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बीबी की नियाज़

ज़किया मशहदी

बीबी की नियाज़

ज़किया मशहदी

MORE BYज़किया मशहदी

    स्टोरीलाइन

    एक बेवा औरत को एक नवजात बच्चे को दूध पिलाने के काम पर रखा जाता है। बेवा का खुद का दूध पीता बच्चा है, लेकिन वह अपने बच्चे को अपना दूध न पिला कर उसे ऊपर का दूध पिलाती है कि मालकिन का बच्चा भूखा न रहे। दोनों बच्चे बड़े होते हैं तो पता चलता है कि बेवा का बेटा एबनॉर्मल है। अपने बच्चे को लेकर उसे किन-किन मुश्किलात का सामना करना पड़ता है, यही इस कहानी का बुनियादी ख़्याल है।

    मिर्ज़ा असलम बेग आगे-आगे अपनी खड़खड़िया साइकल पर और पीछे-पीछे सफ़ेद बुर्क़े में मलफ़ूफ़ वो ख़ातून मियाँ जान मोहम्मद के रिक्शे में। गोद में आठ माह का दुबला पतला मरियल बच्चा जो मालूम हो कि अभी पैदा हुआ है। वो भी क़ब्ल-अज़-वक़्त। एक गोरी चिट्टी तीन साला बच्ची बग़ल में दुबकी हुई। ताज़ा छिदी नाक में सियाह डोरा। कानों में नन्ही-नन्ही चाँदी की बालियाँ। छोटे छोटे हाथों में एक साफ़ चादर में बँधी चन्द कपड़ों की गठरी।

    लखोरी ईंट से बने इस जग़ादरी मकान के निचले हिस्से में सा​िहब-ए-ख़ाना मिर्ज़ा नुसरत बेग का तम्बाकू का लम्बा चौड़ा कार-ख़ाना फैला हुआ था। ऊपर उनका कुंबा रहता था। ऊपर जाने के लिए घर के बग़ल में बड़ी लम्बी और पतली राह-दारी थी। उसके इख़्तिताम पर एक घुमाव था और फिर ज़ीना। असलम बेग ने साइकल रोक दी। रिक्शे वाला भी रुक गया। उन्होंने कसीफ़ शेरवानी की जेब से निकाल कर रिक्शे वाले को पैसे दिए और बौखलाई हुई ख़ातून को राह-दारी के दरवाज़े पर ला खड़ा किया। क़दरे तवक़्क़ुफ़ के बाद बोले,बीबी मेरा काम ख़त्म। अब ऊपर जाओ। कोई घबराने की बात नहीं है। सब तुम्हारा इन्तिज़ार ही कर रहे होंगे।

    ये था अम्माँ साहब का 'टीले के बड़े मकान' में पहला दाख़िला। इस वक़्त वो अम्माँ साहब नहीं थीं। दुबली पतली, बड़ी-बड़ी रौशन आँखों, ​िमयाने क़द और गोरी रंगत वाली पच्चीस साला ख़ैरुन्निसा बेगम, दुख़्तर सय्यद अमीर अली मरहूम, ज़ौजा ज़ुल्फ़िक़ार अली मरहूम (कि ज़ुल्फ़िक़ार अली भी अट्ठाईस बरस की उम्र में दूसरे बच्चे की पैदाइश के महीने भर बाद ही मरहूम-ओ-मग़फ़ूर हो चुके थे) थीं। चौक में उनकी ससुराल वालों की बिसात-ख़ाने की दुकान थी। शौहर भी उसी पर बैठा करते थे। उनके मरने के बाद ख़ैरुन्निसा बेगम को तरके में कुछ धनक, कुछ गोटा, चिकन की बेल के एक-दो थान, एक डिब्बे बारीक रंग-बिरंगे मोती और एक जुएँ निकालने वाली लकड़ी की कंघी हासिल हुए। बाक़ी दुकान बड़ी ननद के शौहर के हिस्से लगी। इसकायनात को उन्होंने एक छोटी सी टीन की संदूक़ची में बन्द किया और सोचने लगीं कि बाक़ी ज़िन्दगी कैसे गुज़रेगी। पढ़ी लिखी थीं नहीं। मैके में कोई सहारा नहीं बचा था और ससुराल में जिधर आँख उठातीं मैदान-ए-कर्बला नज़र आता। ऐसे आड़े वक़्त में मिर्ज़ा असलम बेग की बीवी फ़रिश्ता-ए-रहमत बन कर सामने आईं। उनके एक दूर के अज़ीज़ नुसरत बेग के यहाँ ख़ैरुन्निसा बेगम की ख़िदमात की ज़रूरत थी। ये शरीफ़ों का खाता-पीता घराना था। घर की बहू के यहाँ जुड़वाँ बच्चे पैदा हुए थे लेकिन दूध ख़ुश्क हो गया था।

    ऊपर पहुँच कर ख़ैरुन्निसा बेगम गोद के बच्चे और बेटी को मअा गठरी बाज़ुओं के घेरे में सँभाले ज़मीन पर बैठने लगीं तो खातून-ए-ख़ाना यानी मिर्ज़ा नुसरत बेग की बीवी ने उन्हें हाथ पकड़ कर बराबर बिठा लिया और बोलीं, बीबी, आल-ए-रसूल होकर ज़मीन पर बैठोगी तो हमारे गुनाह कैसे बख़्शे जाएँगे। यहाँ बैठो। ख़ैरुन्निसा ने छंगुलियाँ से आँसू पोंछे। दुपट्टे के कोने में नाक सुड़की।

    देखो बीबी। खातून-ए-ख़ाना ने उनकी क़मीस की तरफ़ ग़ौर से देखा,दो बच्चों को दूध पिला सकोगी?

    जी, असलम चचा ने पहले ही बता दिया था कि जुड़वाँ बच्चे हैं। सोच समझ कर आई हूँ। छिद्दू मियाँ को ऊपर के दूध पर डालना होगा।

    फिर कोई शिकायत हो। खातून-ए-ख़ाना ने उनकी तरफ़ पान बढ़ाते हुए कहा,

    आपके यहाँ इज़्ज़त आबरू के साथ मेरे मासूम यतीम बच्चों की परवरिश हो जाएगी तो रूवाँ-रूवाँ एहसान-मन्द होगा। शिकायत कैसी। उन्होंने बड़े अज़्म के साथ अपनी सुथरी आँखें और लाम्बी पतली गर्दन घुमाकर अधेड़ उम्र मेहरबान ख़ातून की तरफ़ देखा। हाँ हमारी तीन शर्तें हैं।

    वो भी कह डालो बीबी।

    पहली बात तो ये कि हम साहब-ज़ादों को सिर्फ़ दूध पिलाएँगे। हमसे गू-मूत करने को कहा जाए। दूसरी ये कि हम पर्दा-दार हैं, घर से बाहर जाने और सौदा सुल्फ़ लाने का काम हम नहीं करेंगे। घर के अन्दर आप जो चाहें करा लें। हमें सब काम आते हैं। तीसरी बात ये कि... उनकी गर्दन थोड़ी और बुलन्द हो गई, हम पर वक़्त पड़ा है तो निकले हैं, हमारी सात पुश्तों में भी किसी औरत ने नौकरी नहीं की थी। हम दाई या आया नहीं हैं हमारा नाम सय्यदा ख़ैरुन्निसा है।

    बीबी ख़ैरुन्निसा बेगम। खातून-ए-ख़ाना ने ठण्डी साँस भरी ये जो बैठी हैं हमारी बहू, ख़ैर से हमारी भतीजी भी होती हैं। अल्लाह आमीन करके शादी के सात बरस बाद इनकी गोद हरी हुई लेकिन दूध पिलाने की सआदत अल्लाह को देना मंज़ूर थी। अब औलाद की इतनी ख़िदमत भी करेंगी तो माँ का दर्जा कैसे पाएँगी। गू-मूत इनके ज़िम्मे। बाक़ी शर्तें भी हमें मंज़ूर हैं। सौदा-सुल्फ़ लाने को हम यूँ भी कहते। बुलाक़न अर्से से करती चली रही है। फिर नीचे कारख़ाने में आदमी हैं।

    ख़ैरुन्निसा बेगम को उनकी कोठरी दिखा दी गई। ये दर-अस्ल एक अच्छा ख़ासा बड़ा सा कमरा था जो मकान की पुश्त पर मकान के बाक़ी माँदा हिस्से से अलग-थलग बना हुआ था। थोड़ी देर बाद घर की मुलाज़िमा जो वज़ा-क़ता से बंजर देहाती मालूम हो रही थी, उनके लिए खाने की सेनी लिए हुए आई। पराठे, कोफ़्ते, अरहर की दाल, बारीक सफ़ेद चावल, एक ग्लास बालाईदार दूध और गोद के बच्चे के लिए गाय का दूध मआ दूध की शीशी के अलग से। ऐसा ख़्वान-ए-नेअ्मत तो कभी शौहर की ज़िन्दगी में भी नहीं सजा था। लहँगा फड़काती, नाक में सोने की चौड़ी सी लौंग चमकाती बुलाक़न उन्हें कीना-तोज़ नज़रों से घूरती वापस चली गई। कह रहे थे हम अपनी बहन को ले आवें। मगर न। सय्यदानी का दूध पिलवा देंगी लड़कों को। हुँह अल्लाह ने चाहा तो सूखा हो जाएगा।

    रात के खाने पर ख़ातून-ए-ख़ाना ने दिन की पूरी दास्तान सा​िहब-ए-ख़ाना के गोश गुज़ार की। लहजा मसरूर था। आज दोनों नन्हे पोतों ने पेट भर कर औरत का दूध पिया था। और औरत भी कैसी कि खरी सय्यदानी, वरना दिन भर रें-रें करते रहते थे। पानी जैसे दस्त चले आते थे और रात को नींद भी नहीं आती थी। ऊपर का दूध रास नहीं रहा था। आज आराम से सो रहे थे। सा​िहब-ए-ख़ाना ने खाना खा के डकार ली। सोने की ख़िलाल से दाँत कुरेदे और चाँदी के ख़ासदान से गिलौरी निकालते हुए बड़े संजीदा लहजे में बोले, आप अम्माँ बेगम कहलाती हैं। बीबी ख़ैरुन्निसा से कह दीजिए कि बच्चे बड़े होंगे तो उन्हें अम्माँ साहब कहेंगे।

    ख़ैरुन्निसा घर में यूँ रच बस गईं जैसे बत्तख़ पानी में। महफ़ूज़ मुस्तक़बिल और घर वालों के अच्छे सुलूक की वज्ह से तबीअत मुत्मइन थी। ग़िज़ा अच्छी मिल रही थी कि दूध उतरे। दूध धारों धार उतर रहा था। बच्चा एक ही होता तो छिद्दू मियाँ (जो कान छेद कर मन्नत का दर पहनाए जाने के सबब छिद्दू कहलाते थे) को भी भर पेट माँ का दूध मिल जाता। ख़ैर कोई फ़िक्र नहीं थी। उन्हें गाय का ख़ालिस दूध मिल रहा था और वाफ़र मिक़दार में मिल रहा था इसलिए वो भी पहले जैसे सूखे मारे क़हत-ज़दा नज़र नहीं आते थे। ख़ूब मोटे हो गए थे। हाँ दस-ग्यारह माह के हो जाने के बावुजूद बस पड़े रहते थे। ज़ियादा रोते, कुछ बोलने की कोशिश करते। बग़ैर सहारे के बैठना तक शुरू नहीं किया था। ग़रीब का बच्चा है इसलिए समझदार है। रोए-धोएगा, शरारत करेगा तो माँ दो और बच्चों को कैसे सँभालेगी। ख़ैरुन्निसा हँस कर बड़ी मामता के साथ कहतीं।

    बच्चों ने बोलना शुरू किया तो ख़ैरुन्निसा को अम्माँ साहब कहलवाया गया। मीठी तोतली आवाज़ में जब वो उन्हें अम्माँ साहब कहते और हुमक कर उनकी गोद में आते तो उन्हें लगता कि जिस ​िदयानतदारी के साथ उन्होंने अपने बच्चे को ऊपर का दूध पिला कर ग़ैर के बच्चों को अपने जिस्म का लहू दिया था, इसका सिला मिल गया है। रफ़्ता-रफ़्ता सियाह बालों और उजले कपड़ों वाली ख़ैरुन्निसा सभी के लिए अम्माँ साहब बन गईं।

    बच्चे ढाई साल के हुए तो दूध बढ़ाई की रस्म धूम-धाम से की गई। तय्यारियाँ हो ही रही थीं कि एक दिन बुलाक़न ने आँखें मटकाकर कहा, अब खैरुन्निसा कहाँ जइहें? हो तो कोनो घर में झाड़ू बर्तन के लिए रखवा दिया जाए।

    खातून-ए-ख़ाना हत्थे से उखड़ गईं,ज़रूरत हो तो इंसान को दूह लिया जाए और उसके बाद हंकाल कर बाहर कर दिया जाए। ख़ैरुन्निसा यहीं रहेंगी। हाँ, ख़ुद कहीं जाना चाहें तो और बात है। वो भला और कहाँ जातीं। दूध पिलाने के अलावा घर में बहतेरे काम थे। घर की दोनों ख़वातीन को उन्होंने सारी फ़िक्रों से आज़ाद कर दिया। तीज तहवार, आए दिन के शादी ब्याह, छटी ​िछल्ले, कारख़ाने के अमले का ख़याल, कपड़े लत्ते, बावर्ची-ख़ाना, दोनों बच्चों की सारी ज़रूरियात, मियाँ का हुक़्क़ा, छोटे मियाँ के चिकन के कुरते, सास का ख़िज़ाब, बहू की मेंहदी... बेटी ​फ़ख़्रुन्निसा साथ-साथ साए की तरह साथ लगी रहती और कामों में हाथ बटाती। दोनों बच्चों ने भागना दौड़ना और गेन्द से खेलना शुरू कर दिया था। वो छोटे-छोटे जुमले भी बड़ी रवानी से अदा करने लगे थे। लेकिन उनका हम-उम्र छिद्दू एक गोशे में बैठा रहता था। कभी-कभी वो खिड़की पकड़ कर खड़ा हो जाता और बाहर की दुनिया को अपनी वहशत-ज़दा वीरान आँखों से तकता रहता।

    कुछ और वक़्त गुज़र जाने के बाद अम्माँ साहब को महसूस होने लगा कि छिद्दू नॉरमल बच्चा नहीं है। इस उम्र में भी वो अम्माँ, बड़ी बेगम, छोटी बेगम जैसे अल्फ़ाज़ के अलावा बहुत कम अल्फ़ाज़ रवानी के साथ बोल सकता था। जुमलों की अदाएगी में उसे दिक़्क़त होती थी और उसकी समझ में भी कोई बात जल्दी नहीं आती थी। बड़ी बेगम की ताकीद थी कि उनके पोतों को जो मास्टर साहब पढ़ाने आते हैं उनके पास छिद्दू भी बैठे लेकिन चन्द माह बाद मास्टर साहब ने हाथ जोड़ कर अर्ज़ किया कि ये लड़का पढ़ नहीं सकेगा या कम से कम अभी तो नहीं पढ़ सकेगा। अम्माँ साहब की दरख़्वास्त पर मिर्ज़ा नुसरत बेग ने छिद्दू को डॉक्टर के पास भेजा। मेडिकल रिपोर्ट के मुताबिक़ छिद्दू पैदाइशी ज़ेहनी इब्ता (Mental Retardation) में मुब्तला था। उसमें इस्लाह या बेहतरी की गुंजाइश तक़रीबन नहीं के बराबर थी। हाँ मुनासिब माहौल और ख़ुसूसी तरबियत के ज़रिए उसे बिल्कुल नाकारा बनने से बचाया जा सकता था।

    बड़े मिर्ज़ा साहब ने अम्माँ साहब को बुलाया और शफ़क़त-आमेज़ लहजे में बोले, ख़बर अच्छी नहीं है। कलेजा मज़बूत करके सुनिए। पर्दे के पीछे खड़ी ख़ैरुन्निसा थर थर काँपा कीं फिर धीरे से बोलीं, अल्लाह तआला ने बेटा दिया था। हम समझे थे बुढ़ापे का सहारा बनेगा। अब हमारी क़िस्मत।

    बीबी, हमारे ख़ानदान के चराग़ों को आपने नई ज़िन्दगी दी। सईद और वहीद ने आपका दूध पिया है। बुढ़ापे की फ़िक्र तो आप करें नहीं। हाँ, अज़ीज़ी छिद्दू की इस ज़ेहनी हालत का रंज होना फ़ित्‍री है। वो चाँदी के मूठ वाली छड़ी टेकते उठ खड़े हुए।

    अम्माँ साहब इस घर में रच बस कर बेवगी भूल गई थीं। ख़ुश-ओ-ख़ुर्रम रहा करती थीं लेकिन अब चोर की तरह दबे पाँव एक रंज दिल में बसा था। वो छिद्दू के चारों तरफ़ मँडलाती रहती थीं। हर काम से ज़रा सा वक़्त बचाकर उसके पास जातीं। रात को देर तक उससे बातें करतीं। हदीस-ओ-क़ुरान सुनातीं। उनका ख़याल था कि बच्चे का ज़ेहन इनसे रौशन होगा। छिद्दू सो जाता तो भी वो जागती रहतीं और उस पर दुआएँ दम करतीं। ज़ेहन में बेचैनी का तूफ़ान उठ खड़ा होता। बड़े मिर्ज़ा ने कह तो दिया कि वहीद और सईद उनके बुढ़ापे का सहारा बनेंगे लेकिन छिद्दू ख़ुद...?

    ख़ुद वो अपने लिए क्या कर सकेगा? क्या कभी उसका अपना घर-बार होगा? क्या कभी वो अपनी रोज़ी-रोटी कमा सकेगा? उसके बुढ़ापे का सहारा कौन बनेगा? और अम्माँ साहब... माना घर में दो रोटियाँ मिल रही थीं और इज़्ज़त भी। रहने को जगह भी है लेकिन दिल का कश्कोल तो फिर भी ख़ाली ही है। ये सोच कर आई थीं कि पराई चाकरी आरज़ी बात होगी। अल्लाह ने बेटे से नवाज़ा है। एक दिन दोबारा उनकी अपनी मम्लकत होगी जहाँ वो राज करेंगी। एक झोंपड़ा सही मगर अपना। बेटे-बहू की हँसी और पोते-पोतियों की किलकारियों से गूँजता। वो सारे ख़्वाब मिट्टी में मिल गए। रोज़ रात को मिट्टी मिले ये ख़्वाब बिस्तर पर काँटे बिखेर जाते। लेकिन फिर किसी पहर नींद ही जाती और सुब्ह होने पर ज़िन्दगी यूँही रवाँ-दवाँ हो जाती।

    छिद्दू बड़ा हुआ तो नीचे जाने लगा। कभी-कभी उसके हाथ में पैसे भी दे दिए जाते कि आस-पास की दुकानों से कोई मामूली सा सौदा ले आए या ठेले वाले से फल, सब्ज़ी। बेगम साहब कहती थीं... पढ़-लिख नहीं सकता तो कम से कम दुनिया का इल्म तो होने दो। आंचल तले छुपाकर रखोगी तो और बावला हो जाएगा। उनकी बात तो सही थी लेकिन छिद्दू नीचे जाता तो कारख़ाने के मुलाज़िमीन की तफ़रीह का सामान बन जाता... अबे छिद्दू ज़रा ज़बान तो दिखा। छिद्दू भाड़ सा मुँह खोल देता और लोग हँसते। कोई कहता मियाँ छिद्दू पहले मुर्ग़ी हुई थी कि अण्डा ज़रा बताओ तो सही। छिद्दू पहले मुर्ग़ी हुई थी कि अंडा की गरदान करता ऊपर पहुँचता और अम्माँ साहब की जान ज़ीक़ में डाल देता। बताइए पहले मुर्ग़ी हुई थी कि अंडा। हमको नीचे जाकर जवाब देना है। कभी-कभी तो छोटी बेगम भी मुँह फेरकर मुस्कुराने लगती थीं। ऐसे में अम्माँ साहब को बहुत तकलीफ़ होती।

    एक दिन छिद्दू, बुलाक़न के साथ नीचे उतरा तो किसी कारिन्दे की रग-ए-शरारत फड़की। उसने कह दिया, अम्माँ ये तुम्हारी जोरू है। जोरू का लफ़्ज़ जाने क्यों छिद्दू को ऐसा भाया कि वो अक्सर बुलाक़न की तरफ़ देखता तो खीसें निपोर कर कहता जोरू। छिद्दू की जोरू। एक दिन भन्ना कर बुलाक़न ने एक थप्पड़ रसीद कर दिया। ठण्डे मिज़ाज वाली मिस्कीन अम्माँ साहब आँधी तूफ़ान बन गईं। किसी को नहीं मालूम था कि कौसर-ओ-तस्नीम से धुली ज़बान ऐसी आग भी उगल सकती है। बुलक़नी ठहरी गँवार, मुग़ल्लिज़ात पर उतर आई तो ख़ातून-ए-ख़ाना को दख़ल-अन्दाज़ होना पड़ा,ए हे बुलाक़न, कमबख़्त, चुप हो जा। शर्म नहीं आती तुझे। दुखिया बावला है। उसे इतनी अक़्ल कहाँ। किसी ने सिखा दिया होगा। बे-सोचे-समझे तोते की तरह बोलता रहता है।

    दुखिया बावला है। ये अल्फ़ाज़ अम्माँ साहब के दिल में तराज़ू हो गए। बुलाक़न जैसी गँवार, बदज़बान, नमक हराम औरत ज़ी-होश है और उनका कम सुख़न नेक बेटा बावला। उस दिन उन्होंने खाना नहीं खाया। रात में छिद्दू को गले लगाकर ख़ूब रोईं।

    फिर इतना ज़माना गुज़र गया कि अम्माँ साहब पर ये ख़िताब फबने लगा। अफ़सुर्दा ख़ातिर और मलूल रहा करती थीं। इसलिए चेहरे पर बुढ़ापा जल्द ही गया। बाल भी वक़्त से कुछ पहले खिचड़ी हो गए। ख़ातून-ए-ख़ाना और सा​िहब-ए-ख़ाना दोनों जन्नत सिधारे। उनकी जगह बेटे-बहू ने ली। सईद और वहीद जवान हो गए। अम्माँ साहब की बेटी राबिया की शादी बड़े मिर्ज़ा साहब ने अपनी ज़िन्दगी में ही देहात के एक ग़रीब लेकिन शरीफ़ नौजवान से करा दी थी। सईद मियाँ डॉक्टरी की आला तालीम के लिए विलायत गए तो वहीं रह पड़े। शादी भी अपनी मर्ज़ी से कर ली। इस लिए वहीद मियाँ की शादी में उनके वालिदैन ने सारे अरमान पूरे किए। जाने कहाँ-कहाँ की ख़ाक छानी तब लड़की पसन्द आई। चम्बेली जैसी नर्म-ओ-नाज़ुक और सफ़ेद, नाज़ों की पाली। ससुराल में फूल दुल्हन ख़िताब मिला।

    घूँघट उल्टा तो फूल दुल्हन को मालूम हुआ कि अम्माँ साहब दूल्हा मियाँ की खिलाई रह चुकी हैं, कोई अज़ीज़ रिश्तेदार नहीं हैं। उन्होंने उनको अम्माँ साहब कहने से साफ़ इंकार कर दिया। कहा, अम्माँ साहब तो हम अपनी नानी मोहतरमा को कहते हैं। कहाँ वो और कहाँ ये खिलाई। नया-नया मुआमला। सास तो कुछ बोल सकीं। वहीद मियाँ ने समझाया तो अम्माँ कहने पर राज़ी हुईं। वो भी बा-दिल-ए-ना-ख़्वास्ता।

    घर में दुल्हन बेगम का अमल दख़्ल बढ़ा तो छिद्दू मियाँ के अन्दर आने पर पाबन्दी लगा दी गई।

    मुवा ख़ब्ती... सुब्ह-सुब्ह शक्ल देख लो तो खाना मिले। उनका तब्सिरा था।

    ऐसे कहो फूल दुल्हन। सय्यद-ज़ादा है बद-नसीब।

    अजी बहुत देखे हैं ऐसे बनास्पति सय्यद। किस सन् में सय्यद हुए थे?

    बुलक़नी खिलखिलाकर हँसी। घर की पुरानी मुँह लगी मुलाज़िमा थी। बोली, अजी दुल्हन बनास्पति हों या न-ख़ालिस। रिश्ते में तुम्हारे देवर होते हैं। मियाँ ने इनका झूटा दूध पिया है। फिर वह गाने लगी, 'सुनो हो देवरा अरज हमार' (देवरजी मेरी अर्ज़ सुनो)

    दूर कमबख़्त देवर होगा तेरा। ख़ुदा ख़्वास्ता शैतान से दूर मेरे देवर क्यों दीवाने होने लगे। अब से बोली तो मारे चप्पलों के फ़र्श कर दूँगी मुर्दार। बुलक़नी पर कोई असर हुआ। शैतनत से ठी-ठी करती रही। अम्माँ साहब के कलेजे में छलनी जैसे सुराख़ बनते चले गए।

    दुल्हन बेगम को उस दिन से छिद्दू से ख़ुदा वास्ते का बैर हो गया। सूरत से बिदकने लगीं। देवर वाले रिश्ते की तरफ़ उनका ध्यान पहले कभी नहीं गया था। उम्र गुज़रने के साथ-साथ छिद्दू ज़ियादा हवन्नक़ हो गया था। कुछ तो क़ुदरत ने उसके साथ नाइंसाफ़ी की थी कुछ हालात की बेरहमी। बावुजूद इसके कि छोटे मिर्ज़ा साहब अम्माँ साहब को गाहे-बगाहे माक़ूल रक़म दे दिया करते थे और कपड़ों की कमी नहीं थी लेकिन छिद्दू अब सिर्फ़ एक जाँगिए और बनियान में मलबूस रहा करता था। कभी अम्माँ साहब कुरता पहनने पर इसरार करतीं तो ज़िद में बनियान भी फाड़ देता। गर्दन पर मैल की तहें बिवाई फटे नंगे पैर। उकड़ूँ बैठा उँगलियों पर कुछ गिना करता। कारख़ाने के कारकुन कहते छिद्दू पर जिन्न आते हैं। और वो उसको मामूल बनाकर परियाँ बुलाते रहते हैं। रेशम में लिपटी, फूलों और इत्र में बसी नई दुल्हन की नज़र उसपर पड़ती तो चीं-ब-जबीं हो जातीं। एक दिन वो उनके ज़ाती कमरे में घुस गया तो अंगारा ही तो बन गईं, जूती उठाकर उसके मुँह पर फेंकी।

    अम्माँ साहब की ख़ासी कोशिशें अब छिद्दू को फूल दुल्हन की नज़रों से दूर रखने में सर्फ़ होने लगीं। उसको ज़नानख़ाने में देखते ही चील की तरह दौड़तीं और बहला फुसलाकर वापस अपने कमरे में छोड़ आतीं।

    वक़्त का एक और रेला गुज़र गया। फूल दुल्हन ऊपर तले चार बच्चों की माँ बनीं। बच्चे बड़े होने लगे। सारी ज़च्चगियाँ जापे अम्माँ साहब ने ही निमटाए। हर बच्चे की पैदाइश पर यूँ निहाल हुईं जैसे उनके अपने बेटे के यहाँ औलाद हुई हो। वहीद मियाँ का बचपन याद जाता। उनका हुमक कर गोद में आना, छाती से चिपक कर दूध पीना, माँ के डाँटने पर भाग कर ‘‘अम्माँ छाब’’ की गोद में दुबक जाना। रज़ाई रिश्तों का तो ख़ुद अल्लाह और उसके रसूल ने बड़ा मान रखा है। फूल दुल्हन उस रिश्ते से कैसे इंकार कर सकती थीं कि उनके दूल्हा अम्माँ साहब के रज़ाई बेटे थे। अम्माँ साहब ने अब गू-मूत वाली शर्त भुला दी। भला अस्ल से सूद प्यारा होता है या नहीं। एक दिन बच्चों के लिए कुछ ज़रूरत पड़ी तो सर पर बुर्क़ा डाल कर बाज़ार भी निकल गईं। सोचा वो तो जवान बेवा का भ्रम रखने वाली शर्त थी। अब क्या। अब तो सर चट्टा हो गया। बेटी का ससुराल से ख़त आया है। उसकी बेटी जवान हो रही है। लिखा है रिश्ते की तलाश है। नानी बन चुकीं। परनानी बनने में क्या देर लगेगी।

    फिर अम्माँ साहब बाक़ायदा सौदा सुल्फ़ करने लगीं। एक बार क्या निकलीं कि फूल दुल्हन ने उन्हें बराबर भेजना शुरू कर दिया। उन्हें अम्माँ साहब की ईमानदारी पर दूसरों से ज़ियादा भरोसा था। अम्माँ साहब एक दिन बाज़ार से लौट रही थीं कि उनकी नज़र छिद्दू पर पड़ी। घर के क़रीब आलम नगर की चढ़ाई पर कुछ टुटपूँजिया तवाइफ़ें रहा करती थीं और कुछ हिजड़े। वो वहीं हवन्नक़ों की तरह मुँह फाड़े खड़ा था। एक हिजड़ा उसके साथ कुछ फ़ुहश मज़ाक़ कर रहा था। दो-तीन भद्दी सूरतों और बेहंगम जिस्मों वाली तवाइफ़ें ठी-ठी ठी-ठी करके हँस रही थीं। अम्माँ साहब को जैसे लर्ज़ा चढ़ गया। सर ​िनहोड़ाए जल्दी-जल्दी लाहौल पढ़ती वहाँ से निकल आईं और घर आते ही एक-एक की ख़ुशामद शुरू की, ख़ुदा का वास्ता किसी को भेज कर छिद्दू को बुलवा लो। अरे बुलाक़न तेरे हाथ जोड़ती हूँ। तुझे अली का वास्ता... बच्चों की क़सम... अम्माँ साहब का बिलबिलाना देख कर बुलाक़न को तरस गया। लेकिन कहने लगी,कहीं और होता तो बुला लाती, वहाँ कौन जाए शोहदों और कसबियों में।

    छिद्दू घर वापस आया तो अड़तीस बरस की उम्र में उसने पहली बार अम्माँ साहब से डाँट सुनी। वो भी ऐसी कि उसके हवास गुम हो गए। अभी वो गरज ही रही थीं कि वहीद मियाँ के छोटे बेटे ने कहा, छिद्दू, नीचे चाट वाला आया है। जाओ दौड़ के ले आओ। वो बौखला के भागा। चाट लाने में उसे अपनी आफ़ियत भी नज़र आई। वैसे भी ज़रा-ज़रा से कामों के लिए ऊपर-नीचे भागने का आदी था। अम्माँ साहब की साँस फूलने लगी। उन्होंने चावल की सेनी सामने सरकाई और चावल चुनने शुरू कर दिए। दुपट्टे के पल्लू से आँखें पोंछती जाती थीं।

    अरे छिद्दू, इसमें मिर्चें ज़ियादा डाल दी हैं चाट वाले ने। जाओ दही और डलवा लाओ...

    बड़े साहबज़ादे भी गए थे। छिद्दू... अबे अहमक़-उल-लज़ी... मुझे भी चाट खानी है। जाओ एक पत्ता और बनवा लाओ। छिद्दू ने हुक्म की तामील की।

    अबे मेरे लिए मिर्चें कम क्यों डलवाईं। मैं थोड़ी ही मिर्चें कम खाता हूँ। अब जाओ और मिर्चें और खट्टी चटनी डलवा के लाओ।

    बड़े मिर्ज़ा और छोटे मिर्ज़ा छिद्दू का ज़िक्र अज़ीज़ी छिद्दू कह कर करते थे। वहीद मियाँ जिन्होंने अम्माँ साहब का दूध पिया था, छिद्दू मियाँ या भाई छिद्दू कहते थे। लहजे में हमदर्दी और यगानगत की चाशनी होती थी। लेकिन उनकी औलादें अबे-तबे करती रहती थीं। ये लोग और छोटे थे तो छिद्दू हर वक़्त घोड़ा बना रहता था और वो सारे बच्चे उसकी पुश्त पर सवार रहते थे। लेकिन क्या बड़े होकर भी उन्होंने छिद्दू के मुँह से लगामें हटाई थीं? आँसुओं से लबालब आँखें अम्माँ साहब ने ऊपर उठाईं। ऐन उसी वक़्त छिद्दू हाथ में चाट का भरा पत्ता लेकर ज़ीने तक पहुँचा था। वो आँसू भरी धुँधली आँखें जिनमें सदियों का दर्द था, उसकी बेल जैसी बड़ी लेकिन तअस्सुर से ख़ाली आँखों से चार हुईं। छिद्दू बौखला कर अड़ा-अड़ा धम्म करके पहली सीढ़ी से जो गिरा तो सीधे नीचे राह-दारी में पहुँच गया। सारी चाट आँखों और हलक़ में भर गई।

    पगला कहीं का, सारी चाट गिरा दी।

    अरे मेरा छिद्दू, मेरा बदनसीब छिद्दू। अम्माँ साहब दीवाना-वार चीखीं और दौड़ती हुई नीचे उतरीं।

    सर का ज़ख़्म भरने में महीनों लग गए, मगर भर गया। अम्माँ साहब के दिल में जो ज़ख़्म आया था वो कभी नहीं भरा। हमेशा अफ़सोस करती रहीं। मेरी वज्ह से गिरा मेरा छिद्दू। मैंने कभी उसे डाँटा नहीं था। उस दिन डाँट खाने से बौखला गया था।

    अम्माँ साहब अब दिन में एक आध चक्कर आलम नगर की चढ़ाई का लगा आतीं कि छिद्दू वहाँ कहीं फिर तो नहीं पहुँच गया। जब तक घर जाता, जले पैर की बिल्ली की तरह घूमती रहतीं। जैसे-जैसे उसकी उम्र बढ़ रही थी वो अपना ज़ियादा वक़्त बाहर गुज़ार रहा था। उसकी खाने की मिक़दार भी घटती जा रही थी। अक्सर अम्माँ साहब, निवाले बनाकर मुँह में देतीं। ख़ुशामदें कर करके खिलातीं। नल पर बिठा कर रगड़-रगड़ कर नहलातीं। छिद्दू अपने बचपन में लौट रहा था...

    उन्हीं दिनों सईद मियाँ ने वालिदैन के लिए हवाई जहाज़ के टिकट भेजे। वो दोनों मियाँ-बीवी विलायत सिधारे। फूल दुल्हन के मैके में कोई शादी थी। सारा घर अम्माँ साहब और बुलाक़न पर छोड़ कर वो बच्चों और वहीद मियाँ समेत बरेली चली गईं। जाड़ों का मौसम था। महावटें झमाझम बरस रही थीं। आसमान हाथी जैसे सियाह मुहीब बादलों से भरा पड़ा था। छिद्दू घर से ग़ायब हुआ तो तीन दिन गुज़र गए और उसकी सूरत नहीं दिखाई दी। घर से बाहर भूका निकल गया था और रूई की मिरज़ई भी उतार गया था। अम्माँ साहब के मुँह में भी खील उड़कर नहीं गई। चौथे दिन कारख़ाने के एक आदमी ने ख़बर दी कि छिद्दू वापस गया है। मगर पड़ोस की मस्जिद में बैठा हुआ है।

    अम्माँ साहब भीगती हुई ख़ुद वहाँ गईं। लेकिन उसने लाल-लाल आँखें निकाल कर उन्हें घूरा और घर आने से साफ़ इंकार कर दिया। बुख़ार में तप रहा था। अम्माँ साहब रोईं, गिड़गिड़ाईं तो दो चार लोग और गए और ज़बरदस्ती डण्डा डोली करके घर वापस लाए। दो दिन के शदीद बुख़ार और हिज़्यानी कैफ़ियत के दौरान सय्यद नज़र अब्बास हैदर उर्फ़ छिद्इ मियाँ ने जान जान-ए-आफ़रीन के सुपुर्द कर दी। कारख़ाने के लोगों ने आख़िरी मंज़िल पहुँचाया। अम्माँ साहब बुत बनी बैठी रहीं। रोईं चिल्लाईं। जनाज़ा उठने लगा तो पास जाकर सर पर हाथ रखा, पेशानी चूमी और भारी आवाज़ में बोलीं, जा बेटा, जा, पीछे से आती हूँ। देर नहीं करूँगी।

    चौथे दिन वहीद मियाँ कुंबे के साथ वापस लौटे। ख़बर सुनकर बहुत रंजीदा हुए। अम्माँ साहब की कोठरी में गए। समझ में आया क्या कहें क्या कहें।

    अम्माँ साहब!

    हाँ बेटा।

    बहुत अफ़सोस हुआ। वहीद मियाँ इतना ही कह सके। आवाज़ रुँध गई।

    अफ़सोस कैसा बेटा, मैंने तो बीबी की नियाज़ मआनी थी। अब तुम गए हो तो दुल्हन से कहूँगी करवा दें। पैसे मेरे पास हैं।

    वहीद मियाँ ने कुछ कहने को मुँह खोला तो जल्दी से बोलीं, ना बेटा ना, मन्नत की नियाज़, मजलिस, मीलाद पराए पैसों से नहीं करते। ये मेरी कमाई के पैसे हैं। मन्नत मैंने मआनी थी।

    वहीद मियाँ हवन्नक़ों की तरह अम्माँ साहब को देखने लगे जो टीन की सन्दूक़ची में रूपये टटोल रही थीं।

    हाँ बेटा, कभी मन्नत मआनी थी कि बद-नसीब की मिट्टी मंज़िल मेरे सामने हो जाए तो हज़रत बीबी की नियाज़ दिलवाऊँगी। उनका लहजा इन्तिहाई पुर-सुकून था। सुथरी आँखें बराह-ए-रास्त वहीद मियाँ की आँखों में देख रही थी।

    पड़ोस की मस्जिद से जहाँ चन्द दिन पहले बुख़ार में तपता छिद्दू जाने कहाँ से आकर बैठ गया था, मग़रिब की अज़ान की आवाज़ बुलन्द हुई। शाम के साए बुलन्द हुए और बसेरा लेती चिड़ियों की आवाज़ें भी।

    वहीद मियाँ पत्ते की तरह थर-थर काँपने लगे।

    स्रोत:

    सदा-ए-बाज़गश्त (Pg. 67)

    • लेखक: ज़किया मशहदी
      • प्रकाशक: एजुकेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 2003

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