aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

पढ़िए कलिमा

सआदत हसन मंटो

पढ़िए कलिमा

सआदत हसन मंटो

MORE BYसआदत हसन मंटो

    ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह... आप मुसलमान हैं यक़ीन करें, मैं जो कुछ कहूंगा, सच कहूंगा।

    पाकिस्तान का इस मुआ’मले से कोई तअ’ल्लुक़ नहीं। क़ाइद-ए-आज़म जिन्ना के लिए मैं जान देने के लिए तैयार हूँ। लेकिन मैं सच कहता हूँ इस मुआ’मले से पाकिस्तान का कोई तअ’ल्लुक़ नहीं। आप इतनी जल्दी कीजिए... मानता हूँ। इन दिनों हुल्लड़ के ज़माने में आपको फ़ुर्सत नहीं, लेकिन आप ख़ुदा के लिए मेरी पूरी बात तो सुन लीजिए... मैंने तुकाराम को ज़रूर मारा है, और जैसा कि आप कहते हैं तेज़ छुरी से उसका पेट चाक किया है, मगर इसलिए नहीं कि वो हिंदू था। अब आप पूछेंगे कि तुमने इसलिए नहीं मारा तो फिर किस लिए मारा... लीजिए, मैं सारी दास्तान ही आपको सुना देता हूँ।

    पढ़िए कलमा, ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह... किस काफ़िर को मालूम था कि मैं इस लफ़ड़े में फंस जाऊंगा। पिछले हिंदू-मुस्लिम फ़साद में मैंने तीन हिंदू मारे थे। लेकिन आप यक़ीन मानिए वो मारना कुछ और है, और ये मारना कुछ और है। ख़ैर, आप सुनिए कि हुआ क्या, मैंने इस तुकाराम को क्यों मारा।

    क्यों साहब औरत ज़ात के मुतअ’ल्लिक़ आप का क्या ख़याल है... मैं समझता हूँ, बुज़ुर्गों ने ठीक कहा है... इसके चलित्तरों से ख़ुदा ही बचाए... फांसी से बच गया तो देखिए कानों को हाथ लगाता हूँ, फिर कभी किसी औरत के नज़दीक नहीं जाऊंगा, लेकिन साहब औरत भी अकेली सज़ावार नहीं। मर्द साले भी कम नहीं होते। बस, किसी औरत को देखा और रेशा ख़तमी होगए। ख़ुदा को जान देनी है इंस्पेक्टर साहब! रुकमा को देख कर मेरा भी यही हाल हुआ था।

    अब कोई मुझसे पूछे, बंदा-ए-ख़ुदा तू एक पैंतीस रुपये का मुलाज़िम, तुझे भला इश्क़ से क्या काम। किराया वसूल कर और चलता बन। लेकिन आफ़त ये हुई साहब कि एक दिन जब मैं सोलह नंबर की खोली का किराया वसूल करने गया और दरवाज़ा ठोका तो अंदर से रुकमा बाई निकली। यूं तो मैं रुकमा बाई को कई दफ़ा देख चुका था लेकिन उस दिन कमबख़्त ने बदन पर तेल मला हुआ था और एक पतली धोती लपेट रखी थी। जाने क्या हुआ मुझे, जी चाहा उसकी धोती उतार कर ज़ोर ज़ोर से मालिश कर दूँ। बस साहब उसी रोज़ से इस बंदा-ए-नाबकार ने अपना दिल, दिमाग़ सब कुछ उसके हवाले कर दिया।

    क्या औरत थी... बदन था पत्थर की तरह सख़्त, मालिश करते करते हांपने लग गया था मगर वो अपने बाप की बेटी यही कहती रही, “थोड़ी देर और।”

    शादीशुदा... जी हाँ, शादीशुदा थी और ख़ान चौकीदार ने कहा था कि उसका एक यार भी है। लेकिन आप सारा क़िस्सा सुन लीजिए... यार-वार सब ही इसमें आजाऐंगे।

    जी हाँ, बस उस रोज़ से इश्क़ का भूत मेरे सर पर सवार होगया। वो भी कुछ कुछ समझ गई थी क्योंकि कभी कभी कन-अक्खियों से मेरी तरफ़ देख कर मुस्कुरा देती थी। लेकिन ख़ुदा गवाह है जब भी वो मुस्कुराई, मेरे बदन में ख़ौफ़ की एक थरथरी सी दौड़ गई। पहले मैं समझता था कि ये मा’शूक़ को पास देखने का ‘वो’ है... लेकिन बाद में मालूम हुआ... लेकिन आप शुरू ही से सुनिए।

    वो तो मैं आप से कह चुका हूँ कि रुकमा बाई से मेरी आँख लड़ गई थी। अब दिन रात में सोचता था कि उसे पटाया कैसे जाये। कमबख़्त, उसका ख़ाविंद हर वक़्त खोली में बैठा लकड़ी के खिलौने बनाता रहता, कोई चांस मिलता ही नहीं था।

    एक दिन बाज़ार में मैंने उसके ख़ाविंद को जिसका नाम... ख़ुदा आपका भला करे क्या था जी हाँ... गिरधारी... लकड़ी के खिलौने चादर में बांधे ले जाते देखा तो मैंने झट से सोलह नंबर की खोली का रुख़ किया। धड़कते दिल से मैंने दरवाज़े पर दस्तक दी। दरवाज़ा खुला। रुकमा बाई ने मेरी तरफ़ घूर के देखा। ख़ुदा की क़सम मेरी रूह लरज़ गई।

    भाग गया होता वहां से, लेकिन उसने मुस्कुराते हुए मुझे अंदर आने का इशारा किया।

    जब अंदर गया तो उसने खोली का दरवाज़ा बंद कर के मुझसे कहा, “बैठ जाओ!” मैं बैठ गया तो उस ने मेरे पास आकर कहा, “देखो मैं जानती हूँ तुम क्या चाहते हो। लेकिन जब तक गिरधारी ज़िंदा है, तुम्हारी मुराद पूरी नहीं हो सकती।”

    मैं उठ खड़ा हुआ। उसे पास देख कर मेरा ख़ून गर्म हो गया था। कनपटियां ठक ठक कर रही थीं। कमबख़्त ने आज भी बदन पर तेल मला हुआ था और वही पतली धोती लपेटी हुई थी। मैंने उसे बाज़ूओं से पकड़ लिया और दबा कर कहा, “मुझे कुछ मालूम नहीं। तुम क्या कह रही हो।” उफ़! उस के बाज़ूओं के पुट्ठे किस क़दर सख़्त थे... अ’र्ज़ करता हूँ। मैं बयान नहीं कर सकता कि वो किस क़िस्म की औरत थी।

    ख़ैर, आप दास्तान सुनिए।

    मैं और ज़्यादा गर्म हो गया और उसे अपने साथ चिमटा लिया, “गिरधारी जाये जहन्नुम में... तुम्हें मेरी बनना होगा।”

    रुकमा ने मुझे अपने जिस्म से अलग किया और कहा, “देखो तेल लग जाएगा।”

    मैंने कहा, “लगने दो।” और फिर उसे अपने सीने के साथ भींच लिया... यक़ीन मानिए अगर उस वक़्त आप मारे कोड़ों के मेरी पीठ की चमड़ी उधेड़ देते, तब भी मैं उसे अलाहिदा करता। लेकिन कमबख़्त ने ऐसा पुचकारा कि जहां उसने मुझे पहले बैठाया था, ख़ामोश हो कर बैठ गया।

    मुझे मालूम नहीं था वो सोच क्या रही है। गिरधारी साला बाहर है, डर किस बात का है... थोड़ी देर के बाद मुझसे रहा गया तो मैंने उससे कहा, “रुकमा! ऐसा अच्छा मौक़ा फिर कभी नहीं मिलेगा।”

    उसने बड़े प्यार से मेरे सर पर हाथ फेरा और मुस्कुरा कर कहा, “इससे भी अच्छा मौक़ा मिलेगा... लेकिन तुम ये बताओ जो कुछ मैं कहूँगी करोगे?”

    साहिब मेरे सर पर तो भूत सवार था। मैंने जोश में आकर जवाब दिया, “तुम्हारे लिए मैं पंद्रह आदमी क़त्ल करने को तैयार हूँ।”

    ये सुन कर वो मुस्कुराई, “मुझे विश्वास है।” ख़ुदा की क़सम एक बार फिर मेरी रूह लरज़ गई। लेकिन मैंने सोचा शायद ज़्यादा जोश आने पर ऐसा हुआ है।

    बस वहां मैं थोड़ी देर और बैठा, प्यार और मुहब्बत की बातें कीं, उसके हाथ के बने हुए भजिए खाए और चुपके से बाहर निकल आया। गो वो सिलसिला हुआ, लेकिन साहब ऐसे सिलसिले पहले ही दिन थोड़े होते हैं। मैंने सोचा, फिर सही!

    दस दिन गुज़र गए। ठीक ग्यारहवें दिन, रात के दो बजे, हाँ दो ही का अ’मल था... किसी ने मुझे आहिस्ता से जगाया। मैं नीचे सीढ़ियों के पास जो जगह है न, वहां सोता हूँ।

    आँखें खोल मैंने देखा। अरे रुकमा बाई। मेरा दिल धड़कने लगा। मैंने आहिस्ता से पूछा, “क्या है।”

    उसने हौले कहा, “आओ मेरे साथ...” मैं नंगे पांव उसके साथ हो लिया। मैंने और कुछ सोचा और वहीं खड़े खड़े उसको सीने के साथ भींच लिया। उसने मेरे कान में कहा, “अभी ठहरो।” फिर बत्ती रोशन की, मेरी आँखें चुंधिया सी गईं।

    थोड़ी देर के बाद मैंने देखा कि सामने चटाई पर कोई सो रहा है। मुँह पर कपड़ा है। मैंने इशारे से पूछा, “ये क्या?”

    रुकमा ने कहा, “बैठ जाओ।” मैं उल्लू की तरह बैठ गया। वो मेरे पास आई और बड़े प्यार से मेरे सर पर हाथ फेर कर उसने ऐसी बात कही जिसको सुन कर मेरे औसान ख़ता हो गए... बिल्कुल बर्फ़ हो गया। साहब, काटो तो लहू नहीं बदन में। जानते हैं रुकमा ने मुझसे क्या कहा?

    पढ़िए कलमा! ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह... मैंने अपनी ज़िंदगी में ऐसी औरत नहीं देखी, कमबख़्त ने मुस्कुराते हुए मुझसे कहा, “मैंने गिरधारी को मार डाला है।”

    आप यक़ीन कीजिए उसने अपने हाथों से एक हट्टे कट्टे आदमी को क़त्ल किया था... क्या औरत थी साहब... मुझे जब भी वो रात याद आती है, क़सम ख़ुदावंद-ए-पाक की रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उसने मुझे वो चीज़ दिखाई जिससे उस ज़ालिम ने गिरधारी का गला घोंटा था। बिजली के तारों की गुँधी हुई एक मज़बूत रस्सी सी थी। लकड़ी फंसा कर उसने ज़ोर से कुछ ऐसे पेच दिए थे कि बेचारे की ज़बान और आँखें बाहर निकल आई थीं... कहती थी, बस यूं चुटकियों में काम तमाम हो गया था।

    कपड़ा उठा कर जब उसने गिरधारी की शक्ल दिखाई तो मेरी हड्डियां तक बर्फ़ हो गईं, लेकिन वो औरत जाने क्या थी? वहीं लाश के सामने उसने मुझे अपने साथ लिपटा लिया। क़ुरआन की क़सम! मेरा ख़याल था कि सारी उम्र के लिए नामर्द हो गया हूँ। मगर साहब जब उसका गर्म गर्म पिंडा मेरे बदन के साथ लगा और उसने एक अ’जीब-ओ-ग़रीब क़िस्म का प्यार किया तो अल्लाह जानता है चौदह तबक़ रोशन हो गए। ज़िंदगी भर वो रात मुझे याद रहेगी... सामने लाश पड़ी थी लेकिन रुकमा और मैं दोनों उससे ग़ाफ़िल एक दूसरे के अंदर धँसे हुए थे।

    सुबह हुई तो हम दोनों ने मिल कर गिरधारी की लाश के तीन टुकड़े किए, औज़ार उसके पास मौजूद थे, इसलिए ज़्यादा तकलीफ़ हुई। ठक ठक काफ़ी हुई थी पर लोगों ने समझा होगा गिरधारी खिलौने बना रहा है।

    आप पूछेंगे बंदा-ए-ख़ुदा तुमने ऐसे घिनौने काम में क्यों हिस्सा लिया। पुलिस में रपट क्यों लिखवाई... साहब, अ’र्ज़ ये है कि उस कमबख़्त ने मुझे एक ही रात में अपना ग़ुलाम बना लिया था। अगर वो मुझ से कहती तो शायद मैंने पंद्रह आदमियों का ख़ून भी कर ही दिया होता। याद है न! मैंने एक दफ़ा उससे जोश में आकर क्या कहा था?

    अब मुसीबत ये थी कि लाश को ठिकाने कैसे लगाया जाये। रुकमा कुछ भी हो, आख़िर औरत ज़ात थी। मैंने उससे कहा, जान-ए-मन, तुम कुछ फ़िक्र करो। फ़िलहाल इन टुकड़ों को ट्रंक में बंद कर देते हैं। जब रात आएगी तो मैं उठा कर ले जाऊंगा।

    अब ख़ुदा का करना ऐसा हुआ साहब कि उस रोज़ हुल्लड़ हुआ। पाँच छः इलाक़ों में ख़ूब मारा मारी हुई। गर्वनमेंट ने छत्तीस घंटे का कर्फ़यू लगा दिया।

    मैंने कहा, अब्दुलकरीम! कुछ भी हो, लाश आज ही ठिकाने लगा दो... चुनांचे दो बजे उठा... ऊपर से ट्रंक लिया। ख़ुदा की पनाह! कितना वज़न था। मुझे डर था रस्ते में कोई पीली पगड़ी वाला ज़रूर मिलेगा और कर्फ़यू आर्डर की ख़िलाफ़वरज़ी में धरलेगा। मगर साहब, जिसे अल्लाह रखे उसे कौन चखे, जिस बाज़ार से गुज़रा, उसमें सन्नाटा था। एक जगह... बाज़ार के पास मुझे एक छोटी सी मस्जिद नज़र आई। मैंने ट्रंक खोला और लाश के टुकड़े निकाल कर अंदर ड्युढ़ी में डाल दिए और वापस चला आया।

    क़ुर्बान उसकी क़ुदरत के सुबह पता चला कि हिंदुओं ने उस मस्जिद को आग लगा दी। मेरा ख़याल है गिरधारी उसके साथ ही जल कर राख हो गया होगा क्योंकि अख़बारों में किसी लाश का ज़िक्र नहीं था।

    अब साहब, बक़ौल शख़से मैदान ख़ाली था। मैंने रुकमा से कहा, चाली में मशहूर कर दो कि गिरधारी बाहर काम के लिए गया है। मैं रात को दो ढाई बजे जाया करूंगा और ऐश किया करेंगे... मगर उसने कहा, “नहीं अब्दुल, इतनी जल्दी नहीं। अभी हमको कम अज़ कम पंद्रह बीस रोज़ तक नहीं मिलना चाहिए।” बात मा’क़ूल थी, इसलिए मैं ख़ामोश रहा।

    सत्रह रोज़ गुज़र गए... कई बार डरावने ख़्वाबों में गिरधारी आया, लेकिन मैंने कहा... साले मर-खप चुका है। अब मेरा क्या बिगाड़ सकता है। अठारहवीं रोज़ साहिब मैं उसी तरह सीढ़ियों के पास चारपाई पर सो रहा था कि रुकमा रात के बारह... बारह नहीं तो एक होगा, आई और मुझे ऊपर ले गई।

    चटाई पर नंगी लेट कर उसने मुझ से कहा, “अब्दुल, मेरा बदन दुख रहा है, ज़रा चम्पी करदो।”

    मैंने फ़ौरन तेल लिया और मालिश करने लगा लेकिन आधे घंटे में ही हांपने लगा। मेरे पसीने की कई बूंदें उसके चिकने बदन पर गिरीं। लेकिन उसने ये कहा, “बस कर अब्दुल। तुम थक गए हो।”

    आख़िर मुझे ही कहना पड़ा, “रुकमा भई, अब ख़लास...”

    वो मुस्कुराई... मेरे ख़ुदा क्या मुस्कुराहट थी। थोड़ी देर दम लेने के बाद मैं चटाई पर बैठ गया। उस ने उठ कर बत्ती बुझाई और मेरे साथ लेट गई। चम्पी कर कर के में इस क़दर थक गया था कि किसी चीज़ का होश रहा। रुकमा के सीने पर हाथ रखा और सो गया।

    जाने क्या बजा था। मैं एक दम हड़बड़ा के उठा। गर्दन में कोई सख़्त सख़्त सी चीज़ धँस रही थी। फ़ौरन मुझे उस तार वाली रस्सी का ख़याल आया लेकिन इससे पहले कि मैं अपने आपको छुड़ाने की कोशिश कर सकूं, रुकमा मेरी छाती पर चढ़ बैठी। एक दो ऐसे मरोड़े दिए कि मेरी गर्दन कड़ कड़ कर बोल उठी। मैंने शोर मचाना चाहा, लेकिन आवाज़ मेरे पेट में रही। इसके बाद मैं बेहोश हो गया।

    मेरा ख़याल है चार बजे होंगे। आहिस्ता आहिस्ता मुझे होश आना शुरू हुआ। गर्दन में बहुत ज़ोर का दर्द था। मैं वैसे ही दम साधे पड़ा रहा और हौले-हौले हाथ से रस्सी के मरोड़े खोलने शुरू किए... एक दम आवाज़ें आने लगीं।

    मैंने सांस रोक लिया। कमरे में घुप्प अंधेरा था। आँखें फाड़ फाड़ कर देखने की कोशिश की, पर कुछ नज़र आया। जो आवाज़ें आरही थीं, उनसे मालूम होता था दो आदमी कुश्ती लड़ रहे हैं। रुकमा हांप रही थी... हाँपते हाँपते उसने कहा, “तुकाराम! बत्ती जला दो...”

    तुकाराम ने डरते हुए लहजे में कहा, “नहीं नहीं, रुकमा नहीं...”

    रुकमा बोली, “बड़े डरपोक हो... सुबह इसके तीन टुकड़े कर के ले जाओगे कैसे”!

    मेरा बदन बिल्कुल ठंडा हो गया। तुकाराम ने क्या जवाब दिया, रुकमा ने फिर क्या कहा? इसका मुझे कुछ होश नहीं। पता नहीं कब एक दम रोशनी हुई और मैं आँखें झपकता उठ बैठा। तुकाराम के मुँह से ज़ोर की चीख़ निकली और वो दरवाज़ा खोल कर भाग गया।

    रुकमा ने जल्दी से किवाड़ बंद किए और कुंडी चढ़ा दी... साहब मैं आपसे क्या बयान करूं, मेरी हालत क्या थी। आँखें खुली थीं, देख रहा था। सुन रहा था लेकिन हिलने-जुलने की बिल्कुल सकत नहीं थी।

    ये तुकाराम मेरे लिए कोई नया आदमी नहीं था। हमारी चाली में अक्सर आम बेचने आया करता था। रुकमा ने उसको कैसे फंसाया, इसका मुझे इल्म नहीं।

    रुकमा मेरी तरफ़ घूर घूर के देख रही थी जैसे उसको अपनी आँखों पर यक़ीन नहीं। वो मुझे मार चुकी थी लेकिन मैं उसके सामने ज़िंदा बैठा था। ख़ैर वो मुझ पर झपटने को थी कि दरवाज़े पर दस्तक हुई और बहुत से आदमियों की आवाज़ें आईं। रुकमा ने झट से मेरा बाज़ू पकड़ा और घसीट कर मुझे ग़ुस्लख़ाने के अंदर डाल दिया। इसके बाद उसने दरवाज़ा खोला, पड़ोस के आदमी थे।

    उन्हों ने रुकमा से पूछा, “ख़ैरीयत है। अभी अभी हमने चीख़ की आवाज़ सुनी थी।”

    रुकमा ने जवाब दिया, “ख़ैरीयत है। मुझे सोते में चलने की आदत है... दरवाज़ा खोल कर बाहर निकली तो दीवार के साथ टकरा गई और डर कर मुँह से चीख़ निकल गई।”

    पड़ोस के आदमी ये सुन कर चले गए। रुकमा ने किवाड़ बंद किए और कुंडी चढ़ा दी। अब मुझे अपनी जान की फ़िक्र हुई। आप यक़ीन मानिए ये सोच कर कि वो ज़ालिम मुझे ज़िंदा नहीं छोड़ेगी, एक दम मेरे अंदर मुक़ाबले की बेपनाह ताक़त आगई। बल्कि मैंने इरादा कर लिया कि रुकमा के टुकड़े टुकड़े कर दूँगा।

    ग़ुस्लख़ाने से बाहर निकला तो देखा कि वो बड़ी खिड़की के पट खोले बाहर झांक रही है। मैं एक दम लपका। चूतड़ों पर से ऊपर उठाया और बाहर धकेल दिया। ये सब यूं चुटकियों में हुआ। धप सी आवाज़ आई और मैं दरवाज़ा खोल कर नीचे उतर गया।

    सारी रात मैं चारपाई पर लेटा अपनी गर्दन पर जो बहुत बुरी तरह ज़ख़्मी हो रही थी... आप निशान देख सकते हैं... तेल मल मल कर सोचता रहा कि किसी को पता नहीं चलेगा। उसने पड़ोसियों से कहा था कि उसे सोते में चलने की आदत है।

    मकान के उस तरफ़ जहां मैंने उसे गिराया था जब उसकी लाश देखी जाएगी तो लोग यही समझेंगे कि सोते में चली है और खिड़की से बाहर गिर पड़ी है। ख़ुदा ख़ुदा कर के सुबह हुई, गर्दन पर मैंने रूमाल बांध लिया ताकि ज़ख़्म दिखाई दें।

    नौ बज गए, बारह हो गए मगर रुकमा की लाश की कोई बात ही हुई। जिधर मैंने उसको गिराया था, एक तंग गली है। दो बिल्डिंगों के दरमियान दो तरफ़ दरवाज़े हैं ताकि लोग अंदर दाख़िल हो कर पेशाब पाख़ाना करें। फिर भी दो बिल्डिंगों की खिड़कियों में से फेंका हुआ कचरा काफ़ी जमा होता है जो हर रोज़ सुबह सवेरे भंगन उठा कर ले जाती है।

    मैंने सोचा शायद भंगन नहीं आई, आई होती तो उसने दरवाज़ा खोलते ही रुकमा की लाश देखी होती और शोर बरपा कर दिया होता। क़िस्सा क्या था! मैं चाहता था कि लोगों को जल्द इस बात का पता चल जाये। दो बज गए तो मैंने जी कड़ा करा के ख़ुद ही दरवाज़ा खोला। लाश थी कचरा या मज़्हरुल अ’जाइब! रुकमा गई कहाँ?

    क़ुरआन की क़सम खा कर कहता हूँ, मुझे उस फांसी के फंदे से बच निकलने का इतना तअ’ज्जुब नहीं होगा जितना कि रुकमा के ग़ायब होने का है। तीसरी मंज़िल से मैंने उसे गिराया था, पत्थरों के फ़र्श पर। बची कैसे होगी... लेकिन फिर सवाल है कि उसकी लाश कौन उठा कर ले गया?

    अ’क़्ल नहीं मानती, लेकिन साहब कुछ पता नहीं वो डायन ज़िंदा हो... चाली में तो यही मशहूर है कि या तो किसी मुसलमान ने घर डाल लिया है या मार डाला है... वल्लाहो आलम बिस्सवाब... मार डाला है तो अच्छा किया है। घर डाल लिया है तो जो हश्र उस ग़रीब का होगा आप जानते ही हैं... ख़ुदा बचाए साहब।

    अब तुकाराम की बात सुनिए। इस वाक़ये के ठीक बीस रोज़ बाद वो मुझसे मिला और पूछने लगा, “बताओ! रुकमा कहाँ है?”

    मैंने कहा, “मुझे कुछ इल्म नहीं।”

    कहने लगा, “नहीं, तुम जानते हो...” मैंने जवाब दिया, “भाई क़ुरआन मजीद की क़सम! मुझे कुछ मालूम नहीं...”

    बोला, “नहीं, तुम झूट बोलते हो। तुमने उसे मार डाला है। मैं पुलिस में रपट लिखवाने वाला हूँ कि पहले तुमने गिरधारी को मारा फिर रुकमा को...” ये कह कर वो तो चला गया। लेकिन साहब मेरे पसीने छूट गए। बहुत देर तक कुछ समझ में आया क्या करूं। एक ही बात सूझी कि उसको ठिकाने लगा दूं।

    आप ही सोचिए इसके इलावा और ईलाज भी क्या था। चुनांचे साहब उसी वक़्त छुप कर छुरी तेज़ की और तुकाराम को ढ़ूढ़ने निकल पड़ा।

    इत्तफ़ाक़ की बात है शाम को छः बजे वो मुझे... स्ट्रीट के नाके पर मूत्री के पास मिल गया। मौसंबियों की ख़ाली टोकरी बाहर रख कर वो पेशाब करने के लिए अंदर गया। मैं भी लपक कर उस के पीछे। धोती खोल ही रहा था कि मैंने ज़ोर से पुकारा, “तुकाराम...” पलट कर इस ने मेरी तरफ़ देखा। छुरी मेरे हाथ ही में थी। एक दम उसके पट में भौंक दी।

    उसने दोनों हाथों से अपनी बाहर निकलती हुई अंतड़ियां थामीं और दोहरा हो गिर पड़ा। चाहिए तो ये था कि बाहर निकल कर नौ दो ग्यारह हो जाता मगर बेवक़ूफ़ी देखिए बैठ कर उसकी नब्ज़ देखने लगा कि आया मरा है या नहीं।

    मैंने इतना सुना था कि नब्ज़ होती है, अंगूठे की तरफ़ या दूसरी तरफ़, ये मुझे मालूम नहीं था। चुनांचे ढूंडते ढूंडते देर लग गई। इतने में एक कांस्टेबल पतलून के बटन खोलते खोलते अंदर आया और मैं धर लिया गया। बस साहब ये है पूरी दास्तान... पढ़िए कलमा, ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह! जो मैंने रत्ती भर भी झूट बोला हो।

    स्रोत:

    Chughad (Pg. 45)

    • लेखक: सआदत हसन मंटो
      • प्रकाशक: साक़ी बुक डिपो, दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1991

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

    GET YOUR PASS
    बोलिए