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ड्रेंच में गिरा हुआ क़लम

अहमद हमेश

ड्रेंच में गिरा हुआ क़लम

अहमद हमेश

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    एक दस्तावेज़ी सियाह-रात की तारीख़ ख़त्म होते ही जब हम सुबह को उठने का इरादा करते हैं तो पेट की रिवायती ख़राबी हमें बिस्तर से एक इंच भी हरकत ना करने पर बेबस कर देती है। इस के बावजूद हमें एक क़लम दियाजाता है कि हम इस से आने वाली रात का वैसा ही मिन-ओ-एन प्रोग्राम लिखें, जो पिछली दस्तावेज़ी सियाह-रात का रहा होगा।

    हमारे पेट में एक तेज़ाबी मरोड़ हुई। जलन के साथ दर्द एक ख़ास हिस्सा में यकायक रुक गया। यानी अगर रुकता ना तो किसी तरह बाहर ज़रूर ख़ारिज हो जाता। दर्द और गाढ़ा हो गया। लेकिन हमें पहली बार इंतिहाई ग़ुस्सा आया। हमने क़लम को मुट्ठी में भेंच लिया।

    हम प्रोग्राम में तबदीली चाहते हैं। हमने सोचा।

    क़लम में कितनी रोशनाई मौजूद है? सवाल किसी मसरूफ़ कोने से उठा और अगली मस्रूफ़ियत के रिहर्सल के लिए तैयार हो गया।

    यानी स्याही अभी मौजूद है, रिहर्सल मुम्किन है।

    हमने मुट्ठी की इबतिदाई गिरिफ़त ग़ुस्सा के रद्द-ए-अमल में बदल ली। क़लम को अंगूठे और इस के साथ की दो उंगलीयों के दरमयान मज़बूती से दबा लिया और ख़ुद से ऐलान किया कि पहले हम तमाम ख़राब पेटों के नाम एक अहम मुसव्वदा तैयार करें गे। स्याह दस्तावेज़ से बिलकुल मुख़्तलिफ़।

    सारा अमल रोशनी में होगा।

    लेकिन अमल का ताल्लुक़ किस से है? कोई भी पूछ सकता है।

    क्या इन ख़ुद-सर महबूबाओं से, जो महिज़ अपने पेट की ख़राबी की बिना पर ही हमारे लिए तंग हुईं हत्ता कि वो मुख़ालिफ़ हुआ, जवान के पेट से निकल कर बाहर खुली हवा में मिलना चाहती होगी, दुबारा उनके दिमाग़ की तरफ़ पलट गई। उन्होंने चेहरे सकोड़ लिए, उनकी आँखों का रंग बदल गया। दरअसल ये सब कुछ हमारे ख़िलाफ़ हुआ। हालाँकि इस से हमारे क़लम में काफ़ी रोशनाई थी। क्यों कि हम अब भी जो कुछ ख़ारिज करते हैं, फैल जाते हैं। हम तवाँ औरतों के पेटों में भी तंग नहीं हुए, जब हम उनमें दरदज़ा थे। वो औरतें जो बेवक़ूफ़ थीं। क्यों कि वो मर चुकी हैं। लेकिन उनके पेटों को हमने नहीं, उनके शौहरों ने ख़राब किया था।

    हम किसी मरी हुई ज़िम्मेदारी को झेलना नहीं चाहते। हमने ये ऐलान बुना माईक्रोफ़ोन के किया था। सो, बुरा ये हुआ कि मुँह से निकली हुई आवाज़ दूर तक ना फैल सकी। जब कि हम कुछ छुपाना भी नहीं चाहते थे, हम कुछ बोल भी ना सके। अपने ही हाथों का बोझ अपने गरदज़दा चेहरे पर रखे, हम इन सवालों का इंतिज़ार करते रहे, जो हमसे किसी वक़्त भी किए जा सकते हैं (मतलब ये कि अभी किए नहीं गए।)

    इस अमल में हम सवालों को तो सन सकते हैं लेकिन सवाल करने वाले चेहरों को नहीं देख सकते। इस के लिए हमें इतना अरसा दरकार होगा जितनी देर में वो चेहरे हमारा ज़मीर बन जाएं।

    गोया हमें ज़मीर का सफ़र याद है। उत्तरप्रदेश के ज़िला बलिया में एक घुन्नी मगर कच्ची सड़क पर हमने जिस गँवार को जो और मटर के सत्तू के साथ इस में तीन गिनी धूल मिला कर खाते देखा। इस का खुर्दरा मेला चेहरा हमसे पूछ सकता था कि हम उस की तरह धूल ख़ौर क्यों नहीं बन जाते।

    हम धूल भी ना खा सके। हमारे पास से बहुत सी चीज़ें और औरतें निकल गईं। हम उन्हें पहचान भी ना सके। वर्ना हमसे वो बीमार गधा बह दरजहा बेहतर था, जिसकी टांगों के बीच में एक बड़ा सा नासूर था और जल्द की स्याही उधड़ उधड़ कर नासूर के बदगोशत के साथ झूलने लगी थी। वो लंगड़ा लंगड़ा के चल रहा था। ऐसे में हमारा ये समझना लाज़िम होगा कि वो अपने आस-पास चरते सेहत मंद गधों की बराबरी नहीं कर सकता। वो अपनी नसल नहीं पैदाकर सकता। लेकिन इस के बरअक्स वो ज़रूरत पड़ने पर सेहत मंद गधों की बनिसबत ज़्यादा ही बहक जाता है। अपनी नसल पैदा करने के लिए दौड़ता है सेहत मंद गधों पर हमला करता है। यहां तक कि इस की छिपी हुई तवानाई जाने कैसे बदगोशत के ढेर से निकलती है और दौड़ के नतीजे से जा मिलती है।

    धूल ख़ार गँवार और बीमार गधा..., ये हमें, हमारी बिसात से कहीं ज़्यादा हैरत में डाल देते हैं वर्ना हम तो मुद्दतों से महिज़ चूहों के मह्कूम हैं और इत्तिफ़ाक़ से ये चूहे बहुत चालाक हैं। क्योंकि उन्होंने बहुत पहले ही हमारी बिसात मालूम करली थी कि हमारा पेट किसी तरह भी भर दिया जाये बशर्तिके हम उनकी पहरेदारी करें।

    सो जुनूबी शहर में हमें चूहों की पहरेदारी मिली। तब चूहों के दम बर्दारों ने कहा चलो रोटी का तो इंतिज़ाम हुआ।

    हमें बताया गया कि फ़ुलां चूहे का फ़ुलां बल है और फ़िलहाल हमें वहीं पहरेदारी करनी है।

    गोया एक चूहा इस मर्तबा पर पहुंच चुका है यूं हम देख रहे हैं कि वो आयर कंडीशंड बिल में बैठा है। इस के हाथों में एक क़ीमती पैंसिल है, जिसे वो कुतर रहा है और इस के पहले से की गई मेंगनियां मेज़ पर पड़े काग़ज़ पर बिखरी हुई हैं।हम उस की मेज़ के पास ही खड़े हैं। जाने वो हमसे कब मुख़ातब हो। इस का बूढ़ा चपरासी उस के हुक्म के साथ ही पानी लाओ पंद्रह मिनट से पिरच में पानी का गिलास लिए खड़ा है। बुढ़ापे की कमज़ोरी से इस का हाथ कपकपा रहा है। लेकिन चूहा इतने इन्हिमाक में मुबतला है कि इस को पंद्रह मिनट से पिरच में पानी का गिलास लिए खड़ा चपरासी नज़र नहीं आता।अगरचे दम बर्दार और हम पास ही खड़े देख रहे हैं कि मबादा बूढ़े के हाथ में गिलास छूट जाये लेकिन सब मस्लिहतन चुप हैं। हसब-ए-आदत साहिब मर्तबा चूहे का पेट ख़राब है।

    हम चाहते हैं कि मुसव्वदा रोशनी में तैयार किया जाए।

    लेकिन पहले तूहम्में ख़ुद बिस्तर से उठना है। ख़ुद हमारे पेट में जो कुछ है उसे कहीं ना कहीं ख़ारिज करना है और हमें जो क़लम दिया गया है उसे पूरे दिन से गुज़रना है। मुम्किन हो, क़लम में रोशनाई मौजूद हो, हमें शाम से पहले ही तमाम ख़राब पेटों से गुज़र जाना है।

    सवालों के इंतिज़ार में हम इस रिवायती ज़मीर से मायूस होचले हैं। जिसकी बिना पर हम मुसव्वदा तर्तीब देने में ख़ुद से आमादा हुए होंगे लेकिन सवाल जब अपने इंतिहाई लाज़िमी करब के बावजूद भी अदा ना हो सके तो अचानक हमें अधूरे रह जाने का एहसास हुआ और इस ना गहानी अधूरे-पन में हमें ये अंदाज़ा ना हुआ कब बिस्तर से उठे। हालाँकि शहर में कुछ दिन से फिर लाखों ख़राब पेटों के पुराने ज़ख़ीरों का मसला सड़कों पर दुहराया जा रहा था।

    ज़ख़ीरे कहाँ हैं?

    गोदामों में जमा हैं।

    तो क्या लाखों लोगों की भीड़ इन ज़ख़ीरों को गोदामों से बाहर निकाल लेगी? मसले का दबाओ बहरहाल हम पर पड़ता है।

    आख़िर कुछ लोग ऐसे भी तो हैं जो पुरानी ख़राब सहसा कर उस के आदी हो गए हैं। बल्कि उनके कूल्हों पर बार-बार दोहराए हुए तजरबों के निशान हैं। वो कई कई दिन तक ख़ाली पेट अपने कूल्हों पर ज़रब झील सकते हैं। उनके चौगिर्द मुतालबों की तख़्तियाँ लगी रहती हैं। वो चलाते हैं कि उन्हें उनकी गुम-शुदा ग़िज़ाओं के ज़ख़ीरे सौंप दीए जाएं। लेकिन मुसीबत ये है कि जो कभी मुतालिबा मंज़ूर नहीं करते वो महिज़ ज़रब लगाते हैं। कानों में आवाज़ें नहीं बल्कि फटे हुए नर्ख़रे सुनाई देते हैं और हम जबरन इसलिए सन लेते हैं कि कल ये भी नहीं सुनाई देंगे। हम कहते हैं कि इस मलिक के लोग सदीयों से महिज़ फुज़ला हैं, उन्हें किसी तरह बहर-ए-हिंद में उठा कर फेंक दिया जाये। मगर कौन फेंकेगा? फिर ये कि हम ख़ुद ट्रैफ़िक से बच बच कर सड़क प्रचल रहे हैं और यूं चलने का एक मतलब ये भी है कि जिस क़दर हम ख़ुद को महफ़ूज़ समझने की ग़लतफ़हमी में हैं इतने ही तनासुब से हम अपनी क़ीमत अदा कर रहे हैं। हम कौन होते हैं लोगों को बहर-ए-हिंद में फूंकवाने वाले?

    निज़ामीया दवा ख़ाना के पास हम रुक जाते हैं। हमें याद आता है कि पिछले साल जब हम इस शहर में नए नए आए थे तवहहुम ने लोगों से दरख़ास्त की कि हमारे पास भी एक क़लम है लिहाज़ा हमें भी पहचाना जाये। हम-ख़ाली हैं, हमें कुछ भर दिया जाये। लोगों ने हमारी दरख़ास्त मंज़ूर की और हमें मज़कूरा दवा ख़ाना के एक वार्ड में दाख़िल करा दिया। और यूं रोटी और रिहायश का मसला हल हुआ तवहहुम ने भी फ़ाज़िल हकीमों और वार्ड के कारकुनों को अच्छी तरह-ए-यक़ीं दिला दिया कि हम कौन हैं?

    एक साल कावरसा कुछ ज़्यादा तो नहीं। दवा ख़ाना के कारकुन तो हमें पहचानते ही होंगे। वहां बरामदा में एक फ्लश है इस से बेहतर और कौन सी जगह हो सकती है जब कि म्यूंसिपल्टी के बैत उल-ख़ला आम तौर पर ख़ाली नहीं होते। फिर वहां ख़ाकरूब सफ़ाई के लिए थोड़े से पानी के इव्ज़ पाँच नए पैसे लेते हैं और इत्तिफ़ाक़ से इतने पैसे भी हमारे पास नहीं (गोया पेट ख़ाली करने के लिए भी पैसे चाहीए।) कम अज़ कम दवाख़ाना के फ्लश के लिए तो हमें पैसे नहीं देने पड़ेंगे। हाँ मुम्किन है, कोई कारकुन अजनबी समझ कर हमें रोके। फिर भी हम बड़े एतिमाद से उसे पुरानी जान पहचान याद दिलाएंगे। हम उसे क़ाइल करेंगे कि हम दरअसल मसाइल से बस कुछ ही देर के लिए भाग कर आए हैं, हमें फिर मसाइल ही में शामिल हो जाना है।

    बरामदा में कोई कारकुन दिखाई नहीं देता। फ्लश का दरवाज़ा पहले से ही खुला है। मालूम होताहै कि हमसे पहले लोगों ने कई बार डरेंज को इस्तिमाल किया है। लोग बड़ी उजलत में होंगे। शायद वो फ्लश की ज़ंजीर खींच कुरोह सब कुछ बहाना भूल गए, जिसे हम चाहें तो बहा सकते हैं।सो, हम ज़ंजीर खींचते हैं मगरफ़लश काम नहीं कर रहा है। टंकी में महिज़ पानी के क़तरों के रुक रुक कर गिरने की आवाज़ सुनाई देती है, जिसका साफ़ मतलब है कि पानी अपनी एक मुक़र्ररा सतह तक नहीं पहुंच रहा है।या बार-बार के इस्तिमाल से पानी बहुत कम रह गया है। इस के बावजूद हम अपने एक जाने-पहचाने आसन के सहारे डरेंज के नशीबी सुराख़ का अहाता करके बैठ जाते हैं।

    हमारी टांगें काँप रही हैं। इस के बावजूद भी हम जल्द से जल्द फ्लश से बाहर निकलना चाहते हैं क्यों कि इस अरसा में ग़ालिबन कई बार दवाख़ाना के कारकुन फ्लश के दरवाज़े को खटखटाते रहे हैं।ज़ाहिर है, उन्हें इख़तियार हासिल है या उन्हें पता लग गया है कि हम बाहर से आकर फ्लश में बग़ैर किसी इत्तिला के दाख़िल हो गए हैं। इसलिए उन्हें इख़तियार है कि पुरानी जान पहचान की पर वाक़िए बग़ैर हमें जबरन बाहर निकाल दें। इस ख़ौफ़ क्वज़रूरत से ज़्यादा महसूस करते हुए हम उजलत में उठते हैं। उठते ही सर चकराने लगता है, टांगें लड़खड़ाती हैं और अचानक जेब से क़लम फिसल कर डरेंज के सुराख़ में गिर जाता है। हम बहुत ज़ोर से चलाते हैं, अफ़सोस हमारा क़लम! आवाज़ हमारे सर में चकरा रही है। मतलब ये कि हम अपने अंदर ही चलाते हैं। आवाज़ फ्लश से बाहर ना जा सकी। यूं भी दरवाज़ा के साथ फ्लश की खिड़कियाँ भी बंद हैं। अब तक तवहहुम इश्तिहारी मर्दुमी के वहम में रहे। लेकिन बाहर मसाइल बहुत तवील हैं। हम उनमें शामिल हूँ तो कैसे हूँ। ये भी मुम्किन नहीं कि हम ख़ुद सुराख़ में हाथ डाल कर किसी तरह क़लम को टटोलें और उसे बाहर निकाल लें यूं हम सुराख़ में आँखें फाड़ फाड़ कर झांक रहे हैं लेकिन क़लम नज़र नहीं आता।

    बिना क़लम के हम फिर ट्रैफ़िक से बेरबत सड़क पर चलने लगते हैं। अगरचे मौसम और शहर के दरमयान एक तरह की तिजारती ख़ुनकी का मुआहिदा सा है। ऐसे में चालाक लोग काफ़ी फ़ायदा उठाते हैं क्यों कि उन्हें दरमियाना या आहिस्ता रफ़्तार से चलने में कोई नुक़्सान नहीं होता। ट्रैफ़िक इसलिए बेरबत है कि शहर का मिज़ाज सनअती नहीं। भीड़ तो महिज़ इतमीनान और तफ़रीह की है। हम देख रहे हैं कि लोग हर हाल में मुतमइन दिखाई देने की कोशिश कर रहे हैं और इतनी कसरत से कि हम शुमार नहीं कर सकते। मुअत्तल ख़ानदानों की औरतें आटो रिक्शों में सवार शहर के पुल से दूसरी तरफ़ जा रही हैं। कुछ ही देर में वो इंतिहाई क़ीमती होजाएंगी, फ़ुलां हाल में साठ साल का एक फ़ुलां बूढ़ा, सामईन और तमाशाइयों के सामने स्टेज परा पुनी अमली सवानिह उमरी दोहरा रहा है। दर्जनों दानिश्वर अदीब और अख़बार नवीस बड़े मज़े से इस को इस वहम में मुबतला कर रहे हैं कि इस की उम्र फिर एक-बार पीछे को घूम गई है। नौजवान औरतें चौंक चौंक कर उसे देख रही हैं और हम जो ख़ून की कमी की बिनापर ये सब कुछ बर्दाश्त नहीं कर सकते, हसद के मारे उसे गालियां देने लगते हैं। मगर हाल में जितने लोग भी मौजूद हैं उनके चेहरों पर फ़ाज़िल रतूबत मल दी गई है। गोया मुल्क में कहीं कोई मसला नहीं है। सभी तफ़रीह में मुबतला हैं। थ्री एसज़ बार के मुक़ाबिल मेन रोड पुर्जो शांता बाई मटरनटी होम है, इस में देसी ज़बान के एक उधेड़ शायर की लड़की के पेट से एक लड़का पैदा हुआ है। इत्तिफ़ाक़ से लड़की के शौहर का बाप भी देसी ज़बान का उधेड़ शायर है। दोनों उधेड़ शायर, मटरनटी होम के गोल बरामदे में बैठे हैं। दोनों बहुत ख़ुश हैं औरउन्हें बधाई देने के लिए शहर के कई देसी ज़बान के उधेड़ बूढ़े शायर वहां जमा हो रहे हैं। ये मंज़र कुछ ऐसा है कि हक़दार हिजड़े अपनी हक़ तलफ़ देखकर वापिस चले गए हैं और हम तो ऐसे नाकारा हैं कि हमें हीजड़ों से भी डर लगता है।

    हालाँकि इस अरसा में हमने डरेंज साफ़ करने वाले गाड़े कपड़े की मिलगुजी वर्दी पहने कई ख़ाकरूबों को राह में रोक रोक कर पूछा कि क्या उनमें से कोई हमारा क़लम डरेंज से निकाल सकता है? लेकिन हर ख़ाकरूब हमें चौंक कर देखता है, बल्कि पागल समझता है। इस के बावजूद जब हम उनसे बार-बार दरख़ास्त करते हैं तो उनमें से कुछ ख़ाकरूब हम पर रहम खा कर हमें अपनी यूनीयन के सैक्रेटरी के पास ले जाते हैं। सैक्रेटरी जो अपने लिबास से किसी सयासी पार्टी कारकुन मालूम होताहै, हमें सर से पांव तक घूरता है, फ़रमाईए?

    ये एक ऐसा अंदाज़ है जो एक तरह की तफ़रीही नागवारी ज़ाहिर करता है। ऐसे में अगर हम इस पर असल वाक़िया वाज़िह कर दें तो वो ज़रूर हमारा मज़ाक़ उड़ाएगा। लिहाज़ा हम फ़ौरन तै करते हैं कि हम इस से आम बातें करें। मगर पता ये चलता है कि वो ख़ुद पहले से तैयार है कि वो भी कोई ख़ास बात नहीं कर सकता। अगर इस हद तक ही हमें ये इलम हो जाएगी कि एक बेरबत आबादी के लाखों पेटों का फुज़ला साफ़ करने वाले भी पेट के मसाइल में मुबतला हैं तो ज़ाहिर है हमारा मक़सद हल नहीं होता। इस तरह तवहहुम में आइन्दा अपने गुम-शुदा क़लम की ख़ाहिश भी नहीं रह जाएगी। कम-अज़-कम इतना फ़र्क़ तौबा की रहना चाहिए कि हम उस की ज़रूरत महसूस करें, उसे तलाश करें।

    सो हम तलाश करते हैं। हालाँकि कई बार हमें, शहर का मिज़ाज बिलकुल सत कर देता है। हमें भुला वादीता है कि हम हिरास शैय से लापरवा हो जाएं जिसका ताल्लुक़ हमसे हो। इस के बावजूद हम मिस्र होते हैं कि असल वाक़िया का ध्यान जब तक बाक़ी है, ताल्लुक़ भी बाक़ी रह सकता है।

    डरेंज सैक्शन का इंचार्ज फ़ैसला देता है। नामुमकिन।

    उसे मालूम है कि वाक़िया रौनुमा हुआ, लेकिन जिसके लिए हुआ, वो डरेंज के इख़तियार में है।

    तो क्या हम उसे हासिल नहीं कर सकते? हमारी मायूसी में तजस्सुस बाक़ी है, डरेंज का इंचार्ज महसूस करता है। फ़ुज़ूल!

    मतलब ये कि अब कुछ बाक़ी नहीं है। इंचार्ज का फ़ैसला बहुत हद तक दरुस्त होगा। क्यों के इतना तो हमें भी मालूम है कि डरेंज लाईन बिलकुल सीधी जाती है यूं जब लोग पेट भरने या पेट ख़राब करने की कोशिश करते हैं तो टेढ़ी तदबीरें करते हैं। हर मोड़ पर मैनहोल बनाते हैं औरउन्हें ढाँप देते हैं। लेकिन डरेंज को आम तौर पर खुला रखते हैं ताकि उनके पेट की ख़राबियां कहीं ना रुकीं। सीधी लाईन में बह जाएं शायद हमारा क़लम भी हमारे पेट की ख़राबी होगा, जो सीधी लाईन में बह गया। शायद मुसव्वदा तर्तीब देते हुए हमने टेढ़ी तदबीरों से काम लिया होगा।

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