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मुहाजिर परिंदे

शफ़क़

मुहाजिर परिंदे

शफ़क़

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    स्टोरीलाइन

    एक ऐसे लड़के की कहानी है, जिसके माँ-बाप उसे दंगाइयों से बचाने के लिए गाँव से दूर भेज देते हैं। वहाँ से भागकर वह एक पादरी के घर में पनाह लेता है। उसके वहाँ आने के कुछ दिन बाद ही दक्षिणपंथी समूह का एक कार्यकर्ता पादरी का क़त्ल कर देता है और पुलिस उस क़ातिल को पकड़ने की बजाय पादरी पर ही ज़बरदस्ती धर्म परिवर्तन कराने का इल्ज़ाम लगाकर शंभू को इसकी गवाही देने के लिए कहती है।

    होश आया तो उसने महसूस किया कि वो औंधे मुँह ज़मीन पर पड़ा हुआ है।

    उसने हाथ से टटोल कर खुरदुरी और नंगी ज़मीन का लम्स महसूस किया। आँखें खोलनी चाहीं तो दाहिनी आँख सूज कर बंद हो गई थी। करवट बदलने की कोशिश में होंटों से कराह निकल गई, रीढ़ की हड्डी में दर्द की तेज़ लहर उठी और पूरे बदन में फैल गई।

    मैं कहाँ हूँ ? उसने बड़ी मुश्किल से ज़मीन पर फैले हुए अपने जिस्म को समेटा और उठ कर बैठ गया। दर्द की चादर पूरे बदन को ओढ़े हुए थी। उसने अंधेरे में आँखें फाड़ कर देखना चाहा और ये ख़्याल ज़ेहन में कौंदा कि शायद बीनाई ज़ाइल हो गई है। प्यास से सूखी हुई ज़बान और सूजे हुए होंट, क्या मैं घर लौट आया हूँ? उसने चेहरे पर हाथ फेरा। लम्स अभी ज़िंदा था, पेशानी पर चिपचिपाहट महसूस हुई तो ये सोच कर इत्मीनान हुआ कि बापू का लगाया हुआ तिलक अभी बाक़ी है। बापू ने चम्पा, गौरी, चंचल और पारो को उसके सामने तिलक लगाया था। माँ-बापू उनसे लिपट कर ख़ूब रोए थे। उनके जिस्मों पर प्यार से हाथ फेरे, फिर रस्सियाँ खोल दीं। मेरी बेटियो! जहाँ जी चाहे चली जाओ, हम तुम्हें अपने सामने तड़प-तड़प कर मरते नहीं देख सकेंगे। वो चारों टुकुर टुकुर उन्हें देखती रहीं, खूंटे से लगी खड़ी रहीं। सुना नहीं तुमने, जाती क्यों नहीं हो? बापू ने चिल्ला कर कहा तो वो मुर्दा क़दमों से नाव तक गईं। वो बिल्कुल ख़ाली थी, घास का एक तिनका पानी की एक बूँद, उन्होंने पलट कर बापू को देखा। उनकी आँखों के किनारे भीगे हुए थे।

    शंभू जाओ उन्हें गाँव से बाहर हाँक आओ। जब शंभू गायों को गाँव से बाहर हाँक आया तो माँ ने उसे बाहोँ में भर लिया। वो उसके मुँह पर अपना मुँह रगड़ रही थी। फिर बापू ने उसके सर पर हाथ फेरा। जब शंभू ने माँ के सीने से सर उठाया तो बापू ने उसके माथे पर भी तिलक लगा दिया। फिर रुँधे हुए गले से कहा,

    “शंभू तुम कहीं भी चले जाओ, बारिश हो तो लौट आना, तब तक हम ज़िंदा रहे तो...” आवाज़ हिचकियों में डूब गई।

    उसने हैरत और दुख से माँ-बापू को देखा। उनके सूखे हुए उदास चेहरे, ग़म की शिद्दत से तारीक हो रहे थे। आँखें सावन भादो बनी हुई थीं। सिर्फ़ शंभू के वालिदैन ने ही नहीं, गाँव वालों ने अपनी अज़ीज़ तरीन चीज़ें आज़ाद कर दी थीं। वो अपनी आँखों से उनके मरने का दर्दनाक मंज़र कैसे देख सकेंगे।

    शंभू मज़बूत दिल का लड़का था, घर से निकलते वक़्त रोया नहीं। माँ-बापू के पाँव छूए और हौसले के साथ कहा, मैं तुम्हें मरने नहीं दूँगा, और बारिश होते ही घर लौट आऊँगा।

    सूखी और तड़खी हुई अनदाता धरती, सूखे हुए ताल तलय्या, बबूल के झुंड, आग उगलता सूरज, लू के थपेड़े, हड्डियों का ढेर, हड्डियों के ख़ुशहाल ब्योपारी, ट्रकों पर लादी जाती हड्डियां, ख़ुशी से चमकते चेहरे, आज नहीं तो कल चम्पा, गौरी चंचल की हड्डियां भी ट्रकों पर लादी जाएंगी। उसने बड़े दुख से सोचा और क़दमों की रफ़्तार तेज़ कर दी। वो मौत की इस वादी से जितना जल्द दूर चला जाए बेहतर है।

    बहुत दूर चल कर स्टेशन आया और वो गाड़ी में बैठ गया। उस वक़्त तक बैठा रहा जब तक टी टी ने उसे स्टेशन पर धकेल नहीं दिया। वो नहीं जानता था ये कौन सी जगह और कौन सा स्टेशन है। वो स्टेशन से बाहर निकला और चलता रहा, जाने कब तक चलता रहा फिर भूक प्यास से निढाल हो कर गिर पड़ा।

    आँखें खुलीं तो एक मेहरबान चेहरा उस पर झुका हुआ था। मेहरबान आँखें, मेहरबान होंट। मेरे बच्चे, तुम मेरे दरवाज़े पर पड़े हुए थे। तुम्हें प्रभु यूसु ने भेजा है। तुम यूसु के मेहमान हो। अज़ीम बाप सबकी फ़िक्र रखता है।

    कई दिनों तक शंभू ख़्वाब और हक़ीक़त में फ़र्क़ की कोशिश करता रहा। साफ़ सुथरा घर, फूलों के पौदे, अच्छा खाना और मेहरबान फ़ादर, वो इस घर का मुलाज़िम नहीं, एक फ़र्द था, जो फ़ादर के बाहर जाने पर घर की रखवाली करता, बावर्चीख़ाना सँभालता, बाज़ार से सौदा सुल्फ़ लाता, फ़ादर घर पर होता तो ज़्यादा वक़्त लिखता रहता, गुनगुनाता रहता और शंभू उसके लिए चाय या काफ़ी बनाता रहता। दिन आराम से कट जाता, रात को सोने से पहले वो माँ-बापू को याद करता, उसके गालों पर अब तक माँ की शफ़ीक़ उंगलियों का लम्स और माथे पर बापू का लगाया हुआ तिलक मौजूद था।

    शंभू ने अपना माथा छुवा। चिपचिपाहट से अंदाज़ा लगाया कि सर से बहा हुआ ख़ून वक़्त गुज़रने पर जम गया है। बैठने से दर्द कुछ और बढ़ गया था। उसने खड़ा होना चाहा, टख़नों पर पड़ने वाली ठोकरों ने हड्डी को नुक़्सान पहुंचाया था। उसने दीवार के सहारे के लिए हाथ फैलाए तो हाथ हवा में घूम कर रह गए। उसने क़दम आगे बढ़ाना चाहा तो कटे हुए शहतीर की तरह ज़मीन पर ढेर हो गया। उससे चित्त लेटा गया तो धीरे धीरे फिर औंध गया। बिल्कुल उसी तरह जैसे फ़ादर की लाश औंधे मुँह ज़मीन पर पड़ी थी और पेट के नीचे से रेंग कर ख़ून की लकीर ज़मीन पर फैल रही थी।

    बाज़ार की जिस दुकान से वो सबज़ियां लाता था वहाँ एक दिन सियाह-रू, दुबला पुतला, माथे पर टीका लगाए एक शख़्स पहले से मौजूद था। जब शंभू, टमाटर, आलू और हरी मिर्चें ख़रीद चुका तो उस आदमी ने उससे नाम पूछा, शंभू ने देखा था कि सब्ज़ी फ़रोश ने उसे कोई इशारा किया है।

    शंभू ने अपना नाम बताया तो इस शख़्स ने नया नाम पूछा... जोज़फ़ या माईकल।

    शंभू ने हैरत से उसे देखा। मेरा पहला और आख़िरी नाम शंभू है। उसे ये आदमी बिल्कुल अच्छा लगा। ख़ुसूसन उसकी आँखें और नाम पूछने का अंदाज़।

    तो तुम अभी तक शंभू ही हो, जोज़फ़ नहीं बने। उसके लहजे में बड़ी चुभन और नफ़रत थी। तुम्हारा फ़ादर तो धरम परिवर्तन कराता फिरता है, तुम्हें कैसे छोड़ दिया?

    शंभू को उस आदमी से डर लगने लगा था। वो ख़मोशी से घर चला आया। जब रात को फ़ादर लिखने की मेज़ पर बैठे तो शंभू ने आज का वाक़िआ बताकर पूछा था,

    “फ़ादर क्या वो आदमी सच कह रहा था?”

    फ़ादर कुछ देर तक चुप रहे। जैसे जवाब देने के लिए मुनासिब अलफ़ाज़ सोच रहे हों। उन्होंने क़लम मेज़ पर रख दिया, दोनों हाथों की उंगलियां एक दूसरे में फंसा कर पूछा, “तुमने हिंदू धर्म कब क़बूल किया?”

    “मैं तो पैदा ही हिंदू धर्म में हुआ हूँ।”

    फ़ादर के होंटों पर मेहरबान सी मुस्कुराहट फैल गई, “मेरे बच्चे, हम किसी का धर्म परिवर्तन नहीं कराते। हम तो हज़ारों बरस पहले जंगलों और पहाड़ों में खदेड़े हुए लोगों को आदमी की जून में वापस ला रहे हैं, और वही ज़ेहनियत उसकी मुख़ालिफ़त कर रही है, जिसने उन्हें, जंगलों में ढकेला था और फिर इस तरह भूल गए जैसे वो इंसान हैं इस धरती के हक़ीक़ी मालिक। वो ज़ेहन पच्चास बरसों तक मुसलमानों को हमला आवर कह कर बेचैन किए रहा और मस्जिद का मलबा सरजू में बहा दिया तो चैन का सांस लिया, जैसे बाबर को मुल्क बाहर किया हो। अब उनका ज़हरीला मुँह हमारी तरफ़ फिर गया है कि हमने भी तो यहाँ हुकूमत की है। उन्होंने ऑस्ट्रेलियन मिशनरी और उनके मासूम बच्चों को कार में ज़िंदा जला दिया और अब पूरे मुल्क में हमारे ख़िलाफ़ नफ़रत फैला रहे हैं। हमें तशद्दुद का निशाना बनारहे हैं। नेक काम करने वालों को हर ज़माने में सज़ा मिली है, उन पर इल्ज़ाम लगा है।”

    शंभू इतना पढ़ा लिखा नहीं था कि फ़ादर की बातें समझ सकता। वो तो हाँ नाँ में जवाब चाहता था। जब बावर्चीख़ाने से हांडी लगने की महक आई तो वो बावर्चीख़ाने की तरफ़ भागा। अचानक टीन के साएबान पर बारिश का शोर सुनाई दिया। सोंधी मिट्टी की ख़ुशबू उसे ये याद दिलाने आई थी कि मुहाजिर परिंदों की वतन वापसी का मौसम आगया है। अगर तुम्हारे वालिदैन ज़िंदा होंगे तो बादलों में तुम्हारा चेहरा ढूंढ रहे होंगे। उनकी मताअ-ए-हयात तो तुम ही हो, उनके इकलौते बेटे, गौरी, चंचल, चम्पा की हड्डियां जाने किस कारख़ाने में पिस कर खाद या मंजन बन गई होंगी या बनने वाली होंगी।

    शंभू बादल देखकर फ़ादर से यही कहने जा रहा था। अगर वो बाहर चले जाते तो शाम को लौटते, और बादल देखकर शंभू का दिल माँ-बापू के लिए बेचैन हो गया था। उसे गाँव याद आरहा था। होंट वा किए धरती तालाबों के पीढ़ी भरे पेट, आसमान पर मंडलाते गिद्ध, गाँव वालों की आसमान तकती निगाहें। बादल पूरी फ़िज़ा को नई ज़िंदगी का मुज़्दा सुना रहा होगा और लोग आँखों में आँसू भरे अपने वालों को याद कर रहे होंगे। ऐसे में वो गाँव लौट जाये तो माँ-बापू कितना ख़ुश होंगे। फ़ादर ने वादा किया था कि गाँव जाते वक़्त उसे एक गाय की क़ीमत दे देंगे और फ़ादर के बाहर जाने से पहले वो अपने गाँव जाने की इत्तिला दे देना चाहता था।

    जब वो कमरे से बाहर निकला तो फ़ादर रविश उबूर करके गेट तक पहुँच गए थे। उन्होंने गेट खोला और बाहर निकल कर आहिस्तगी से गेट बंद कर दिया। शंभू ने अपनी रफ़्तार और तेज़ कर दी। फ़ादर के बाहर निकलते ही एक आदमी झपटा था, फिर फ़ादर की चीख़ सुनाई दी, वो पेट पकड़े ज़मीन पर झुकते जा रहे थे। फिर वो ज़मीन पर ढेर हो गए और सब्ज़ी फ़रोशों की दुकान वाला सियाह-रू शख़्स इत्मीनान से चाक़ू बंद कर के जेब में रख रहा था। उसने एक नज़र फ़ादर पर डाली फिर तेज़ी से आगे बढ़ गया।

    शंभू गेट का छड़ पकड़े फटी फटी आँखों से ये मंज़र देख्र रहा था। उसके हलक़ से एक तवील चीख़ निकली और देखते ही देखते भीड़ इकट्ठी हो गई।

    बहुत देर बाद पुलिस आई। फ़ादर की बिरादरी वाले ख़ौफ़ज़दा भी थे और बरह्म भी। पुलिस ने ज़रूरी कार्रवाई के बाद लाश उठवा दी। चशमदीद गवाह सिर्फ़ शंभू था। पुलिस उसे अपने साथ थाने ले आई और उसे एक कमरे में धकेल दिया।

    शाने पर सितारे लगाए पुलिस अफ़सर एक बड़ी सी मेज़ के पीछे बैठा हुआ था। उसी की पुश्त की दीवार पर गाँधी जी और प्रधान मंत्री की तस्वीरें आवेज़ां थीं।

    गाँधी जी की तस्वीर देखकर शंभू को अनजाना सा सुकून मिला। उसे गाँधी जी का वो कथन याद आगया जो हर सुबह अंग्रेज़ी न्यूज़ से पहले रेडियो पर दुहराया जाता था,

    हिंदू-मुस्लिम एकता हर समय और हर परिस्थिती में क़ाइम रहने वाला हमारा अचार्य धर्म होना चाहिए। अब मोर्निंग न्यूज़, फ़ादर हर सुबह अंग्रेज़ी न्यूज़ ज़रूरत सुनते थे।

    पुलिस ऑफीसर ने खंखारा तो उसने चौंक कर तस्वीर से नज़रें हटा लीं, इंस्पेक्टर हंटर का सिरा दूसरे हाथ की हथेली पर धीरे धीरे मार रहा था,

    “तुम्हारा नाम?”

    “शंभू।”

    “बाप का नाम?”

    “जग बन्धू।”

    “नया नाम?”

    शंभू ने चौंक कर नज़रें उठाईं, “मेरा नया पुराना दोनों नाम शंभू है।”

    “साला बहुत क़ाबिल बनता है।” इंस्पेक्टर के चेहरे पर नागवारी का साया गुज़र गया। हथेली पर मारता हुआ रोल रुक गया।

    “वहाँ क्या करते थे?” आवाज़ में करख़्तगी और चेहरे पर जलाल था।

    “बावर्ची।”

    “तुम क्रिस्चन हो?”

    “नहीं, हिंदू।”

    “पादरी ने तुम्हारा धर्म परिवर्तन नहीं कराया था?”

    शंभू ने धीरे से “नहीं” कहा।

    “फिर वो क्या कहता था?”

    “वो कहते थे कि इंसान को हर हालत में सच बोलना चाहिए, दूसरे की सेवा करनी चाहिए, क्योंकि सारा धर्म मार्ग एक भगवान तक जाता है।”

    “घर में क्या करता था?”

    “गीत लिखते थे?”

    “गीत... कैसा गीत, तुम्हें कोई गीत याद है?”

    “नहीं, मगर वो अपने गीतों में अमन, शांति और प्रेम के लिए प्रभु यूसु से प्रार्थना करते थे।”

    “क्या तुम इतनी सी बात नहीं कह सकते कि उसने ज़बरदस्ती तुम्हारा धर्म परिवर्तन कराया था।”

    “नहीं... मैंने उन्हें वचन दिया था कि झूट नहीं बोलूँगा।”

    इंस्पेक्टर ने एक भद्दी गाली बकी और दोनों टीका धारी सिपाही जो उसे अपने साथ लाए थे, चौकन्ना हो गए। उन्होंने बेदें मज़बूती से थाम लीं।

    “हाँ, तो तुमने क्या देखा था?” इंस्पेक्टर ने कुर्सी की पुश्त से टेक लगा कर पूछा।

    “मैं गाँव जाने की आज्ञा चाहता था। फ़ादर बाहर निकल रहे थे, मैं उनके पीछे भागा, जैसे ही वो गेट खोल कर बाहर निकले मैंने देखा कि...”

    अचानक उस पर दो तरफ़ से लाठीयां बरसने लगीं। वो चीख़ता हुआ गिरा तो उसे बालों से पकड़ कर खड़ा किया गया और लात घूँसे बरसने लगे। वो दुबला पुतला कमज़ोर लड़का, बदहाल हो गया, होंट फट गए, आँख पर चोट लगी। ऐसा अंधेरा छाया जैसे वो कभी देख सकेगा। बाल छोड़ते ही वो कटी हुई शाख़ की तरह ज़मीन पर गिर कर सिसकने लगा।

    “हाँ, अब ठीक है, इंस्पेक्टर की पुरसुकून आवाज़ सुनाई दी, “इसे उठाओ अब ये सच बोलेगा।”

    “हाँ, तो तुम पर पादरी ने धर्म परिवर्तन के लिए ज़ुल्म किया था।”

    “नहीं।”

    “उसने तुम पर ज़ुल्म किया था। तुम्हें मारा था, तुम्हारी आँख पर चोट लगी है। तुम आँखें नहीं खोल सकते, तुमने कुछ नहीं देखा। उस वक़्त तुम बावर्चीख़ाने में आँखें सेंक रहे थे।”

    “ये सब झूट है।” शंभू चीख़ा, “मैंने अपनी आँखों से देखा कि...”

    “इसकी माँ की...” दोनों सिपाही उस पर पिल पड़े, उसके जिस्म के नाज़ुक हिस्से पर ठोकरें पड़ीं, उसे लगा कि पेट फट गया, आँतें बाहर गिर रही हैं। दर्द का तूफ़ान उसके बदन में सर पटकने लगा और वो ज़ब्ह किए मुर्ग़ की तरह ज़मीन पर फड़कता फिर रहा था।

    और अब जाने रात का कौन सा पहर है। देर से टीन के साएबान पर बारिश हो रही थी, फिर बारिश धीमी होते हुए रुक गई और क़दमों की चाप सुनाई दी, जो उसके कमरे की तरफ़ आरही थी। ख़ौफ़ से उसे दिल कि धड़कनें डूबती महसूस हुईं। उसने सूजे हुए होंटों पर ज़बान फेरी, लहू का नमकीन ज़ाइक़ा ज़बान पर फैल गया।

    टार्च की रोशनी में कमरे का क़ुफ़्ल खुला और दोनों सिपाही सर पर मुसल्लत थे। उसने सोता बन जाना चाहा तो पसली पर ठोकर पड़ी, “उठ मादर... बाप का घर है जो टांगें पसारे सो रहा है।”

    शंभू ने उठ जाने में आफ़ियत समझी वो मुश्किल से उठकर खड़ा हुआ मगर चोट मोच ने खड़ा रहने दिया। वो गिर पड़ा, फिर खड़ा हुआ और गिरा, जब तीसरी बार खड़ा हुआ तो दोनों ने बग़लों से थाम लिया और इस तरह घिसटते हुए चले कि सारा बोझ उन पर था और उसके पाँव ज़मीन पर घिसट रहे थे।

    वही कमरा वही तस्वीरें वही कुर्सी और वही सितारे। उसे ज़मीन पर डाल दिया गया। सिपाहियों ने इंस्पेक्टर को बताया कि ये खड़ा नहीं हो सकता। इंस्पेक्टर कुर्सी से उठा, शंभू की हालत उस पंख टूटे फ़ाख़्ता जैसी हो रही थी जिसे भूके करगसों के सामने डाल दिया गया हो, और वो उसका ज़िंदा गोश्त नोचने के लिए धीरे धीरे उसकी तरफ़ बढ़ रहे हों। उससे फिर वही सवाल पूछा गया, “पादरी ने धर्म परिवर्तन के लिए तुम पर ज़ुल्म किया था ना?”

    “नहीं।”

    “तुमने क़त्ल होते हुए देखा था।”

    शंभू ने अपने ख़ुश्क होते हलक़ में अजीब से ख़रख़राहट महसूस की। उसे उबकाई आरही थी। बाहर बारिश फिर शुरू हो गई थी। बादल शायद अपने खो जाने वालों के लिए रो रहे हैं। उसने माँ-बापू और फ़ादर को याद किया। ऐंठी हुई ज़बान से बमुश्किल ‘हाँ’ कहा और ज़ेहन को चारों तरफ़ से समेट को माँ-बापू के चेहरों पर मर्कूज़ कर दिया।

    उसके दोनों हाथों की हथेलियों पर बूट की एड़ियाँ दबाव बढ़ाते बढ़ाते घूमने लगीं। उसने देखा सारा गाँव जल-थल हो रहा है और उसके माँ-बापू गाँव के बाहर गाँव आने वाली राह पर नज़रें जमाए खड़े हैं। उन्हें देखकर शंभू बड़े ज़ोर से चीख़ा था। माँ-बापू मुहाजिर परिंदों की वापसी का मौसम गया है। मैं रहा... हूँ।

    स्रोत:

    Virasat (Pg. 100)

    • लेखक: शफ़क़
      • प्रकाशक: एजुकेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 2003

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