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भंवर

MORE BYग़ुलाम अब्बास

    स्टोरीलाइन

    हाजी साहब एक पाकबाज़ और दीनदार शख्स हैं। वह शहर की गंदगी दूर करने के लिए बाज़ारी औरतों के बीच तक़रीर करते हैं और उन्हें गुनाहों के दलदल से निकालने की कोशिश करते हैं। उन्हीं औरतों में दो बहनें गुल और बहार हैं। गुल हाजी साहब की बातों से प्रभावित होकर उनके पास रहने चली आती है। वह उसकी शादी करा देते हैं। गुल की पहली दो शादियाँ नाकाम रहती हैं। उसका तीसरा शौहर बीमार पड़ जाता है। हाजी साहब उसकी फ़िक्र में दुखी है कि आख़िर में गुल की बहन बहार भी उनके पास चली आती है।

    अल्लाह के कुछ बंदे ऐसे भी हैं जिनके लिए सौम-ओ-सलात का पाबंद होना ही काफ़ी नहीं होता बल्कि वो अपने मज़हबी वलवलों की तसकीन के लिए इससे कहीं सिवा चाहते हैं। उनकी तमन्ना होती है कि जिस नूर से उनका सीना रौशन है उसकी किरन दूसरों तक भी पहुँचे। वो गुमराहों की हिदायत के लिए ख़तरनाक जगहों पर भी जाने से नहीं घबराते। उन्हें जान का ख़ौफ़ होता है जग-हँसाई का, बल्कि वो उस काम को फ़रीज़ा समझ कर अदा करते हैं।

    हाजी शफ़ाअत अहमद ख़ाँ ऐसे ही दीनदारों में से थे। पचास के लग भग सन। भारी भरकम जिस्म मगर ख़ूब गठा हुआ। मालूम होता था कि जवानी में कभी कसरत से शौक़ रहा होगा। सुर्ख़-ओ-सफ़ेद रंग, चौड़ा चेहरा, कुड़-बुड़ी डाढ़ी मगर ख़ूब भरी हुई। आँखें बड़ी-बड़ी शरबती रंग की जिनमें हर वक़्त सुर्ख़ी झलकती रहती। चेहरे पर एक जलाली कैफ़ियत, लिबास उनका उमूमन ये होता। ख़ाकी रंग की शलवार, ख़ाकी रंग की क़मीस, चार ख़ाने कपड़े का कोट, पाँव में निरी का जूता जो हमेशा गर्द से अटा रहता। सर पर सफ़ेद साफ़ा कुलाह पर बंधा हुआ, हाथ में मोटे बेद की छड़ी। ग़रज़ लिबास और शक्ल-ओ-सूरत से वो अच्छे ख़ासे मर्द-ए-मुजाहिद मालूम होते थे।

    हाजी साहब सुबह को शहर के एक सिरे से जो गश्त शुरू करते तो शाम होते-होते पूरे शहर को जैसे खंगाल डालते। उनके जानने वालों का कोई शुमार था। क़दम-क़दम पर अलेक-सलेक होती रहती। कभी पाव-पाव घंटे सड़क के किनारे ही तलक़ीन-ओ-हिदायत का सिलसिला जारी रहता। कभी कोई जान पहचान वाला किसी ज़रूरत से साथ ले जाता मगर घंटे डेढ़ घंटे के बाद वो फिर गश्त में मसरूफ़ दिखाई देने लगते। वो अपनी दीन-दारी और बुजु़र्गी की वजह से बड़े हर-दिल अज़ीज़ थे। यहाँ तक कि शहर के हुक्काम भी उनकी इज़्ज़त करते थे। कभी महल्ले का कोई आवारा मिज़ाज लड़का जुआ खेलने या किसी और फ़ेअल-ए-शनीअ के इल्ज़ाम में पकड़ा जाता तो उसका बाप हाजी साहब ही की पनाह लेता।

    “हुज़ूर। इस नालायक़ के हाथों सख़्त आजिज़ गया हूँ। मैंने तो कभी का आक़ कर दिया होता। मगर उसकी बदनसीब माँ कुछ करने नहीं देती। जब से सुना है कि हवालात में बंद है सर पीट पीट कर बुरा हाल कर लिया है...” और हाजी साहब की सिफ़ारिश पर थानेदार मामूली तंबीह के बाद लड़के को रिहा कर देता।

    उनके रसूख़ की वजह ये भी थी कि किसी ज़माने में वो ख़ुद भी शहर के अहलकारों में से थे। शुरू ही से वो नेक दिल और मुन्कसिर-उल-मिज़ाज वाक़ेअ’ हुए थे। सादगी से ज़िंदगी बसर करते थे। इसी का नतीजा था कि उन्होंने हर महीने थोड़ी-थोड़ी रक़म पस-अंदाज़ कर के एक छोटा सा घर बना लिया था। जब उन्हें नौकरी करते बीस बरस हो गए तो हज का शौक़ हुआ। इस फ़रीज़े से फ़राग़त पाकर हंसी ख़ुशी वतन लौटे थे कि अचानक एक अलमनाक हादसा उन पर गुज़रा। उनका इकलौता बेटा जिसकी उम्र अठारह बरस की थी हैजे़ का शिकार हो कर चौबीस घंटे के अंदर-अंदर चल बसा और फिर उसके दो ही दिन बाद उसकी माँ भी जिसे बेटे की तीमारदारी में छूत लग गई थी उसके पास पहुँच गई। इस वाक़िआ का उनके दिल-ए-पर ऐसा गहरा असर हुआ के उन्होंने अलाइक़-ए-दुनयवी से मुँह फेर लिया। और बाक़ी उम्र हिदायत और तब्लीग़ के लिए वक़्फ़ कर दी।

    उसी ज़माने में उनके सर में ये धुन समाई कि रन्डियों की इस्लाह की जाये। भला क़हबा ख़ानों से बढ़कर मासियत के अड्डे और कौन से हो सकते हैं। चुनाँचे उनका दस्तूर था कि हर जुमेरात की शाम वो क़ुरआन-ए-मजीद सब्ज़ जुज़्दान में रख, सीने से लगा रन्डियों के बाज़ार का रुख़ करते और उन्हें गुनाहों से तौबा करने और नेक राह पर चलने की हिदायत करते। रफ़्ता-रफ़्ता उन औरतों के घरों में उनकी आमद-ओ-रफ़्त एक मामूल बन गई। उनकी सूरत देखते ही गाना बजाना बंद कर दिया जाता और उनके पंद-ओ-नसाएह को ख़ामोशी से सुना जाता। इसके बाद घर की कोई बड़ी बूढ़ी नाइका ऐसे लहजे में जो होता तो नरम मगर तअन से ख़ाली ना होता। कहती...

    “हज़रत अपने शौक़ से तो हम ये गुनाह करते नहीं। ये दोज़ख़ जो लगा है। उसको भी तो भरना है। आप हमारी गुज़र-बसर का इंतेज़ाम कर दीजिए हम आज ही इस पेशे को छोड़े देते हैं। मगर इंतेज़ाम माक़ूल होना चाहिए। मामा गीरी तो हम करने से रहे।” और यूँ उन्हें वक़्ती तौर पर टाल दिया जाता।

    मगर कभी-कभी इन घरों में हाजी साहब की तहक़ीर भी ख़ूब होती और उन्हें गुनाह और बे-हयाई के ऐसे ऐसे मंज़र देखने पड़ते कि शर्म से नज़रें झुका लेनी पड़तीं। एक दफ़ा एक कोठे पर किसी ज़याफ़त का एहतिमाम था। बदक़िस्मती से हाजी साहब वहाँ पहुँच गए। उनको देखना था कि एक क़हबा ने जिसके मुँह से शराब के नशे में राल टपक रही थी, लपक कर उनके गले में बाहें डाल दीं और उनकी लंबी डाढ़ी के पै दर पौ बोसे लेने शुरू कर दिए। फिर वो लड़खड़ाती हुई आवाज़ में बोली “ए मेरे मजाज़ी ख़ुदा मुझे अपने साथ ले चल। मैं तेरे पाँव दाबूँगी। तेरे सर में तेल डालूँगी। तेरी डाढ़ी में कंघी करूँगी और जितनी क़हबाएं और उनके आश्ना इस कोठे पर जमा थे, ये मंज़र देख मारे हंसी के लोट-लोट गए। ऐसे मौक़ों पर वो पैग़म्बरों और वलियों के क़िस्से याद करते कि कैसी-कैसी ज़िल्लतें और ईज़ाएं उन्हें राह-ए-हक़ में उठानी पड़ीं। और इस तरह अपने दिल को तक़वियत देकर वो पहले से ज़्यादा मुस्तैदी के साथ तब्लीग़ का काम जारी रखते।

    रफ़्ता-रफ़्ता वो उस महल्ले में ख़ासे बदनाम हो गए। बाज़ दफ़ा आवारा लड़कों और ओबाश लफ़ंगों की टोली उनके पीछे-पीछे हो लेती। ये लोग बालाख़ानों में बैठी हुई बेसवाओं की तरफ़ हाथों से तरह-तरह के इशारे करते, फ़हश आवाज़े कसते और हाजी साहब को अपना लीडर बनाकर मुज़हिक नारे लगाते। इन्हीं बातों से अक्सर लोग हाजी साहब को मजज़ूब या सौदाई समझने लगे थे। वो उसकी तौज़ीह भी करते कि इकलौते जवान बेटे की मौत से उनके दिमाग़ में ख़लल गया है।

    एक दिन हाजी साहब के पास एक शख़्स ख़बर लाया कि बाज़ार में दो नई रंडियाँ आई हैं। एक का नाम गुल है और दूसरी का बहार। दोनों बहनें हैं। एक नाचती है दूसरी गाती है। दोनों अपने-अपने फ़न में माहिर हैं। हुस्न भी दोनों का क़ियामत का है। चंद ही रोज़ में सारे शहर में उनका चर्चा हो गया है। लोग परवानों की तरह गिर रहे हैं। सुना है बैंक का एक मुलाज़िम उनको राम करने के लिए बैंक से बहुत सा रुपया उड़ा लाया मगर पुलिस वाक़े पर इन बेसवाओं के घर पहुँच गई और उस शख़्स को नोटों की गडि्डयों समेत पकड़ लिया गया। एक नवाब-ज़ादे ने, जो क़ल्लाश हो गया था अपनी महरूमी पर उनके मकान की सीढ़ियों में पिस्तौल से ख़ुदकुशी कर ली। ग़रज़ वो हंगामे हुए कि एक मुद्दत से सुनने में नहीं आए थे। लोग कहते थे कि ये दूसरी ज़ुहरा और मुश्तरी हैं जिनके सह्र-ए-हुस्न से इन्सान तो क्या फ़रिश्ते भी महफ़ूज़ नहीं।

    हाजी साहब ने मस्लिहतन कुछ दिनों से उस बाज़ार में जाना छोड़ रखा था मगर इस नए फ़ित्ने का हाल सुना तो फ़ौरन उनके दिल में एक नया जोश पैदा हुआ। उन्होंने दिल में कहा कि इन औरतों को जल्द से जल्द राह-ए-रास्त पर लाना चाहिए। वर्ना ख़ुदा मालूम ये कितने घरों को तबाह और कितने लोगों के ईमान को ग़ारत कर देंगी। उन्होंने ज़ुहर की नमाज़ पढ़ी। क़ुरआन शरीफ़ सीने से लगाया और पता पूछते-पूछते गुल और बहार के बालाख़ाने पर पहुँच गए। वो दोनों रात-भर जागने के बाद सुबह को जो सोई थीं तो अब सै पहर के क़रीब जाकर बेदार हुई थीं। इत्तेफ़ाक़ से उस वक़्त बूढ़ी ख़ादिमा के सिवा घर में कोई और था। उन्होंने अपने सामने सुर्ख़-सुर्ख़ आँखों वाले एक मजज़ूब पठान को जो देखा तो डर के मारे उनकी घिग्घी बंध गई। हाजी साहब चंद लम्हों तक हैरत से उनके हुस्न-ओ-जमाल को देखते रहे। फिर वो पुर-शफ़क़त लहजे मैं उनसे मुख़ातिब हुए।

    “मेरी बेटीयो मुझसे डरो नहीं। मैं किसी बुरी नीयत से नहीं आया हूँ। मैं तो तुम्हें सिर्फ ये बताने आया हूँ कि तुम्हारी ऐश-ओ-इशरत की ये ज़िंदगी एक धोका है। और ये धोका सिर्फ उसी वक़्त तक क़ायम है जब तक तुम्हारे गालों में ख़ून की ये चंद बूँदें हैं। उनकी तरो-ताज़गी आख़िर कब तक बाक़ी रहेगी। पाँच साल, सात साल, हद से हद दस साल। उसके बाद तुम एक क़ाबिल-ए-नफ़रत चीज़ बन जाओगी। अपने उश्शाक़ की नज़रों ही में नहीं, अपने अज़ीज़ तरीन रिश्तेदारों की नज़रों में भी। यहाँ तक कि तुम्हारी औलाद को भी तुमसे घिन आएगी। इसलिए कि तुम्हारा वुजूद उनके लिए इंतेहाई शर्मिंदगी का बाइस होगा।

    मेरी बच्चियो। ज़रा ग़ौर करो। तुम्हारी ज़िंदगी कैसी हंगामों से भरी हुई है दिन रात तुम्हारे चाहने वालों की धींगा मुश्ती। क़दम-क़दम पर जान का ख़ौफ़। हर वक़्त पुलिस का धड़का। अदालत में पेशियाँ , ये जीना भी कोई जीना है। मेरी बेटीयो। तुम्हारी जगह ये बाला ख़ाना नहीं है। बल्कि किसी शरीफ़ घर की चार-दीवारी है जहाँ तुम मल्लिका बन कर रहो। जहाँ तुम्हारा शौहर निगहबान और मुहाफ़िज़ हो। तुम्हारे नाज़ उठाए और तुम्हारे पसीने की जगह ख़ून बहाए। और जहाँ तुम्हारी औलाद के लिए तुम्हारे क़दमों के नीचे जन्नत हो।” ये कहते-कहते हाजी साहब की आवाज़ रिक़्क़त से भर आई और वो इससे आगे कुछ कह सके।

    दोनों बहनों पर से ख़ौफ़-ओ-हिरास तो दूर हो गया था। मगर इन बातों को सुनकर वो गुम-सुम रह गई थीं। आख़िर बड़ी बहन गुल ने कहा “हज़रत हमारे माँ बाप ने हमें यही पेशा सिखाया है, इसमें हमारा क्या क़ुसूर।” हाजी साहब ने उस दिन उनसे कुछ और कहना मुनासिब नहीं समझा। उन्होंने एक काग़ज़ के पुर्जे़ पर अपने घर का पता लिख कर उनको दिया और ये कह कर चले आए कि मुझे अपना बाप समझो और जब कभी कोई मुश्किल पड़े या मेरी ज़रूरत हो तो इस पते पर मुझे ख़बर कर दो।

    इस वाक़िआ को आठ रोज़ भी नहीं गुज़रने पाए थे कि एक दिन सुबह ही सुबह एक ताँगा उनके मकान के सामने आकर रुका। उसमें एक औरत बैठी थी जिसने स्याह बुर्क़ा ओढ़ रखा था। ताँगे में दो एक ट्रंक और कुछ छोटी-छोटी बुक़चियाँ भी थीं। हाजी साहब उस औरत को अपने मकान में ले गए और उसका सामान अंदर पहुँचा दिया गया।

    ये बहार थी जो सच-मुच ताइब हो कर गई थी। उसकी ख़ूबसूरत आँखें सूजी हुई थीं। मालूम होता था कई दिन से वो रोती रही है और अब भी उसके आँसू थमने में आते थे।

    “जिस दिन आप आए थे...” उसने हाजी साहब को बतलाया, “उसी दिन से हम दोनों बहनों में झगड़ा शुरू हो गया था क्यों कि अब मैं पल-भर के लिए भी बाज़ार में बैठना नहीं चाहती थी। आख़िर आज सुबह में उससे अलहदा हो गई हूँ।”

    अपनी उस कामयाबी पर जो बाज़ारी औरतों के इस्लाही काम के सिलसिले में उनकी पहली फ़तह थी, हाजी साहब को इस क़दर ख़ुशी हुई कि शायद बेटे के जी उठने पर भी होती। उन्होंने फ़ौरन कपड़े बदले और सौदा सलफ़ लेने बाज़ार चले गए। उनके पीछे बहार ने झाड़ू लेकर सफ़ाई की। चूल्हा मुद्दत से राख से भरा था, उसको साफ़ किया। बावर्चीख़ाने के फ़र्श को धोया पोंछा और अपने सुघड़पन से ज़ाहिर कर दिया कि हुस्न-ओ-जमाल, इल्म और शुस्ता लब-ओ-लहजे के साथ साथ वो उमूर-ए-ख़ाना-दारी से भी ना-वाक़िफ़ नहीं।

    चंद ही दिनों में बहार ने जिसका नाम अब हाजी साहब ने बदल कर बिल्क़ीस बेगम रख दिया था अपनी ख़िदमत गुज़ारियों से उनको यक़ीन दिला दिया कि वो सच्चे दिल से तौबा कर के आई है और अगर कोई शरीफ़ क़द्र-दान मिल गया तो सारी ज़िंदगी उसके साथ निबाह देगी। हाजी साहब को उससे सच-मुच ऐसी उलफ़त हो गई जैसी बाप को बेटी से होती है। उधर बिल्क़ीस भी उनका दिल से एहतेराम करती और उनके सामने शरीफ़ घरानों की लड़कियों की तरह हमेशा अपनी नज़रें नीची रखती। अब हाजी साहब को बिल्क़ीस के लिए किसी अच्छे रिश्ते की फ़िक्र हुई। क्यों कि वो ये ख़ूब समझते कि लड़की का असली घर उसके शौहर ही का होता है।

    सरकारी मुलाज़मत के दौरान में हाजी साहब का एक रफ़ीक़ का रहमत अली हुआ करता था। वो हाजी साहब की बड़ी इज़्ज़त करता था। ये भी उससे भाईयों की तरह पेश आते थे। वो तो मुद्दत हुई मर चुका था। मगर उसके लड़के अनवर ने हाल ही में इंजीनियरिंग का इम्तेहान पास किया था और उसे एक माक़ूल सरकारी मुलाज़मत मिल गई थी। अनवर हाजी साहब को ताया अब्बा कहा करता और अक्सर उनसे मिलने आया करता था। अभी चंद रोज़ हुए कि वो अपनी उस कामयाबी की इत्तेला देने आया था। अभी तक उसने शादी नहीं की थी। बिल्क़ीस के रिश्ते के सिलसिले में उनका ख़्याल फ़ौरन उसकी तरफ़ गया। वो उसके दफ़्तर पहुँचे और उसको शाम के खाने पर बुलाया। उधर घर आकर उन्होंने बिल्क़ीस से कहा “बेटी आज शाम एक मेहमान आरहा है। वो मेरे एक निहायत अज़ीज़ दोस्त की निशानी है। तुम ये मैले कपड़े उतार कर कोई अच्छा सा लिबास पहन लेना , वो मेरे बेटों की तरह है, इससे पर्दा नहीं करना होगा।”

    शाम को अनवर खाने पर आया तो बिल्क़ीस के हुस्न, उसकी शाइस्तगी और हया को देखकर मबहूत रह गया। हाजी साहब ने उसको बिल्क़ीस की बिप्ता सुनाई और उससे कोई बात छिपा रखी। दूसरे दिन वो फिर आया, फिर तीसरे दिन, फिर दिन में दो दो मर्तबा आने लगा और आख़िर महीने भी गुज़रने पाया था कि उन दोनों की शादी हो गई।

    अनवर और बिल्क़ीस की ख़ूब गुज़र होने लगी। वो दोनों अक्सर हाजी साहब से मिलने आया करते। अनवर अपनी बीवी को फ़रेफ़्तगी की हद तक चाहता था। उधर बिल्क़ीस भी दिल-ओ-जान से उस पर फ़िदा थी। उसके साथ ही वो हाजी साहब से भी ऐसी उलफ़त करने लगी थी गोया वो सच-मुच उसके बाप हैं। और फिर यही तो थे जिनके तुफ़ैल वो गुमराही के गढ़े से निकली थी।

    जब एक साल गुज़र गया तो अनवर की तबदीली किसी और शहर हो गई। हाजी साहब इन मियाँ बीवी को स्टेशन पर रुख़स्त करने आए तो जुदाई के ख़्याल से रोते-रोते बिल्क़ीस की हिचकी बंध गई। हाजी साहब ने बड़ी तसल्लीयाँ देकर उसे रुख़स्त किया। वो बा-क़ायदगी से हर महीने हाजी साहब को ख़त लिखती जिसमें उसकी और अनवर की ख़ैरियत और घर के हालात तफ़सील से लिखे होते। उसके इन ख़तों में एक बुलबुल की सी चहचहाहट थी। उन ख़तों का सिलसिला कोई दो बरस तक जारी रहा। उसके बाद जो ख़ुतूत आए उनका लहजा अचानक संजीदा हो गया। हाजी साहब ने इस तबदीली को बिल्क़ीस की बढ़ती हुई उम्र के तक़ाज़े पर महमूल किया। आख़िर तीसरे साल एक ख़त जिसे पढ़ कर वो भौंचक्का रह गए। लिखा था।

    अब्बा जान तस्लीम। मुझे अफ़सोस है कि ये ख़त पढ़ कर आपको सदमा पहुँचेगा। मैंने अर्से तक इस मुआमले को आपसे छुपाए रखा ताकि आपको दुख ना हो लेकिन अब बात इस हद तक बढ़ गई है कि उसका छुपाना मुम्किन नहीं। और मैं समझती हूँ कि इसमें मेरे शौहर अनवर का कुछ क़ुसूर नहीं। उसकी तमाम ज़िम्मेदारी उनके रिश्तेदारों पर है जो हर-रोज़ आकर उनके कान भरते रहते हैं। उन लोगों को किसी किसी तरह मेरी पिछली ज़िंदगी का हाल मालूम हो गया है और वो मुझसे सख़्त नफ़रत करने लगे हैं बरमला ताने देते हैं। चूँकि बदक़िस्मती से इस अर्से में मेरे कोई औलाद भी नहीं हुई जो शायद अनवर को मुझसे क़रीब-तर कर देती। इसलिए ये लोग अब इस कोशिश में हैं कि अनवर मियाँ से मुझे तलाक़ दिलवा दें। मैंने उस लड़की को भी देखा है जिसको वो उनके पल्ले बाँधना चाहते हैं। अच्छी शरीफ़ लड़की है, बे-चारी सूरत शक्ल की भी बुरी नहीं। अब मेरी आपसे इल्तिजा है कि इससे पहले कि ये लोग मुझे धक्के देकर निकाल दें आप ख़ुद आएँ और मुझे तलाक़ दिलवाकर ले जाएँ।

    आपकी बेटी

    बिल्क़ीस

    इस ख़त की इबारत ने हाजी साहब को सख़्त बेचैन कर दिया। वो रात-भर बिस्तर पर करवटें बदलते रहे। सुबह हुई तो वो स्टेशन पहुँचे और पहली गाड़ी से उस शहर को रवाना हो गए जहाँ अनवर मुलाज़िम था। रात भर वो ग़म और ग़ुस्से से खौलते रहे। उनका जी चाहता कि वो जाते ही अनवर का मुँह नोच लें। रास्ते भर वो आयात-ए-क़ुर’आनी पढ़-पढ़ कर अपना ग़ुस्सा ठंडा करते रहे।

    मुसालहत का सवाल ही नहीं था। क्योंकि जब दिलों में फ़र्क़ पड़ जाये तो ज़िंदगी का लुत्फ़ जाता रहता है। अब उनकी कोशिश ये थी कि वो अनवर से हक़ महर हासिल करें और वो तमाम जे़वरात और कपड़े भी जो अनवर ने अब तक बिल्क़ीस को बनवाकर दिए थे। अनवर और उसके रिश्तेदारों ने ज़्यादा मुज़ाहमत की। अनवर को तवक़्क़ो ना थी कि इस क़दर जल्द बिल्क़ीस से उसका पीछा छूट जाएगा और उसे किसी क़दर रंज भी हुआ क्योंकि अभी तक उसके दिल में बिल्क़ीस की कुछ-कुछ मुहब्बत बाक़ी थी। मगर अब क्या हो सकता था। हाजी साहब बिल्क़ीस को साथ ले दो तांगों में अस्बाब लदा, उसी रात स्टेशन पहुँचे और दूसरे दिन घर गए।

    बिल्क़ीस अब फिर हाजी साहब के पास रहने लगी। हाजी साहब को अब फिर उसके रिश्ते की फ़िक्र हुई और अभी तीन महीने भी गुज़रे थे कि उन्होंने उसके लिए एक और शौहर तलाश कर लिया। अबकी जो आदमी चुना गया वो अनवर की तरह ना तो कम उम्र था ज़्यादा तालीम याफ़्ता और उसका ताल्लुक़ किसी ऊँचे घराने से था। वो मेवे का कारोबार करता था। आए दिन दिसावर से मेवे की भरी हुई लारियाँ उसके यहाँ आती रहती थीं। शहर के मेवा फ़रोशों में उसकी बड़ी साख थी।

    ये मेवाफ़रोश जिसका नाम रब्बानी था, रंडुवा था और किसी नेक बेवा से अक़्द करना चाहता था। हाजी साहब ने हक़ महर के तौर पर पाँच हज़ार रुपया नक़द और एक मकान बिल्क़ीस के नाम लिखवाने की शराइत पेश कीं जिसे उसने बिला हील-ओ-हुज्जत मंज़ूर कर लिया था। दरअस्ल ये मेवा-फ़रोश बहार के पुराने मगर नाकाम उश्शाक में से था। जब बहार बाज़ार से ग़ायब हुई थी तो वो सख़्त परेशान हुआ था। फिर कुछ दिन बाद जब उसने सुना कि हाजी साहब ने उसे किसी इंजीनियर से ब्याह दिया है तो वो एक आह-ए-सर्द भर के रह गया। अब जो उसे इस तलाक़ का हाल मालूम हुआ तो उसके दिल में फिर बहार की आरज़ू ताज़ा हो गई और उसने जल्द ही मिन्नत ख़ुशामद से हाजी साहब को इस रिश्ते पर आमादा कर लिया। मगर हाजी साहब ने जब तक पूरा हक़ महर वसूल कर लिया , मेवा-फ़रोश को बिल्क़ीस की शक्ल तक देखने दी।

    बिल्क़ीस ने एक इताअतमंद बेटी की तरह हाजी साहब के तजवीज़ किए हुए रिश्ते को सब्र-ओ-शुक्र से क़ुबूल कर लिया और दोनों की ख़ासी गुज़र होने लगी। यहाँ तक कि एक साल हंसी ख़ुशी में गुज़र गया। मगर ये मेवा-फ़रोश तबअन अय्याश वाक़ेअ’ हुआ था। शादी के बाद कुछ अरसा तो वो उससे बड़ी इज़्ज़त के साथ पेश आता रहा। मगर जल्द ही उसके रवय्ये में तबदीली गई। और वो उससे ऐसा सुलूक करने लगा गोया वो उसकी दाश्ता हो। वो मुसिर था कि बिल्क़ीस रात रात-भर उसके साथ जागे और शराबनोशी में शरीक हो। फिर वो उसका भी मुतमन्नी था कि आए दिन दोस्तों की दावतें हों और बिल्क़ीस साक़ी-गरी की ख़िदमत अंजाम दे और वो दोस्तों से ये कह सके “यही था वो लाल-ए-बे-बहा जिसकी एक झलक देखने को दुनिया तरसती थी। और अब मैं तन्हा उसकी क़िस्मत का मालिक हूँ।”

    मगर बिल्क़ीस ने उसकी इन ख़्वाहिशों को सख़्ती के साथ रद्द कर दिया। वो उसके दोस्तों की ज़ियाफ़तों और उनकी मय-ख़ोरी से तो तअर्रुज़ करती मगर ख़ुद कभी उनके सामने आती। रफ़्ता-रफ़्ता मेवाफ़रोश का दिल घर से उचाट रहने लगा और ये महफ़िलें अब औरों के यहाँ मुन्अक़िद होने लगीं। मियाँ बीवी के ताल्लुक़ात कशीदा रहने लगे। कई मर्तबा गाली गलौज तक नौबत पहुँच गई। आख़िर एक दिन मेवा-फ़रोश ने शराब के नशे में बिल्क़ीस को इस क़दर पीटा के वो कई दिन तक बिस्तर से उठ सकी।

    हाजी साहब को मियाँ बीवी की नाचाक़ी का इल्म था मगर जब उन्हें इस मारपीट की ख़बर हुई तो उनकी आँखों के आगे अंधेरा गया। वो उसी वक़्त मेवा-फ़रोश के घर पहुँचे और बिल्क़ीस को अपने हमराह ले आए। मेवा-फ़रोश ने माफ़ी माँगी मिन्नत समाजत की मगर हाजी साहब पर कुछ असर हुआ। उन्होंने कहा “अगर तुमने फ़ौरन तलाक़ दी तो मैं तुम्हारे ख़िलाफ़ चारा-जुई करूँगा।”

    मेवा-फ़रोश हाजी साहब के असर-ओ-रुसूख़ को ब-ख़ूबी जानता था। मुक़द्दमे बाज़ी से ख़ाइफ़ हो कर नाचार तलाक़ देने पर आमादा हो गया। अब के बिल्क़ीस साल भर तक हाजी साहब के घर पर रही। जब कभी हाजी साहब उसके रिश्ते का सवाल उठाते तो वो तुनक कर कहती “अब्बा जान। आपको मेरी क्यों फ़िक्र रहती है। मैं आप पर भारी हूँ क्या।”

    मगर एक दूर-अंदेश बाप की तरह हाजी साहब नहीं चाहते थे कि बिल्क़ीस ज़्यादा अर्से घर में बैठी रहे। इलावा अज़ीं इसका मतलब ये होता कि वो अपने इस्लाही काम में नाकाम रहे। उनका मन्सूबा ना-क़ाबिल-ए-अमल साबित हुआ। मगर एक मर्तबा फ़तह हासिल करके अब वो किसी तरह इस शिकस्त के लिए तैयार थे चुनाँचे उन्हें फिर उसकी शादी की फ़िक्र दामन-गीर हुई, और बिल्क़ीस कुछ तो हाजी साहब के इसरार से और कुछ अपने मुस्तक़बिल के ख़्याल से तीसरी मर्तबा फिर शादी पर रज़ामंद हो गई।

    अब के हाजी साहब ने शौहर के इंतेख़्वाब में इंतेहाई हज़्म-ओ-एहतियात से काम लिया और महीनों उसके मिज़ाज और चाल चलन के बारे में तफ़तीश करते रहे। ये एक नौ-उम्र शख़्स था जो किसी दफ़्तर में मामूली क्लर्क था। हद दर्जा कम सुख़न, भोला-भाला, नाक नक़्शा भी अच्छा था। अलबत्ता हाथ-पाँव का ज़रा दुबला था। सारा दफ़्तर उसकी सादगी-ए-मिज़ाज और इताअत गुज़ारी का मोअतरिफ़ था। ऐसे दामाद को पाकर हाजी साहब पूरे तौर पर मुतमइन हो गए। उधर बिल्क़ीस ने भी ख़ुशी-ख़ुशी उसे क़ुबूल कर लिया। अलबत्ता इस बात की ज़रा ख़लिश थी कि वो उम्र में उससे पाँच साल बड़ी थी।

    इस दफ़ा हाजी साहब ने ऊँचे ख़ानदान और रुपय पैसे का लालच नहीं किया था। बल्कि मस्लिहतन ग़रीब शौहर चुना था और फिर रुपय की ज़रूरत भी क्या थी क्योंकि पिछले मेहरों की रक़में, घर का सामान, ज़ेवर, कपड़ा लत्ता पहले ही वाफ़र था। इस क्लर्क का नाम मुनीर था। इसके आगे पीछे कोई था। कम उम्री ही में माँ बाप का साया सर से उठ गया था। कुछ दूर के रिश्तेदार थे मगर वो उसके ख़र्च का बोझ उठाने को तैयार थे और उसने यतीम-ख़ाने में परवरिश पाई थी।

    बिल्क़ीस और मुनीर ख़ुशहाली और फ़ारिग़-उल-बाली से ज़िंदगी बसर करने लगे। रफ़्ता-रफ़्ता मुहब्बत के बंधनों ने एक दूसरे को जकड़ लिया। बिल्क़ीस को ऐसा महसूस हुआ कि जो ख़ुशी अनवर से अलैहदगी के बाद उससे छिन गई थी वो उसे फिर मिल गई है। उधर मुनीर भी आठों पहर उसी का दम भरता था। वो ऐसा सालेह नौजवान था कि किसी क़िस्म का नशा या बुरी लत उसको थी। दफ़्तर से छुट्टी मिलते ही सीधा घर का रुख़ करता और फिर बीवी की क़ुरबत में ऐसा खो जाता कि दूसरे दिन दफ़्तर जाने के वक़्त ही घर से निकलता।

    दिन पर दिन गुज़रते गए, हफ़्ते, महीने और फिर साल। दोनों की मुहब्बत बढ़ती ही चली गई। अब हाजी साहब भी बहुत ज़ईफ़ हो गए थे। तब्लीग़ और हिदायत का वो पहला सा जोश-ओ-ख़रोश उनमें नहीं रहा था। घर से कम ही बाहर निकलते मगर उनको इतमीनान था कि बिल-आख़िर उनकी मेहनत ठिकाने लग गई।

    इस तरह पाँच साल गुज़र गए। इस दौरान में मुनीर को नौकरी के सिलसिले में कई जगह तब्दील हो कर जाना पड़ा। मगर वो जहाँ कहीं भी जाते बिल्क़ीस हाजी साहब को अपनी ख़ैर-ओ-आफ़ियत की इत्तेला देती रहती। एक दिन हाजी साहब को एक ख़त मिला जिसे पढ़ कर अचानक एक मर्तबा फिर दुनिया उनकी आँखों में अंधेर हो गई। बात ये थी कि मुनीर की सेहत पिछले साल से धीरे धीरे गिरनी शुरू हो गई थी। मुनीर का हर वक़्त घर में पड़े रहना, खेल तफ़रीह में हिस्सा लेना, उसकी तंदरुस्ती के लिए ज़रर रसाँ साबित हुआ। उसे हल्का-हल्का बुख़ार रहने लगा था और कभी-कभी खाँसी भी उठने लगी थी। डाक्टरों की राय थी कि ये इब्तेदाई दिक़ के आसार हैं और उन्होंने मश्वरा दिया था कि दफ़्तर से तवील रुख़स्त ले ली जाये और उसे किसी सेहत अफ़्ज़ा पहाड़ी मुक़ाम पर रखा जाये। ख़त की आख़िरी सुतूर ये थीं।

    लेकिन मेरे प्यारे अब्बा जान आप इस ख़बर से ज़्यादा परेशान हों। डाक्टर ने कहा है कि मुनीर मियाँ साल भर बा-क़ायदा ईलाज कराने से तंदरुस्त हो जाएंगे। मैं ख़ुद उनकी तीमारदारी करूँगी और जिस सेहत अफ़्ज़ा मुक़ाम पर वो रहेंगे में उनके साथ रहूँगी। शिफ़ा तो अल्लाह ने चाहा उन्हें ज़रूर हो जाएगी। मगर इसमें तीन चार-सौ रुपया माहवार उट्ठेगा। सो उसकी आप फ़िक्र करें। वो जो मेरे नाम का मकान है उसे फ़रोख़्त कर दें। आख़िर जायदाद इसी क़िस्म की ज़रूरतों ही के लिए तो होती है, जान है तो जहान है। उम्मीद है कि आप इन तमाम बातों का जवाब मुफ़स्सल लिखेंगे या ख़ुद तशरीफ़ लाएँगे।

    आपके दीदार की तालिब

    बिल्क़ीस

    इस ख़त को पढ़ कर हाजी साहब गुम-सुम रह गए। अचानक दिल में ऐसा ज़ोअफ़ महसूस हुआ गोया उनका आख़िरी वक़्त पहुँचा हो... दो दिन तक वो घर से बाहर निकले। तीसरे दिन जब ज़रा तबीयत संभली तो वो लाठी टीके हुए उठे और जायदाद की फ़रोख़्त के सिलसिले में किसी दलाल की तलाश में निकले। क़दम घर से बाहर रखा ही था कि एक तांगा उनके दरवाज़े के सामने आकर रुका। उसमें एक बुर्क़ा-पोश ख़ातून बैठी थी। साथ कुछ सामान था, दो तीन ट्रंक, एक अटैची केस।

    हाजी साहब ठहर गए। उनकी सूरत देखकर इस ख़ातून ने चेहरे से निक़ाब उठा दी। उसका सिन तीस पैंतीस बरस से किसी तरह कम होगा। मगर उसके हुस्न में अभी तक ग़ज़ब की शादाबी थी।

    “मैं बहार की बहन गुल हूँ।” उसने बड़ी लजाजत से कहना शुरू किया। “दस साल हुए जैसे हुज़ूर ने मेरी बहन को दीन और आख़िरत की राह दिखाई थी वैसे ही मुझ पर भी करम की नज़र हो जाये...”

    स्रोत:

    Kulliyat-e-Ghulam Abbas (Pg. 246)

    • लेखक: ग़ुलाम अब्बास
      • प्रकाशक: रहरवान-ए-अदब, कोलकाता
      • प्रकाशन वर्ष: 2016

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