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बॉम्बे वाला

ग़ुलाम अब्बास

बॉम्बे वाला

ग़ुलाम अब्बास

MORE BYग़ुलाम अब्बास

    स्टोरीलाइन

    यह एक ऐसे कॉलोनी की कहानी है, जिसमें ऊपरी श्रेणी के क्लर्क आबाद थे। उन्हें पूरी तरह अमीर तो नहीं कहा जा सकता था, मगर बाहर से देखने पर वे बहुत खुशहाल और अमीर ही दिखते थे। अमीरों जैसे ही उनके शौक भी थे। उसी कॉलोनी में एक शख़्स हफ़्ते में एक बार बच्चों के लिए टॉफ़ी बेचने आया करता था, उसका नाम बॉम्बे वाला था। एक रोज़ कॉलोनी की दो लड़कियाँ अपनी संगीत टीचर के साथ भाग गईं। लोग ग़ुस्से से भरे बैठे थे कि उनके सामने बॉम्बे वाला आ निकला। और फिर...

    ये इलाक़ा सरकारी फ़ाइलों में तो महज़ ‘‘गर्वनमेंट क्वारटर्ज़, सी/३५५” कहलाता था मगर यहाँ के साकिनों ने बड़ी जद्द-ओ-जहद के बाद एक ज़िमनी नाम भी सरकार से मंज़ूर करा लिया था और वो था ‘‘गुलसिताँ कॉलोनी।” ये लोग ख़ुद तो अपने ख़तों की पेशानी पर ख़ुशख़ती से ‘‘गुलसिताँ कॉलोनी” लिखते ही थे। रिश्तेदारों और दोस्तों को ताकीद थी कि वो भी ख़त लिखते यही पता तहरीर करें। फिर भी कभी-कभी कोई ताँगे वाला शरारत या अंजान पन से इस इलाक़े को ‘‘बाबू कॉलोनी” के नाम से पुकार बैठता तो उसकी जहालत पर ये लोग झुँझला कर ही रह जाते।

    ‘‘गुलसिताँ कॉलोनी” में सिर्फ उन्हीं सरकारी मुलाज़िमों को क्वार्टर दिए जाते थे जिनकी तनख़्वाह ढाई सौ से साढे़ चार-सौ तक होती। इस ग्रेड में उमूमन दफ़्तरों के सुपरिंटेंडेन्ट, अस्सिटेंट इंचार्ज, एकाउन्टेंट, ऑडीटर, सीनियर इस्टेनो ग्राफ़र, ओवर सीवर और इसी क़बील के दूसरे मुलाज़िमीन आते थे। थे तो ये भी क्लर्क ही मगर ज़रा नफ़ीस क़िस्म के जैसे क्लर्की को दो आतिशा या सै आतिशा कर दिया गया हो। उनकी हालत आम क्लर्कों से कहीं बेहतर थी और वो अपनी निसबतन आसूदा हाली और अपने मन्सब के बाइस अपने हम-चश्मों में ख़ासी इज़्ज़त और वक़्अत की नज़र से देखे जाते थे।

    इस इलाक़े का नक़्शा कुछ इस क़िस्म का था कि कोई निस्फ़ मील के फैलाओ में चार पाँच सड़कें थोड़े-थोड़े फ़ासले पर शरक़न ग़रबन एक दूसरे के मुतवाज़ी चलती थीं। और चार-पाँच सड़कें थोड़े-थोड़े फ़ासले पर शुमालन जुनुबन चल कर उन्हें काटती थीं। सब क्वार्टर यक मंज़िला और एक ही वज़ा के थे। छोटे बड़े। आगे नन्हा सा बाग़ीचा। उसके बाद दो-तीन सीढ़ियाँ, फिर बरामदा, बरामदे के साथ मिले हुए दो कमरे, पीछे आँगन, बावरची ख़ाना, तोशा ख़ाना वग़ैरा। ये क्वार्टर एक दूसरे के ऐन सामने थे। बीच में सिर्फ बीस फुट की सड़क थी। चुनाँचे अगर घर की मालिका अपनी आज़ाद ख़्याली की वजह से हिजाब की ज़्यादा क़ाइल होती या अपने फूहड़पन की वजह से ज़रा भी ग़फ़लत बरतती तो उसके सामने वाली बी हमसाई बड़े मज़े से उसके हर क़िस्म के आमाल-ओ-अफ़आल का मुशाहिदा कर सकती थी।

    गुलसिताँ कॉलोनी किसी एक फ़िरक़े के लिए मख़सूस थी बल्कि इसमें हिंदू, मुस्लमान, सिख, ईसाई सब ही रहते थे। फिर ज़बानें भी यहाँ भाँत-भाँत की बोली जाती थीं। जिनमें उर्दू, अंग्रेज़ी, बंगाली, मद्रासी और पंजाबी को ज़्यादा दख़्ल था। अलबत्ता एक बात इस कॉलोनी के सब रहने वालों में मुश्तरक थी और वो थी आर्ट और फुनूने फ़ुनून-ए-लतीफ़ा की सरपरस्ती। रेडियो से तो कोई घर ख़ाली ही था। चुनाँचे दिन को बारह बजे जब फ़र्माइशी प्रोग्राम चल रहा होता। ऐसे में अगर कोई यहाँ आता तो वो एक पूरा फ़िल्मी गाना बग़ैर तसलसुल टूटे घूम फिर कर सुन सकता था। इस कॉलोनी के बाशिंदे मुत्मद्दिन समझे जाने के बहुत मुतमन्नी थे। तंगी तुरशी में गुज़र करते मगर ज़ाहिरी ठाठ में फ़र्क़ आने देते। हर घर में सुबह को पाबंदी के साथ डबल-रोटी, मक्खन और अख़बार आता। अख़बार का साहिब-ए-ख़ाना बेचैनी से मुंतज़िर रहते। जब बारी बारी और सब लोग देख चुकते तो आख़िर में घर के बड़े-बूढ़े क्वार्टर के बाहर कुर्सी या मूँढा डाल बैठ जाते और अख़बार को ऐनक के क़रीब ला-ला कर घंटों उसके मुताले में ग़र्क़ रहते।

    यूँ तो इस कॉलोनी में मुसव्विरी और बुत तराशी का भी ख़ासा चर्चा था मगर लोग सबसे ज़्यादा गाने-बजाने के रसिया थे। रेडीयो पर मौसीक़ी के प्रोग्राम तो ज़ौक़-ओ-शौक़ से सुने ही जाते थे। कभी-कभी इन क्वार्टरों में म्यूज़िक पार्टियाँ भी मुनअक़िद होतीं जिनमें शहर के मशहूर-मशहूर गाने वालों को बुलवाया जाता। इस तरह एक तो मौसीक़ी की सर-परस्ती होती, दूसरे मुक़ामी जौहर को, उनका कमाल-ए-फ़न देखने और सीखने का मौक़ा मिलता। कई घरों में लड़कियों की तालीम के लिए म्यूज़िक मास्टर रखे गए थे। सुबह को जैसे ही मर्द नाश्ते से फ़ारिग़ हो कर दफ़्तरों की राह लेते, उनके घरों से घुँगरुओं की झनक के साथ-साथ बूढ़े कत्थक की गंभीर आवाज़ ‘‘ता थई थई, ता थई थई” सुनाई देने लगती।

    इस इलाक़े की चहल-पहल खासतौर पर शाम को देखने के क़ाबिल हो जाती जब मर्द दफ़्तरों से चुके होते और बरामदे में अपने अहल-ओ-अयाल के साथ बैठ कर चाय पीने या किसी मेहमान की तवाज़ो में मसरूफ़ नज़र आते, जिसकी पुरानी, उमूमन काले रंग की, छोटी मोटर, घर के दरवाज़े के ऐन सामने खड़ी होती या जब यहाँ की नौ-ख़ेज़ लड़कियाँ और जवान औरतें नए-नए सिंगार किए नई-नई तराश के लिबास पहने इस नवाह की सड़कों पर झुरमुटों की सूरत मसरूफ़-ए-ख़िराम होतीं। ऐसे में अगर कोई ना-वाक़िफ़ आदमी इधर निकलता तो वो इन लड़कियों को तकता का तकता ही रह जाता।

    गुलसिताँ कॉलोनी की इन सर-गर्मियों को आम तौर पर इस्तिहसान की नज़रों से देखा जाता और ख़ुद वहाँ के बाशिंदे भी अपनी रौशन ख़्याली और आज़ादा रवी पर मसरूर मालूम होते थे। अलबत्ता इस इलाक़े का एक तबक़ा ऐसा था जिसको कॉलोनी वालों की इन तमद्दुनी तरक़्क़ियों से कोई दिलचस्पी थी। बल्कि वो चुपके-चुपके इन बातों पर सख़्त तन्क़ीद करता था। ये इस इलाक़े के वो बड़े-बूढ़े जो नौकरी और हर क़िस्म के काम-काज से सुबुक-दोश हो कर अपना आख़िरी वक़्त अपने बेटों की कमाई के सहारे गुज़ार रहे थे। घर के मुआमलात में उनका कोई दख़्ल नहीं रहा था। अगर वो कोई बात मुआशरे की इस नई रविश की बुराई में कहते तो घर के सब छोटे-बड़े उसे दक़यानूसी कह कर मज़ाक़ में उड़ा देते और उनके लिए इसके सिवा चारा रहता कि जब तक घर पर रहें अपनी आँखें और कान बंद रखें और खाने पीने या अख़बार पढ़ने के इलावा किसी काम से सरोकार रखें।

    घर पर तो उन बुड्ढों का बस चलता। अलबत्ता हर-रोज़ तीसरे पहर वो कॉलोनी के एक चौक में बड़ी शान से अपनी मंडली जमाया करते। गर्मियों में इस जगह छिड़काव करके आठ-दस मूँढे बिछा दिए जाते। जिन पर ये बड़े-बूढ़े बैठ कर दो-तीन घंटे ख़ूब-ख़ूब दिल की भड़ास निकालते। ज़माने की नई रौशनी के ख़िलाफ़, औरतों की बढ़ती हुई आज़ादी के ख़िलाफ़, अपने बेटों की बेराह रवी के ख़िलाफ़, बेपर्दगी के ख़िलाफ़, फुनूने लतीफ़ा (फ़ुनून-ए-लतीफ़ा) की आड़ में जिन बे-हयाइयों को रवा रखा जाता है उनके ख़िलाफ़, ज़न-ओ-मर्द के बे-मुहाबा इख़्तेलात के ख़िलाफ़, नाच-गाने और ख़ुसूसन फ़िल्मी गानों के ख़िलाफ़। लुत्फ़ ये कि जब इस तरह वो अपने दिल का बोझ हल्का कर के घर पहुँचते तो उनमें से किसी की प्यारी पोती, जिसकी उम्र सात साल होती अपने माँ बाप और उनके अहबाब की पुर शफ़क़त और पुर तहसीन नज़रों के सामने कूल्हे मटका-मटका कर गा रही होती ‘‘नाचो-नाचो प्यारे मन के मोर” और ये बड़े मियाँ चुपके से अपने कमरे में जाकर अंदर से दरवाज़ा बंद कर लेते।

    गुलसिताँ कॉलोनी की चहल-पहल में इज़ाफ़ा करने में एक और हस्ती का भी बड़ा दख़्ल था और ये था बॉम्बे वाला। बॉम्बे वाला बीस बाईस बरस का एक नौजवान था। गंदुमी रंग। नाक नक़्शा बुरा नहीं था। उसे देखकर ये बताना मुश्किल था कि वो किस सूबे का रहने वाला है। वो ख़ुद को बंबई का बाशिंदा बतलाता था मगर उसके शीन क़ाफ़ की दुरुस्ती कहे देती थी कि उसका ताल्लुक़ मुल्क के जुनूबी हिस्से से नहीं, बल्कि शुमाली हिस्से से है। अपनी वज़ा क़ता और लिबास से वो सर्कस के मसख़रों से मिलता-जुलता था। कभी स्याह टेल कोट और स्याह टॉप हैट। कभी शब ख़्वाबी का रंगदार धारियों वाला कुर्ता पाजामा और सिर पर तिनकों की बनी हुई अंग्रेज़ी टोपी। कभी बंगाली फ़िल्म एक्टरों के ततब्बो में खद्दर का लंबा कुरता और लहराती हुई धोती। कभी शिकारीयों की तरह बर जिस डाटे हुए। कभी-कभी टॉप हैट की जगह सुर्ख़ तुर्की टोपी ले लेती। चेहरे पर एक्टरों की तरह गाढ़ा-गाढ़ा मेक-अप किया हुआ। आँखों में काजल, होंटों पर लिपस्टिक, उसके साथ बारीक-बारीक मूँछें, वो जो लिबास भी पहनता ऐसा बेहंगम होता कि देखकर बे-इख़्तियार हंसी जाती।

    उसने अपनी साईकल का हुलिया भी बिगाड़ रखा था और उसके हैंडल और मडगार्डों पर रंगदार काग़ज़ की बनी हुई भनभेरियाँ लगा रखी थीं जो हवा से आप ही आप घूमती रहतीं। गले में एक छोटा सा बक्स डाल रखा था जिसमें तरह-तरह की टॉफ़ीयाँ, चूसने वाली गोलीयाँ, रंगतरे की फाँकें और मीठी सौंफ की पुड़ीयाँ होतीं। इलावा अज़ीं वो फ़िल्मी एक्टरों के फ़ोटो और फ़िल्मी गाने की किताबें भी बेचा करता था। एक हाथ हैंडल पर दूसरे हाथ में एक बड़ा सा काले रंग का भोंपू। उसको मुँह से लगाकर जिस वक़्त वो ‘‘बॉम्बे वाला, बॉम्बे वाला” की आवाज़ लगाता, तो घरों में हलचल सी मच जाती। बच्चे पैसों के लिए मचलना शुरू कर देते और वो तीर की तरह बॉम्बे वाला के पास पहुँच जाते।

    ‘‘बॉम्बे वाला” के अलफ़ाज़ वो इस तरह लहक-लहक कर अदा करता कि वो एक नग़मे की तरह मालूम होते जिसमें कई उतरे चढ़े सुर लगते। उसका ये गाना उसकी आमद का ऐलान होता। दिल का नेक था। बच्चों को उनके दाम से कुछ ज़्यादा ही मिठाईयाँ दे दिया करता। कभी किसी बच्चे के पास पैसा होता तो मुफ़्त ही एक-आध चूसने वाली गोली दे देता। वो ‘‘बॉम्बे वाला” की अलाप के इलावा और भी बहुत से गाने गाया करता। ये फिल्मों के चलनतर गाने होते, जिनमें प्रेम और प्रेमी, भँवरे और पपीहे का ज़िक्र ऐसे पुरसोज़ तरीक़े पर होता कि उन्हें सुनकर बलूग़त को पहुँचने वाली लड़कियों के दिल की धड़कन तेज़ हो जाती। और वो अपने छोटे भाईयों और बहनों को आना या टका दे कर मीठी सौंफ मंगवाया करतीं।

    उसकी आवाज़ ऐसी मधुर थी कि जब वो कोई फ़िल्मी गाना-गाता तो लोग उसके मसख़रे पन को भूल कर गाने पर झूम से उठते। उसकी ये आवाज़ उसके कारोबार की कामयाबी का सबसे बड़ा ज़रीया थी। औरतों को घूरना या उन पर आवाज़े कसना उसकी आदत थी। ये और बात है कि आवाज़ गाने के पर्दे में बहुत कुछ कह जाती।

    वो इस कॉलोनी में हफ़्ते में एक-आध बार ही आया करता। यही वजह थी कि उसके आते ही बच्चे बड़े जोश-ओ-ख़रोश से उसके ख़ौर मक़दम के लिए दौड़ते। बच्चे जिस क़दर उससे ख़ुश थे, उनके माँ बाप उतना ही उससे बेज़ार। क्योंकि उसके आने पर उन्हें बच्चों की ज़िद पूरी करनी पड़ती थी। ख़्वाह जेब में पैसा हो या हो, और उन बड़े-बूढ़ों की नाराज़गी का तो पूछना ही क्या। उन्हें उसके मसख़रों के से लिबास और आशिक़ाना गीतों से सख़्त चिड़ थी। क्योंकि उनके ख़्याल के मुताबिक़ उन गानों से शरिफ़ा की बहू-बेटियों का अख़लाक़ बिगड़ता था। अगर उन बुड्ढों का बस चलता तो वो उसे पुलिस के हवाले करके हवालात में बंद करा देते मगर जब तक उससे कोई मुजरिमाना हरकत सरज़द हो ऐसा मुम्किन था। यही वजह थी कि इन बड़े बूढ़ों को घर की तरह इस मुआमले में भी सब्र ही से काम लेना पड़ता था।

    आख़िर एक दिन ऐसा आया जब उनके सब्र का पैमाना सच-मुच लबरेज़ हो गया। और इधर वो लोग भी जो औरतों की आज़ादी के बड़े हामी थे, सोच में पड़ गए कि कहीं हमीं तो ग़लती पर नहीं हैं।

    हुआ ये कि इस कॉलोनी में एक बंगाली बाबू रहता था। बड़ा ख़ुश खल्क़ और शरीफ़ तब‘अ। कॉलोनी में उसका बड़ा मान था। वो किसी दफ़्तर में सुपरिंटेनडेन्ट था। उसकी दो बेटियाँ थीं। मीरा और सबिता। मीरा की उम्र तीस बरस और सबिता की चौदह बरस। वो काठिया वाड़ के एक कत्थक मास्टर से नाच सीखा करती थीं। उस कत्थक मास्टर की उम्र कोई तीस बत्तीस साल की थी। हद दर्जे का चर्ब ज़बान, इस जवाँ उमरी ही में घाट-घाट का पानी पी चुका था। एक दिन दोपहर को वो किसी तमाशे के पास लेकर आया और उन लड़कियों को तमाशा देखने पर उकसाया। बंगाली बाबू दफ़्तर में था। लड़कियों ने माँ से इसरार करके इजाज़त ले ली। उसके बाद वो दोनों लड़कियाँ और काठिया वाड़ी कत्थक मास्चर ऐसे ग़ायब हुए कि जाने ज़मीन निगल गई या आसमान खा गया।

    बाज़ लोग कहते कि दोनों बहनें ऐक्ट्रेस बनने के शौक़ में बंबई भाग गईं। बाज़ कहते, नहीं इसी शहर के एक सेठ के क़ब्ज़े में हैं जिसने उन्हें तालों में बंद कर रखा है। ये कत्थक मास्टर भी उसी सेठ का सिखाया पढ़ाया था। ग़रज़ जितने मुँह उतनी ही बातें। थाने में रपट लिखवा दी गई थी। मगर अभी तक किसी का खोज नहीं मिला था।

    जिस दिन ये वाक़िआ पेश आया, कॉलोनी में एक तहलका सा मच गया। कॉलोनी वालों के चेहरे उतर से गए जैसे कोई मौत वाक़ेअ हो गई हो, रेडीयो पर फ़िल्मी गाने सुनने बंद कर दिए गए। और एक सोग का सा समाँ बंध गया। कॉलोनी के एक कायस्थ की बेटी एक सितारिए से सितार सीखा करती थी। कायस्थ ने उसी दिन उसे बर तरफ़ कर दिया। ये वाक़िआ था तो बहुत अफ़सोसनाक मगर उन बड़े-बूढ़ों के हक़ में ताईद-ए-ग़ैबी साबित हुआ। कॉलोनी में यकलख़्त उनका वक़ार बढ़ गया। ये बुड्ढे जो पहले सर डाले साए की तरह चुपके से गली कूचों से गुज़र जाते थे, अब उन्हीं रास्तों पर खंकारते, ज़ोर-ज़ोर से लाठी टेकते, सर उठा उठाकर चलने लगे। वो अपने बेटों को खरी-खरी सुनाते और इस नई तहज़ीब की ख़ूब-ख़ूब धज्जियाँ उड़ाते। बरसों से इसके ख़िलाफ़ दिलों में जो नफ़रत का तूफ़ान उमँड रहा था वो एक दम फूट पड़ा। अब उनके ख़ुद-सर बेटों के लिए इसके सिवा चारा था कि ख़ामोशी से सुनते रहें और सर झुका लें।

    जिस दिन ये वाक़िआ पेश आया था, उस दिन से बुड्ढों की इस मंडली में बड़ा जोश-ओ-ख़रोश नज़र आने लगा था, ये लोग बुलंद आवाज़ से इस पर हाशिया-आराई करते और जले दिल के फफोले फोड़ते। उनके लिए ये माजरा रोज़ का एक मुस्तक़िल मौज़ू बन गया था।

    “वेदजी!” मूँढे पर बैठे हुए एक बड़े मियाँ ने अपने साथ वाले बुड्ढे से ख़िताब किया, “अगर ऐसा ही एक वाक़िआ और हो जाए तो मैं मुस्लमान लड़कियों की तरह अपनी पोतियों को बुर्क़ा पहनाना शुरू कर दूँ।”

    इस पर मंडली में एक फ़र्माइशी क़हक़हा पड़ा।

    “गुप्ताजी भी कमाल करते हैं।” एक सफ़ेद रेश मक़ता सूरत बुज़ुर्ग गोया हुए। “शराफ़त कोई बुर्क़े ही में थोड़ी है। ये तो दिल में होनी चाहिए।”

    “सच कहते हो ख़ान साहब एक और पीर मर्द ने ताईद की और ख़ान साहब ने आँखों ही आँखों में उन बुज़ुर्ग का शुक्रिया अदा किया। ख़ान साहब की बहू पर्दा नहीं करती थी और जवान बेटियाँ भी बे-नक़ाब ही कॉलेज जाती थीं। मंडली में ये बातें हो ही रही थीं कि अचानक ‘‘बॉम्बे वाला” की आवाज़ सुनाई दी। कॉलोनी की इस उदास और सोग भरी ख़ामोशी में ये आवाज़ ऐसी मालूम हुई जैसे क़ब्रिस्तान में कोई बदमस्त शराबी घुसे और हुँकारना शुरू कर दे। बुड्ढों ने मानी-ख़ेज़ नज़रों से एक दूसरे की तरफ़ देखा, फिर बख़्शी जी, जो थे तो साठ के पीटे में मगर जवानों का सा दम ख़म रखते थे, मूँढे से उठे और बॉम्बे वाला को अपनी तरफ़ आने का इशारा किया।

    “क्या बेचते हो तुम?” बख़्शी जी ने ग़ुस्से भरी आवाज़ में पूछा।

    बॉम्बे वाला मुतअज्जिब सा हो कर मुस्कुराने की कोशिश करने लगा।

    “मैं पूछता हूँ क्या बेचते हो तुम?” बख़्शी जी ने पहले से ज़्यादा ग़ुस्से में कहा।

    “टॉफ़ी, चूसने वाली गोलीयाँ, मीठी सौंफ।” बॉम्बे वाला ने बदस्तूर मुस्कुराने की कोशिश करते हुए कहा

    “लाओ। दिखाओ।”

    उसने बाईस्कल को स्टैंड पर खड़ा कर दिया और गले में पड़ा हुआ बक्स खोल कर सब चीज़ों का एक-एक नमूना दिखाने लगा।

    “बेईमान कहीं का।” बख़्शी जी अचानक ही बरस पड़े, “ये टॉफ़ी तो गुड़ की है। बच्चों को ठगने के लिए ये चार-सौ बीस!”

    बॉम्बे वाला कुछ परेशान सा नज़र आया। मुस्कुराते हुए अदब से बोला “हुज़ूर अव्वल तो ये दरुस्त नहीं कि ये टॉफ़ी गुड़ की है। दूसरे ये चीज़ें मैं ख़ुद थोड़ा ही बनाता हूँ। ये तो कंपनी का माल है। मैं बना बनाया माल लाता हूँ।”

    इस अस्ना में तीन चार बूढ़े और मंडली से उठकर बॉम्बे वाला के पास पहुँच गए और उसको घेर कर खड़े हो गए।

    “क्या टर-टर लगाई है।” ये कहते ही गुप्ता जी ने आव देखा ताव, ज़ोर का एक चांटा बॉम्बे वाले के मुँह पर जड़ दिया। “एक तो चोर ऊपर से कंपनी का रोअब जमाता है ले और ले।”

    गुप्ता जी पहल कर चुके थे। फिर किया था। चारों तरफ़ से बॉम्बे वाला पर बे भाव की पड़ने लगीं। उधर उसका ये हाल कि हर थप्पड़ या चाँटे पर वो पहले से ज़्यादा हक्का बक्का हो कर अपने मारने वाले का मुँह तकने लगता। उसकी टॉप हैट उछल कर ज़मीन पर रही थी। उसके गालों पर उंगलियों के निशान पड़ गए थे। गालों और होंटों की सुर्ख़ी में काजल की स्याही मिल गई थी। उसके कपड़े फट गए थे। एक बुज़ुर्ग ने उसके टेल कोट की टेल नोच डाली थी, उसका मिठाईयों वाला बक्स खुल गया था और टॉफ़ीयाँ, चॉकलेट, रंगतरे की फाँकें, मीठी सौंफ की पुड़ीयाँ ज़मीन पर रही थीं। फ़िल्मी एक्टरों की तस्वीरें, गानों की किताबें, फ़िल्मी परियों की दास्तानें ज़मीन पर बिखरी पड़ी थीं।

    “हरामज़ादा। सुअर का बच्चा बड़ा ऐक्टर बना फिरता है। बदमाश... जा अब तो छोड़ दिया। फिर कभी इधर रुख़ कीजियो।” और बड़े बूढ़ों ने ख़ुद ही थक कर उसका पीछा छोड़ दिया। और हाँपते हुए आकर फिर अपनी मंडली में बिराजे।”

    बॉम्बे वाला मज़लूमी की तस्वीर बना देर तक ज़मीन पर बैठा मिठाईयाँ, तस्वीरें और किताबें उठाता और झाड़ झाड़कर अपने बक्स में रखता रहा। कभी-कभी वो इन बूढ़े बाबुओं पर भी एक नज़र डाल लेता।

    आख़िर वो ज़मीन से उठा। गले में मिठाईयों का बक्स डाला, और आहिस्ता-आहिस्ता क़दम उठाता उस तरफ़ गया जहाँ साईकल खड़ी थी। फिर साईकल पर बैठ ख़ामोशी से इस नवाह से रुख़स्त हो गया। इस मारपीट से उसका जिस्म दर्द करता था। उसे बेईज़्ज़ती का भी बहुत ग़म था मगर उसकी समझ में ये बात आती थी कि किस जुर्म की पादाश में ये सज़ा दी गई है।

    उसके बाद गुलिस्तान कॉलोनी में बॉम्बे वाला की आवाज़ फिर कभी सुनाई दी।

    स्रोत:

    Kulliyat-e-Ghulam Abbas (Pg. 257)

    • लेखक: ग़ुलाम अब्बास
      • प्रकाशक: रहरवान-ए-अदब, कोलकाता
      • प्रकाशन वर्ष: 2016

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