Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

डे केयर

ज़किया मशहदी

डे केयर

ज़किया मशहदी

MORE BYज़किया मशहदी

    स्टोरीलाइन

    यह कहानी एक कैंसर इंस्टिट्यूट के डे केअर यूनिट की एक दिन की गह्मा-गह्मी पर आधारित है। दो औरतें कुर्सी पर बैठी एक-दूसरे से वहाँ आने का कारण पूछती हैं। उनमें एक हिंदू और दूसरी मुसलमान है। हिंदू औरत अपने बेटे को लेकर आई है, जिसे ब्लड कैंसर है। मुसलमान औरत अपने शौहर से मिलने आई है। वे अपनी बीमारियों के बारे में बातें करती हैं, जिनके लिए धार्मिक पहचान कोई मायने नहीं रखती है। हिंदू औरत शुद्ध शाकाहारी है, लेकिन डॉक्टर के कहने पर वह अपने बेटे को चिकन खिलाती है। तभी माइक पर किसी का नाम पुकारा जाता है और वे दोनों औरतें पुकारे जा रहे नाम को ठीक से सुनने के लिए उस ओर चल पड़ती हैं।

    वहां हमेशा मेला लगा रहता था। खोए से खोआ छिलता। ख़लक़त यूं उमड़ी आती थी जैसे मुफ़्त कुछ बट रहा हो। लेकिन मुफ़्त कुछ बटता होता तो क्या सब के चेहरे ऐसे होते? सुते हुए, मुतरद्दिद आँखों वाले, मौत की परछाईयां जिन पर रक़्स करती होती थीं। अपनी मौत की नहीं तो किसी अज़ीज़ की मौत के अंदेशे की। कहीं उम्मीद बीम की धूप छाँव के दरमियान, तो कहीं सिर्फ़ अंधेरों के दरमियान।

    वो नौजवान लड़की अपनी ख़ूबसूरत आँखों में एक कर्बनाक कैफ़ियत लिए बड़े सब्र के साथ कुर्सी पर बैठी अपना नाम पुकारे जाने का इंतिज़ार कर रही थी। उसके बग़ल वाली कुर्सी पर किसी ने रूमाल डाल कर अपनी जगह मुख़्तस कर दी थी।

    मैं यहां बैठ जाऊं? अचानक वो सवाल , जो गरचे निहायत मुलायमियत और शाइस्तगी के साथ किया गया था उसकी समाअत पर हथौड़े की तरह पड़ा। चौंकने के बावजूद वो ख़ामोश रही। उसके रेशे रेशे में एक सुन हो जाने वाली कैफ़ियत समाई हुई थी।

    सवाल दुबारा दोहराया गया। इस मर्तबा बड़ी ही नर्मी के साथ उसके शाने पर हाथ रखकर। उस लम्स की एक ज़बान थी, गूँगी ज़बान जो उस लड़की के वजूद में उतरने में कामयाब रही थी।

    उसने आँखें उठाईं। सवाल करने वाली औरत उम्र में उससे ख़ासी बड़ी थी। कोई चालीस के पेटे में या शायद कुछ और ज़्यादा।

    बैठ जाईए। उसने रसान से कहा, यहां एक साहिब बैठे हुए थे। आएँगे तो उठ जाइएगा। बड़ी औरत रूमाल सरकाकर बैठ गई। हाल एअरकंडीशंड था लेकिन भीड़ की वजह से उसका तास्सुर कम हो गया था।पसीने और दवाओं की बू अलग रच बस गई थी। औरत को महसूस होता था इस बड़े कमरे में एक और बेनाम महक हुआ करती है जो सबसे अलग होती है। इतनी उम्र गुज़ार लेने के बावजूद उसने पहले कभी ऐसी महक नहीं सूंघी थी। दबे-पाँव आती मौत की महक। आज भी एक स्ट्रेचर सरकाकर दीवार से लगाया हुआथा। उस पर पड़ा एक शख़्स गोया अपनी आख़िरी साँसें गिन रहाथा। उसके जिस्म में कई दवाएं दाख़िल की जा रही थीं। पास ही एक औरत स्ट्रेचर की पट्टी पकड़े खड़ी थी। दोनों बहुत ग़रीब, बेहद मिस्कीन। यक़ीनन ये महक उनके पास से आरही थी। औरत जब जब अपनी बारी पर यहां आई थी, इस तरह कोई कोई स्ट्रेचर उसे ज़रूर दिखाई दिया था। कभी इधर-उधर पहुंचाया जाता। कभी दीवार से लगाकर खड़ा किया हुआ और उसे हर बार ये ख़्याल आया था कि ऐसी हालत में तो आराम से मरने दिया जाता तो बेहतर था। इतनी अज़ीयत के बदले चंद साँसें दे कर क्या मिलता है? फ़िज़ा में मौत के क़दमों की चाप यूं सुनाई देती है जैसे कोई थका हुआ दिल आहिस्ता-आहिस्ता कानों में आकर धड़क रहा हो।

    घुटन नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त थी। रूमाल रख जाने वाला भी अभी नहीं आया था। दूसरे की सीट पर क़ाबिज़ होने के ख़फ़ीफ़ से एहसास -ए-जुर्म के साथ वो औरत वहीं बैठी थी। एक अदम तहफ़्फ़ुज़ का एहसास भी था। अभी वो जाएगा और उसे उठना पड़ेगा। जैसे उसके अज़ीज़ का नाम पुकारे जाने पर ख़ुद उसे भी सीट छोड़नी होगी। हम सब अपनी अपनी तलबी के मुंतज़िर हैं। उसने दिल गिरिफ्तगी के साथ सोचा...अंदर उठते सन्नाटे से घबरा कर वो बग़ल में बैठी लड़की की तरफ़ मुड़ी।

    कौन बीमार है?

    मेरे शौहर, उसने मुख़्तसर जवाब दिया।

    तुम्हारे शौहर? बड़ी औरत ने हैरत से दोहराया, तुम्हारी शादी हो चुकी है? ज़रा नहीं लगता कि तुम शादीशुदा हो। तुम्हारे शौहर भी बिल्कुल कम उम्र होंगे। उसके लहजे में दिलि तास्सुफ़ था। चच चच!

    लड़की ने ठंडी सांस ली। स्याह आँखों में आँसूओं की चमक लर्ज़ी, जैसे घने बादलों के पीछे से बिजली की ख़फ़ीफ़ सी रोशनी का एहसास वो ख़ामोश रही। यहां हर शख़्स बोल रहा था लेकिन किसी को किसी की आवाज़ नहीं सुनाई देती थी। दिलों में सन्नाटा पसरा पड़ा रहता था बेकरां और लामतनाही। यक वक़्त मौजूद उस सन्नाटे और शोर के दरमियान डे केअर वार्ड के दरवाज़े पर खड़े बावर्दी गार्ड की आवाज़ माइक पर गूँजती। वो लोगों के नाम पुकारता था। किसी के मरीज़ की कीमोथरैपी मुकम्मल हो चुकी होती तो उसके काग़ज़ात लेकर उसे वापस ले जाना होता। किसी के लिए जगह ख़ाली हुई होती तो मरीज़ को ले कर अंदर पहुंचना होता। कीमो के दरमियान भी कभी साथ आए निगरां की ज़रूरत पड़ जाया करती थी। ज़रा की ज़रा गार्ड की करख़्त आवाज़ बाक़ी आवाज़ों पर हावी हो जाती, पल-भर को सन्नाटा छा जाता। फिर इंतिज़ार कर रहे हिरासाँ लोगों में से बारी जाने वाला शख़्स हड़बड़ाकर उठता।

    रोकया खातुन...रोकया खातुन... माईक खड़खड़ाया था।

    लंबी दाढ़ी और मल्गजे कुरते वाला एक निहायत थका थका सा शख़्स चौकन्ना हो कर इधर उधर देखने लगा। हुलिए बशरे से आस-पास के किसी दिहात से आया हुआ लगता था। वैसे तो इस अज़ीमुश्शान शहर में भी इस तरह के लोगों की कमी नहीं थी। यहां वो भी थे जो सर-सब्ज़ दरख़्तों के दरमियान घिरे पुर-सुकून, कुशादा और ख़ूबसूरत बंगलों में रहते थे और वह भी जो अली-उल-सुबह ठेला ले कर उन बंगलों में सब्ज़ियाँ और फल पहुंचाया करते थे। वो भी जो कॉमनवेल्थ गेम्ज़ के दौरान आलीशान होटलों में ठहरे थे। औरवह भी जिन्होंने सख़्त मशक़्क़त करके उनके लिए शहर को दुल्हन की तरह सजाया था और फिर निकाल कर बाहर कर दिए गए थे कि रह जाते तो दुल्हन के चेहरे पर बरस के दाग़ की तरह उभर आते। इसलिए किसी की सूरत देखकर कोई क्या समझ पाता कि वो कहाँ रह रहा है। किसी गांव में या बड़े शहर की झोंपड़पट्टी में।

    ऐलान के बाद गार्ड ने चंद लम्हों का तवक्कुफ़ किया और उसके बाद बाहर आगया। उसने माइक अपने स्टूल पर छोड़ दिया था।

    रोक्या खातुन कौन है? भीड़ के दरमियान घुस कर उसने ज़ोर से आवाज़ लगाई, जल्दी कीजिए, आप लोग पुकारने पर ध्यान नहीं देते, दवाई शुरू होने में देर होती है। गो उसकी आवाज़ तेज़ थी लेकिन लहजा नर्म था। नर्म और हमदर्द।

    उसी हस्पताल के दूसरे शोबों में वार्ड ब्वॉय और नर्सें इतने नर्म खू नहीं थे। एक मर्तबा दवाओं और परहेज़ की वज़ाहत कर देने पर बात समझ में आए और मरीज़ दुबारा पूछ बैठे तो ख़ासे नाराज़ होते थे। अरे क्या हम सिर्फ़ तुम्हारे लिए नौकरी कर रहे हैं? इतने लोग और जो इंतिज़ार कर रहे हैं उनका क्या? एक मर्तबा एक शख़्स कह बैठा, मैडम इतनी देर तक डाँटने से अच्छा था कि एक-बार और समझा देतीं, नर्स ने उसे ख़शमगीं नज़रों से घूरा और आगे बढ़ गई। वो बेचारा एक एक को पकड़ पकड़ कर पूछने लगा कि कितनी बार दवा खानी है और दुबारा इंजेक्शन लेने कब आना है। बहुत देर बाद ऐसा शख़्स मिल सका जो पढ़ा लिखा भी था और मेहरबान सिफ़त भी। वैसे कई पढ़े लिखे एक नज़र डाल कर इसलिए भी आगे बढ़ गए थे कि काम के दबाव पर नुस्ख़ा लिखने वाले डाक्टरों की घसीटी गई जिन्नाती तहरीर पढ़ लेना सब के बस की बात नहीं होती। लेकिन इस शोबे के डे केअर का अमला निहायत नर्म ख़ू और ख़लीक़ था। सब जानते थे कि यहां जो आया है उसका टिकट कट चुका है बस दो पाटों के बीच पिस रहे चने के दानों में से कोई कोई ही बच निकलेगा और लोग कहेंगे, हाँ भाई जाको राखे साईयाँ... साईयाँ को रखना होतो इस मर्ज़ में मुब्तला ही क्यों करें।

    गोद में बड़ी बड़ी आँखों और ज़र्द चेहरे वाली तीन चार बरस की लाग़र बच्ची को लिए वो शख़्स उठ खड़ा हुआ। शायद हमीं को कह रहे हैं। रुक़य्या ख़ातून को बुला रहे हैं।

    हाँ चलिए जल्दी कीजिए, गार्ड ने बच्ची की तरफ़ प्यार से देखा...उस शख़्स ने तेज़ तेज़ चलते हुए बच्ची के साथ हाथ में पकड़ी फाईल संभाली। हड़ बड़ाई हुई रफ़्तार के बावजूद बच्ची का मुँह चूमा। फिर वो बुदबुदाया,

    पता नहीं कैसे कैसे नाम बोलते हैं गार्ड जी। हमारी समझ में एक-बार भी नहीं आया। सिस्टर नाराज़ होंगी टाइम खोटा हो रहा है उनका।

    कैसी छोटी सी, मासूम सी बच्ची है। बड़ी उम्र वाली औरत फिर बोली।

    कुछ लोग दुख में ख़ामोश रहते हैं कुछ बोल बोल कर जी हल्का करने की कोशिश करते हैं। वो औरत फ़ित्रतन ख़ामोश-तबीअत थी लेकिन अब बातूनी हो गई थी। उसे लगता था ख़ामोश रही तो कलेजा फट जाएगा।

    नौजवान लड़की सर नीचा किए बैठी थी। उसने फिर आँखें ऊपर उठाईं।

    मेरी बेटी भी उतनी ही बड़ी है। उसकी आवाज़ में आँसूओं की खनक थी।

    अरे रे रे। किसके पास छोड़कर आई हो?

    माँ के पास छोड़ दिया है। दूसरे शहर में रहती हैं। यहां उनकी वजह से ठीक से देख नहीं पाती थी। बच्ची रुल रही थी।

    ऐसा लगा जैसे अजनबी दयार में जहां नफ़सी-नफ़सी का आलम था, एक ग़ैर मुतवक़्क़े हमदर्द की मौजूदगी ने लड़की के ज़ब्त का बांध तोड़ दिया था और उसकी गूँगी ज़बान भी बोल पड़ी थी।

    एक उतनी ही बड़ी बच्ची को मैंने आँख के कैंसर में मुब्तला देखा। दर्द से सर पटक रही थी। उस की माँ हाथ मल मल के रो रही थी।उसके चेहरे पर ऐसी बेबसी थी कि एक नर्स वहीं धुप से उसके पास बैठ गई और ख़ुद भी रोने लगी। बड़ी औरत ने कहा,

    बस कीजिए।यहां अपने दुख काफ़ी हैं रोने के लिए, नौजवान औरत की आवाज़ में दबा दबा ग़ुस्सा था।

    ठीक कह रही हैं। हमें आपको ये सब नहीं सुनाना चाहिए था। बड़ी औरत ने कहा और ख़ामोश हो गई।

    नौजवान लड़की को कुछ अफ़सोस हुआ। आख़िर उसका भी तो कोई कोई बीमार है। उम्र में उससे बड़ी भी है। उससे इस तरह झिड़क कर नहीं बोलना चाहिए था। जो वो बता रही थी इस तरह के नज़्ज़ारे तो आँखों के सामने रोज़ आते रहते हैं। उसने अपनी बदतमीज़ी का कुछ तदारुक करना चाहा। बड़ी नर्मी से पूछा:

    और आप किस लिए आई हैं? कौन बीमार है आपका?

    मेरा ग्यारह साल का बेटा। कीमो चल रही है उसकी।

    ओह! नौजवान लड़की अंदर से हिल गई। एक औरत के लिए औलाद उसके सुहाग से भी बड़ी होजाती है। उसे अपनी बच्ची याद आई जिसे वो माँ के पास छोड़ आई थी कि शौहर की बीमारी की वजह से वो नज़र अंदाज हो रही थी। हमा वक़्त शौहर के साथ लगे रहने और उदास दिल गिरिफ्ता होने के बावजूद एक लम्हे को भी बच्ची ज़ेह्न से ओझल नहीं होती थी।

    आपके पति? उसने बात जारी रखनी चाही।

    बच्चे के साथ हैं। अभी बाहर ले गए हैं। हम लोग सवेरे सात बजे ही आगए थे। मालूम हुआ बारह बजे के बाद नंबर आएगा।

    दोनों के दरमियान एक गहरी ख़ामोशी ने पैर पसार दिए। हाल आवाज़ों से गूँजा किया।

    फिर बड़ी औरत ने ही ख़ामोशी तोड़ी,

    वो हमारी इकलौती औलाद है। बड़ी मिन्नत मुरादों के बाद पैदा हुआ। दवा कर करके हार गए थे। सारे पीर-फ़क़ीर, सुन्नत-औलिया भी मना लिए। बिल्कुल मायूस हो चुके थे तभी अचानक बारह बरस बाद ऊपर वाले ने हमारी गोद भर दी। मगर क्यों? किसलिए? शायद ये जताने के लिए कि उस की मर्ज़ी हो तो उससे ज़िद करके कुछ नहीं माँगना चाहिए। बे-औलाद होने का दुख तो इस दुख से बेहतर था।

    नौजवान औरत फिर अंदर से हिल गई। एक औलाद, वो भी शादी के बारह बरस बाद अल्लाह आमीन का बच्चा।

    बड़ी औरत ख़ामोश नहीं हुई थी। उसकी बात जारी थी,

    हम सख़्त वेजीटेरियन थे। अण्डा तक हमारे घर नहीं आता था। डाक्टर ने कहा, लड़के को प्रोटीन ज़्यादा देने हैं। हमने उसे नॉनवेज खिलाना शुरू किया।एक-आध बार होटल से लाए। लेकिन फिर सोचा डाक्टर ने इन्फेक्शन से ख़बरदार किया है। इसलिए हमने घर ही में बनाना शुरू कर दिया। औलाद के लिए हमने धर्म उठा के ताक़ पर रख दिया। अब हमारे घर के अंदर अण्डा-मुर्ग़ा सब बन रहा है। कुकरी क्लास ज्वाईन करके ये सब बनाना सीखा। तरह तरह की डिशें बनाते हैं। अपने हाथ से थाली परोसते हैं। हाथ से निवाला बना कर मुँह में देते हैं। शौक़ से खाता है। जितने दिन भी उसकी सेवा का सुख पालें। उसकी आवाज़ में अब कोई तास्सुर नहीं था। उसका ग़म शिद्दत की इस इंतिहा को पहुंच गया था जहां सब कुछ शून्य में गुम हो जाता है।

    खरखराती हुई आवाज़ में तभी उसने इशारा करते हुए कहा, वो रहे बाप-बेटा। सवा बारह बज भी रहे हैं। अब नंबर ज़रूर आजाएगा। मेरा बच्चा, मेरा ग़रीब मासूम बच्चा। हर तीन हफ़्ता पर तकलीफ़ उठाता है। डाक्टर कहते हैं फिफ्टी-फिफ्टी चांस है।

    नौजवान औरत ने उस तरफ़ देखा। देखने में ज़रा नहीं लग रहा था कि बच्चा ब्लड कैंसर का मरीज़ है। गोरा, चिट्टा, मज़े के डीलडौल वाला। बस आँखों में ज़र्दी खूंडी हुई थी और सर घुटा हुआ था। कीमोथेरेपी के रद्द-ए-अमल से बाल गिर जाने पर बहुत सी औरतों तक ने सर मुंडवा कर स्कार्फ़ बाँधे हुए थे।

    नौजवान औरत ने गले में कुछ फँसता हुआ महसूस किया और पलकें झपका कर दूसरी तरफ़ देखने लगी।

    उसी वक़्त माइक खड़खड़ाया और गार्ड ने कुछ काग़ज़ात पर नज़र दौड़ाते हुए आवाज़ लगाई, अखील, अक़ील...ओह अकिल...अखील के घर वाले आजाएं।

    बड़ी औरत बे-इख़्तियार उठ खड़ी हुई, जाओ बेटा, तुम्हारा नंबर आगया है।

    नौजवान औरत भी इसी इज़तिरारी कैफ़ियत के तहत उठ गई थी।

    नहीं ये अक़ील के लिए कह रहा है, मेरे शौहर के लिए। वो बेड पर हैं। दवा चढ़ रही है। कुछ चाहिए होगा। पता नहीं क्या हुआ है।

    गार्ड ने इस मर्तबा हकलाहट पर क़ाबू पाकर नाम ज़रा ज़ोर देकर दोहराया...अखिल के साथ वाले आजाऐं...

    नहीं नहीं हमारा नंबर आगया है। बड़ी औरत तेज़ी से चलती हुई बोली।

    अखिल पांडे या अक़ील अहमद...? दोनों ख़वातीन तेज़ तेज़ क़दमों से गार्ड की तरफ़ बढ़ रही थीं।

    ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट आफ़ मेडिकल साइंसेज दिल्ली के बी आर अंबेदकर कैंसर इंस्टिट्यूट के डे केअर सेक्शन में हमा हमी जारी थी।

    स्रोत:

    Aankhan Dekhi (Pg. 25)

    • लेखक: ज़किया मशहदी
      • प्रकाशक: एजुकेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

    GET YOUR PASS
    बोलिए