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साँपों से न डरने वाला बच्चा

शौकत हयात

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    स्टोरीलाइन

    यह कहानी एक ऐसे शख़्स की है, जो घर वालों से दूर एक मामूली सी तनख़्वाह की नौकरी करता है। अपने परिवार की ज़रूरियात को पूरा करने के लिए वह एक दोस्त की सलाह पर क़र्ज़ ले लेता है और घर जाने से पहले ख़ूब सारी ख़रीदारी करता है। शाम को वह दोस्त के साथ एक पार्क में जाता है, जहाँ कभी वह अपने बीवी-बच्चों के साथ आया करता था। अगले दिन गाड़ी में बैठकर वह उस शहर की ओर चल देता है जहाँ कई अनहोनियाँ उसका इंतिज़ार कर रही होती हैं।

    अब्दुल मन्नान से वो मेरी आख़िरी मुलाक़ात थी।

    उसके बाद से उसे देखने के लिए आँखें तरस गईं।

    जब भी दफ़्तर के कैम्पस में दाख़िल होते हुए आदमक़द चहार दीवारी पर नज़र पड़ती तो निगाहों में अब्दुल मन्नान रोशनी के झमाके की तरह नमूदार होता।

    उसका दुबला पुतला जिस्म, धौंकनी की तरह फूलता बिचकता सीना, तेज़ी से हिलते हुए हाथ... हाथों की जुंबिश में अजीब सी बेचैनी और इज़्तिराब... जैसे ज़्यादा तेज़ हुए तो सारी दुनिया को उलट कर रख देंगे आस-पास के दफ़ातिर के मुलाज़मीन की भीड़ उसके गिर्द जमा रहती।

    “ये दुनिया इन पेट भरों ने जहन्नुम बना दी है, और हमें गली दुनिया में जन्नत के बहलावे दिए जाते हैं... मुझे कोई बताए कि इस नरक में जीते-जी मौत झेलते हुए स्वर्ग के लाइक़ कोई रह पाएगा... उठो... आँखें खोलो... एक ज़बरदस्त छलांग लगाओ और पेट भरों की छातीयों को...”

    उसकी तक़रीर के इस तरह जज़्बाती और गर्मा गर्म हिस्से लोगों के ख़ून की हरारत में इज़ाफ़ा कर देते। तालियों की गड़गड़ाहट से आसपास की इमारतें काँपने लगतीं।

    उन दिनों अब्दुल मन्नान बेहद परेशान था। नई नई मुलाज़मत थी। अर्स-ए-दराज़ तक बेरोज़गारी झेलने वाले अब्दुल मन्नान की आँखों में छोटे बड़े कई सपने छुपे थे। मगर उसका सबसे बड़ा ख्वाब दुनिया को बदलने का था। सोवीयत यूनीयन के इन्हिदाम ने उसके इरादों को मुतज़लज़ल नहीं किया था क्योंकि वो बहुत दिनों से उसे ग़लत रास्ते पर मुड़ जाने वाला गुमराह हरावल दस्ता समझता था।

    “अब्दुल मन्नान साहब आप दफ़्तर बहुत देर से आते हैं?” अफ़सर उसे ख़शमगीं निगाहों से घूरते हुए कहता।

    “जनाब बहुत परेशानियों में मुब्तला रहता हूँ, मेरी जगह कोई दूसरा हो तो जीना भूल जाये।”

    अफ़सर आगे कुछ बोलने की ज़रूरत समझता।

    नीचे चाय के ढाबे पर वो बताता कि उसकी परेशानियों में नित नए इज़ाफे़ होते जा रहे हैं। भाई की पढ़ाई, माँ की लाइलाज बीमारी, बहन की शादी, बच्चों के खिलौनों की फ़रमाइशें... और... अब उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। अपने और घर वालों के लिए उसने क्या किया... उनके लिए भी तो उसके कुछ फ़राइज़ हैं। मज़े ले-ले कर चाय की चुसकियां लेने वाला और बात बात पर क़हक़हे लगाने वाला बंदा हाथों में चाय लिए हुए बस सोचता ही रह जाता। ख़ाली ख़ाली निगाहों से ऊंची बिल्डिंगों और आसमान की तरफ़ घूरता हुआ।

    “क्या ढूंडते हो अब्दुल मन्नान... किसकी तलाश में हो?” कोई उसे दूर से आवाज़ देता हुआ सवाल करता।

    उसके क़ल्ब में कोई इमारत डहती रहती।

    “बेटे, इस बार तुम्हारे लिए बैट्री से चलने वाली गाड़ी ज़रूर लाऊँगा और हाँ बेटी, तुम्हारी वो हँसने और रोने वाली गुड़िया भी।”

    “अम्मां, तुम्हारी दवाएं... भाई, तुम्हारी किताबें... रजनी पाम दत्त की इंडिया टूडे का नया और महंगा एडिशन भी।”

    उसे झिंझोड़ना पड़ता।

    “यार ये बिस्तर नहीं जो आराम से लेट कर ख्वाब देख रहे हो... ये चाय का ढाबा है, जिस जगह तुम बैठे हो, वो ईंटों के सहारे पर टिकी बोसीदा बेंच है... सर पर ज़्यादा बोझ लिए इस पर बैठे रहोगे तो चरमराकर नीचे रहेगी।”

    “आँ...” वो चौंकता।

    “तुमने ठीक कहा, लेकिन जहाँ हम हैं इससे भी नीचे क्या...”

    चाय ठंडी हो चुकी थी। उस वक़्त बग़ल की गली से एक लाग़र सी कुतिया अपने आधे दर्जन पिल्लों के साथ आती और खाने पीने की चीज़ों की आस में ढाबों की तरफ़ देखती हुई थके थके क़दमों से आगे बढ़ जाती। पिल्ले कूँ कूँ करते हुए उसके पैरों से लिपटे रहते और कुतिया भौंकती हुई अपने पैरों से उन्हें परे धकेलती रहती।

    एक गाय फलों के अर्क़ निकालने वाले ख़्वांचे वाले को ग़ाफ़िल देखकर फलों पर मुँह मारने की कोशिश करती और दुकानदार से डंडे खाती हुई आदमियों से टकराती हुई जान बचाकर भागने की कोशिश करती। कई आदमी ठोकर खाकर गिरते और हवास बाख़्ता हो कर उठते हुए अपने कपड़े झाड़ने लगते।

    “अब्दुल मन्नान जरा अलग चलो, कुछ बातें करनी हैं।”

    मैंने उसे बताया, “गुबंदों की ताराजी के दूसरे दिन तुम नहीं आए, कुछ लोग बेहद ख़ुश थे... जैसे कोई गड़ी हुई दौलत हाथ लगी हो, बड़ा ज़हर भरा हुआ है। अरे भाई, हिस्ट्री बताती है हम तो यहाँ के असली बाशिंदे हैं... हमसे ग़ैरों सा सुलूक वो करते हैं जो ख़ुद हमला-आवर रहे हैं।”

    अब्दुल मन्नान ने कहा, “छोड़ो इन फ़ालतू बातों को... बुनियाद परस्तों के हथकंडों से मैं ख़ूब वाक़िफ़ हूँ। हमने भी तो हुकमरानों की साइकि से नजात हासिल नहीं की... महकूमों के दर्द को समझेंगे तो वक़्त की हिक्मत समझ जाएंगे... जानते हो उस दिन हज़ारों बोध भिक्षुओं के दिक्षा समारोह में कैसी कैसी तल्ख़ हक़ीक़तें सामने आईं। यक़ीन जानो समझदार लोग अभी भी इस मुल्क में बस्ते हैं... मायूस होने की ज़रूरत नहीं... बुद्धम शरणम् गच्छामि...”

    इलाक़े इलाक़े से ईंटें जमा हो रही थीं। फ़िज़ा में फिर से ज़हर भरा जा रहा था। सड़कों पर चलना दुशवार हो गया था। कब कहाँ किस की शामत आजाए कहना मुश्किल था।

    उसने कहा, “भाई, जैसे भी हो मुझे अपने बच्चे के लिए बैट्री से चलने वाली गाड़ी, बेटी के लिए हँसने रोने वाली गुड़िया ख़रीदनी है और बहन की शादी के लिए पैसे जुटाने हैं।”

    मैंने अब्दुल मन्नान को मश्वरा दिया कि वो पी एफ़ या थरेफ़्ट सोसाइटी से क़र्ज़ लेकर अपने ये मसाइल हल करले। लेकिन अपनी ज़िंदा दिली से किनाराकश हो। यूं हाथों में चाय का कप लेकर बग़ैर पिए हुए उसे ठंडा कर दे। अब्दुल मन्नान ने दोनों जगह दरख़ास्तें दीं। एक जगह से क़र्ज़ की मंज़ूरी मिल गई। अब्दुल मन्नान बेहद ख़ुश था। क़र्ज़ लेकर कम लोग इतना ख़ुश होते होंगे।

    मेरे साथ चल कर उसने छुट्टी की दरख़ास्त पेश की। अपने शहर के लिए रिज़र्वेशन टिकट लिया। दो दिन बाद उसकी गाड़ी थी।

    अपने घरवालों के लिए उसने जम कर ख़रीदारी की। उस दिन तो उसका रवय्या ही बदला हुआ था। जो अब्दुल मन्नान कम क़ीमत की चीज़ों के पैसे देने में मोलतोल करता, वो उस दिन दुकानदारों को मुँह-माँगी रक़म दे रहा था। सबके लिए उसने कोई कोई तोहफ़ा ख़रीदा। बहन की शादी के लिए अलग से ख़रीदारी की। बेवा माँ के लिए रंगीन सारी। मैं थोड़ा मोतरिज़ हुआ। लेकिन उसने कहा कि कभी तो वो भी गुलाबी रंग का हिस्सा बने। सफ़ेद और स्याह ने उसे बहुत पहले भरी जवानी में ज़ईफ़ी की ज़ंजीर पहना दी। बेटे के लिए बैट्री वाली क़ीमती गाड़ी और बेटी के लिए टेप रिकार्डर से बोलने वाली गुड़िया।

    ज़बरदस्ती उसने मुझे अच्छे होटल में ग्रील और पराठे खिलाए। ख़ुद यूं खा रहा था जैसे ज़िंदगी में पहली बार अच्छा खाना नसीब हो रहा हो। मिर्च से उसकी आँखें भीग गईं। आँखें पोंछता और गोश्त पर टूटता हुआ अब्दुल मन्नान मुसव्विर की किसी अजीब सी कैफ़ीयतों वाली तस्वीर का मुरक़्क़ा पेश कर रहा था। क़र्ज़ लिए गए पैसे की ये शाहखर्ची मुझे अच्छी मालूम हुई। वो कई प्लेट ग्रील और मुतअद्दिद पराठे साफ़ कर गया, लेकिन मैं... उसका दोस्त होने के नाते उसकी हालत पर तरस आरहा था। एक प्लेट पर ही मैंने इक्तिफ़ा किया।

    छुट्टी की दरख़ास्त वो दे चुका था। दो दिन के बाद के रिज़र्वेशन ने उसके घर पहुँचने की बेताबी बढ़ा दी थी। दूसरे रोज़ उसने मुझे बोटेनिकल गार्डन चलने पर आमादा कर लिया। इस तरह वो दो बरस पहले बीवी-बच्चों के साथ वहाँ जाने की याद को ताज़ा करना चाह रहा था।

    “वो देखो... उसी हाथी पर मेरे बच्चे ने सवारी की थी, बड़ा दिलेर है मेरा बेटा... उसे हाथी पर चढ़ाते हुए मैं डर रहा था लेकिन वो ज़रा भी ख़ाइफ़ था। इस छोटी सी उम्र में हाथी की सवारी करता रहा।” अब्दुल मन्नान ने दूर जाते हुए हाथी को देखकर बताया।

    कुछ आगे बढ़ने पर बच्चों की ट्रेन के लिए बने ख़ूबसूरत और दिलकश डोनाल्ड डक नगर स्टेशन के पास पहुँच कर फिर वो यादों में खो गया।

    “यार कमाल है, चिल्डर्न ट्रेन के नाहमवार हिचकोलों के बीच भी वो बच्चा सीट पर मुस्तक़िल खड़ा रहा और उचक उचक कर शर्मीली बिल्ली, मोर, हिरन, शेर बब्बर, तेंदुवे और मुख़्तलिफ़ जानवरों के पिंजरों को देखता रहा। हाथ हिला हिला कर उन्हें इशारा करता रहा... तालियाँ बजा बजा कर अपनी ख़ुशी का इज़हार करता रहा।”

    मैंने महसूस किया कि अब्दुल मन्नान अपने बच्चे को याद कर के क़लबी सुकून हासिल कर रहा है। बीवी की बारी भी आई और उसके होंटों पर अजीब सी दिलफ़रेब बंद बंद सी मुस्कुराहट नमूदार हुई।

    “वो सीधी-सादी औरत सीट पर घूँघट निकाले इस तरह सुकड़ी सिमटी बैठी रही जैसे सुहागरात में बिस्तर के कोने पर बैठी हुई दुल्हन शौहर की आमद से पहले आने वाले नामानूस लम्हों के तसव्वुर से ख़ौफ़ में मुब्तला हो... इस नामुराद ने कहीं इंजवाए नहीं किया, हर जगह क़ाफ़िले से अलग ख़ामोश तमाशाई की तरह मब्हूत बनी रही... बैंड बाजों के बीच शामिल-ए-बाजा, यूं समझो कि सिल्क कपड़े में सूती पैवंद।”

    अब्दुल मन्नान हस्ब-ए-मामूल अपने ब्यानिया में बीच बीच में छोटी छोटी तश्बीहें और इस्तिआरे भी गढ़ता जा रहा था।

    हम लोगों ने बोटिंग की, इसलिए कि उसने दो साल पहले अपने बच्चों के साथ कुश्ती का सफ़र भी किया था। “साँप घर” भी गए, क्योंकि उसके बच्चों को साँप देखने का बहुत शौक़ था। जैसा कि उसने बताया ख़ुद वो साँपों से बेहद डरता था। उसके बचपन का एक भयानक वाक़िआ उसके ज़ेहन पर अब तक सब्त था। जब उसका बाप साँप की ज़द में हलाकत का शिकार हुआ था। सारे जादू मंत्र राइगां चले गए थे। कोई इलाज काम आया था। जिस पर पड़ोस की औरतें उसकी माँ के हाथों की सुहाग की चूड़ियां तोड़ रही थीं, उसे ये सब क़ुदरत का अनोखा और नागुज़ीर खेल मालूम हुआ था। अब तो ये सब याद करके ही उस के रौंगटे खड़े होजाते... बच्चों की ज़िद के आगे उसने गोद में उठा उठा कर क्रेत, कोबरा, अजगर और मुतअद्दिद साँपों के नज़्ज़ारे उन्हें कराए थे।

    “ताज्जुब है मेरे बच्चे साँपों से नहीं डरते, शायद हमारे बाद की पीढ़ी साँपों से नहीं घबराती... हम ही हैं जो साँपों से इस क़दर ख़ौफ़ खाते हैं।”

    उसने बताया कि इमरानी इर्तिक़ा की ये कड़ी इत्मीनान बख़्श है कि मुस्तक़बिल में बच्चों के लिए साँप मसला नहीं रहेंगे।

    उसी टी स्टाल पर उसने चाय भी पी जहाँ उसने बीवी बच्चों के साथ नाशता किया था। उसके बच्चों को समोसे बेहद पसंद थे और उसे ख़ाली पेट में चाय पर चाय। दो गिलास पानी और एक कप चाय... दिन-भर यही सिलसिला जारी रहता।

    ग़रज़ उस रोज़ उसने बोटेनिकल गार्डन में मेरे साथ घूमते हुए अपने घर वालों को जी भर कर याद किया।

    धूप की शिद्दत कम होने लगी थी। दिन अब ज़वाल की तरफ़ माइल था। फ़िज़ा पर मुर्दनी सी छाने लगी। चिड़ियाघर की सैर के लिए आए हुए लोगों पर पज़मुर्दगी तारी होने लगी थी। मुझे वापसी का ख़्याल आया, नागाह मैंने महसूस किया कि वक़्त से पहले ही लोग वापस जाने लगे थे। गेट तक पहुंचते पहुंचते फ़िज़ा की ख़मोशी सन्नाटे में तब्दील होती हुई महसूस हुई। मैंने ख़तरे की बू सूँघते हुए उससे सरगोशियों में कहा, “मुआमला कुछ गड़बड़ मालूम होता है। ज़िंदगी के हक़ीक़ी चिड़ियाघर में साँप घर के शीशे शायद टूट गए हैं... फ़ौरन वापस चलें।”

    शाहराह पर गाड़ी मोटर का नाम-ओ-निशान नहीं था, इक्का दुक्का टेम्पो हुआ से बातें करते हुए बिना किसी मुसाफ़िर की परवा किए हुए अपनी मंज़िल की तरफ़ गामज़न थे।

    दाढ़ी वाले गेटमैन ने हम दोनों की परेशानी को भाँपते हुए इशारे से बुलाकर धीमी आवाज़ में कहा, “शहर में कशीदगी है... अभी भी ख़बर मिली है, अपने इलाक़े में ज़रा सँभल कर जाइएगा।”

    देखते देखते चारों तरफ़ अजीब ख़ौफ़-ओ-हरास छा गया था... चिड़ियाघर से निकले हुए सारे लोग बिला तफ़रीक मज़हब-ओ-मिल्लत अपनी अपनी जानों के तहफ़्फ़ुज़ को लेकर गहरे ख़ौफ़ में मुब्तला थे। काटो तो लहू नहीं। सब एक दूसरे को शक की निगाह से देखते हुए छोटी छोटी टोलियों में बट चुके थे।

    मुझे लगा कि ये इंसान चिड़ियाघर के अंदर सलाख़ों में बंद जानवरों से भी ज़्यादा बेबस, महसूर और मुहताज हैं। देखते देखते फ़िज़ाई चादर का रंग गहरा होने लगा। ख़ौफ़-ओ-दहश्त में इज़ाफ़ा होता जा रहा था। औरतों और बच्चों के चेहरों से सैर-ओ-तफ़रीह की सारी मसर्रत ग़ायब हो चुकी थी। हर चेहरा पीलिया के मरीज़ की तरह ज़र्द नज़र आरहा था।

    अब्दुल मन्नान का पुरानी यादों को ताज़ा करने का जुनून ख़त्म हो चुका था। बीवी बच्चे सब के सब ज़ेहन से मह्व हो चुके थे। इस वक़्त यही अंदेशा ग़ालिब था कि अपनी रिहाइशगाह तक किसी तरह महफ़ूज़-ओ-सलामत पहुँच जाये। उसने मुझे पैदल चलने का मश्वरा दिया। हम दोनों इत्तिफ़ाक़ से एक ही मुहल्ले में रहते थे। हम लोग किसी तरह अपने इलाक़े में पहुँच गए। यहाँ पहुँच कर मालूम हुआ कि ज़हर चारों तरफ़ फैल चुका है। हल्की सी चिंगारी भी सब कुछ जलाकर ख़ाकिस्तर कर सकती है।

    अब्दुल मन्नान को अब बीवी बच्चों की सलामती की फ़िक्र सताने लगी। मैं इस हक़ में नहीं था कि वो इस माहौल में इतना तवील सफ़र इख्तियार करे, लेकिन और चारा क्या था। चार-ओ-नाचार उसे जाना ही था।

    मैं उसे सी आफ़ करने स्टेशन गया था।

    अब्दुल मन्नान से वो मेरी आख़िरी मुलाक़ात थी।

    उसके बाद से उसे देखने के लिए मेरी आँखें तरस गईं।

    ट्रेन खुलने से पहले तक वो बीवी बच्चों के बारे में बातें करता रहा था। बड़ी हिफ़ाज़त से उसने उनके लिए ख़रीदे हुए तोहफ़े अपने सिरहाने रखे। रुख़्सत होते वक़्त उसकी आँखें भीग गईं।

    वो उससे मेरी आख़िरी मुलाक़ात थी।

    रवाना होती हुई ट्रेन की खिड़की से हिलते हुए उसके काँपते हाथ और ख़ौफ़ से उसका ज़र्द चेहरा अब तक याद है।

    उसके बाद वो नहीं लौटा।

    वो जिस इलाक़े में गया था वहाँ इंसानी अजसाम फूल गोभियों में तब्दील हो गए थे।

    मुझे यक़ीन है कि उसका साँपों से डरने वाला बच्चा ज़रूर ज़िंदा बच गया होगा।

    उसके बाद से मैं बीमार रहने लगा। शायद मुझे इलाज की ज़रूरत है। एक मख़सूस ख्वाब मुझे परेशान करने लगा।

    चारों तरफ़ ऊंचे ऊंचे स्काई स्क्रेपर आसमान से बातें कर रहे हैं।

    चश्मज़दन में उनके दरमियान से एक बच्चा नमूदार होता है।

    देखते देखते वो जवान होता है और मुझे हाथ हिलाते हुए कहता है, “हेलो अंकल... वी मस्ट बी हैप्पी इन इंडिया।”

    उसके हाथों में हथियार है।

    दूर कहीं से धमाकों के दरमियान ऊंची ऊंची बिल्डिंगों के ज़मीन दोज़ होने की आवाज़ें आरही हैं। मैं उस के चेहरे पर ग़ौर करता हूँ। उसके चेहरे के नुक़ूश मैं अब्दुल मन्नान की नुमाया झलक है। वही साँपों से डरने वाला बच्चा।

    मैं अम्न पसंद रोशन ख़्याल शहरी हूँ। उस बच्चे से मुझे डर लगने लगा है।

    स्रोत:

    Gumbad Ke Kabootar (Pg. 138)

    • लेखक: शौकत हयात
      • प्रकाशक: शौकत हयात
      • प्रकाशन वर्ष: 2010

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