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डार से बिछड़े

सय्यद मोहम्मद अशरफ़

डार से बिछड़े

सय्यद मोहम्मद अशरफ़

MORE BYसय्यद मोहम्मद अशरफ़

    शुरू जनवरी के आसमान में टके सितारों की जगमगाहट कोहरे की मोटी तह में कहीं-कहीं झलक रही थी। जीप की हेड लाइट्स की दो मोटी-मोटी मुतवाज़ी लकीरें आगे बढ़ रही थीं। सड़क बिल्कुल सुनसान थी। चारों तरफ़ सन्नाटा था। सन्नाटे के अलावा और कोई नहीं था, या फिर जीप के इंजन की आवाज़ और सड़क के दरख़्तों की ठंडी-ठंडी सरगोशियाँ... यकायक भीगी हुई हवा के कोई झोंके बंद जीप के अंदर घुस आए। मैंने बंदूक़ टाँगों पर रख कर शिकारी कोट की बेल्ट को मज़ीद कसा और गर्दन को मफ़लर से अच्छी तरह लपेट लिया। जैसे-जैसे रात गुज़र रही थी, जाड़ा तेज़ होता जा रहा था। हवाएँ कुछ देर को थमीं तो मैंने जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगाई।

    गाड़ी लाहौर की हदों से बहुत आगे निकल आई थी।

    ग़ुलाम अली! मैं ड्राइवर से मुख़ातिब हुआ।

    जी हुज़ूर!

    और कितनी दूर है शाहगंज।

    बस साहब, तीस बत्तीस मील और चलना है।

    कहीं ऐसा हो कि हमारे पहुँचने से पहले चिड़िया उठ जाए।

    क्या वक़्त हुआ होगा साहब? उसने जीप की रफ़्तार तेज़ करते हुए पूछा।

    मैंने सिगरेट का एक तवील कश लिया और चिंगारी की रौशनी में घड़ी देख ली।

    साढ़े चार हो चुके।

    तब तो आप बेफ़िक्र रहिए। साढ़े पाँच तक पहुँच जाएँगे... सात बजे के क़रीब जा कर पौ फटती है... चिड़िया उसके बाद ही उठती है।

    फिर वही सन्नाटा...

    शाह गंज से तुम्हारा घर कितनी दूर है?

    शाह गंज से पहले मुग़ल बादशाह की बनवाई एक मस्जिद सड़क के किनारे पड़ती है। उसके पीछे से एक कच्चा रास्ता जाता है। नाक की सीध दो मील चलें तो हमारा गाँव नज़र जाता है।

    क्या नाम है तुम्हारे गाँव का? मैं गुफ़्तगू का सिलसिला जारी रखना चाहता था।

    ख़ैरां वाला।

    क्या बात करूँ इस पंजाबी ड्राइवर से... फिर वही ख़ामोशी छा गई।

    सर्दियों की अंधेरी रात के पसमंज़र में सड़क के किनारे बूढ़े दरख़्तों के धुंदले ख़ुतूत आपस में मख़लूत हो गए थे और कोहरे के ग़ुबार में मिल कर सन्नाटा इतना गाढ़ा हो गया था कि मैं जीप से बाहर हाथ निकाल कर उसे छू सकता था। सिगरेट का आख़िरी कश लेकर मैंने सिगरेट बाहर उछाल दिया। बहुत सी चिंगारियाँ मलगजे अंधेरे में इधर-उधर खो गईं।

    साहब आपको शिकार का शौक़ कब से है?

    बचपन से ग़ुलाम अली।

    क्या हिंदुस्तान में शिकार खेलने देते हैं? गर्दन मोड़े बग़ैर उसने मुझसे सवाल किया।

    हाँ भई, सैंतालीस से पहले तो खेला जाता था। अब नहीं मालूम और अब तो ये भी ख़बर नहीं कि जिन दीवारों के बीच हम पले थे वो ढ़ै गईं कि सलामत हैं।

    आप तो यूपी के थे साहब।

    हूँ। मैंने उसे धीरे से जवाब दिया मैंने चाहा कि ग़ुलाम अली से मना कर दूँ कि ऐसी कोई बात करे कि मुझे वो सब कुछ याद जाए। लेकिन मैं चुप रहा। मैं नहीं चाहता था कि कोई मेरी इस कमज़ोरी को जान सके। वरना ग़ुलाम अली ये जो तुमने अभी पूछा था आप यू.पी के थे तो उस खित्ता-ए-ज़मीन से कोई नाता नहीं रहा जहाँ मेरे बचपन ने मुताल की लोरियाँ सुनी थीं, जहाँ मेरे लड़कपन ने छोटे-छोटे जज़्बों से मोहब्बत करना सीखा था। जहाँ मेरे अक़्ल-ओ-होश के बाल-ओ-पर निकले थे।

    लेकिन ये सब कैसे कहता... ये ग़ुलाम अली क्या समझता इन बातों को... और ग़ुलाम अली ही क्या अब तो मैं ख़ुद भी नहीं समझ पाता और समझता भी कैसे। तक़सीम की मोटी-मोटी लकीरों के नीचे उन सारे जज़्बों के नुक़ूश छुप गए थे। वो जज़्बे जो सिर्फ़ वहीं का ख़ासा होते हैं जहाँ इंसान पहली बार आँख खोल कर देखता है।

    हवाएँ मज़ीद तेज़ हो गई थीं और कुहरे की चादर वैसी की वैसी दबीज़ थी।

    तो साहब आप फिर कभी हिंदुस्तान नहीं गए? ग़ुलाम अली ने पूछा था...

    सरकारी अफ़सर इतनी आसानी से नहीं जा पाते, सरकार पूछती है किससे मिलने जा रहे हो।

    क्या कोई रिश्तेदार वहाँ नहीं है?

    सब बुज़दिल थे यहाँ बसे। मैं भी बुज़दिल था लेकिन छोटा बुज़दिल। मेरी उम्र उस वक़्त अठारह साल थी शायद। हाँ, अठारह ही साल का था मैं।

    बुज़दिली की क्या बात है साहब, वहाँ नहीं रहे यहाँ गए। ग़ुलाम अली ने जैसे मुझे दिलासा दिया। लेकिन में भला दिलासों से बहलता!

    ये बहुत लम्बा चौड़ा फ़ल्सफ़ा है ग़ुलाम अली, तुम नहीं समझोगे।

    वो थोड़ी देर ख़ामोश रहा। जैसे मैंने उसकी बेइज़्ज़ती कर दी हो। मेरी बीवी के माँ-बाप भी भारत ही के थे साहब। मुझसे बहुत ज़िद करती है कि एक बार हिंदुस्तान दिखा दूँ। मैंने दरख़ास्त दी तो पूछा गया कि वहाँ रिश्तेदारों के नाम पते लिखवाओ... वहाँ कोई रिश्तेदार ही नहीं है साहब। बस उसे अपने गाँव और ज़िला का नाम याद है...

    सन्नाटा हम दोनों पर ख़ामोशी से गुज़रता रहा।

    ग़ुलाम अली। मैं उससे मुख़ातिब हुआ।

    जी! उसने मुड़कर मेरी तरफ़ देखा।

    तुम्हारी बीवी कहाँ की रहने वाली थी। मैंने उसकी तरफ़ देखे बग़ैर सवाल किया।

    हरदोई ज़िला की साहब।

    हूँ... यूपी की है तुम्हारी बीवी?

    जी हुज़ूर। मैंने अंधेरे में भी महसूस कर लिया कि वो मुस्कुरा रहा है।

    मैंने जान लिया तुम इस वक़्त क्यों मुस्कुराए ग़ुलाम अली।

    साहब एक बात कहूँ आपसे। मेरी बीवी को मालूम है कि आप यू.पी के हैं। मुझसे कह रही थी कि तुम्हारा साहब यू.पी का है, मेरे वतन का, मुझे उसके पास ले चलो। वो मेरा परमिट बनवादेगा... तो हुज़ूर उसे मालूम है कि आज आप शिकार खेलने रहे हैं तो घर पर भी थोड़ा सा रुकेंगे। वो आपसे कहे तो ज़रा सख़्ती से मना कर दीजिएगा कि उसका परमिट नहीं बन सकता।

    क्यों ग़ुलाम अली ऐसा क्यों कहूँ मैं। पासपोर्ट तो मैं उसका किसी किसी तरह बनवा ही सकता हूँ।

    पासपोर्ट की बात नहीं साहब। आदमी की ज़िंदगी में एक ही झंझट थोड़ी होता है। उसे तो बेकार का शौक़ है भारत जाने का। उसका शौक़ पूरा करने में मेरे चार पान सो उठ जाएँगे।

    हूँ। मेरी समझ में आया उसे क्या जवाब दूँ ... ग़ुलाम अली ने मेरी ख़ामोशी से फ़ायदा उठाया।

    साहब मेरा एक दोस्त है वज़ीरुद्दीन इसकी बीवी भी भारत ही में पैदा हुई थी। इसने चोरी छुपे परमिट बनवा लिया और फिर कानों का ज़ेवर बेच कर वज़ीरुद्दीन से इजाज़त मांगी। वज़ीरुद्दीन को मालूम हुआ तो उसे अचंभा हुआ और ग़ुस्सा भी आया... उसने ऊपरी दिल से इजाज़त दे दी और रात को उसके बक्से से परमिट निकाल कर जला दिया। सुबह उठी तो परमिट ग़ायब। उसने बड़ा फ़ेल मचाया और वज़ीरुद्दीन से कहा कि ये उसी का काम है। वज़ीर ने पहले तो बहाने मिलाए और फिर साहब डंडा लेकर जुट पड़ा कि हरामज़ादी तीन-चार महीने तक क्या तेरी अम्मां मुझे रोटी पका कर खिलाएगी।

    ग़ुलाम अली से सड़क ने नज़रें मोड़ कर मेरी तरफ़ ऐसे देखा जैसे अपने दोस्त की बहादुरी और दानिशमंदी की दाद चाहता हो।

    मैं ख़ामोश रहा... अंधेरे में वो मुझे साफ़-साफ़ नहीं देख सका, समझा कि मैं बैठे-बैठे सो गया हूँ।

    उसने मेरी तरफ़ से गर्दन मोड़ कर सड़क को देखा और जीप की रफ़्तार कुछ और बढ़ा दी।

    रफ़्तार बढ़ी तो हवा कुछ और तेज़ महसूस होने लगी।

    मुझे अभी-अभी ये भी महसूस हुआ कि जीप के बाहर सड़क पर और दरख़्तों पर हवाएँ बहुत तेज़ हो गई हैं... और दरख़्त के पत्तों से कुछ ऐसी आवाज़ें फूट रही हैं जो माहौल को बेहद पुर-असरार बना देती हैं। बाहर के उस पुर-शोर माहौल में मुझे ऐसा महसूस हुआ कि जीप में बेपनाह ख़ामोशी है। जैसे बिफरी हुई मौजों के समुंदर में कोई अकेला जहाज़ चला जा रहा हो जिसके अमले को बहरी क़ज़्ज़ाक़ों ने क़त्ल कर दिया हो मैंने बदन कुछ और सिकोड़ लिया और सोचा...

    ग़ुलाम अली... तुम बहुत कमीने हो और बहुत भोले हो... तुम और तुम्हारा दोस्त नहीं जानते कि उस जगह से बिछुड़ कर इंसान की क्या हालत हो जाती है जहाँ उसने पैदा हो कर माँ की छातियों से दूध पिया हो और बाप की शफ़ीक़ उंगलियों का लम्स अपने सर पर महसूस किया हो... तुम्हें नहीं मालूम कि इंसान को वो जगह कितनी प्यारी लगती है जहाँ उसका बचपन लड़कपन से गले मिला हो। तुम्हें इसका इल्म ही नहीं ग़ुलाम अली कि इंसान उन लम्हों को कितना अज़ीज़ रखता है जिन लम्हों में उसका भोला भाला ज़ेहन मासूम, सर फिरे और ख़ुद-सर जज़्बों को ख़ून पिला पिलाकर पालता है। तुम कुछ नहीं जानते। कुछ भी नहीं। स्टेरिंग का गोल पहिया घुमाते-घुमाते तुम्हारा दिमाग़ भी घूम गया है।

    मुझे महसूस हुआ कि इतना सोचने के बाद मुझे एका एकी ग़ुलाम अली से नफ़रत हो गई।

    मेरे अंदर से कोई बोला, तुम ग़ुलाम अली से नफ़रत नहीं कर रहे हो। तुम वही कर रहे हो जो पिछले तीस साल से करते चले रहे हो। तुम्हें अपनी महरूमियाँ नज़र गईं ना! तुम ग़ुलाम अली जैसे हर उस फ़र्द से फ़ौरन नफ़रत करने पर आमादा हो जाते हो जो तुम्हारी महरूमियों की इमारत में एक छोटी सी ईंट रखने का भी ख़तावार हो... इस बेचारे ने क्या किया? सिर्फ़ अपनी बीवी और अपने दोस्त की बीवी के मुतअल्लिक़ बताया था। बस थोड़ी देर को अंजाम में ये एहसास दिला दिया या यूँ कहो कि तुम्हें याद दिला दिया कि तुम हिंदुस्तान कभी नहीं जा सकते। इस लिए तुम इससे नफ़रत करने लगे। अपनी महरूमियों की आड़ लेकर इस बेचारे पे क्यों बिगड़ रहे हो।

    मेरा अंदर वाला बहुत ख़ुद सर हो गया है कुछ अरसे से, 65 और 71 की लड़ाइयों के बाद तो ये कुछ और भी बेबाक हो गया है। ऐसे ऐसे सवाल पूछ बैठता है कि जवाब नहीं बन पड़ते। जैसे मौत की सज़ा का फ़ैसला सुनने के बाद मुजरिम मन मानी हरकतें करने लगता है। जानता है कि इससे बड़ी सज़ा मुमकिन नहीं, वैसे ही ये भी हर ख़ौफ़, हर ख़तरे से आज़ाद हो गया है। बिला सोचे समझे हर बात कर गुज़रता है। अब क्या जवाब दूँ इसे?

    मुझे महसूस हुआ कि अब दिमाग़ में सोचने के लिए कुछ नहीं रहा। जैसे ज़ेहन के तालाब से सोच की सारी मुर्ग़ाबियाँ उड़ गई हूँ। मैंने सर पीछे निकाल लिया।

    साहब। ग़ुलाम अली ने दबी-दबी आवाज़ में मुझे पुकारा... इतने धीमे कि अगर मैं ज़रा भी नींद में ग़ाफ़िल होता तो नहीं सुन पाता। शायद उसका भी यही मक़सद हो।

    हूँ... मैंने महसूस किया कि मेरी आवाज़ कुछ अजनबी सी हो गई है।

    साहब आप सो गए थे क्या? उसने पूछा।

    नहीं... क्यों कोई ख़ास बात?

    नहीं हुज़ूर... वैसे आपने देखा जबसे लड़ाई के बाद रास्ते खुले लोग कितने ख़ुश-ख़ुश भारत जारहे हैं और वहाँ वाले कितने हँसते बोलते पाकिस्तान रहे हैं... रास्ते खुले कितने ही दिन हो गए मगर अब तक तांता सा लगा है।

    ख़ामोशी... मैं ख़ामोश रहा जैसे एक लफ़्ज़ भी बोला तो फुट पड़ूँगा।

    साहब, साहब, आपने सुना, मैंने क्या कहा?

    मैंने चुपके से गर्दन मोड़ कर सड़क को देखा जो पीछे भागती चली जा रही थी। बिल्कुल तारीक और सुंसान...

    मैंने अंधेरे में आँखें जमा दीं और सोचा...

    तुमने फिर अपनी कमीनगी का सबूत दिया ग़ुलाम अली। तुम अच्छी तरह जानते हो कि इन रास्तों के खुलने का मुझपर कोई असर नहीं पड़ा। मैं अब भी वहाँ नहीं जा सकता। तुम जान बूझ कर मेरे ज़ख़्मों को कुरेद रहे हो...

    ग़ुलाम अली मुझसे मायूस हो कर ड्राइव करता रहा।

    मुझे अभी-अभी ये ख़्याल आया कि मैं तो ख़ैर ऐसे ओहदे पर फ़ाइज़ हूँ कि हिंदुस्तान जा ही नहीं सकता... लेकिन ग़ुलाम अली और वज़ीरुद्दीन की बीवियों पर क्यों इतनी मजबूरियाँ लाद दी गई हैं। उन्हें उस सर ज़मीन को देखने की इजाज़त क्यों नहीं दी जाती जिसके तसव्वुर के बग़ैर उनकी ज़िंदगी की तारीख़ अधूरी है।

    ग़ुलाम अली ये जो तुम ख़ामोशी से बैठे ड्राइव कर रहे हो तो इतने भोले तो नहीं हो। तुम साल में मुझसे तीन मर्तबा छुट्टियाँ लेकर अपने वालिदैन से मिलने कराची तो जा सकते हो। हरदोई नहीं जा सकते। हरदोई भी तो लाहौर से उतना ही दूर है जितना कराची... क्या कराची जाने में तुम्हारे पैसे नहीं ख़र्च होते। क्या कराची का टिकट मुफ़्त मिलता है। लेकिन मैं तुमसे ये सवाल क्यों पूछूँ। मुझे क्या हक़ है और मुझे तो ये पूछने का भी हक़ नहीं है कि तुम्हारा दोस्त वज़ीरुद्दीन क्या तीन-चार महीने होटल की रोटी नहीं खा सकता कि इन तीन-चार महीनों में उसकी बीवी तीस बरसों की महरूमी के बाद उस आब-ओ-हवा में जाकर साँसें ले सकती है जहाँ उसने अपने बचपन को थपकियाँ दे कर सुलाया था। जवानी को आगे बढ़ कर ख़ुश-आमदीद कहा था। मुझे इन सवालों के पूछने का हक़ इसलिए और भी नहीं है ग़ुलाम अली कि सवाल वो पूछते हैं जिनको जवाब नहीं मालूम होते। मैं तीस साल से सवालात तख़लीक़ करके जवाबात गढ़ रहा हूँ। मैं इस मामले की हर नज़ाकत से वाक़िफ़ हो गया हूँ... लेकिन हर जवाब अधूरा है ग़ुलाम अली क्योंकि जिस दिन मैंने ख़ुद को सही जवाब दे दिया उस दिन ये सवाल करने का मश्ग़ला भी हाथ से जाता रहेगा। ग़ुलाम अली कभी-कभी मुझे ऐसा महसूस होता है कि एक भयानक जवाब मेरे सामने आकर खड़ा हो गया है। मैं फ़ौरन कोई टेढ़ा सा सवाल कर देता हूँ और तब तक सवालात करता रहता हूँ जब तक वो ख़ौफ़नाक जवाब मुबहम होकर... मेरी नज़रों से ओझल हो जाए। मुझे बहुत ख़ौफ़ आता है सही जवाबों से...

    साहब मस्जिद रही है। ग़ुलाम ने मुझे बताया... अभी पौ फटने में बहुत देर है। मेरे घर चलना पड़ेगा आपको, नहीं तो जमीला ग़म करेगी...

    ठीक है वक़्त हो तो ज़रूर चलो। ऐसा भी तो हो सकता है कि हम पहले तालाब पर जाएँ फिर तुम्हारे घर जाएँ।

    जीप एक झटके के साथ रुक गई... हवाएँ जो चलती हुई गाड़ी में बहुत पुर शोर और ठंडी थीं एका-एकी मद्धम पड़ गईं।

    सड़क के बाएँ तरफ़ वसीअ अंधेरों के पस मंज़र में, कोहरे में लिपटे हुए मुझे एक मस्जिद के धुंदले ख़ुतूत नज़र आए। मस्जिद से ज़रा हट कर एक अलाव जल रहा था और उसके गिर्द तीन आदमी खड़े थे। इतने हिस्से के अंधेरे को अलाव ने निगल लिया था और उन आदमियों के गिर्द एक रौशन हलक़ा खिंच गया था... मैंने ग़ौर से देखा। दो आदमियों के कंधों पर बंदूक़ें लटकी हुई थीं... जीप रुकने पर वो हमारी तरफ़ मुतवज्जा हो गए थे।

    ग़ुलाम अली बड़बड़ाता हुआ नीचे उतर आया...

    मैं समझ गया ग़ुलाम अली क्यों बड़बड़ाया। दूसरे शिकारियों को देख कर वो हमेशा ऐसे ही नाराज़ हो जाता है...

    बंदूक़ हाथ में सँभाले मैं नीचे उतरा आया... ठंडी हवाएँ मेरे कपड़ों में घुस गईं और कोहरे की नमी को मैंने अपने चेहरे पर महसूस किया। उन आदमियों ने एक तरफ़ सिमट कर अलाव के क़रीब जगह बनाई जैसे मुझे ख़ामोश दावत दे रहे हों... ग़ुलाम अली को पीछे आने का इशारा करके मैं अलाव की तरफ़ बढ़ गया।

    उनकी जीप भी क़रीब ही अंधेरे में खड़ी हुई थी। उनमें एक ड्राइवर की वर्दी पहने हुए था और दो शिकारी कोट लादे हुए थे... अलाव के क़रीब देर से खड़े रहने के बाइस उनके चेहरे पर पसीना फूट आया था... उनमें एक सूरत मुझे जानी पहचानी सी लगी। हाफ़िज़े की ग़ैरमरई लहरों पर एक चेहरा थरथरा रहा था। लेकिन वो सूरत इतनी मुबहम और ग़ैरवाज़ेह थी जैसे प्राइमरी स्कूल के ज़माने की लिखी हुई क्लास की कापियाँ, जो बड़े होने के बाद पहचानी भी जा सकें और भुलाई भी जा सकें ... अलाव की सुर्ख़ आँच में वो चेहरा दहक रहा था। वो सूरत मुझे जानी पहचानी लगी... वो शख़्स भी मुझे बहुत ग़ौर से देख रहा था... मैंने उसके चेहरे पर आँखें गाड़ दीं। उसने अपने हाथ अलाव के सामने गर्म किए और उन्हें गालों पर रख लिया... यादों की आँच से हाफ़िज़े पर जमी हुई बर्फ़ पिघली और मेरे ज़ेहन में माज़ी के आईना ख़ाने सज गए। मैंने उस एक लम्हे में तीस बरस का सफ़र तै कर लिया और इतनी ख़ामोशी से ये सफ़र किया कि मुझे महसूस ही नहीं हुआ कि कब मैं यहाँ से वहाँ पहुँच गया... मेरे ज़ेहन में एक साथ बहुत सी बिजलियाँ चमकीं और बहुत से ख़ाके बन गए और उन ख़ाकों में मेरे हाफ़िज़े ने बड़ी सुबुक दस्ती से बचपन की उमंगों, लड़कपन की जुस्तजू और शुरू जवानी के वलवलों के बेहद ख़ुशनुमा रंग भर दिए। मैंने यूपी के गंगा जमुना के दो आबे में बसे उस क़स्बे को बिल्कुल वाज़ेह शक्ल-सूरत में अपने ज़ेहन के पर्दे पर चमकता हुआ देखा... वहाँ की मस्जिदें देखीं, वहाँ के मंदिर देखे... वहाँ के सारे महल्ले, सारी गलियाँ, देख डालीं। क़स्बे के सारे कच्चे पक्के घर देख डाले। अपना मकतब देखा, फिर स्कूल देखा। सारे बुज़ुर्ग और तमाम मास्टर शफ़ीक़ चेहरे लिए अपने सामने खड़े देखे। मेलों की धूम-धाम देखी और देहात की जवान और ख़ूबसूरत औरतों को नीले-पीले और सुर्ख़ घाघरों में हँसते बोलते मेले की तरफ़ बढ़ते देखा... गेहूँ के खेतों के तवील सिलसिले देखे और दूर-दूर तक आम के बाग़ बौर में लदे हुए नज़र आए।

    उस एक लम्हे में बचपन की सारी शरारतें नज़र गईं। मई-जून के तपते हुए मौसम में सड़कों पर आवारागर्दी करते अपने आपको देख लिया... गर्म लू से अपना बदन झुलसते हुए देख लिया। अपने सारे अज़ीज़ क़तार अंदर क़तार खड़े नज़र आए। कुछ उनमें वहीं सो गए और जो बाक़ी रह गए थे वो अब सिर्फ़ रिश्तेदार रह गए थे, अज़ीज़ नहीं।

    आईना ख़ाने में एक अक्स और चमका... दो लड़के हाथों में एअर राइफ़ल लिए चले जा रहे हैं। सूरज झुक आया है और दिन भर की ख़िदमत अब सिर्फ़ ज़र्द रौशनी बन कर रह गई है। बेर के बाग़ में तीतर बोल रहे हैं... उन लड़कों में से एक बेर के बाग़ में घुस गया है और दस मिनट बाद जब बाहर आया तो फ़ातिहाना अंदाज़ में हाथ में लटके भूरे तीतर को दिखा रहा है। दूसरा लड़का जो हाथ पीछे किए खड़ा था हाथ आगे कर देता है जिसमें एक ज़ब्ह किया हुआ ख़रगोश उल्टा लटका हुआ था। दोनों हंस पड़ते हैं, दोनों ने अपने-अपने हिस्से का शिकार कर लिया था... फिर एक अक्स और सामने आया... अब ये लड़के कुछ और बड़े हो गए हैं। इनके हाथों में एअर राइफ़ल की जगह बंदूक़ें गई हैं... रमज़ान में सहरी का नाश्ता करने के बाद ये अपने चंद साथियों के साथ आबी चिड़ियों के शिकार को जा रहे हैं। दोपहर को रोज़ा तोड़ने के लिए माओं ने थैलों में इफ़्तार का सामान भर दिया है। पूस की चाँदनी रात में बर्फ़ीली हवाओं से बदन बचाता हुआ ये क़ाफ़िला बढ़ता चला जा रहा है... फ़िज़ा में साएँ-साएँ की आवाज़ें मुसल्लत हैं। सब दिल ही दिल में तमन्ना कर रहे हैं कि सबसे ज़्यादा चिड़ियाँ मेरे हाथ से शिकार हों ... इस बात पर सब बेहद ख़ुश हैं कि घर वालों को बेवक़ूफ़ बना कर रोज़ा गोल कर दिया है। अब ये क़ाफ़िला नहर की पटरी से उतर कर तालाब की तरफ़ बढ़ रहा है। तालाब से दो फ़र्लांग दूर बैठ कर स्कीम बनाई जा रही है कि कहाँ से किसे फ़ायर करना है... ये अंदाज़ लगाया जा रहा है कि चिड़िया तालाब के किस हिस्से में होगी... अंधेरा छाब, पौ फटी, सूरज ने कोहरे का मफ़लर उतार कर चेहरा दिखाया तो मालूम हुआ कि तालाब बिल्कुल चाँदी जैसा पड़ा है। सब एक दूसरे पर मलामत कर रहे हैं और तवजीहा पेश कर रहे हैं कि मैंने पहले ही कहा था कि चिड़ियाँ नहीं सिर्फ़ सारस बोल रहे हैं। फिर फ़ाख़्ताओं और बगुलों जैसे बेहतरीन परिंदों को चुन-चुन कर मारा जा रहा है। सह पहर को लौटते वक़्त मिट्टी के ढेलों से रगड़-रगड़ कर होंटों को ख़ुश्क किया जाता रहा है ताकि घर वाले जान पाएँ रोज़ा भी ज़ब्ह कर दिया है। रास्ते में थकन की वजह से गुफ़्तगू करना तक मुहाल हो रहा है। लड़कपन की कच्ची हड्डियों पर जिस्म का बोझ संभाले घर की तरफ़ क़दम बढ़ा रहे हैं। सामने बस्ती के आसार नज़र आने लगे हैं। दूर से क़स्बे की धुंदली सरहदों पर मस्जिदों के सियाह काई-ज़दा गुंबद और मीनार ख़ामोश खड़े हैं। किसी को अचानक याद गया और फ़ाख़्ताओं और बगुलों के पर उधेड़ दिए गए ताकि जब ये घर में दाख़िल हों तो हरियल और बड़े चेहरों की हैसियत से इनका इस्तिक़बाल किया जाए।

    एक के बाद एक ऐसे ही बहुत से अक्स नज़रों के सामने छमाके मारते हुए गुज़र गए जिनमें बचपन से लेकर शुरू जवानी तक सारे मंज़र थे और हर मंज़र में दोनों लड़के साथ-साथ हैं।

    साहब... अब चलिए गाँव की तरफ़... आईना ख़ानों में ग़ुलाम अली की आवाज़ ने पत्थर मारा और सारे आईने चटख़ के टूट गए। सारे मनाज़िर आपस में गड्डमड्ड हो गए।

    मैंने ग़ुलाम अली की बात का जवाब नहीं दिया। मैंने हिसाब लगाया कि यादों की कितनी चिड़ियाँ अभी मेरे ज़ेहन के पिंजरे में बंद हैं और सामने खड़ा ये शिकारी मेरी कितनी यादों का हासिल जमा है।

    उसने फिर हाथों को गर्म करके चेहरे पर रखा। नवाब भी तो ऐसा ही करता था और अब मुझे यक़ीन-ए-कामिल था कि आईना ख़ाने का वो लड़का अपनी उम्र में एक दम तीस बरस जोड़ कर मेरे सामने खड़ा है।

    यकायक हवा बिल्कुल ख़ामोश हो गई... अलाव में जलती हुई दरख़्तों की टहनियाँ चटाचट बोलीं, चिंगारियाँ फ़िज़ा में उड़ने लगीं। दूर किसी सोए हुए तालाब में कोई सारस ज़ोर से चीख़ा...

    मैंने आहिस्तगी से अलाव की तरफ़ एक क़दम बढ़ाया और उस शख़्स की आँखों में आँखें डाल कर पूछा,

    आप... तुम... तुम नवाब हो...

    उसकी फैली हुई आँखें एक सानिया को सिकुड़ गईं। उसका सर नफ़ी में हिला। उसकी आँखों से इतने आँसू बहे कि चेहरे के पसीने को भी बहा ले गए... जज़्बों की शिद्दत और आँच की हिद्दत से उसका चेहरा अंगारा हो गया... उसने बंदूक़ कंधे से उतार कर अपने साथी को थमाई और अलाव का पूरा चक्कर काट कर मेरे क़रीब आया और मेरे गले से लिपट कर ख़ामोश हो गया।

    अब तुम हरगिज़ मत बताना कि तुम कौन हो। तीस साल के बाद मैंने वो आवाज़ सुनी जो लगातार सोलह-सत्रह साल तक सुनी थी।

    नहीं मैं नहीं बताऊँगा कि मैं कौन हूँ ... मैंने उसे मज़बूती से थाम लिया। ख़ुदा जाने कब तक हम यूँ ही खड़े रहे... अलाव की आग, मद्धम पड़ने लगी और पत्तों की राख हवा में बिखर गई।

    कोहरा आहिस्ता-आहिस्ता छट रहा था... ग़ुलाम अली और उसके दोनों साथी बुत बने हैरती खड़े हमें तकते रहे... मोहब्बत का एक आलम हमपर गुज़र रहा था... जब एक अरसा बीत गया तो मैंने उसका सर हाथों में थाम कर पैंतालीस छियालीस बरस के उस पन्द्रह साला लड़के की पेशानी को चूम लिया।

    ग़ुलाम अली अब इतना वक़्त नहीं है कि तुम्हारे घर जाया सके। एक बार तालाब पर हो लें, फिर चलेंगे तुम्हारे घर...

    मैंने नवाब को बताया कि ये मेरा ड्राइवर ग़ुलाम अली है। ग़ुलाम अली ने उसे झुक कर बंदगी की...

    नवाब ने बताया कि एक इसका ड्राइवर है और दूसरा उसकी फ़ैक्ट्री का मैनेजर सलीमुल्लाह... मैंने आगे बढ़ कर उससे हाथ मिलाया... वो तीस बत्तीस बरस का एक ख़ुश रू नौजवान था... जीपें शाह गंज के तालाब की तरफ़ मोड़ दी गईं।

    नवाब मुझे बता रहा था कि हिंदुस्तान से आकर उसने कैसे-कैसे पापड़ बेले और किस तरह प्लास्टिक की चप्पलों की ये फ़ैक्ट्री लगा सका... उसने मुझे ये भी बताया कि अभी उसे पिछले दिनों ये मालूम हुआ था कि मैं सुपरिन्टेंडेंट पुलिस हो गया हूँ और मेरा तबादला लाहौर में हुआ है।

    तुम मुझसे मिलने क्यों नहीं आए फिर? मैंने उससे पूछा।

    मुझे यक़ीन नहीं था कि वाक़ई तुम ही होगे। बस नाम सुना था।

    वो मुझे बता रहा था और मैं सोच रहा था कि शख़्सियतें कितनी बे-निशान हो गई हैं कि नाम मौजूद होने के बावजूद नहीं पहचानी जातीं... लेकिन इसमें अकेले नवाब का दोष नहीं है। मैं भी तो अख़बारों में नवाब एँड संस का इश्तिहार देख कर चौंका था... लेकिन फिर ये सोच कर चुप हो रहा था कि क्या ख़बर ये कोई और नवाब हो... हम सब एक से गुनहगार हैं। हमें हरगिज़ ये हक़ नहीं पहुंचता कि हम एक दूसरे पर इल्ज़ाम लगाएँ।

    तुम कराची से क्या शिकार खेलने आए हो सिर्फ़? मैंने उससे पूछा...

    नहीं भई... फ़ैक्ट्री के काम से लाहौर आया था... प्लेन का टिकट कल का है। सोचा एक दिन मिला है शिकार खेल लूँ।

    जीप के बाहर गेहूँ के सिलसिले दूर-दूर तक चले गए थे और उन खेतों के परे ग़ैरवाज़ेह दरख़्तों की आड़ में सुबह काज़िब दम तोड़ ही थी और सुब्ह-ए-सादिक़ की धुँधली-धुँधली चमक दरख़्तों के पसमंज़र में आहिस्ता-आहिस्ता निखर रही थी... आसमान पर बहुत सी भेड़ें चर रही थीं। काएँ-काएँ की घीव घीम आवाज़ों से इस बात का अंदाज़ हो रहा था कि हम किसी तालाब के क़रीब हैं। मैंने सामने देखा। ईख के खेतों के उधर मटियाले उजाले में दूर-दूर तक पानी चमक रहा था लेकिन ये अंदाज़ नहीं हो रहा था कि चिड़िया तालाब के किस हिस्से में है। थोड़ा उजाला और हो तो चिड़िया की मौजूदगी का अंदाज़ किया जा सके।

    ग़ुलाम अली ने जीप रोक दी...

    हुज़ूर इससे आगे गाड़ी गई तो चिड़िया इंजन की आवाज़ से भड़क जाएगी...

    ज़ाहिर है। कहता हुआ नवाब नीचे कूद गया... मैं भी उतर आया।

    अभी-अभी उतरते वक़्त मैंने सोचा कि आज तीस साल के बाद नवाब मेरे साथ है। आज भी कहीं ऐसा हो कि सूरज निकले तो मालूम हो कि चिड़िया तालाब में है ही नहीं... मैंने महसूस किया कि ये सोचते वक़्त मैं बे-साख़्ता मुस्कुरा उठा हूँ...

    सुनो... नवाब ने मुझे मुख़ातिब किया,तुम्हें याद है एक बार जब हम लोग तालाब पर गए थे तो तालाब ने कैसा धोका दिया था... उजाला होने पर मालूम हुआ था कि जिन आवाज़ों को हम चिड़िया की आवाज़ समझ रहे हैं वो चिड़िया नहीं बल्कि... वो कुछ कहते-कहते रुक गया... उसने मेरी तरफ़ ग़ौर से देखा। बहुत ग़ौर से... शायद उसे इल्म हो गया था कि मैं भी वही सोच रहा हूँ जो वो सोच रहा था।

    उसने मफ़लर से अपनी गर्दन को अच्छी तरह ढका और बंदूक़ में कारतूस लगा कर मेरे बहुत क़रीब आकर पुर-असरार अंदाज़ से सरगोशियों में पूछा...

    क्या तुम्हें भी वही याद रहा था इस वक़्त?

    मैंने आहिस्ता से गर्दन हिला दी। मुझे महसूस हुआ कि हम दोनों को अचानक अपनी महरूमियों का एहसास हुआ है। बे-मुहाबा। ढीट और वहशी यादें फिर मेरे दिमाग़ में चाँद मारी करने लगीं।

    दूसरी जीप पीछे आकर रुकी। सलीमुल्लाह बंदूक़ लेकर नीचे उतर आया।

    चिड़िया तो काफ़ी बोल रही है। उसने धुंदले-धुंदले तालाब पर नज़रें जमाकर कहा।

    ग़ुलाम अली ईख के कोने पर गया और थोड़ी देर तक चिड़िया की आवाज़ से अंदाज़ करता रहा कि किस जगह बोल रही है और फिर वापस गया।

    वैसे साहब ये बड़ा तालाब है। दिन भर चिड़िया पड़ी रहती है लेकिन सुबह की होन में ज़्यादा होती है और ग़ाफ़िल भी होती है। उसी वक़्त तो ये चारा खाती है। ग़ुलाम अली ने अपनी मालूमात से हमें मुस्तफ़ीज़ किया।

    मैंने नज़रें उठा कर देखा। तालाब के उस किनारे पर सियाही माइल गदले आसमान में रौशन फँकियाँ पड़ने लगी थी, अब किसी भी वक़्त फ़ायर हो सकता था... हम लोगों ने फ़ौरन अपनी-अपनी जगह मुंतख़ब कर ली। मैं और नवाब जूतों समेत कीचड़ में घुस गए और घुटनों घुटनों पानी में पहुँच कर एक ऊँची मुंडेर पर बैठ गए जो तीन तरफ़ से ईख से घिरी हुई थी। सलीमुल्लाह बंदूक़ लेकर आगे बढ़ गया और ग़ुलाम अली अपनी एक नाली संभालते हुए तालाब के दूसरे सिरे पर चला गया।

    हम दोनों उस मुंडेर पर ख़ामोश बैठे रहे। जब तक कोहरा छट जाए किसी क़िस्म की नक़ल-ओ-हरकत से कोई फ़ायदा नहीं था। सूरज निकलने के बाद फ़ायर हो सकता था। आसमान के मशरिक़ी गोशे में लम्बे गुलाबी लहरिए पड़ने लगे थे... सूरज निकलने-निकलने ही वाला था।

    ये सलीमुल्लाह बंदूक़ कैसी चलाता है? मैंने सिगरेट सुलगा कर पूछा।

    बहुत उम्दा... अच्छा ख़ासा शिकारी है। नवाब ने मेरे हाथ से पैकेट लेते हुए बताया। यकायक तालाब के दूसरे किनारे पर सारस ज़ोर-ज़ोर से बोले और चिड़िया की तेज़-तेज़ सरगोशियाँ बंद हो गईं... शायद चिड़िया को शक हो गया था।

    मैंने बंदूक़ में कारतूस लगा लिए।

    नवाब। मैंने उसे धीरे से पुकारा।

    हाँ।उसने मेरी तरफ़ देखा।

    मैं ख़ामोश रहा।

    क्या बात है कुछ कह रहे थे तुम?

    हाँ... मैं कह रहा था कि क्या पाकिस्तान आने के बाद कभी दिल नहीं चाहा कि घर वापस जाओ।

    बड़ा भयानक सन्नाटा था जो हम दोनों के दरमियान मुँह फाड़े बैठा था... वो बिल्कुल ख़ामोश रहा... मुझे ये महसूस हुआ कि सारस की आवाज़ें सैकड़ों मील दूर से रही हैं, तालाब का पानी साकित हो गया है और सुबह की तेज़ हवाएँ बिल्कुल चुप हो गई हैं।

    मैंने सोचा... नवाब! तुम घबरा गए... वाक़ई बड़ा तल्ख़ सवाल पूछ लिया मैंने लेकिन मुझे इसका भी एहसास है कि इसका जवाब इन तल्ख़ियों को और बोझिल कर देगा... लेकिन मुझे इसका जवाब चाहिए। मैं तो ख़ैर मजबूर हूँ... तुम्हारे आगे कौन सी रुकावट थी... वहाँ की गलियाँ, महल्ले, मेले, ठेले, खेत खलियान, घर, स्कूल, सब भूल गए क्या। कुछ भी याद नहीं... वहाँ के तालाब क्या तुम्हारे ज़ेहन में सूख गए... वहाँ के दरख़्त क्या तुम्हारे हाफ़िज़े ने जला दिए... मेरी आँखें उसके चेहरे पर जमी रहीं और वो नज़रें बचाता रहा।

    फिर बड़ी मुश्किल से बोला... मैं कराची से अगर एक दिन बाहर रहूँ तो दो हज़ार का नुक़सान हो जाता है। हिंदुस्तान जाऊँ तो कम से कम चालीस पचास हज़ार की चोट पड़ेगी।

    ये जवाब देकर वो एक दम बेख़ौफ़ हो गया... मुझे उसकी आँखों से अंदाज़ हुआ जैसे वो पूछ रहा है,क्यों दोस्त! तुम भी तो ये नौकरी छोड़ कर हिंदुस्तान जा कर सब कुछ देख सकते थे... तुम क्यों नहीं गए... बोलो अब मेरी बारी है।

    मुझे उसकी आँखों से बड़ा ख़ौफ़ महसूस हुआ जैसे वो मेरी ज़ात की गहराइयों में अंदर घुस कर कोई ऐसी चीज़ तलाश कर रही हों जो मैं सामने लाना नहीं चाहता।

    लेकिन नवाब ने मुझसे कुछ नहीं पूछा... मैंने उसपर तरस नहीं खाया था मगर उसने मुझपर रहम किया।

    हम दोनों ने एक लम्हे के बाद सिर्फ़ एक ही बात सोची कि हम लोग बहुत बे-इख़्तियार हैं और बहुत लाचार हैं और बहुत मजबूर हैं और बहुत बेबस हैं। मैं अगर एक बार हिंदुस्तान जाने के लिए इस मुलाज़िमत से इस्तिफ़ा दे दूँ तो घर वालों की ज़िंदगी की गाड़ी कैसे आगे बढ़ेगी... और नवाब तुम अगर फ़ैक्ट्री छोड़ कर बीस दिन को भी पाकिस्तान छोड़ दो तो चालीस पचास हज़ार का नुक़सान कौन भरेगा... सचमुच हम बहुत बे-सकत हैं।

    तालाब के उस किनारे पर ईख के उधर एक पीला दायरा आसमां के धुंदले पस-मंज़र में ऊपर उठा... उसका निचला हिस्सा कुछ बेडौल था... आहिस्ता-आहिस्ता वो दायरा मुकम्मल हुआ और धीमे-धीमे सुर्ख़ हो गया।

    दूर तालाब के किनारे खड़े दरख़्तों पर ग़नूदा परिंदों ने बैठी-बैठी बोझिल आवाज़ में पुकार कर एक दूसरे से कहा कि फिर सूरज निकल आया। पच्छिम के किसी गाँव के एक बे-ख़्वाब कुत्ते ने रोते हुए ऐलान किया कि सुबह हो रही है... आसमान में परछाइयों जैसे कुछ परिंदे सूरज के आगे होकर निकल गए... सुबह का वक़्त उमूमन इतना ग़मग़ीन और उदास नहीं होता लेकिन आज था क्योंकि हमारे दुखों का तअल्लुक़ माहौल से या वक़्त की कैफ़ियतों से नहीं होता बल्कि हमारे दिलों से होता है और आज हमारे दिल बहुत उदास थे।

    कोहरा छटा और तालाब का पानी आहिस्ता-आहिस्ता साफ़ हुआ तो मैंने देखा कि आबी परिंदों का झुंड सलीमुल्लाह के किनारे की तरफ़ है। दूर से तालाब में मुर्ग़ाबियाँ ऐसी लग रही थीं जैसे खेत में मिट्टी के ढेले बिछे हों। एक तरफ़ गीता की क़ाज़ें पड़ें थी... छोटे चहूँ का एक पुरा तालाब पर सर सरा रहा था... और तालाब के दूसरे किनारे पर दो सारस ख़ामोश खड़े थे।

    यकायक मैंने महसूस किया कि चिड़िया होशियार हो गई है... यक लख़्त, क़ैं-क़ैं की बहुत सी आवाज़ें एक साथ बुलंद हुईं। ग़ुलाम अली की तरफ़ से पहला फ़ायर हुआ। मुर्ग़ाबियाँ सरसर करती हुई उठीं और उस हिस्से का पानी टेढ़ी लकीरें बनाने लगा। सलीमुल्लाह की तरफ़ से दो फ़ायर हुए और दो मुर्ग़ाबियाँ ढेले बन कर ज़मीन पर रहीं। साएँ-साएँ करते हुए सीख़ पर तालाब पर चकरा रहे थे... क़ाज़ों ने एक तिकोनी सफ़ बनाई और पूरब के किसी तालाब की तरफ़ धुआँ हो गईं। सैकड़ों की तादाद में चिड़ियाँ आसमान पर छाई हुई थीं लेकिन हमारी बंदूक़ों की पहुँच से दूर थीं।

    अगर ये नालायक़ ग़ुलाम अली फ़ायर कर ता तो चिड़ियाँ हमें मौक़ा देतीं। मैं झुँझलाया...

    नहीं। नवाब मुस्कुराया,चिड़िया पर तौलने ही वाली थी जभी ग़ुलाम अली ने फ़ायर किया। दर अस्ल ज़्यादा तर बीच तालाब में पड़ी थी। अगर किनारे पर होती तो हमारी तरफ़ से ज़रूर उड़ान भरती... चलो यही ग़नीमत है कि दो मुर्ग़ाबियाँ हाथ लग गईं।

    तब मुझे सलीमुल्लाह की मारी हुई मुर्ग़ाबियों का ध्यान आया। मैंने देखा सलीमुल्लाह बंदूक़ हाथ में ऊपर उठाए कमर-कमर पानी में चिड़ियों के पीछे जा रहा है। मुझे सलीमुल्लाह बहुत लम्बा चौड़ा देव-ज़ाद सा लगा जो हाथ आगे पीछे करता हुआ पानी काटता, चलने की रफ़्तार से भाग रहा था।

    दूसरे किनारे से ग़ुलाम अली बंदूक़ हाथ में उठाए उसका साथ देने के लिए दौड़ा।

    मैं रहा हूँ साहब... घेरे रहना... उड़ जाएँगी... पानी के ऊपर तैरती हुई उसकी आवाज़ हम तक आई।

    नहीं, घबराओ मत...इनके पर टूट गए हैं, ये उड़ नहीं सकतीं... सलीमुल्लाह की ये आवाज़ पानी की शरर-शरर से ज़्यादा मुहीब और भयानक थी।

    मैंने ग़ौर से देखा... मुर्ग़ाबियाँ पानी की सतह पर फड़क रही थीं और ज़ोर ज़ोर से पैर चला रही थीं। वाक़ई दोनों के पंख टूट गए थे। अचानक सलीमुल्लाह का हाथ आगे बढ़ा और उसने मुर्ग़ाबियाँ दबोच लीं। ऐसा महसूस हुआ जैसे पूरे माहौल में एक बे-मुहाबा सन्नाटा छा गया हो... मैंने नवाब को देखा। उसने मेरी तरफ़ देखा... और हम दोनों ने पाकिस्तान, हिंदुस्तान, चीन और मंगोलिया के ऊपर साइबेरिया के बर्फ़ीले मैदानों में बर्फ़ चूमते हुए हज़ारों मासूम परिंदों को देखा, रंग-बिरंगे हज़ारों भोले भाले पछियों को देखा जो मैदानों में बारह सिंघों के ऊपर क़तार अंदर क़तार उड़ रहे हैं। बर्फ़ से ज़्यादा शफ़्फ़ाफ़ जज़्बों में मगन हैं और एक दूसरे के परों में मिंक़ार फिरा-फिरा कर अपनी उलफ़त का इज़हार कर रहे हैं। अचानक बर्फ़ बारी शुरू हो गई है और बर्फ़ के ज़र्रात आसमान से बरसने लगे हैं। बर्फ़ में गली हुई हवाएँ शिद्दत इख़्तियार कर गई हैं। मौसम नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त हो गया है और तमाम परिंदे अपने अंडे बर्फ़ में दबा कर सफ़ें बना कर नशेब के ठिकानों की तरफ़ परवाज़ कर रहे हैं। इस गर्मी की तलाश में जो ज़िंदा रहने के लिए ज़रूरी होती है और अपने दिल के टुकड़ों को अलविदा कह रहे हैं जो अंडों के खोल में बंद बर्फ़ में दबे हुए हैं। फिर ये परिंदे गर्म आब-ओ-हवा के ठिकानों तक आते-आते एक दूसरे से जुदा हो गए हैं। रास्ते अलग हो गए हैं लेकिन मंज़िल एक ही है। वही मंज़िल जहाँ ज़िंदा रहने के क़ाबिल गर्मी मयस्सर सके और इससे भी आगे की वो मंज़िल जब फिर अपने बर्फ़ीले मैदानों में सूरज की गर्मी से बर्फ़ पिघले और सर्दी कम हो और मौसम ख़ुशगवार हो जाए तो वापस बर्फ़ चूमने और बारह सिंघों के झुंड पर परवाज़ करने के लिए अपने घर वापस सकें... और फिर हम दोनों ने देखा कि उन मासूम परिंदों के पर तोड़ दिए गए हैं।

    सलीमुल्लाह हम दोनों के सामने मुर्ग़ाबियाँ दबोचे खड़ा था। मैंने देखा शायद नवाब भी देख रहा हो कि इन भोले भाले पंछियों की आँखों में बर्फ़ानी मैदानों से ज़्यादा वसीअ, तालाबों से ज़्यादा गहरे और इनके परों से ज़्यादा ख़ुशनुमा रंगों के सपने सजे हुए हैं... आँखें, जो थोड़ी देर बाद बंद होने वाली हैं, कहीं दूर तक रही थीं। कुछ तलाश कर रही थी मैंने उनकी गोल-गोल पथराई हुई आँखों में बहुत से मंज़र देखे जो वो आँखें अब कभी नहीं देख सकेंगी... मैंने उनकी आँखों में जो मंज़र देखे उनमें नुकीली पत्तियों वाले बहुत से देव क़ामत दरख़्त थे जो बर्फ़ से ढके हुए थे, एक दूसरे के साथ खेलते बहुत से परिंदे थे, जो मासूम जज़्बों और उमंगों में सरशार थे। नीले, हरे और ज़र्द परों वाले बहुत से साथ थे जिनकी रिफ़ाक़त उन्हें मयस्सर थी।

    मैंने दिल ही दिल में कहा... अलविदा... मासूमो अलविदा... उन रफ़ीक़ों को भूल जाओ। उन सरमस्तियों को फ़रामोश कर दो। नुकीली पत्तियों वाले दरख़्तों की बद-मस्त शोख़ियों को दिल से निकाल दो। उन अज़ीज़ों को याद करके अपना दिल मत दुखाओ जिन्हें अंडों के खोल में बंद करके तुम बर्फ़ में दबा आए थे। अब सब भूल जाओ। तुम्हारे पंख टूट गए हैं ना। अब तुम कभी वहाँ नहीं जाओगे... कभी नहीं।

    ग़ुलाम अली पहुँच चुका था। उसने और सलीमुल्लाह ने मिल कर दोनों को ज़ब्ह किया। मैंने नवाब को देखा। वो दूसरी तरफ़ मुँह फेरे खड़ा था।

    साहब... अब दोपहर को फिर आएँगे। इस वक़्त तो चिड़िया उड़ गई। दोपहर को फिर पड़ेगी। तब तक घर चलिए। कुछ नाश्ता पानी कर लीजिए।

    मैंने तालाब की तरफ़ एक नज़र देखा... पानी कफ़न के कपड़े की तरह यहाँ से वहाँ तक फैला हुआ था... बिल्कुल ख़ामोश और गंभीर।

    सड़क पर सन्नाटा था और जीप में ख़ामोशी... ऐसे ही हम ग़ुलाम अली के घर तक पहुँचे।

    ये मेरा झोंपड़ा है। ग़ुलाम अली ने जीप रोक दी। एक पुराना पक्की ईंटों का मकान था जिसके आगे का चबूतरा कच्चा था... दरवाज़े के पीछे बड़े घेर की शलवार पहने दो टाँगें कर खड़ी हो गईं। ग़ुलाम अली ने चबूतरे पर पलंग निकाल कर हम लोगों को बिठाया।

    और अंदर जाकर वापस लौट आया। मेरे ज़ेहन को इतना यार अभी नहीं था कि उससे मना कर सकूँ कि ज़्यादा तकल्लुफ़ से काम ले।

    ग़ुलाम अली ने मुझसे कहा,साहब! आप ज़रा अंदर चलें, जमीला से मिल लें। वो ज़िद कर रही है।

    मैंने नवाब को बताया कि इसकी बीवी ज़िला हरदोई की है। उसे मालूम हो गया है कि मैं भी यू.पी का हूँ। शायद पासपोर्ट के लिए कुछ कहे।

    नवाब मुझे देखता रहा...

    दरवाज़े से दाख़िल हो कर मैं अंदर आँगन में गया... ग़ुलाम अली ने पुकारा तो एक अड़तीस चालीस साल की औरत बाहर आई... नाज़ुक नाक नक़्शे की दुबली-पतली सी वो औरत बड़े घेर की शलवार पहने हुई थी... मैंने सोचा ग़ुलाम अली ने उसे बिल्कुल पंजाबी बना दिया है... वो बे-झिजक मेरे पास कर भोलेपन से ज़मीन पर बैठ गई कि मैं बौखला गया।

    भैया... सलाम। उसने मुझे सलाम किया। मुझे महसूस हुआ जैसे मेरी किसी बहन ने मुझे आवाज़ दी हो...

    तुम... तुम्हीं जमीला हो। मैंने सलाम का जवाब दे कर उससे पूछा।

    हाँ वो ऐसे ख़ुश हुई जैसे किसी सुपरिन्टेंडेंट पुलिस के ड्राइवर की बीवी ये जान कर ख़ुश हो सकती है कि साहब उसका नाम जानते हैं। मैंने उसकी आँखों में झाँक कर देखा तो मुझे अपने कमीनेपन का एहसास हुआ। वो तो ऐसे मसरूर थी जैसे कोई ये जान कर खिल उठे कि उसका कोई हम वतन ना-आशनाई की दीवार के परे रह कर भी उसे जानता है।

    मेरा परमिट बनवा दो भैया... मैं ज़िला हरदोई जाकर अपना घर देखूँगी। मैंने उनसे कहा था लेकिन ये इनके बस का नहीं है। कहते हैं मैं साहब से बात करूँगा। अब तो मैं ख़ुद तुमसे बनवाकर रहूँगी अपना परमिट। मैंने इनसे कह दिया है कि मैं अपना काम तुमसे ख़ुद करा लूँगी... वो एक साँस में इतनी बातें कर गई जैसे शहर को जाते हुए बाप से बेटियाँ छोटी-छोटी फ़रमाइश करती हैं।

    मैंने ग़ुलाम अली की तरफ़ देखा। उसकी आँखों में मुझे वही इसरार नज़र आया जो रात जीप में उसकी आवाज़ में था।

    साहब! उससे सख़्ती से मना कर दीजिए कि उसका पर्मिट नहीं बन सकता... मेरे चार-पाँच सौ उठ जाएँगे। उसे तो बिला फ़ायदे का शौक़ है भारत जाने का।

    ग़ुलाम अली की आँखें मेरी आवाज़ से भीक माँग रही थीं और उसकी बीवी मुजस्सम कश्कोल बनी मेरी पास बैठी थी।

    मैं फिर बद-हवास हो गया... क्या मैं इससे इतना झूट बोल सकूँगा... क्या इतना बड़ा ज़ुल्म मेरी ज़बान कर सकेगी... क्या मेरा ज़मीर इसकी इजाज़त देगा...

    ग़ुलाम अली की आँखों ने फिर अपने हाथ फैला दिए।

    सुनो जमीला। मैं उससे मुख़ातिब हुआ... तुम्हारा पासपोर्ट नहीं बन पाएगा... तुम घर नहीं जा सकोगी बहनो...

    मुझे अपने ज़ेहन में शीशे की किरचें सी टूटती हुई महसूस हुईं। जमीला के मासूम चेहरे पर हज़ारों परछाइयाँ आकर गुज़र गईं।

    क्यों... क्यों भैया... क्यों नहीं बन सकता। आप नहीं बनवा सकते। आप तो सबसे बड़े दरोग़ा हैं। वो तुमसे बात करते-करते एक दम आप पर गई जैसे मैं इस एक लम्हे में बहुत अजनबी हो गया हूँ।

    हाँ... देख लो, सबसे बड़ा दरोग़ा ख़ुद अपना परमिट नहीं बनवा सकता तो तुम्हारे लिए कैसे बनवा पाएगा। मैंने ये कह कर जबड़े इतनी सख़्ती से भींच लिए कि जबड़े टीस करने लगे।

    लेकिन वज़ीरुद्दीन भाई की घर वाली ने तो अपना परमिट बनवा लिया था। वो बोली जैसे मायूसी के आलम में यही एक हवाला उसका सहारा रह गया हो।

    हाँ। मैंने फिर अपने ज़मीर की छाती पर बंदूक़ दाग़ी, बनवा तो लिया था लेकिन ग़ैर क़ानूनी था जभी तो वज़ीरुद्दीन ने जला दिया।

    उस सीधी-सादी औरत ने अपने कमीन और ज़लील भाई की गोद में सर रख कर अपने वतन के हिसाब में शायद आख़िरी आँसू बहाए।

    ग़ुलाम अली ये देख कर सिटपिटा गया... वो कुछ कहना ही चाहता था कि मैंने उसे रोक दिया... अच्छा है रो धो कर सब्र कर ले। रोज़-रोज़ के रोने से तो निजात मिलेगी। थोड़ी देर बाद मैंने उसका सर अपने दोनों हाथों से उठाया। उसके बालों को बराबर किया। गुम सुम खड़े उसके गोल-मटोल बच्चे की मुट्ठी में दस रूपये का नोट थमाया और बाहर निकल आया।

    बहुत देर की ख़ामोशी के बाद मैंने नवाब को ये सब बातें बता दीं। वो ख़ामोश बैठा सुनता रहा... और सब कुछ सुनकर ऐसे मुस्कुराया कि इंसानों पर और इंसानों के अफ़आल पर इस अंदाज़ से नहीं मुस्कुराया जाता। ऐसा तस्मा तो सिर्फ़ ना-हमवार मुआशरे के लिए वक़्फ़ होता है। ऐसी तल्ख़ी की ताब इंसान कहाँ से ला सकता है। मैं भी नहीं बर्दाश्त कर सका। मैंने दूसरी तरफ़ मुँह फेर लिया। बाक़ी लोग नाश्ते में मसरूफ़ रहे। लेकिन मुझे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे नवाब की तल्ख़ मुस्कुराहट पीछे से तेज़ छुरी की तरह मेरी पीठ में दाख़िल हो रही है।

    मैंने सोचा... तुम ख़ुद को कौन सा बड़ा सूरमा समझते हो। तुम अगर मेरी जगह होते तो क्या अपने मा-तहत की पैसा-पैसा जोड़ी हुई कमाई को उसकी बीवी के बे-हंगम शौक़ में तबाह करने के रवादार होते...

    मैंने पीछे मुड़कर देखा। नवाब बिल्कुल ख़ामोश बैठा था। हर क़िस्म के जज़्बे से उसका चेहरा आरी था... शायद वो ख़ुद भी यही सब कुछ सोच रहा था।

    तालाब पर जाने के लिए जीपें दोबारा चल पड़ीं... गाँव के बहुत से लोग हमें देखने गए थे... ग़ुलाम अली ने बहुत मुदब्बिराना अंदाज़ में हाथ हिला-हिला कर गाँव वालों को ख़ुदा हाफ़िज़ किया। जैसे कह रहा हो... मुझे मामूली आदमी मत समझो... मेरे घर पर सुपरिन्टेंडेंट पुलिस नाश्ता करते हैं... मैंने उसके अंदाज़ पर मुस्कुराने की कोशिश की... मैंने मुड़ कर देखा... ग़ुलाम अली के घर की छत पर एक औरत खड़ी थी। ज़िला हरदोई की एक लड़की जो यहाँ आकर बड़े घेर की शलवार पहनने लगी थी। उसके बाल बिखर गए थे और दुपट्टा हवा में ज़ोर-ज़ोर से हिल रहा था।

    मैंने नवाब को देखा, उसने मुझे देखा और हम दोनों ने उस पंख टूटी मुर्ग़ाबी को देखा।

    परिंदे तेरे पर टूट गए। तू अब वापस बर्फ़ के मैदानों में नहीं जा सकता।

    ख़ुदा हाफ़िज़ मासूम औरत... तू भी उस सरज़मीन को नहीं देख सकेगी, जहाँ तेरा शऊर बेदार हुआ था... जहाँ तूने लोक गीत सुने थे। जहाँ तूने सावन के झूले-झूले थे, जहाँ तूने अपनी हम उम्र लड़कियों के साथ हँड-कुलियाँ पकाई थीं। जहाँ मुर्ग़ी के डरबों में छुप-छुप कर तूने आँख मिचौलियाँ खेली थीं। जहाँ तूने शोख़ उमँगों के रंग से रंगे हुए सत रंगे दुपट्टे ओढ़े थे। जहाँ तूने अपने नन्हे से दिल में नर्म-नर्म जज़्बों को मुट्ठी में पकड़ कर बंद कर लिया था। सब भूल जा मेरी प्यारी बहन... वहाँ के नाम पर बहाए गए तेरे आख़िरी आँसू मेरे शिकारी कोट के दामन में महफ़ूज़ हैं। बस ये आख़िरी आँसू हैं। अब कोई आँसू बहे कि कुछ और लोग भी बेहद उदास हैं। कहीं उनकी उदासी भी बे-क़ीमत पानी की तरह आँखों से बह जाए। तालाब की सतह पर भड़कने से फ़ायदा क्या... आड़ में छुपे शिकारी ने तेरे पर कब के तोड़ दिए... अब क्या धरा है। मैंने गर्दन मोड़ कर सीट से निकाली...

    जीप कच्चे दगड़े पर धूल उड़ाती भागती रही।

    तुमने शादी कर ली...? मैं ये पूछना तो भूल ही गया। नवाब की आवाज़ जीप के इंजन से ज़्यादा पुर शोर थी। हालाँकि उसने सरगोशी के अंदाज़ में पूछा था।

    एक अनजाने ख़ौफ़ के बाइस मैंने आँखें नहीं खोलीं। सिर्फ़ उसका हाथ दबा कर इस्बात में सर हिला दिया।

    बच्चे कितने हैं? उसने फिर सवाल किया।

    तीन। मैंने मुख़्तसर सा जवाब दिया।

    और अब नवाब तुम जो पूछोगे वो मुझे मालूम है... पूछ लो कोई भड़ास रह जाए तुम्हारे दिल में... आज सारी हसरतें पूरी कर लो...

    उनका कोई ख़त आया कभी? नवाब ने पूछा।

    शाबाश मेरे दोस्त... ज़िंदा रहो... मैंने कहा था ताकि अभी मेरे पूरे ज़ख़्म कहाँ हरे हुए हैं सो तुमने वो आख़िरी ज़ख़्म भी कुरेद दिया... किसका ख़त? मैंने आँखें खोल कर नवाब को यूँ देखा जैसे मैं कुछ जानता ही नहीं।

    नवाब ने मुझे ऐसे देखा जैसे सिपाही चोर को देखता है। वो कुछ कहना ही चाहता था कि मैंने उसके बाज़ू पर हाथ रख कर उसे ख़ामोश कर दिया... क्योंकि मैं चोर था इसलिए मैंने उससे नज़रें नहीं चार कीं... और आँखें बंद कर लीं। दोपहर के सूरज की चमक आँखों पर बराह-ए-रास्त पड़ रही थी और आँखों के पपोटों की वो हरारत बहुत ख़ुश कुन महसूस हो रही थी... बाहर मैंने अभी देखा था कि कोहरा बिल्कुल छट गया था और खेत बहुत उजले-उजले नज़र रहे थे... तालाब दूर था और माज़ी के आईना-ख़ाने का सबसे रंगीन अक्स जिसकी तामीर में सिर्फ़ लफ़्फ़ाज़ी काम नहीं देती बल्कि उस तस्वीर को मुकम्मल करने के लिए ख़ून-ए-जिगर की आमेज़िश की ज़रूरत होती है... मेरी मोहब्बत का अक्स मेरे सामने चमक रहा था।

    पैदा होने से लेकर नब्ज़ रुकने तक ये जज़्बा कितने रूप बदलता है। लेकिन इसका हर रुख़ ख़ुशगवार होता है। माँ के दूध से मोहब्बत हो या बाप की शफ़ीक़ गोद से, भाई की मोहब्बत हो या बहन की चाहत, दोस्त से मोहब्बत हो या महबूबा से... उसका हर रंग दिलकश है और मेरी ज़िंदगी की अल्बम की हसीन और सबसे मासूम तस्वीर मेरे सामने गई।

    गर्मियों की एक तपती हुई दोपहर में हवाएँ अपनी गोद में अंगारे भरे हुए ऊँचे-ऊँचे दरख़्तों से सर पटक रही हैं। एक लक़-ओ-दक़ मकान के कच्चे, सिले और ठंडे दालान में एक ब्रह्मपुत्र जैसी बिफरी और हिमालय जैसी ख़ुद सर जवान लड़की खड़ी है... और वहीं एक सतून के सहारे एक बेबाक लड़का खड़ा है। उसने अभी-अभी लड़कपन से दामन छुड़ा कर जवानी के कारज़ार में क़दम रखा है और वो इतना ही गुस्ताख़ है जितना इस उम्र में होना चाहिए। तो भैया मालूम ये हुआ कि आप मुझसे मोहब्बत फ़रमाते हैं? उस लड़की ने मज़ाक़ उड़ाने वाले अंदाज़ में उससे पूछा।

    वो लड़का ख़ामोश रहा...

    कब से इश्क़ फ़रमा रहे हैं?

    उसने कोई जवाब नहीं दिया।

    हूँ, तुम्हें मालूम है मैं तुमसे बड़ी हूँ। लड़की ने कहा।

    तो ये अपने हाथ में थोड़े ही है... लड़के ने मुँह खोला।

    इस मासूम तौजीह पर वो मुस्कुराई थी।

    बाहर लू के झोंके उन्हें देख कर चुपचाप ठहर गए।

    और मालूम नहीं कैसे उस लड़की ने जिसे मग़रूर, बद-दिमाग़ और ख़ुद परस्त जैसे अल्फ़ाज़ से याद किया जाता था, जिसे ये फ़ख़्र हासिल था, अगर ये चीज़ फ़ख़्र के क़ाबिल है तो, कि उसकी जवानी के दामन पर एक भी दाग़ नहीं था, आगे बढ़ी और उस लड़के से कहा कि वो उसकी ब्रह्म पुत्र जैसी जवानी को बाँहों में भर कर उसके हिमालय जैसे सर को अपनी मोहब्बत के ज़ोर से नीचा कर दे। वो लड़का आगे बढ़ा और उसने बचपन, लड़कपन और शुरू जवानी के इस तवील अरसे में पहली बार किसी जवान जिस्म के गुदाज़ के लम्स को महसूस किया और उन पाक होंटों को चूम लिया जिनकी तक़्दीस ख़ुद उसके दिल में थी।

    एक साल तक दोनों उन्हीं मासूम जज़्बों में खेलते रहे।

    फिर सैंतालीस आया... मुँह फाड़े, दाँत निकाले, तक़सीम का हुक्म नामा हाथ में लिए... कोह-ए-निदा से या अख़ी या अख़ी की आवाज़ें आईं और जिस दिन वो लड़का सब कुछ छोड़ कर एक अनजान देस को जा रहा था उस दिन वो उस लड़की से मिला... दिल भी क़ाबू में था, जज़्बात, भी क़ाबू में थे, सिर्फ़ क़दम बेक़ाबू थे जो बिला सोचे-समझे नामालूम बे-निशान मंज़िल की सम्त उठने वाले थे।

    तो आप चल दिए। उसने पूछा था।

    उस लड़के के पास जवाब देने को अल्फ़ाज़ तो बहुत थे पर हिम्मत नहीं थी।

    वहाँ जा कर मजनूँ-फ़रहाद बनने की ज़रूरत नहीं है। जहाँ वालिदैन कहें शादी कर लेना, समझे।

    वो लड़का लड़कियों की तरह रोने ही वाला था कि उस लड़की ने मर्दों की तरह उसे दिलासा दिया।

    खोखले दिलासे... कि तुम दो चार साल बाद आना और मुझे ब्याह कर ले जाना।

    दोनों जानते थे कि ये नामुमकिन है। लेकिन दोनों एक दूसरे को इतमीनान दिलाते रहे कि इसके अलावा चारा भी क्या था।

    तो फिर यूँ हुआ कि बर्फ़ बारी होने लगी। बर्फ़ के ज़र्रात आसमान से बरसने लगे। हवाएँ शिद्दत इख़्तियार कर गईं। मौसम नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त हो गया... और परिंदों का वो झुंड ज़िंदा रहने के क़ाबिल गर्मी हासिल करने के लिए दूसरी सरहदों में चला गया... अंडों के खोल में बंद अपनी अज़ीज़ चीज़ों को बर्फ़ में दबा कर, दोबारा वापस आने की उम्मीद में सफ़ें की सफ़ें परे के परे दूसरी बस्तियों में परवाज़ कर गए।

    उस लड़की का उसे कोई ख़त नहीं मिला क्योंकि जिस घराने की वो लड़की थी वहाँ का दस्तूर नहीं था कि ग़ैर लड़कों को ख़त लिखे जाएँ वो भी दूसरे मुल्क में।

    पाकिस्तान आने के बाद वो लड़का इस दरिया के किनारे बैठ कर रेत पर एक अरसे तक महल बनाता रहा जिसका पानी दोनों मुल्कों में बहता है। महल जब बन कर तैयार होता तो दरिया की तुंद और ज़ालिम लहरें उसके महल को तबाह कर देतीं क्योंकि दरिया का पानी दूसरे मुल्कों से बह कर आता था... अगर दूसरे मुल्क में उसी दरिया के किनारे पर कोई और लड़का महल बनाता और लहरें उसे बर्बाद कर देतीं तो वो लड़का भी यही सोचता कि पानी दूसरे मुल्क से बह कर रहा है।

    मोहब्बत के महल बनते बिगड़ते रहे लेकिन दरिया की रवानी ने तो बड़े बड़ों को पसपा किया है। उस लड़के की क्या हक़ीक़त थी और फिर रेत तो रेत ही होती है।

    क्या सोचने लगे? नवाब की आवाज़ ने मुझे वापस बुला लिया।

    कुछ नहीं। मैंने आँखें खोल दीं।

    नवाब ने मुस्कुरा कर मेरे झूट को थपकी दी।

    हिंदुस्तान से आने के बीस साल बाद मालूम हो सका था कि बेगम की शादी किसी शराबी और दिक़-ज़दा आदमी से कर दी गई थी कि हमारे हाँ शरीफ़ और सितम-रसीदा ख़ानदानों में लड़कियों की शादियाँ ऐसी ही धूम-धाम से होती हैं।

    सुनो! नवाब ने मुझे फिर पुकारा।

    हूँ। मैंने आँखें खोल दीं।

    बेगम बेवा हो चुकी हैं। उनके शौहर को टी. बी. का आरिज़ा था और उसपर शराब। तुम्हें मालूम हुआ था? नवाब ने मेरी समाअत में ज़हर भर दिया। मेरे कानों के क़रीब हज़ारों की तादाद में छोटे-छोटे तीर साएँ-साएँ कर रहे थे जिनकी नोकें बहुत तेज़ और चमकती हुई थीं।

    आँखें मुकम्मल खोल कर मैंने बाहर देखा। जीप तालाब के क़रीब पहुँचने ही वाली थी। बाहर गेहूँ के खेतों में छोटे-छोटे पौदों पर धूप बरस रही थी। दूर के दरख़्तों की चोटियों पर हवाएँ बलाओं की तरह चिल्ला-चिल्ला कर नाच रही थीं।

    ख़ुदा! आज माहौल पर इतना दुख क्यों छाया हुआ है? मैं उससे सवाल कर रहा था जो आम इंसानों को कुछ नहीं बताता जिससे कुछ पूछने के लिए पैग़म्बर होना ज़रूरी होता है।

    नवाब... बेगम बेवा हो गईं? मैंने नवाब से ऐसे पूछा जैसे उससे मालूम करना चाहता हूँ कि बेगम क्यों बेवा हुईं?

    तुम्हें अब मालूम हुआ है। उन्हें तो बेवा हुए भी बरसों गुज़र गए। तो तुम्हें तो ये भी नहीं मालूम होगा कि मेरी ग़ज़ाला भी मर गई...

    उफ़... ख़ूब चरके लगा लो आज... ये ख़बर ही कौन सी कम थी कि बेगम बेवा हो गईं कि तुमने ये भी कह दिया कि हिरनी की तरह मासूम और चँचल तुम्हारी ग़ज़ाला भी मर गई ... नवाब मैं तुमसे हरगिज़ ये नहीं पूछूँगा कि ग़ज़ाला कैसे ख़त्म हुई और बेगम बेवा होकर कैसे जी रही हैं... ख़ुदा जाने तुम्हारे तरकश में और कितने तीर बाक़ी हों।

    जीपें रुक गईं। सबसे आख़िर में हम दोनों उतरे।

    ग़ुलाम अली ने क़रीब कर कहा।

    साहब इस बार चिड़िया उस किनारे पर है और कुछ बीच में पड़ी है। अब आप सोच लें कि कैसे दाव लगे?

    सूरज की तेज़ किरनें तालाब पर बराह-ए-रास्त पड़ रही थीं। और परिंदों के ख़ुशनुमा रंग चमक उठे थे।

    मैं उधर ईख के किनारे पहली वाली झौ पर बैठूँगा। तुम नवाब ज़रा हट कर उन झाड़ियों की आड़ पकड़ लो। और सलीमुल्लाह साहब आप और ग़ुलाम अली दूसरे किनारे पर जा कर बैठे पर फ़ायर करें... चिड़िया उठेगी तो ला-मुहाला हमारे सरों पर से जाएगी तभी दाब लेंगे... ये हिदायतें दे कर मैं अपनी जगह पर गया।

    ग़ुलाम अली और सलीमुल्लाह अपने किनारे की तरफ़ चल पड़े। वो दोनों धीरे-धीरे बातें करते हुए चले जा रहे थे... मैंने कोने में एक जगह बना ली। नवाब बंदूक़ में चमकते हुए नये चमकते कारतूस लगा कर झाड़ियों की तरफ़ बढ़ गया।

    चिड़िया बिल्कुल ग़ाफ़िल थी क्योंकि इस किनारे से बहुत दूर थी। मैंने बंदूक़ तैयार कर ली।

    यकायक मेरे सर पर सरसराहट हुई और सीख़ पर का एक पुरा आगे जाकर पानी में पर तोड़ कर गिर पड़ा... थोड़ी देर तक कुछ शोर रहा... पानी की लहरें बनीं और बिगड़ीं और फिर वही ख़ामोशी और तालाब का सुकूत...

    अभी-अभी जब ये सीख़ पर कर पानी में गिरे तो मैंने महसूस किया, सिर्फ़ महसूस किया कि इन परिंदों की आँखों में भी तो वही सपने हैं जो सुबह उन परिंदों की आँखों में थे, जिनके पँख टूट गए थे... वही अपने देस वापस जाने के सपने... वही शफ़्फ़ाफ़ बर्फ़ चूमने के सपने... कितनी देर और हैं ये ख़्वाब इनकी आँखों में।

    तालाब के उधर खेतों में कहीं-कहीं ईख के पौदे ग़ैर मामूली तौर से हरकत कर रहे थे... ग़ुलाम अली और सलीमुल्लाह फ़ायर करने के लिए खेतों में छुपे हुए आहिस्ता-आहिस्ता परिंदों की तरफ़ बढ़ रहे होंगे।

    मैंने नज़र उठा कर देखा। कभी महसूस होता पानी साकित हो गया है। कभी लगता परिंदे बे-हरकत हो गए हैं... देर तक पानी पर नज़रें जमाए रहने से सुकूत और हरकत का फ़र्क़ मिट जाता है। सब एक जैसा हो जाता है। हाँ हर फ़र्क़ मिट जाता है और आज इस तालाब पर बैठे हुए मुझे ये महसूस हुआ कि ये पानी ही नहीं, कायनात की हर चीज़ साकित हो गई है... बिल्कुल बे-हरकत हो गई है... अगर हरकत है तो सिर्फ़ उन सपनों में जो इन परिंदों की गोल-गोल भोली-भाली आँखों में चमक रहे हैं। अगर ज़िंदगी है तो सिर्फ़ इस उम्मीद में कि हम वापस घर जाएँगे। अगर गर्मी है तो सिर्फ़ इस जज़्बे में कि हम दोबारा बर्फ़ चूमेंगे। अगर जोश है तो सिर्फ़ इस उमँग में कि हम अपनी छोड़ी हुई अज़ीज़ चीज़ें वापस पाएँगे जो अंडों के खोल में बंद हमारा इंतज़ार कर रही हैं।

    नवाब तुम इस वक़्त दूर बैठे हो, थोड़ी देर बाद मैं तुम्हें बताऊँगा। हाँ मुझे अभी-अभी ये ख़्याल आया कि तुम्हें बताऊँ हम लोग पंख टूटे परिंदे हैं। वज़ीरुद्दीन की बीवी और ग़ुलाम अली की बीवी के भी पँख टूट गए हैं और हमारे तुम्हारे पंख भी तोड़ दिए गए हैं। हममें से कोई भी इस क़ाबिल नहीं बचा कि वहाँ जा कर अपने होंटों से शफ़्फ़ाफ़ बर्फ़ चूम सके। नवाब अहमद हम इन परिंदों से भी ज़्यादा लाचार और बेबस हैं कि कम से कम वो अपने पंख टूट जाने के बाद ज़ब्ह तो कर दिए जाते हैं और हम लोग... हम लोग तो लम्हा-लम्हा ज़ब्ह होरहे हैं। हमारी उमंगें लम्हा लम्हा क़त्ल की जा रही हैं। हमें सिसका-सिसका कर तड़पाया जा रहा है। हमारा शिकार एक दफ़ा में नहीं होता बल्कि धीरे-धीरे होता है। हम इस तालाब में सिर्फ़ फड़क सकते हैं, जान नहीं दे सकते। थोड़ी देर बाद तुम्हें सब कुछ बताऊँगा।

    अचानक दूसरे किनारे पर फ़ायर हुआ और मैं दहल उठा। महसूस हुआ कि धूप और तालाब का पानी बिल्कुल सुर्ख़ हो गए हैं। पूरी फ़िज़ा बिल्कुल गहरी सुर्ख़ हो गई है। जाने कितने तालाब में फड़के, जाने कितनों के पँख टूटे।

    चिड़िया ने उड़ान भरी और छोटी छोटी टोलियों में बट कर परवाज़ करने लगी।

    नीची उड़ान करता हुआ एक पुरा मेरे सर पर से गुज़रा मैंने बंदूक़ उठाई तो मैंने देखा कि मेरे हाथों पर ख़ून लगा हुआ है। मैंने ग़ौर से देखा तो मालूम हुआ कि इतना चमकता हुआ ख़ुश रंग लहू किसी जानदार का नहीं हो सकता... ये थकी हुई जागती आँखों के ख़्वाबों का ख़ून था। बर्फ़ के मैदानों में वापस जाने की उमंगों का ख़ून था। एक दूसरे के परों में मिंक़ार फिरा-फिरा कर उलफ़त और रिफ़ाक़त का इज़हार करने के जज़्बों का खून था।

    ख़ुदा जाने कैसे बंदूक़ नीचे झुक गई।

    परिंदे नवाब के सर पर साएँ-साएँ कर रहे थे।

    ग़ुलाम अली चिल्ला रहा था... हम दोनों से कह रहा था...हुज़ूर दाग़ो... हुज़ूर दाग़ो... ऊपर गई हैं ऊपर...

    मैंने अपने हाथों जिन पर ख़ून चमक रहा था, क़रीब ला कर पूछा कि मुझे बताओ कि मैं किससे पूछूँ कि बेगम अब कैसे जी रही हैं और जी भी रही हैं या किसी कच्ची क़ब्र में, अपने अरमानों के कफ़न में, लिपटी सो रही हैं। मुझे कैसे मालूम हो कि ग़ज़ाला क्यों मर गई... वो बुज़ुर्ग और मास्टर अब वहाँ हैं या उनके शफ़ीक़ चेहरे वक़्त की धूल में अट कर कहीं खो गए... वो घर अब घर है या खंडर हो गया। जहाँ हमने ताज महल से ज़्यादा हसीन महल बनाए थे... वहाँ के नौ उम्र लड़के अब भी मई-जून में अपने कोमल बदन धूप में झुलसाते हैं या नहीं।

    लेकिन हाथों पर अब ख़ून कहाँ था। वो तो बस उसी वक़्त जाने कहाँ से आन टपका था जब परिंदों पर मैंने बंदूक़ उठाई थी।

    मैंने परिंदों की एक सफ़ को पूरब की तरफ़ धुआँ होते देखा।

    मैंने उनसे चुपके से कहा...

    देखो पर सलामत तो लेकर जा रहे हो लेकिन इतना करना कि हिंदुस्तान पर से गुज़रो तो उन लोगों का मातम कर लेना जो यहाँ से जा कर बेवतन हो गए थे... देखो जर्मनी की तरफ़ भी ऐसे ही क़िस्से हैं। वहाँ से अगर गुज़रो तो थोड़े उदास हो जाना... हमें तो तुमने देख ही लिया... लेकिन हम अकेले थोड़े ही हैं... वज़ीरुद्दीन की बीवी है। नवाब है, हर जगह तुमको ऐसे कितने ही शिकस्ता पर मिलेंगे, जहाँ किसी को देखना तो समझ लेना कि ये भी बर्फ़ चूमने के सपने देख रहा है, बस वहीं तुम भी ज़रा दुखी हो लेना... जाओ अब पहाड़ों के पीछे अपने वतन वापस चले जाओ... वसीअ मैदान, नुकीली पत्तियों वाले देव क़ामत ख़ूबसरत दरख़्त और बर्फ़ में दबी हुई अंडों के खोल में बंद तुम्हारी अज़ीज़ चीज़ें तुम्हारा इंतज़ार कर रही हैं... अलविदा... ख़ुदा तुम्हारी परवाज़ का हाफ़िज़ है।

    परिंदों का आख़िरी पर अभी आसमान की वुसअतों में धुएँ की लकीरें बन चुका था... तालाब चाँदी जैसा शफ़्फ़ाफ़ हो चुका था... ग़ुलाम अली और सलीमुल्लाह हाथ हिला-हिला कर किसी बात पर बहस करते हुए चले रहे थे... उनकी आवाज़ें मक्खियों की भुनभुनाहट की तरह मेरे कानों में रही थीं।

    मैं ईख से बाहर गया... मैंने जूतों की कीचड़ झटकी, सामने से नवाब रहा था।

    तुमने फ़ायर क्यों नहीं किया? उसने दूर से ही पूछा।

    तमाम माहौल बेहद पुरअसरार हो गया... दरख़्तों और खेतों की सरसराहट भी बिल्कुल ख़ामोश हो गई... किनारे पर बैठा सारस का जोड़ा भी चुप हो गया... पानी कि शरर-शरर भी बिल्कुल मादूम हो गई।

    वो... नवाब... पुराने कारतूस थे। दग़ा दे गए, सब मिस हो गए... मैं एक साथ इतने झूट बोल गया।

    लेकिन सुनो। मैंने उसे मुख़ातिब किया।

    हूँ... क्या है। उसने चोर निगाहों से मुझे देखा।

    तुमने फ़ायर क्यों नहीं किया... एक आध चिड़िया तो गिरा ही लेते कम अज़ कम। बिल्कुल तुम्हारे सर पर उड़ रही थीं...

    वो थोड़ी देर तक ख़ामोश खड़ा रहा... इतना ख़ामोश कि मुझे उसकी ख़ामोशी से डर लगने लगा। फिर वो मेरे बहुत क़रीब आकर एक एक लफ़्ज़ चबा-चबा कर बोला...

    मेरे साथ भी वही सब कुछ हुआ था जो तुम्हारे साथ पेश आया।

    हम दोनों की बंदूक़ों ने एक साथ चार फ़ायर किए... किनारे बैठा सारस का जोड़ा उड़ गया... ग़ुलाम अली और सलीमुल्लाह चौंक पड़े... ग़ुलाम अली बिला सोचे-समझे रोता चिल्लाता हमारी तरफ़ भागा... हैरान खड़े नवाब के ड्राइवर ने हमारे हाथों से बंदूक़ें संभाल लीं।

    मैं और नवाब एक दूसरे को देखते रहे, देर तक एक दूसरे को समझते रहे और फिर मालूम नहीं कैसे हम दोनों ने एक ही फ़ैसला किया... हम दोनों एक दूसरे से लिपट कर ख़ामोश हो गए और इतनी मुश्किल से अपने पे ज़ब्त किया कि बस मज़ा गया... हम पाँचों ख़ामोश थे... हवाएँ बहुत तेज़ हो गई थीं और तालाब का पानी किनारों से छलक आया था।

    स्रोत:

    Daar Se Bichhde (Pg. 105)

    • लेखक: सय्यद मोहम्मद अशरफ़
      • प्रकाशक: सय्यद मोहम्मद अशरफ़
      • प्रकाशन वर्ष: 1994

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