नहीं नारे बाज़ी में वो कौन सी क़ुव्वत है जो इंसान को जवाब देने पर मजबूर कर ही देती है। मुझे तो ऐसा लगता है कि हर इंसान के जिस्म में कोई ऑटोमैटिक मशीन फिट है जो अगर ख़राब कर दी जाए तो फिर बात बन सकती है।”

    “मेरा ख़्याल है कि ऐसी बहुत सी मशीनें अगर ख़राब कर दी जाएं तो बहुत सी बातें बन सकती हैं।”

    इतने में बाहर फिर कुछ शोर-ओ-गोग़ा बुलंद हुआ। किसी के चीख़ने की आवाज़ आई। बहुत से कुत्ते एक साथ भोंकने लगे। कमरे में एक दम ख़ामोशी छा गई। बाहर के दोनों अफ़राद के चेहरों पर साफ़ परेशानी के आसार थे।

    “बहुत देर हो गई, घर के लोग बहुत परेशान होंगे।”

    “उन्हें पता तो है कि तुम यहाँ हो। फिर परेशानी की क्या बात है।”

    “पता तो है, लेकिन इतनी देर... पता नहीं वो लोग भी किस हाल में हैं। कुछ कहा नहीं जा सकता कि कब, किस वक़्त, कहाँ, क्या हो जाए। कुछ कहा नहीं जा सकता।”

    बाहर शोर-ओ-गुल से बेपर्वा राजा, अम्माँ को अपनी फ़ुतूहात की दास्तानें सुना रहा था।

    “और जानती हो अम्मां, ये लोग समझ रहे थे कि राजा को भी गाजर मूली की तरह काट देंगे। यही तो भूल है उनकी। हाँ, वो बड़े भैया के बारे में समझें। मँझले भैया के बारे में कहींकहें तो बात ठीक बैठेगी। वो बेचारे तो गाजर मूली हैं ही। अब देखो इस वक़्त भी कमरे में बैठ कर सबज़ियों के भाव पर बातें कर रहे हैं।”

    कमरे में साफ़ उसकी आवाज़ आरही थी। बेतहाशा ग़ुस्सा आने और ख़ून खौलने के बावजूद उनमें से कोई बाहर नहीं निकला। शायद उन्होंने अपनी मशीन के किसी पुर्जे़ को ख़राब कर डाला था।

    “और सुनोगी अम्मां, हम छः सात दोस्त ऐसे हैं जो पूरे मुहल्ले पर नहीं, पूरे शहर पर भारी पड़ेंगे। अभी किसी ने पहचाना नहीं है हमें।”

    “अरे डर आदमी से नहीं, पुलिस से लगता है रे, तू तो...”

    अम्मां बोलते बोलते चुप हो गईं। राजा एक बार डकैती के इल्ज़ाम में धर लिया गया था तो पुलिस ने उसकी ज़बरदस्त पिटाई की थी। बाद में इल्ज़ाम साबित नहीं होने पर वो छूट गया था और मुहल्ले की हलवाई की दुकान से मुफ़्त दूध पी पी के उसने सारी कसर पूरी करली थी। कोई उसके सामने इस वाक़िए को ज़बान पर भी लाता था। बस एक अम्मां थीं जो उसको मिन-ओ-इन याद रखे हुए थीं और राजा को उससे डराने की कोशिश भी करती थीं। राजा झुँझला गया।

    “अम्मां तुम तो पुलिस ही को सब कुछ समझती हो। एक बार पकड़ ली और दो-चार थप्पड़ लगा दिए तो कौन सी ऐसी बात हो गई। वो तो अच्छा हुआ कि इससे मेरा डर ख़त्म हो गया। वरना मैं भी पुलिस से हमेशा डरता रहता। इन पुलिस वालों में कुछ दम नहीं अम्मां, लोग तो उनकी बंदूक़ से डरते हैं और बस।”

    “तो मैं भी बंदूक़ ही से डरती हूँ। क्या तेरी ये छुरी उनकी बंदूक़ का मुँह बंद कर देगी?”

    “अम्मां बंदूक़ अगर उनके पास है तो हमारे पास नहीं है क्या... अरे अपने पास तो ऐसी बंदूक़ें हैं कि इन पुलिस वालों ने क्या उनके बाप ने भी नहीं देखी होंगी। अब वो ज़माना नहीं रहा कि पुलिस की बंदूक़ से कोई डर जाये, अब तो...”

    “जानते हो, ये उन बंदूक़ो की बातें कर रहा है जो ग़ैर मुल्की एजेंसियां बाँटती हैं ताकि हमारे मुल्क में इंतिशार क़ाइम रहे।” बड़े भैया ने सरगोशी की।

    “ये उस बेवक़ूफ़ को क्या मालूम कि जिन लोगों ने उसे बंदूक़ दी है, उन्होंने उसके दुश्मन को भी बंदूक़ दे रखी है। अब दोनों आपस में सर फोड़ो।”

    मँझले भैया की जानकारी भी बहुत दूर की थी।

    “तेरे पास इतनी बंदूक़ें कहाँ से आईं कि तू पुलिस से मुक़ाबला करने चला है।” अम्मां बहुत ही बे-एतबारी से राजा से पूछ रही थी।

    राजा अपनी मख़्सूस हंसी में खिला।

    “बहुत भोली हो अम्मां तुम। अब बंदूक़ गंडासा, छुरे के लिए हम दूसरों का मुँह देखेंगे। ये चीज़ें हम लोग ख़ुद बना लेते हैं अम्मां और सिर्फ़ अपने लिए नहीं बनाते, दूसरों को भी देते हैं।”

    “आम के आम गुठलियों के दाम।”

    “फिर भी भला पुलिस से तुम्हारा क्या मुक़ाबला?” अम्मां भी उससे बहस करने के मूड में थी।

    “पुलिस से अच्छे हथियार हैं हमारे पास। यूं भी हम लोग बस अपनी हिफ़ाज़त का सामान करते हैं, अब कोई पत्थर से हमें मारे तो हम ईंट से भी मारें।”

    “जानते हो ये जिन हथियारों की बात कर रहा है, वही हथियार चोरी, डकैती, रोड होल्ड अप वग़ैरा में काम आते हैं।” अंदर की सरगोशी अंदर ही महदूद थी।

    “ये लोग हथियार ख़ुद भी इस्तेमाल करते हैं और दूसरे के हाथ बेचते भी हैं।”

    “ये मसला क़ौमी अहमियत इख़्तियार करचुका है। पैसे और हथियार के इफ़रात ही ने तो सारे मसअलों को जन्म दिया है। सारा खेल बस इन्ही का है। जब ये नहीं तो खेल नहीं। इसलिए सरकार भी उन पर कंट्रोल नहीं कर सकती।”

    बाहर लाऊड स्पीकर पर कुछ ऐलान हो रहा था।

    “अफ़वाह फैलाने और दंगा करने वालों को फ़ौरन पुलिस के हवाले कीजिए। उनके ठिकानों का पता...”

    “क्या राजा को...”

    बड़े भैया की नाक राजा के सबब कई बार कट चुकी थी। अब तो मुहल्ले से बाहर से भी इसकी शिकायतें आने लगी थीं। सब लोग बड़े भैया ही को घर का ज़िम्मेदार समझते थे। उन्हें क्या पता कि बड़े भैया के सामने तो राजा और शेर बन जाता है। उन्हें चिढ़ाने में उसे बहुत मज़ा आता है। वो तो उससे बोलते भी नहीं थे। अपने बच्चों को उसके पास फटकने देते। वैसे भी बड़े और मँझले भाईयों के बीवी बच्चे उनकी ससुराल में रहते थे। इस घर में इतनी जगह कहाँ थी। एक पागल और एक बदमाश ने किसी के रहने के क़ाबिल ही कहाँ छोड़ा था। अगर दोनों भाईयों की नौकरी का हीला होता तो उनके लिए भी यहाँ जगह नहीं थी।

    “बात तो ठीक है, जेल में रहेगा और चार चोट की मार पड़ेगी तो ख़ुद भी सुधरेगा और दूसरों को भी चैन से रहने देगा।”

    “लेकिन अम्मां... अम्मां तो उसे बहुत चाहती हैं, वो तो मर ही जाएंगी।”

    “अम्मां को पता कैसे चलेगा और फिर राजा ने अपनी नेक-नामी में कसर ही कौन सी छोड़ी है। यूं भी वो ब्लैकलिस्ट में है। पुलिस को तो बस उसके बारे में ख़बर मिल जाये।”

    “ऐसी ग़लती भी कीजिएगा भाई साहब। वो मुझे तो क्या पकड़ेंगे, हाँ, आप लोग फिर नहीं बचेंगे।” राजा कमरे के दरवाज़े पर खड़ा था। उसने उनकी सरगोशियाँ सुन ली थीं। शायद दीवारों के भी कान हो गए थे।

    “नहीं तो क्या करलेगा तू। हमें क़त्ल कर देगा?”

    ये मँझले भैया थे। बड़े भैया तो ग़ुस्से और एमरजेंसी में भी उससे मुख़ातिब होना पसंद नहीं करते थे।

    “मैं तो कुछ नहीं करूँगा... लेकिन आप उनसे बच के रहिए जिनके हवाले आप मुझे करने जा रहे हैं।”

    “कोई किसी को हवाले करने नहीं जा रहा है। तू जा अम्मां के पास, हम लोग तो बातें कर के यूँही अपने वक़्त को टाल रहे हैं।”

    बाहर के आदमियों में से एक ने बहुत समझाते बुझाते हुए कहा।

    “ओह तो ये वक़्त आप पर इतना बोझ है कि आप उसे टाल रहे हैं।”

    राजा अजीब लहजे में बोला। हालात ने शायद उस पर अपना काफ़ी असर डाल रखा था।

    “तुम हमारी फ़िक्र करो। रहे और सब मसाइल तो उसके लिए सरकार है, पुलिस है। हम क्यों उनके काम में दख़ल दें।”

    “पुलिस का काम आपकी हिफ़ाज़त करना नहीं, ये मैं अच्छी तरह जानता हूँ और आप भी अच्छी तरह जान लीजिए।”

    “हम अच्छी तरह जानते हैं कि पुलिस का काम तुम जैसे लोगों की ख़बर लेना है।”

    मँझले भैया उससे किसी तरह क़ाइल होने वाले नहीं थे।

    अम्मां दूध जलेबी का प्याला लिए गईं।

    “ले राजा खाले, जाने कब से भूका है।”

    राजा प्याला लेकर बाहर चला गया। उसके पीछे पीछे अम्मां भी।

    “आया है हम लोगों को सबक़ सिखाने।”

    बड़े भैया फट पड़े। इतनी देर से वो अपने आपको दबाए बैठे थे।

    “कोई शरीफ़ और समझदार आदमी हंगामा पसंद नहीं करता। ये तो चंद गुंडे होते हैं जिनके वजूद और रोटी रोज़ी का उसी पर दार-ओ-मदार है।”

    “आख़िर अम्मां क्यों नहीं रोकतीं राजा को।”

    बाहर के लोग उनके घरेलू माहौल को देखकर बड़े हैरान थे।

    “अम्मां की वो सुनता कब है। जब तक अब्बा ज़िंदा थे, उनका कुछ रोब उस पर था। उनके मरने के बाद तो वो शेर हो गया और अब दिन दिन...”

    “आप बड़े भाई थे। आपको तो शुरू से ही उस पर क़ाबू रखना चाहिए था।”

    “भई मैं क्या करता... मैं ख़ुद ही बाल बच्चों वाला आदमी हूँ। मुझे तो कभी फ़ुर्सत ही नहीं मिली। फिर राजा अम्मां की लाड प्यार में पहले ही से बर्बाद था।”

    “और वो जो एक है उसको पागल करने में भी अम्मां ही का हाथ है। मैंने कितना चाहा कि उसे पागलखाने में दाख़िल क़रादूँ लेकिन वो तैयार नहीं हुईं। पता नहीं किस ने उनसे कह दिया कि वहाँ बहुत ख़राब खाना मिलता है और बहुत मार पड़ती है। अब भई वो तो दिमाग़ी अस्पताल है, वहाँ तो उसके साथ वही सुलूक होगा जो सब पागलों के साथ होता है।”

    यकायक दालान से फिर एक नारा बुलंद हुआ। सभी गुमसुम से हो गए। बाहर दौड़ते हुए बूटों की आवाज़ें आईं। एक भारी ट्रक शोर मचाता हुआ गुज़र गया।

    “भला बताइए। ख़्वाह-मख़ाह इस तरफ़ सारे लोगों की तवज्जो मब्ज़ूल करा रहा है कमबख़्त।”

    “अम्मां उसे रोकती क्यों नहीं।”

    “अम्मां के बस की चीज़ नहीं है वो।”

    “अम्मां के बस की चीज़ तो हम लोग हैं।”

    दालान से अजीब अजीब आवाज़ें आने लगीं वो घबरा गए।

    “लगता है वो आगए।”

    “कौन?”

    “जिनके इंतज़ार में हम बैठे हैं।”

    “लेकिन हम तो यहाँ इसलिए बैठे हैं कि...”

    “अगर वो वाक़ई आगए हैं तो फिर यहाँ इस कमरे तक आने में इतनी देर क्यों हो रही है। वो जो भी हों तो जाएं जल्दी से।”

    जब वाक़ई देर हो गई और कोई नहीं आया और आवाज़ों का सिलसिला भी जारी रहा तो उनमें से एक ने खिड़की से झाँका... झाँकता रहा। उसने दूसरों को भी झाँकने की दावत दी।

    दालान का मंज़र अजीब था कि अभी अभी पागल ने जो नारा लगाया था उससे ख़ुश हो कर राजा बुरी तरह हंस रहा था। राजा की देखा देखी अम्मां भी हंस रही थी। पागल ने जो सबको यूं हंसते देखा तो वो भी इस कार-ए-ख़ैर में शरीक हो गया।

    इन तीनों के क़हक़हों ने मिलकर एक अजीब आवाज़ को जन्म दिया था, एक बिल्कुल नई आवाज़।

    बाहर के दोनों फ़र्द भी इस मंज़र को देखकर मुस्कुराए बग़ैर रह सके। अलबत्ता दोनों भाईयों का चेहरा ग़ुस्से से सुर्ख़ हो गया। बड़े भैया से तो बर्दाश्त ही नहीं हो सका। वो दौड़ कर बाहर चले गए।

    “चुप रहो तुम सब।” वो बहुत ज़ोर से दहाड़े।

    अम्मां और राजा तो चुप हो गए, लेकिन पागल पर इसका कोई असर नहीं हुआ। वो बदस्तूर हँसता रहा। अगरचे इस एक के क़हक़हे में अब कोई दम था नयापन।

    “अम्मां ये क्या पागलपन है... ये बेचारा तो ख़ैर, लेकिन आप... ये बार-बार गला फाड़ के नारे लगाता है। बाहर पुलिस और मिल्ट्री भरी पड़ी है। शक हो गया तो वो हम सबको भून डालेंगे।”

    “मैं तो इसलिए अपना गला फाड़ रहा हूँ ताकि लोगों को मालूम हो कि यहाँ भी कोई रहता है। आपको अच्छा नहीं लगता तो चूड़ियां पहन के कमरे में बंद रहिए। मर्दों के दरमियान आइए।” पागल ने बहुत संजीदगी से कहा और बाहर का एक फ़र्द सोचने लगा,

    “ये तो किसी लिहाज़ से पागल नहीं लगता।”

    “तुम चुप रहो पागल कहीं के... मैं तुमसे बात नहीं कर रहा। अम्मां ये हम सबको कटवा देगा।पता नहीं इसकी नारे बाज़ी से बाहर किन कहानियों ने जन्म लिया होगा और पता नहीं अब क्या होगा।”

    “जाइए जाइए कुछ नहीं होगा। कहानियां घड़ने वालों को शौक़ होगा तो वो ख़ुद ही आकर देख जाएंगे।” राजा बेहया बन कर मौक़ा मौक़ा बड़े भैया से मुख़ातिब हो ही जाता।

    बड़े भया पैर पटखते हुए कमरे में चले गए।

    “अम्मां, बचेगा तो अब कोई नहीं। हाँ ये बुज़दिल की मौत मरेंगे और हम बहादुर की। देख लेना।” बाहर से राजा की आवाज़ आई।

    बाहर के दोनों फ़र्द बस एक ही बात सोच रहे थे।

    “किसी तरह घर चले जाएं।”

    लेकिन किस तरह। बाहर की ख़बर किसी को नहीं थी। वो तो अब तक बाहर से छिपे हुए थे। यूं सन्नाटे की ख़बर तो थी। लेकिन रह-रह कर चीख़, नारेबाज़ी, बूट, गाड़ी और दौड़ भाग की जो आवाज़ें थीं वो लम्हा लम्हा तरह की तरह की कहानियां सुना रही थीं।

    अचानक बाहर का दरवाज़ा ज़ोर ज़ोर से पीटा जाने लगा। शायद किसी ने चीख़ कर दरवाज़ा खोलने को भी कहा। दरोदीवार को जैसे साँप सूंघ गया। राजा देखते ही देखते दीवार के सहारे छत पर चढ़ा और पता नहीं तारीकी में कहाँ गुम हो गया। पागल बार-बार दरवाज़ा खोलने के लिए उठता, लेकिन अम्मां उसे पकड़ लेती। पता नहीं बूढ़ी अम्मां की पकड़ में वो कौन सी क़ुव्वत थी कि पागल किसी तरह दरवाज़े तक नहीं पहुँच पारहा था। बाहर से बार-बार दरवाज़ा खोलने को कहा जा रहा था। कुछ देर बाद दरवाज़ा तोड़ने की आवाज़ आई। वैसे भी उसमें दम ही कितना था। बस ये कि वो बंद था और बंद किया जा सकता था।

    देखते ही देखते आँगन में बहुत से बावर्दी लोग आगए। दालान पर अम्मां पागल को पकड़े बैठी थी, “कहाँ हैं वो लोग?” एक गरजदार आवाज़ ने पूछा।

    “कौन लोग? यहाँ तो कोई भी नहीं।”

    “वही जो यहाँ से नारे बाज़ी कर रहे थे और फ़साद की तैयारी कर रहे थे। जल्दी बताओ वरना तुम दोनों को एक साथ भून दूँगा।”

    “मैं नारा लगा रहा था। मैं अकेला ही सब लोग हूँ।” पागल ने बहुत ख़ुश हो कर कहा।

    उनके लीडर ने उसे बहुत ग़ौर से देखा। फिर जैसे सब कुछ समझते हुए बोला,

    “तू चुप रह पागल... सभी जवान घर भर की तलाशी लो। घर की ईंट से ईंट बजादो। पाताल में भी अगर कोई छुपा है तो उसे ढूंढ निकालना है।”

    सभी जवान तेल की तरह अंदर फैल गए। उनका लीडर आँगन में बहुत ही चौकन्ना खड़ा बहती हुई हवा के ज़र्रे ज़र्रे को सूंघ रहा था।

    चंद ही लम्हों में उसके जवान कोने कोने को खोद के आगए।

    “कहीं पर कोई नहीं, सामने वाले कमरे में चार ख़ौफ़ ज़दा बैठे हैं। शतरंज खेल रहे थे। लेकिन अब बिसात उल्टी है।”

    “ये कैसे हो सकता है, बाहर शोर कहाँ से आरहा था?”

    “दरोगा जी, आप जिसे तलाश कर रहे हैं वो मैं हूँ... सिर्फ़ मैं, मैं नारा लगा के दिखा दूँ?”

    पागल ने बहुत ही चहक के कहा और जवाब का इंतज़ार किए बग़ैर दीवानावार नारे लगाने लगा। वाक़ई उसकी अकेली आवाज़ में इतना दम था कि जैसे बहुत से लोग एक साथ नारे लगा रहे हों।

    “चुप रहो, चप रहो।”

    एक धाड़ के साथ उसने बंदूक़ का कुंदा पागल के सर पर दे मारा। ख़ून का जैसे फ़व्वारा फूट पड़ा और वो बेहोश हो कर गिर पड़ा। अम्मां उससे लिपट कर रोने और बैन करने लगी।

    “अब क्या किया जाये?” एक ने दरयाफ़्त किया।

    “इन चारों को पकड़ के ले चलो।”

    “मगर।”

    “मगर अगर क्या... आख़िर हम यहाँ क्या करने आए थे और ये साले कमरे में जमा हो कर इस वक़्त क्या कर रहे थे।”

    “ज़रूर कोई साज़िश कर रहे होंगे और हमें दिखाने के लिए शतरंज की उल्टी बिसात बिछाई होगी।”

    चारों को गिरफ़्तार कर के जब वो लोग जाने लगे तो अम्मां बहुत ज़ोर ज़ोर से रोने लगी। पागल बेहोश पड़ा था और राजा छत पर चढ़ के जो ग़ायब हुआ था तो अब तक उसका पता नहीं था।

    स्रोत:

    Siyah Kaghaz Ki Dhajjiyan (Pg. 48)

    • लेखक: अब्दुस्समद
      • प्रकाशक: एजुकेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1996

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