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छूई-मूई

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    स्टोरीलाइन

    एक पारिवारिक कहानी है। भाई है और उसकी बीवी है। ख़ानदान है जो नाम चलाने के लिए वारिस चाहता है। भाभी कई बार हामिला होती है लेकिन हर बार उसका हमल गिर जाता है। पाँचवी बार वह फिर पेट से होती है तो उसे विलादत के लिए दिल्ली से अलीगढ़ ले जाया जाता है। रास्ते में एक दूसरी हामिला औरत ट्रेन में चढ़ती है और उसी में एक बच्चा जन देती है। उस औरत के बच्चा जनने का भाभी पर ऐसा असर होता है कि पाँचवी बार भी उसका हमल गिर जाता है।

    आराम कुर्सी रेल के डिब्बे से लगादी गई और भाई जान ने क़दम उठाया, “इलाही ख़ैर... या ग़ुलाम दस्तगीर... बारह इमामों का सदक़ा। बिसमिल्लाह बिसमिल्लाह... बेटी जान सँभल के... क़दम थाम के... पांयचा उठाके... सहज सहज।” बी मुग़्लानी नक़ीब की तरह ललकारीं। कुछ मैंने घसीटा कुछ भाई साहब ने ठेला। तावीज़ों और इमाम ज़ामिनों का इश्तिहार बनी भाभी जान तने हुए ग़ुब्बारे की तरह हाँपती सीट पर लुढ़क बैठीं।

    “पाक परवरदिगार तेरा शुक्र”, बी मुग़्लानी के मुँह से और हमारे दलों से निकला बग़ैर हाथ पैर हिलाए हांप जाने की आदत शायद वो साथ लेकर तो पैदा ना हुई होंगी और ना अन्नाओं, दायाओं की लाड भरी गोदों में उनका अचार पड़ा। फिर भी औसत दर्जे की ख़ूबसूरत दुबली पतली लड़की चंद ही साल में फफोले की तरह नाज़ुक बन गई। बात ये हुई कि सीधी माँ के कूल्हे से तोड़ भाई जान के पलंग की ज़ीनत बना दी गईं और वहां एक शगुफ़्ता फूल की तरह पड़े महकने के सिवा उन पर ज़िंदगी का और कोई बार ना पड़ा। बी मुग़्लानी शादी के दिन से उन्हें पालने पोसने पर मुक़र्रर कर दी गईं। सुब्ह-सवेरे यानी जब बड़े लोगों की सुबह होती है। सलबजी में मुँह धुलाकर वहीं मसहरी पर जोड़ा बदल कर चोटी कंघी सोला सिंगार करके भरपूर दिल्ली के नाश्ते का ख़्वान सामने चुन लिया जाता जिसे साफ़ करके मेरी फूले फूले कल्लों वाली भाभी हथेली पर ठुड्डी रखे बैठी मुस्कुराया करतीं।

    लेकिन ये मुस्कुराहटें शादी के दूसरे ही साल फीकी पड़ गईं और उनका सिलसिला हर वक़्त थूकने और क़ै करने में गुज़रने लगा। महकते हुए फूलों में लदी माहपारा के बजाय इस रोग में मुबतिला बीवी को पाकर भाई जान भी बिदकने लगे। मगर अम्मां बेगम और बी मुग़्लानी के यहां तो जानो बहार गई। पहले ही महीने से गदीले पोतड़े इस ज़ोर-ओ-शोर से सिलने लगे जानो कल ही परसों में ज़चगी होने वाली है। मारे तावीज़ों के जिस्म पर तिल धरने की जगह ना रही, आए दिन के टोने टोटके दम बोलाने लगे। वैसे ही भाभी जान के दुश्मन का है को चलने फिरने के शौक़ीन थे। अब तो बस करवट भी लें तो मुग़्लानी बी, अल्लाह, बिसमिल्लाह के जी जी कारों से घर सर पर उठा लेतीं और बस दिन-भर वो कच्चे घड़े की तरह सैंत कर रखी जातीं। सुबह शाम पीर फ़क़ीर दम दुरूद करने और फूंकें मारने आते।

    लेकिन बावजूद कि मुग़्लानी का पहरा सख़्त था, कच्चा घड़ा वक़्त से पहले ही खुल गया और अरमानों पर पानी फिर गया। डाल फिर ख़ाली रह गई। बोर झड़ गया। पर जान बची लाखों पाए अल्लाह और देगा। घर की दौलत है। अल्लाह ने और दिया। पहरा पहले से चौगुना होगा। मगर फिर हाथ ख़ाली। तीसरी दफ़ा तो मुआमला पहले से चौगुना हो गया। मगर फिर हाथ ख़ाली। तीसरी दफ़ा तो मुआमला ज़रा काबिल-ए-ग़ौर बन गया। मारे दवाओं के भाभी जान का पलेथन निकल गया। रंग एक सिरे से ग़ायब। सिर्फ फूली फूली उबली हुई शकरक़ंद जैसी रह गईं। भाई जान की शाम रात के बारह बजे होने लगी। बी मुग़्लानी और अम्मां बेगम के तेवर भी ज़रा चढ़ने उतरने लगे और भाभी जान को मसहरी पर पड़े पड़े भाई जान की दूसरी शादी के शादयाने सुनाई देने लगे।

    और जब अल्लाह अल्लाह करके फिर वो दिन आया तो पीरों मुरीदों के इलावा दिल्ली के डाक्टर भी अपने सारे तीर तफ़ंग लेकर तैनात हो गए। ख़ुदा के करम से अंगना महीना लगा और भाभी जान साबुन के बुलबुले की तरह रोई के फूलों पर रखी जाने लगीं। किसी को क़रीब खड़े हो कर छींकने या नाक सिनकने की भी इजाज़त ना थी मबादा रद्द-ए-अमल से बुलबुला शक़ ना हो जाए।

    अब डाक्टरों ने कहा ख़तरा निकल गया तो अम्मां बेगम ने भी सोचा कि ज़चगी अलीगढ़ ही में हो। ज़रा सा तो सफ़र है गो भाभी जान दिल्ली छोड़ते लरज़ती थीं। जहां के डाक्टरों ने उनका इतना सफ़र सही-ओ-सालिम कटवा दिया था। अब आँखों की सूईयां ही तो रह गई थीं। दूसरे वो ज़माने के तेवर देख रही थीं, अगर अब के वार ख़ाली गया तो भाई जान को उनके सीने पर सौत लाने में कोई बहाना भी आड़े ना रहेगा अब तो वो नाम चलाए वाले की आड़ लेकर सब कुछ कर सकते थे। ख़बर नहीं बेचारे को इतना अपना नाम ज़िंदा रखने और उसे चलाने की क्यों फ़िक्र पड़ी थी हालाँकि ख़ुद उनका कोई ऊंचा नाम था ही नहीं, दुनिया में। मसहरी की ज़ीनत का जो एक अहम फ़र्ज़ है, अगर वो भी ना पूरा कर सकें तो यक़ीनन उन्हें सुख की सेज छोड़ना पड़ेगी। ये चंद साल नौजवानी और हुस्न के बलबूते पर वो डटी रहीं, फिर अब तो ज़रा तख़्त के पाए डगमगाते जा रहे थे और वो उन्हें उलट देने को तैयार था और फिर उस तख़्त से उतरकर बे-चारी के पास दूसरी जगह कहाँ थी। सीना पिरोना तो उन्होंने सीखा और ना उसमें जी लगा। दो बोल पढ़े थे, सो वो भी भूल भाल गई थीं। सच तो ये है कि दुनिया में अगर उनका कोई खिलाने पिलाने वाला ना रहे तो वो सिर्फ एक काम इख़्तेयार कर सकती हैं। यानी वही ख़िदमत जो वो भाई जान की करती थीं ख़ल्क़-ए-ख़ुदा की करें।

    लिहाज़ा वो जी जान से इस बार एक ऐसा हथियार मुहय्या करने पर तुली हुई थीं जिसके सहारे उनके खाने पहनने का इंतेज़ाम तो हो जाता। बाप नहीं, दादा दादी तो पालेंगे ही।

    ज़बरदस्त का ठेंगा सर पर। अम्मां बेगम का नादिर शाही हुक्म आया और हम लोग यूं लदे फंदे अलीगढ़ चल पड़े। नए तावीज़ों और टोटकों से लैस हो कर भाभी जान में भी इतनी हिम्मत हो गई।

    “इलाही ख़ैर”, बी मुग़्लानी इंजन की टक्कर से बे-ख़बरी मैं धड़ाम से गिरीं और भाभी जान ने लेटे लेटे दोनों हाथों से घड़ा दबोच लिया।

    “है है ये गाड़ी है कि हला चला, इलाही पीरों का सदक़ा... मुश्किल-कुशा” बी मुग़्लानी भाभी जान का पेट थाम कर बुदबुद करके दुरूद और कलाम पाक की आयतें पढ़ने लगीं। ख़ुदा ख़ुदा करके ग़ाज़ियाबाद गया।

    तूफ़ान मेल का नाम भी ख़ूब है। दनदनाती चली जाती है। रुकने का नाम ही नहीं लेती। डिब्बा पूरा अपने लिए रिज़र्व था। भीड़भाड़ का ख़दशा ही ना था। मैं खिड़की के सामनेवाली गली में भरी हुई मख़लूक़ से मुताले में महव और बी मुग़्लानी इंजन की सीटी के ख़ौफ़ से कान बंद किए बैठी थीं। भाभी जान को तो दूर ही से भीड़ को देखकर चक्कर आगया और वो वहीं पटरी पर पसर गईं। जूं ही रेल रेंगी, डिब्बे का दरवाज़ा खुला और एक कुँवारी घुसने लगी। क़ुली ने बहुतेरा घसीटा, मगर वो चलती रेल के पाएदान पर ढीट छिपकली की तरह लटक गई और बी मुग़्लानी की ''हैं हैं' की परवाह ना करके अंदर रींग आई और ग़ुसल ख़ाने के दरवाज़े से पीठ लगाकर हांपने लगी

    ’’ए है मोई तौबा है”, बी मुग़्लानी मुमन्नाएं। “ए निगोड़ी क्या पूरे दिन से है।”

    हाँफती हुई बेदम औरत ने अपने पपड़ीयाँ जमे होंटों को बमुश्किल मुस्कुराहट में फैलाया और इस्बात में सर हिलाया।

    “ऐ ख़ुदा की सँवार दीदा तो देखो सरदार का... तौबा है अल्लाह तौबा”, और वो बारी बारी अपने गालों पर थप्पड़ मारने लगीं।

    औरत ने कुछ जवाब ना दिया सिर्फ दर्द की शिद्दत से तड़प कर ग़ुस्ल-ख़ाने का दरवाज़ा दोनों हाथों से पकड़ लिया। सांस और बे-तरतीब हो गया और पेशानी पर पसीने के क़तरे ठंडी मिट्टी पर ओस की बूँदों की तरह फूट आए।

    “अरी क्या पहलौठी का है?” बी मुग़्लानी ने उसके अल्हड़पन से ख़ौफ़ज़दा हो कर कहा और इस बार कर्ब का ऐसा हमला पड़ा कि वो जवाब ही ना दे सकी। उसके चेहरे की सारी रगें खिंचने लगीं, लंबे लंबे आँसू उसकी उबली हुई आँखों से फूट निकले। बी मुग़्लानी है है, ओई, हाय, करती रहीं और वो दर्द की लहर को घूँटती रही। मैं बिसूर रही थी और भाभी जान सिसकियाँ ले रही थीं।

    “ए है बी कुंवारी क्या मज़े से बैठी देख रही हो। बेटी उधर मुँह कर के बैठो”, और कुंवारी ने जल्दी से मुँह उधर कर लिया। फिर जूं ही दर्द की लहर से तड़प कर उसने आवाज़ निकाली, गर्दन क़ाबू में ना रह सकी, और बी मुग़्लानी ने सलवातें सुनानी शुरू कीं। ‘‘ऊंह, तौबा”, जैसे एक बच्चे को दुनिया में दाख़िल होते देखकर मेरा कंवारपन मसख़ ही तो जायेगा। भाभी जान दुपट्टा मुँह पर लपेटे बिसूर रही थीं। बी मुग़्लानी नाक पर बुर्क़ा रखे ख़ी ख़ी थूक रही थीं और रेल के फ़र्श की जान को रो रही थी।

    एक दम ऐसा मालूम हुआ सारी दुनिया सिकुड़ कर खड़ी हो गई। फ़िज़ा घट कर टेढ़ी-मेढ़ी हो गई। शिद्दत-ए-एहसास से मेरी कनपटियां लोहे की सलाख़ों की तरह अकड़ गईं और बे-इख़्तियार आँसू निकल पड़े। मैंने सोचा औरत अब मरी और अब मरी कि एक दम से फ़िज़ा का तशन्नुज रुक गया। बी मुग़्लानी की नाक का बुर्क़ा फिसल पड़ा और बिलकुल भाभी जान की सलीम शाही जूतीयों के पास लाल लाल गोश्त की बोटी आन पड़ी। हैरत और मुसर्रत की मिली जुली चीख़ मेरे मुँह से निकली और झुक कर इस नन्ही सी कायनात को देखने लगी जिसने अपना लंबा चौड़ा दहाना खोल कर हाय तौबा डाल दी।

    बी मुग़्लानी ने मेरी चोटी पकड़ कर मुझे कोने में ठोंस दिया और इस औरत पर गालियों और मलामातों का तूमारे ले कर टूट पढ़ीं। मैंने सीट के कोने से आँसूओं की चिलमन से झांक कर देखा तो वो औरत मरी ना थी। बल्कि उसके सूखे हुए होंट जिन्हें उसने चबा डाला था। आहिस्ता-आहिस्ता मुस्कुराहट में फैल रहे थे। उसने नन्हे से साइल की वावेला से बेचैन हो कर आँखें खोल दी। आड़ी हो कर उसने उसे उठा लिया। कुछ देर वो अपने ना-तजुर्बा कार हाथों से उसे साफ़ करती रही। फिर उसने ओढ़नी से धज्जी फाड़ करनाल को कस कर बांध दिया। उसके बाद वो बेकसी से इधर उधर देखने लगी। मुझे अपनी तरफ़ मुख़ातिब देखकर वो एक दम खिल खिलाकर हंस पड़ी “कोई छुरी चक्कू है बी-बी जी?”

    बी मुग़्लानी गालियां देती रह गईं। भाभी जान ने बिसूर कर मेरा आँचल खींचा, पर मैंने नाख़ून काटने की क़ैंची उसे पकड़ा दी।

    उसका सन मेरे ही इतना होगा या शायद साल छः महीने बड़ी हो। वो अपने अल्हड़, ना तजुर्बे-कार हाथों से एक बच्चा की नाल काट रही थी जो उसने चंद मिनट पेशतर जना था। उसे देखकर मुझे वो भीड़ बकरियां याद आने लगीं जो बग़ैर दाई और लेडी डाक्टर की मदद के घास चरते चरते पेड़ तले ज़च्चाख़ाना रमा लेती हैं और नौज़ाईदा को चाट चाट कर क़िस्सा ख़त्म करती हैं।

    बुज़ुर्ग लोग कुँवारी लड़कीयों को बच्चे की पैदाइश देखने से मना करते हैं। और कहते हैं कि जे़बुन्निसा ने अपनी बहन के हाँ बच्चा पैदा होते देख लिया था तो वो ऐसी हैबतज़दा हुई कि सारी उम्र शादी ही ना की। शायद जे़बुन्निसा की बहन मेरी भाभी जान जैसी होगी, वर्ना अगर वो इस फ़क़ीरनी के बच्चा पैदा होते देख लेती तो मेरी ही हम-ख़याल हो जाती कि सब ढोंग रचाते हैं। बच्चा पैदा करना इतना ही आसान है जितना भाभी जान के लिए रेल पर सवार होना या उतरना।

    और मुझे तो ऐसी भयानक किस्म की शर्म की बात भी ना मालूम हुई। इससे कहीं ज़्यादा बेहुदा बातें बी मुग़्लानी और अम्मां हर वक़्त मुख़्तलिफ़ औरतों के बारे में किया करती थीं जो मेरे कच्चे कानों में जाकर भुने चनों की तरह फूटा करती थीं। थोड़ी देर तो वो फूहड़पन से बच्चे को दूध पिलाने की कोशिश करती रही। आँसू ख़ुशक हो चुके थे और वो कभी कभी हंस रही थी जैसे उसे कोई गुदगुदा रहा हो। फिर मुग़्लानी के डाँटने पर वो सहम गई और बच्चे को चीथड़ों में लपेट कर अलग सीट के नीचे रख दिया और उठ खड़ी हुई। भाभी जान की चीख़ निकल गई।

    इतने में बी मुग़्लानी भाभी जान को टटोलती सहलाती रहीं। उसने बाथरूम से पानी लाकर डिब्बा को साफ़ करना शुरू किया। भाभी जान की ज़रकार सलीम शाही धो पोंछ कर कोने से लगाकर खड़ी कर दी। फिर उसने पानी और छीथड़ों की मदद से डिब्बे से जुमला ज़चगी के निशानात दूर कर डाले। इतने में हम तीनों मुक़द्दस बीबियाँ सीटों पर लदी अहमक़ों की तरह उसे देखती रहीं। उसके बाद वो बच्चे को छाती से लगाकर बाथरूम के दरवाज़े के सहारे हो बैठी जैसे कोई घर का मामूली काम काज करके जी बहलाने फ़ुर्सत से बैठ जाये और चने चबाते चबाते ऊँघ गई।

    पर गाड़ी के धचके से वो चौंक पड़ी। गाड़ी रुकते रुकते उसने डिब्बे का दरवाज़ा खोला और पैर तौलती उतर गई।

    टिकट चैकर ने पूछा, “क्यों री टिकट?” और उसने मुसर्रत से बेताब हो कर झोली फैलादी जैसे वो कहीं से झड़ बेरी के बीर चुराकर लाई हो। टिकट चैकर मुँह फाड़े खड़ा रह गया। और वो हँसती पीछे मुड़ मुड़ कर देखती भीड़ में गुम हो गई।

    “ख़ुदा की सँवार इन ख़ानगियों की सूरत पर। ये हरामी हलाली जनती फिरती हैं, मूई जादूगरनियां”, बी मुग़्लानी बड़बड़ाईं। रेल ने ठोकर ली और चल पड़ी।

    भाभी जान की सिसकियाँ एक मुनज़्ज़म चीख़ में उभर आईं, “है है मौला, ख़ैर है बेगम दुल्हन!” बी मुग़्लानी उनका मुत’ग़य्यर चेहरा देखकर लरज़ीं। और वहां ख़ैर ग़ायब थी।

    और भाभी जान के हवन्नक़ चेहरे पर भाई जान की दूसरी शादी के ताशे बाजे ख़िज़ां बरसाने लगे।

    क़िस्मत की ख़ूबी देखिए टूटी कहाँ कमंद।

    दो-चार हाथ जब कि लब-ए-बाम रह गया।

    नई रूह दुनिया में क़दम रखते झिजक गई और मुँह बिसूर कर लौट गई। मेरी पंच फुल्ला रानी ने जो तिलिस्म होश-रुबा किस्म की ज़चगी देखी तो मारे हैबत के हमल गिर गया।

    स्रोत:

    Badan Ki Khushbu (Pg. 5)

    • लेखक: इस्मत चुग़ताई
      • प्रकाशक: रोहतास बुक्स, लाहौर
      • प्रकाशन वर्ष: 1992

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