aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

बाबू गोपीनाथ

सआदत हसन मंटो

बाबू गोपीनाथ

सआदत हसन मंटो

MORE BYसआदत हसन मंटो

    स्टोरीलाइन

    वेश्याओं और उनके परिवेश को दर्शाने वाली इस कहानी में मंटो ने उन पात्रों के बाहरी और आन्तरिक स्वरूप को उजागर करने की कोशिश की है जिनकी वजह से ये माहौल पनपता है। लेकिन इस अँधेरे में भी मंटो इंसानियत और त्याग की हल्की सी किरन ढूंढ लेता है। बाबू गोपी नाथ एक रईस आदमी है जो ज़ीनत को 'अपने पैरों पर खड़ा करने' के लिए तरह तरह के जतन करता है और आख़िर में जब उसकी शादी हो जाती है तो वो बहुत ख़ुश होता है और एक अभिभावक की भूमिका अदा करता है।

    बाबू गोपीनाथ से मेरी मुलाक़ात सन चालीस में हुई। उन दिनों मैं बंबई का एक हफ़तावार पर्चा एडिट किया करता था। दफ़्तर में अबदुर्रहीम सेनडो एक नाटे क़द के आदमी के साथ दाख़िल हुआ। मैं उस वक़्त लीड लिख रहा था। सेनडो ने अपने मख़सूस अंदाज़ में बाआवाज़-ए-बुलंद मुझे आदाब किया और अपने साथी से मुतआरिफ़ कराया, “मंटो साहब! बाबू गोपीनाथ से मिलिए।”

    मैंने उठ कर उससे हाथ मिलाया। सेनडो ने हस्ब-ए-आदत मेरी तारीफों के पुल बांधने शुरू कर दिए। “बाबू गोपी नाथ तुम हिंदुस्तान के नंबर वन राईटर से हाथ मिला रहे हो। लिखता है तो धड़न तख़्ता हो जाता है लोगों का। ऐसी ऐसी कंटीन्युटली मिलाता है कि तबीयत साफ़ हो जाती है। पिछले दिनों वो क्या चुटकुला लिखा था आपने मंटो साहब? मिस ख़ुर्शीद ने कार ख़रीदी, अल्लाह बड़ा कारसाज़ है। क्यों बाबू गोपीनाथ, है ना ऐन्टी की पैंटी पो?”

    अबदुर्रहीम सेनडो के बातें करने का अंदाज़ा बिल्कुल निराला था। कंटीन्युटली, धड़न तख़्ता और ऐन्टी की पैंटी पो, ऐसे अल्फ़ाज़ उसकी अपनी इख़्तिरा थे जिनको वो गुफ़्तुगू में बेतकल्लुफ़ इस्तेमाल करता था। मेरा तआ'रुफ़ कराने के बाद वो बाबू गोपीनाथ की तरफ़ मुतवज्जा हुआ जो बहुत मरऊब नज़र आता था, “आप हैं बाबू गोपीनाथ, बड़े ख़ानाख़राब। लाहौर से झक मारते-मारते बंबई तशरीफ़ लाए हैं। साथ कश्मीर की एक कबूतरी है।”

    बाबू गोपी नाथ मुस्कुराया।

    अबदुर्रहीम सेनडो ने तआरुफ़ को नाकाफ़ी समझ कर कहा, “नंबर वन बेवक़ूफ़ हो सकता है तो वो आप हैं। लोग इनके मस़्का लगा कर रुपया बटोरते हैं। मैं सिर्फ़ बातें करके इनसे हर रोज़ पोलसन बटर के दो पैकेट वसूल करता हूँ। बस मंटो साहब ये समझ लीजिए कि बड़े एंटी फ्लू जस्टेन क़िस्म के आदमी हैं। आप आज शाम को इनके फ़्लैट पर ज़रूर तशरीफ़ लाईए।”

    बाबू गोपीनाथ ने जो ख़ुदा मालूम क्या सोच रहा था, चौंक कर कहा, “हाँ हाँ, ज़रूर तशरीफ़ लाईए मंटो साहब।” फिर सेनडो से पूछा, “क्यों सेनडो क्या आप कुछ इसका शगल करते हैं?”

    अबदुर्रहीम सेनडो ने ज़ोर से क़हक़हा लगाया, “अजी हर क़िस्म का शगल करते हैं। तो मंटो साहब आज शाम को ज़रूर आईएगा। मैंने भी पीनी शुरू करदी है, इसलिए कि मुफ़्त मिलती है।”

    सेनडो ने मुझे फ़्लैट का पता लिखा दिया जहां मैं हस्ब-ए-वादा शाम को छः बजे के क़रीब पहुंच गया। तीन कमरे का साफ़ सुथरा फ़्लैट था जिसमें बिल्कुल नया फ़र्नीचर सजा हुआ था। सेनडो और बाबू गोपी नाथ के इलावा बैठने वाले कमरे में दो मर्द और दो औरतें मौजूद थीं जिनसे सेनडो ने मुझे मुतआरिफ़ कराया।

    एक था ग़फ़्फ़ार साईं, तहमद पोश। पंजाब का ठेट साईं। गले में मोटे-मोटे दानों की माला। सेनडो ने उसके बारे में कहा, “आप बाबू गोपीनाथ के लीगल एडवाइज़र हैं। मेरा मतलब समझ जाइए। जिस आदमी की नाक बहती हो या जिसके मुँह में से लुआब निकलता हो, पंजाब में ख़ुदा को पहुंचा हुआ दरवेश बन जाता है, ये भी बस पहुंचे हुए हैं या पहुंचने वाले हैं। लाहौर से बाबू गोपीनाथ के साथ आए हैं क्योंकि इन्हें वहां कोई और बेवक़ूफ़ मिलने की उम्मीद नहीं थी। यहां आप बाबू साहब से क्रेवन के सिगरेट और स्काच विस्की के पैग पी कर दुआ करते रहते हैं कि अंजाम नेक हो...”

    ग़फ़्फ़ार साईं ये सुन कर मुस्कुराता रहा।

    दूसरे मर्द का नाम था ग़ुलाम अली। लंबा तड़ंगा जवान, कसरती बदन, मुँह पर चेचक के दाग़। उसके मुतअल्लिक़ सेनडो ने कहा, “ये मेरा शागिर्द है। अपने उस्ताद के नक़श-ए-क़दम पर चल रहा। लाहौर की एक नामी तवाइफ़ की कुंवारी लड़की इस पर आशिक़ होगई। बड़ी बड़ी कंटीन्यूटलियाँ मिलाई गईं उसको फांसने के लिए, मगर उसने कहा डू और डाई, मैं लंगोट का पक्का रहूँगा। एक तकिए में बातचीत पीते हुए बाबू गोपीनाथ से मुलाक़ात होगई। बस उस दिन से इनके साथ चिमटा हुआ है। हर रोज़ क्रेवन का डिब्बा और खाना-पीना मुक़र्रर है।”

    ये सुन कर ग़ुलाम अली भी मुस्कुराता रहा।

    गोल चेहरे वाली एक सुर्ख़-ओ-सफ़ेद औरत थी। कमरे में दाख़िल होते ही मैं समझ गया था कि वही कश्मीर की कबूतरी है जिसके मुतअल्लिक़ सेनडो ने दफ़्तर में ज़िक्र किया था। बहुत साफ़-सुथरी औरत थी, बाल छोटे थे। ऐसा लगता था कटे हुए हैं मगर दर हक़ीक़त ऐसा नहीं था। आँखें शफ़्फ़ाफ़ और चमकीली थीं। चेहरे के ख़ुतूत से साफ़ ज़ाहिर होता था कि बेहद अल्हड़ और नातजुर्बा कार है।

    सेनडो ने उससे तआरुफ़ कराते हुए कहा, “ज़ीनत बेगम। बाबू साहब प्यार से ज़ीनो कहते हैं। एक बड़ी ख़रांट नाइका कश्मीर से ये सेब तोड़ कर लाहौर ले आई। बाबू गोपीनाथ को अपनी सी.आई.डी. से पता चला और एक रात ले उड़े। मुक़द्दमे बाज़ी हुई। तक़रीबन दो महीने तक पुलिस ऐश करती रही। आख़िर बाबू साहब ने मुक़द्दमा जीत लिया और उसे यहां ले आए... धड़न तख़्ता!”

    अब गहरे साँवले रंग की औरत बाक़ी रह गई थी जो ख़ामोश बैठी सिगरेट पी रही थी। आँखें सुर्ख़ थीं जिनसे काफ़ी बेहयाई मुतरश्शेह थी। बाबू गोपीनाथ ने उसकी तरफ़ इशारा किया और सेनडो से कहा, “इसके मुतअल्लिक़ भी कुछ हो जाये।”

    सेनडो ने उस औरत की रान पर हाथ मारा और कहा, “जनाब ये है टेन पटोटी, फ़िल फ़िल फूटी। मिसिज़ अबदुर्रहीम सेनडो उर्फ़ सरदार बेगम... आप भी लाहौर की पैदावार हैं। सन छत्तीस में मुझसे इश्क़ हुआ। दो बरसों ही में मेरा धड़न तख़्ता कर के रख दिया। मैं लाहौर छोड़कर भागा। बाबू गोपीनाथ ने उसे यहां बुलवा लिया है ताकि मेरा दिल लगा रहे। उसको भी एक डिब्बा क्रेवन का राशन में मिलता है, हर रोज़ शाम को ढाई रुपये का मोर्फ़िया का इंजेक्शन लेती है। रंग काला है। मगर वैसे बड़ी टिट फ़ोर टेट क़िस्म की औरत है।”

    सरदार ने एक अदा से सिर्फ़ इतना कहा, “बकवास कर!” इस अदा में पेशावर औरत की बनावट थी।

    सब से मुतआरिफ़ कराने के बाद सेनडो ने हस्ब-ए-आदत मेरी तारीफों के पुल बांधने शुरू करदिए। मैंने कहा, “छोड़ो यार। आओ कुछ बातें करें।”

    सेनडो चिल्लाया, “ब्वॉय... विस्की ऐंड सोडा... बाबू गोपीनाथ लगाओ हवा एक सब्ज़े को।”

    बाबू गोपीनाथ ने जेब में हाथ डाल कर सौ सौ के नोटों का एक पुलिंदा निकाला और एक नोट सेनडो के हवाले कर दिया। सेनडो ने नोट लेकर उसकी तरफ़ ग़ौर से देखा और खड़खड़ा कर कहा, “ओ गॉड... मेरे रब्बुल-आलमीन... वो दिन कब आएगा जब मैं भी लब लगा कर यूं नोट निकाला करूंगा... जाओ भई ग़ुलाम अली, दो बोतलें जानी वॉकर स्टिल गोइंग स्ट्रांग की ले आओ।”

    बोतलें आईं तो सबने पीना शुरू की। ये शग़ल दो-तीन घंटे तक जारी रहा। इस दौरान में सब से ज़्यादा बातें हस्ब-ए-मामूल अबदुर्रहीम ने कीं। पहला गिलास एक ही सांस में ख़त्म करके वो चिल्लाया, “धड़न तख़्ता! मंटो साहब, विस्की हो तो ऐसी। हलक़ से उतर कर पेट में इन्क़िलाब, ज़िंदाबाद लिखती चली गई है... जियो बाबू गोपीनाथ! जियो।”

    बाबू गोपीनाथ बेचारा ख़ामोश रहा। कभी-कभी अलबत्ता वो सेनडो की हाँ में हाँ मिला देता था। मैंने सोचा उस शख़्स की अपनी राय कोई नहीं है। दूसरा जो भी कहे, मान लेता है। ज़ईफ़ुल-ऐतिक़ादी का सबूत ग़फ़्फ़ार साईं मौजूद था जिसे वो बक़ौल सेनडो अपना लीगल एडवाइज़र बना कर लाया था।

    सेनडो का उससे दरअसल ये मतलब था कि बाबू गोपीनाथ को उससे अक़ीदत थी। यूं भी मुझे दौरान-ए-गुफ़्तुगू में मालूम हुआ कि लाहौर में उसका अक्सर वक़्त फ़क़ीरों और दरवेशों की सोहबत में कटता था। ये चीज़ मैंने खासतौर पर नोट की कि वो खोया खोया सा था, जैसे कुछ सोच रहा था। मैंने चुनांचे उससे एक बार कहा, “बाबू गोपीनाथ क्या सोच रहे हैं आप?”

    वो चौंक पड़ा, “जी मैं... मैं... कुछ नहीं।” ये कह कर वो मुस्कुराया और ज़ीनत की तरफ़ एक आशिक़ाना निगाह डाली। “उन हसीनों के मुतअल्लिक़ सोच रहा हूँ... और हमें क्या सोच होगी।”

    सेनडो ने कहा, “बड़े ख़ानाख़राब हैं, ये मंटो साहब। बड़े ख़ानाख़राब हैं... लाहौर की कोई ऐसी तवाइफ़ नहीं जिसके साथ बाबू साहब की कंटीन्युटली रह चुकी हो।”

    बाबू गोपी नाथ ने ये सुन कर बड़े भोंडे इन्किसार के साथ कहा, “अब कमर में वो दम नहीं मंटो साहब।”

    इसके बाद वाहियात गुफ़्तुगू शुरू होगई। लाहौर की तवाइफ़ों के सब घराने गिने गए।

    कौन डेरादार थी, कौन नटनी थी, कौन किसकी नोची थी, नथुनी उतारने का बाबू गोपीनाथ ने क्या दिया था वग़ैरा वग़ैरा। ये गुफ़्तुगू सरदार, सेनडो, ग़फ़्फ़ार साईं और ग़ुलाम अली के दरमियान होती रही, ठेट लाहौर के कोठों की ज़बान में। मतलब तो मैं समझता रहा मगर बा'ज़ इस्तिलाहें समझ में आईं।

    ज़ीनत बिल्कुल ख़ामोश बैठी रही। कभी कभी किसी बात पर मुस्कुरा देती। मगर मुझे ऐसा महसूस हुआ कि उसे इस गुफ़्तुगू से कोई दिलचस्पी नहीं थी। हल्की विस्की का एक गिलास भी नहीं पिया। बग़ैर किसी दिलचस्पी के सिगरेट भी पीती थी तो मालूम होता था उसे तंबाकू और उसके धुंए से कोई रग़बत नहीं लेकिन लुत्फ़ ये है कि सब से ज़्यादा सिगरेट उसी ने पीये।

    बाबू गोपीनाथ से उसे मोहब्बत थी, इसका पता मुझे किसी बात से मिला। इतना अलबत्ता ज़ाहिर था कि बाबू गोपीनाथ को उसका काफ़ी ख़याल था क्योंकि ज़ीनत की आसाइश के लिए हर सामान मुहय्या था। लेकिन एक बात मुझे महसूस हुई कि उन दोनों में कुछ अजीब सा खिंचाव था। मेरा मतलब है वो दोनों एक दूसरे के क़रीब होने के बजाय कुछ हटे हुए से मालूम होते थे।

    आठ बजे के क़रीब सरदार, डाक्टर मजीद के हाँ चली गई क्योंकि उसे मोर्फ़िया का इंजेक्शन लेना था।

    ग़फ़्फ़ार साईं तीन पैग पीने के बाद अपनी तस्बीह उठा कर क़ालीन पर सो गया। ग़ुलाम अली को होटल से खाना लेने के लिए भेज दिया गया। सेनडो ने अपनी दिलचस्प बकवास जब कुछ अर्से के लिए बंद की तो बाबू गोपीनाथ ने जो अब नशे में था, ज़ीनत की तरफ़ वही आशिक़ाना निगाह डाल कर कहा, “मंटो! मेरी ज़ीनत के मुतअल्लिक़ आप का ख़याल क्या है?”

    मैंने सोचा क्या कहूं। ज़ीनत की तरफ़ देखा तो वो झेंप गई। मैंने ऐसे ही कह दिया, “बड़ा नेक ख़याल है।”

    बाबू गोपी नाथ खुश होगया, “मंटो साहब! है भी बड़ी नेक लोग। ख़ुदा की क़सम ज़ेवर का शौक़ है किसी और चीज़ का। मैंने कई बार कहा जान-ए-मन मकान बनवा दूं? जवाब क्या दिया, मालूम है आप को? क्या करूंगी मकान लेकर। मेरा कौन है... मंटो साहब मोटर कितने में आजाएगी।”

    मैंने कहा, “मुझे मालूम नहीं।” बाबू गोपी नाथ ने तअज्जुब से कहा, “क्या बात करते हैं आप मंटो साहब... आपको, और कारों की क़ीमत मालूम हो। कल चलिए मेरे साथ, ज़ीनो के लिए एक मोटर लेंगे। मैंने अब देखा है कि बंबई में मोटर होनी ही चाहिए।” ज़ीनत का चेहरा रद्द-ए-अमल से ख़ाली रहा।

    बाबू गोपी नाथ का नशा थोड़ी देर के बाद बहुत तेज़ होगया। हमातन जज़्बात होकर उसने मुझ से कहा, “मंटो साहब! आप बड़े लायक़ आदमी हैं। मैं तो बिल्कुल गधा हूँ... लेकिन आप मुझे बताईए मैं आपकी क्या ख़िदमत कर सकता हूँ। कल बातों बातों में सेनडो ने आपका ज़िक्र किया। मैंने उसी वक़्त टैक्सी मंगवाई और उससे कहा मुझे ले चलो मंटो साहब के पास। मुझसे कोई गुस्ताख़ी होगई हो तो माफ़ कर दीजिएगा... बहुत गुनाहगार आदमी हूँ... विस्की मंगाऊँ आप के लिए और?”

    मैंने कहा, “नहीं नहीं... बहुत पी चुके हैं।” वो और ज़्यादा जज़्बाती होगया, “और पीजिए मंटो साहब!” ये कह कर जेब से सौ सौ के नोटों का पुलिंदा निकाला और एक नोट जुदा करने लगा। लेकिन मैंने सब नोट उसके हाथ से लिए और वापस उसकी जेब में ठूंस दिए, “सौ रुपये का एक नोट आपने ग़ुलाम अली को दिया था। उसका क्या हुआ?” मुझे दरअसल कुछ हमदर्दी सी हो गई थी बाबू गोपीनाथ से। कितने आदमी उस ग़रीब के साथ जोंक की तरह चिमटे हुए थे। मेरा ख़याल था बाबू गोपीनाथ बिल्कुल गधा है। लेकिन वो मेरा इशारा समझ गया और मुस्कुरा कर कहने लगा, “मंटो साहब! इस नोट में से जो कुछ बाक़ी बचा, वो या तो ग़ुलाम की जेब से गिर पड़ेगा या...”

    बाबू गोपीनाथ ने पूरा जुम्ला भी अदा नहीं किया था कि ग़ुलाम अली ने कमरे में दाख़िल होकर बड़े दुख के साथ ये इत्तिला दी कि होटल में किसी हरामज़ादे ने उसकी जेब से सारे रुपये निकाल लिये। बाबू गोपीनाथ मेरी तरफ़ देख कर मुस्कुराया। फिर सौ रुपये का एक नोट जेब से निकाल कर ग़ुलाम अली को दे कर कहा, “जल्दी खाना ले आओ।”

    पाँच छः मुलाक़ातों के बाद मुझे बाबू गोपीनाथ की सही शख़्सियत का इल्म हुआ। पूरी तरह तो ख़ैर इंसान किसी को भी नहीं जान सकता लेकिन मुझे उसके बहुत से हालात मालूम हुए जो बेहद दिलचस्प थे।

    पहले तो मैं ये कहना चाहता हूँ कि मेरा ये ख़याल कि वो परले दर्जे का चुग़द है, ग़लत साबित हुआ। उसको इस अम्र का पूरा एहसास था कि सेनडो, ग़ुलाम अली और सरदार वग़ैरा जो उसके मुसाहिब बने हुए थे, मतलबी इंसान हैं। वो उनसे झिड़कियां, गालियां सब सुनता था लेकिन गुस्से का इज़हार नहीं करता था।

    उसने मुझसे कहा, “मंटो साहब! मैंने आज तक किसी का मशवरा रद्द नहीं किया। जब भी कोई मुझे राय देता है, मैं कहता हूँ सुब्हान अल्लाह। वो मुझे बेवक़ूफ़ समझते हैं, लेकिन मैं उन्हें अक़लमंद समझता हूँ इसलिए कि उनमें कम अज़ कम इतनी अक़ल तो थी जो मुझ में ऐसी बेवक़ूफ़ी को शनाख़्त कर लिया जिनसे उनका उल्लु सीधा हो सकता है। बात दरअसल ये है कि मैं शुरू से फ़क़ीरों और कंजरों की सोहबत में रहा हूँ।

    “मुझे इनसे कुछ मोहब्बत सी हो गई है। मैं उनके बग़ैर नहीं रह सकता। मैंने सोच रखा है कि जब मेरी दौलत बिल्कुल ख़त्म हो जाएगी तो किसी तकिए में जा बैठूंगा। रंडी का कोठा और पीर का मज़ार बस ये दो जगहें हैं जहां मेरे दिल को सुकून मिलता है। रंडी का कोठा तो छूट जाएगा इसलिए कि जेब ख़ाली होने वाली है लेकिन हिंदुस्तान में हज़ारों पीर हैं। किसी एक के मज़ार में चला जाऊंगा।”

    मैंने उससे पूछा, “रंडी के कोठे और तकिए आपको क्यों पसंद हैं?”

    कुछ देर सोच कर उसने जवाब दिया, “इसलिए कि इन दोनों जगहों पर फ़र्श से लेकर छत तक धोका ही धोका होता है जो आदमी ख़ुद को धोका देना चाहता है उसके लिए इनसे अच्छा मुक़ाम और क्या हो सकता है।”

    मैंने एक और सवाल किया, “आपको तवाइफ़ों का गाना सुनने का शौक़ है, क्या आप मूसीक़ी की समझ रखते हैं।”

    उसने जवाब दिया, “बिल्कुल नहीं और ये अच्छा है क्योंकि मैं कनसुरी से कनसुरी तवाइफ़ के हाँ जा कर भी अपना सर हिला सकता हूँ... मंटो साहब मुझे गाने से कोई दिलचस्पी नहीं लेकिन जेब से दस या सौ रुपये का नोट निकाल कर गाने वाली को दिखाने में बहुत मज़ा आता है। नोट निकाला और उसको दिखाया। वो उसे लेने के लिए एक अदा से उठी। पास आई तो नोट जुराब में उड़स लिया। उसने झुक कर उसे बाहर निकाला तो हम ख़ुश होगए। ऐसी बहुत फ़ुज़ूल फ़ुज़ूल सी बातें हैं जो हम ऐसे तमाशबीनों को पसंद हैं, वर्ना कौन नहीं जानता कि रंडी के कोठे पर माँ-बाप अपनी औलाद से पेशा कराते हैं और मक़बरों और तकियों में इंसान अपने ख़ुदा से।”

    बाबू गोपीनाथ का शज्र-ए-नस्ब तो मैं नहीं जानता लेकिन इतना मालूम हुआ कि वो एक बहुत बड़े कंजूस बनिए का बेटा है। बाप के मरने पर उसे दस लाख रुपये की जायदाद मिली जो उसने अपनी ख़्वाहिश के मुताबिक़ उड़ाना शुरू करदी। बंबई आते वक़्त वो अपने साथ पच्चास हज़ार रुपये लाया था। उस ज़माने में सब चीज़ें सस्ती थीं, लेकिन फिर भी हर रोज़ तक़रीबन सौ सवा सौ रुपये ख़र्च हो जाते हैं।

    ज़ीनो के लिए उसने फ़िएट मोटर ख़रीदी। याद नहीं रहा, लेकिन शायद तीन हज़ार रुपये में आई थी। एक ड्राईवर रखा लेकिन वो भी लफंगे टाइप का। बाबू गोपीनाथ को कुछ ऐसे ही आदमी पसंद थे।

    हमारी मुलाक़ातों का सिलसिला बढ़ गया। बाबू गोपीनाथ से मुझे तो सिर्फ़ दिलचस्पी थी, लेकिन उसे मुझसे कुछ अक़ीदत होगई थी। यही वजह है कि दूसरों की बनिस्बत मेरा बहुत ज़्यादा एहतिराम करता था।

    एक रोज़ शाम के क़रीब जब में फ़्लैट पर गया तो मुझे वहां शफ़ीक़ को देख कर सख़्त हैरानी हुई। मुहम्मद शफ़ीक़ तूसी कहूं तो शायद आप समझ लें कि मेरी मुराद किस आदमी से है। यूं तो शफ़ीक़ काफ़ी मशहूर आदमी है। कुछ अपनी जिद्दत तराज़गायकी के बाइस और कुछ अपनी बज़्लासंज तबीयत की बदौलत। लेकिन उसकी ज़िंदगी का एक हिस्सा अक्सरीयत से पोशीदा है।

    बहुत कम आदमी जानते हैं कि तीन सगी बहनों को यके बाद दीगरे तीन-तीन, चार-चार साल के वक़फ़े के बाद दाश्ता बनाने से पहले उसका तअल्लुक़ उसकी माँ से भी था। ये बहुत कम मशहूर है कि उसको अपनी पहली बीवी जो थोड़े ही अर्से में मर गई थी, इसलिए पसंद नहीं थी कि उसमें तवाइफ़ों के ग़मज़े और अश्वे नहीं थे।

    लेकिन ये तो ख़ैर हर आदमी जो शफ़ीक़ तूसी से थोड़ी बहुत वाक़फ़ियत रखता है, जानता है कि चालीस बरस (ये उस ज़माने की उम्र है) की उम्र में सैंकड़ों तवाइफ़ों ने उसे रखा। अच्छे से अच्छा कपड़ा पहना। उम्दा से उम्दा खाना खाया। नफ़ीस से नफ़ीस मोटर रखी। मगर उसने अपनी गिरह से किसी तवाइफ़ पर एक दमड़ी भी ख़र्च की।

    औरतों के लिए, खासतौर पर जो कि पेशावर हों, उसकी बज़्लासंज तबीयत जिसमें मीरासियों के मज़ाह की एक झलक थी। बहुत ही जाज़िब-ए-नज़र थी वो कोशिश के बग़ैर उनको अपनी तरफ़ खींच लेता था।

    मैंने जब उसे ज़ीनत से हंस-हंस कर बातें करते देखा तो मुझे इसलिए हैरत हुई कि वो ऐसा क्यों कर रहा है, मैंने सिर्फ़ ये सोचा कि वो दफ़अतन यहां पहुंचा कैसे। एक सेनडो उसे जानता था मगर उनकी बोल-चाल तो एक अर्से से बंद थी। लेकिन बाद में मुझे मालूम हुआ कि सेनडो ही उसे लाया था। उन दोनों में सुलह सफ़ाई होगई थी।

    बाबू गोपीनाथ एक तरफ़ बैठा हुक़्क़ा पी रहा था। मैंने शायद इससे पहले ज़िक्र नहीं किया, वो सिगरेट बिल्कुल नहीं पीता था। मोहम्मद शफ़ीक़ तूसी मीरासियों के लतीफे सुना रहा था, जिसमें ज़ीनत किसी क़दर कम और सरदार बहुत ज़्यादा दिलचस्पी ले रही थी। शफ़ीक़ ने मुझे देखा और कहा, “ओ बिस्मिल्लाह, बिस्मिल्लाह। क्या आपका गुज़र भी इस वादी में होता है?”

    सेनडो ने कहा, “तशरीफ़ ले आईए इज़राईल साहब यहां धड़न तख़्ता”, मैं उसका मतलब समझ गया।

    थोड़ी देर गपबाजी होती रही। मैंने नोट किया कि ज़ीनत और मोहम्मद शफ़ीक़ तूसी की निगाहें आपस में टकरा कर कुछ और भी कह रही हैं। ज़ीनत इस फ़न में बिल्कुल कोरी थी लेकिन शफ़ीक़ की महारत ज़ीनत की ख़ामियों को छुपाती रही। सरदार, दोनों की निगाह बाज़ी को कुछ इस अंदाज़ से देख रही थी जैसे ख़लीफ़े अखाड़े से बाहर बैठ कर अपने पट्ठों के दाव पेच को देखते हैं।

    इस दौरान में मैं भी ज़ीनत से काफ़ी बेतकल्लुफ़ होगया था वो मुझे भाई कहती थी जिस पर मुझे एतराज़ नहीं था। अच्छी मिलनसार तबीयत की औरत थी। कमगो, सादा लौह, साफ़ सुथरी।

    शफ़ीक़ से मुझे उसकी निगाह बाज़ी पसंद नहीं आई थी। अव़्वल तो उसमें भोंडापन था। इसके इलावा... कुछ यूं कहिए कि इस बात का भी इसमें दख़ल था कि वो मुझे भाई कहती थी। शफ़ीक़ और सेनडो उठ कर बाहर गए तो मैंने शायद बड़ी बेरहमी के साथ उससे निगाह बाज़ी के मुतअल्लिक़ इस्तिफ़सार किया क्योंकि फ़ौरन उसकी आँखों में ये मोटे मोटे आँसू आगए और रोती रोती वो दूसरे कमरे में चली गई।

    बाबू गोपीनाथ जो एक कोने में बैठा हुक़्क़ा पी रहा था, उठ कर तेज़ी से उसके पीछे गया। सरदार ने आँखों ही आँखों में उससे कुछ कहा लेकिन मैं मतलब समझा। थोड़ी देर के बाद बाबू गोपीनाथ कमरे से बाहर निकला और “आइए मंटो साहब” कह कर मुझे अपने साथ अंदर ले गया।

    ज़ीनत पलंग पर बैठी थी। मैं अंदर दाख़िल हुआ तो वो दोनों हाथों से मुँह ढाँप कर लेट गई। मैं और बाबू गोपीनाथ, दोनों पलंग के पास कुर्सीयों पर बैठ गए। बाबू गोपीनाथ ने बड़ी संजीदगी के साथ कहना शुरू किया, “मंटो साहब! मुझे इस औरत से बहुत मोहब्बत है। दो बरस से ये मेरे पास है, मैं हज़रत ग़ौस-ए-आज़म जीलानी की क़सम खा कर कहता हूँ कि इसने मुझे कभी शिकायत का मौक़ा नहीं दिया।

    इसकी दूसरी बहनें, मेरा मतलब है इस पेशे की दूसरी औरतें दोनों हाथों से मुझे लूट कर खाती रहीं मगर इसने कभी एक ज़ाइद पैसा मुझसे नहीं लिया। मैं अगर किसी दूसरी औरत के हाँ हफ़्तों पड़ा रहा तो इस ग़रीब ने अपना कोई ज़ेवर गिरवी रख कर गुज़ारा किया, मैं जैसा कि आपसे एक दफ़ा कह चुका हूँ बहुत जल्द इस दुनिया से किनाराकश होने वाला हूँ।

    मेरी दौलत अब कुछ दिन की मेहमान है, मैं नहीं चाहता इसकी ज़िंदगी ख़राब हो। मैंने लाहौर में इसको बहुत समझाया कि तुम दूसरी तवाइफ़ों की तरफ़ देखो जो कुछ वो करती हैं, सीखो। मैं आज दौलतमंद हूँ। कल मुझे भिकारी होना ही है। तुम लोगों की ज़िंदगी में सिर्फ़ एक दौलत काफ़ी नहीं। मेरे बाद तुम किसी और को नहीं फांसोगी तो काम नहीं चलेगा। लेकिन मंटो साहब इसने मेरी एक सुनी। सारा दिन शरीफ़ज़ादियों की तरह घर में बैठी रहती।

    मैंने ग़फ़्फ़ार साईं से मशवरा किया। उसने कहा बंबई ले जाओ उसे। मुझे मालूम था कि उसने ऐसा क्यों कहा। बंबई में इसकी दो जानने वाली तवाइफ़ें ऐक्ट्रसें बनी हुई हैं। लेकिन मैंने सोचा बंबई ठीक है दो महीने होगए हैं इसे यहां लाए हुए। सरदार को लाहौर से बुलाया है कि इसको सब गुरु सिखाये, ग़फ़्फ़ार साईं से भी ये बहुत कुछ सीख सकती है। यहां मुझे कोई नहीं जानता। इसको ये ख़याल था कि बाबू तुम्हारी बेइज़्ज़ती होगी। मैंने कहा तुम छोड़ो इसको। बंबई बहुत बड़ा शहर है। लाखों रईस हैं।

    मैंने तुम्हें मोटर ले दी है। कोई अच्छा आदमी तलाश करलो... मंटो साहब! मैं ख़ुदा की क़सम खा कर कहता हूँ मेरी दिली ख़्वाहिश है कि ये अपने पैरों पर खड़ी हो जाये, अच्छी तरह होशियार हो जाये। मैं इसके नाम आज ही बैंक में दस हज़ार रुपया जमा कराने को तैयार हूँ। मगर मुझे मालूम है दस दिन के अंदर अंदर ये बाहर बैठी होगी। सरदार इसकी एक एक पाई अपनी जेब में डाल लेगी... आप भी इसे समझाइए कि चालाक बनने की कोशिश करे।

    जब से मोटर ख़रीदी है, सरदार उसे हर रोज़ शाम को अपोलोबंदर ले जाती है लेकिन अभी तक कामयाबी नहीं हुई। सेनडो आज बड़ी मुश्किलों से मोहम्मद शफ़ीक़ को यहां लाया है। आपका क्या ख़याल है इसके मुतअल्लिक़?”

    मैंने अपना ख़याल ज़ाहिर करना मुनासिब ख़याल किया, लेकिन बाबू गोपीनाथ ने ख़ुद ही कहा, “अच्छा खाता-पीता आदमी मालूम होता है और ख़ूबसूरत भी है... क्यों ज़ीनो जानी... पसंद है तुम्हें?”

    ज़ीनो ख़ामोश रही।

    बाबू गोपीनाथ से जब मुझे ज़ीनत को बंबई लाने की ग़रज़-ओ-ग़ायत मालूम हुई तो मेरा दिमाग़ चकरा गया। मुझे यक़ीन आया कि ऐसा भी हो सकता है। लेकिन बाद में मुशाहिदे ने मेरी हैरत दूर करदी। बाबू गोपी नाथ की दिली आरज़ू थी कि ज़ीनत बंबई में किसी अच्छे मालदार आदमी की दाश्ता बन जाये या ऐसे तरीक़े सीख जाये जिससे वो मुख़्तलिफ़ आदमियों से रुपया वसूल करते रहने में कामयाब हो सके।

    ज़ीनत से अगर सिर्फ़ छुटकारा ही हासिल करना होता तो ये कोई इतनी मुश्किल चीज़ नहीं थी। बाबू गोपीनाथ एक ही दिन में ये काम कर सकता था चूँकि उसकी नीयत नेक थी, इसलिए उसने ज़ीनत के मुस्तक़बिल के लिए हर मुम्किन कोशिश की। उसको ऐक्ट्रस बनाने के लिए उसने कई जाली डायरेक्टरों की दावतें कीं। घर में टेलीफ़ोन लगवाया लेकिन ऊंट किसी करवट बैठा।

    मोहम्मद शफ़ीक़ तूसी तक़रीबन डेढ़ महीना आता रहा। कई रातें भी उसने ज़ीनत के साथ बसर कीं लेकिन वो ऐसा आदमी नहीं था जो किसी औरत का सहारा बन सके। बाबू गोपीनाथ ने एक रोज़ अफ़सोस और रंज के साथ कहा, “शफ़ीक़ साहब तो ख़ाली ख़ाली जैंटलमैन ही निकले। ठस्सा देखिए, बेचारी ज़ीनत से चार चादरें, छः तकिए के ग़लाफ़ और दो सौ रुपये नक़द हथिया कर ले गए। सुना है आजकल एक लड़की अलमास से इश्क़ लड़ा रहे हैं।”

    ये दुरुस्त था। अलमास, नज़ीर जान पटियाले वाली की सबसे छोटी और आख़िरी लड़की थी। इससे पहले तीन बहनें शफ़ीक़ की दाश्ता रह चुकी थीं। दो सौ रुपये जो उसने ज़ीनत से लिये थे मुझे मालूम है अलमास पर ख़र्च हुए थे। बहनों के साथ लड़-झगड़ कर अलमास ने ज़हर खा लिया था।

    मोहम्मद शफ़ीक़ तूसी ने जब आना जाना बंद कर दिया तो ज़ीनत ने कई बार मुझे टेलीफ़ोन किया और कहा उसे ढूंढ कर मेरे पास लाइए। मैंने उसे तलाश किया, लेकिन किसी को उसका पता ही नहीं था कि वो कहाँ रहता है। एक रोज़ इत्तिफ़ाक़िया रेडियो स्टेशन पर मुलाक़ात हुई। सख़्त परेशानी के आलम में था।

    जब मैंने उससे कहा कि “तुम्हें ज़ीनत बुलाती है” तो उसने जवाब दिया, “मुझे ये पैग़ाम और ज़रियों से भी मिल चुका है। अफ़सोस है, आजकल मुझे बिल्कुल फ़ुर्सत नहीं। ज़ीनत बहुत अच्छी औरत है लेकिन अफ़सोस है कि बेहद शरीफ़ है... ऐसी औरतों से जो बीवीयों जैसी लगें मुझे कोई दिलचस्पी नहीं।”

    शफ़ीक़ से मायूसी हुई तो ज़ीनत ने सरदार के साथ अपोलोबंदर जाना शुरू किया। पंद्रह दिनों में बड़ी मुश्किलों से कई गैलन पेट्रोल फूंकने के बाद सरदार ने दो आदमी फांसे। उनसे ज़ीनत को चार सौ रुपये मिले। बाबू गोपीनाथ ने समझा कि हालात उम्मीद अफ़्ज़ा हैं क्योंकि उनमें से एक ने जो रेशमी कपड़ों की मिल का मालिक था, ज़ीनत से कहा था कि मैं तुम से शादी करूंगा। एक महीना गुज़र गया लेकिन ये आदमी फिर ज़ीनत के पास आया।

    एक रोज़ मैं जाने किस काम से हारबनी रोड पर जा रहा था कि मुझे फुटपाथ के पास ज़ीनत की मोटर खड़ी नज़र आई। पिछली नशिस्त पर मोहम्मद यासीन बैठा था, नगीना होटल का मालिक। मैंने उससे पूछा, “ये मोटर तुमने कहाँ से ली?”

    यासीन मुस्कुराया, “तुम जानते हो मोटर वाली को।”

    मैंने कहा, “जानता हूँ।”

    “तो बस समझ लो मेरे पास कैसे आई... अच्छी लड़की है यार!” यासीन ने मुझे आँख मारी। मैं मुस्कुरा दिया।

    उसके चौथे रोज़ बाबू गोपीनाथ टैक्सी पर मेरे दफ़्तर में आया। उससे मुझे मालूम हुआ कि ज़ीनत से यासीन की मुलाक़ात कैसे हुई। एक शाम अपोलोबंदर से एक आदमी लेकर सरदार और ज़ीनत नगीना होटल गईं। वो आदमी तो किसी बात पर झगड़ा कर चला गया लेकिन होटल के मालिक से ज़ीनत की दोस्ती होगई।

    बाबू गोपीनाथ मुतमइन था क्योंकि दस-पंद्रह रोज़ की दोस्ती के दौरान में यासीन ने ज़ीनत को छः बहुत ही उम्दा और क़ीमती साड़ियां ले दी थीं। बाबू गोपीनाथ अब ये सोच रहा था कुछ दिन और गुज़र जाएं, ज़ीनत और यासीन की दोस्ती और मज़बूत हो जाये तो लाहौर वापस चला जाये... मगर ऐसा हुआ।

    नगीना होटल में एक क्रिश्चियन औरत ने कमरा किराए पर लिया। उसकी जवान लड़की मेमोरियल से यासीन की आँख लड़ गई। चुनांचे ज़ीनत बेचारी होटल में बैठी रहती और यासीन उसकी मोटर में सुबह शाम उस लड़की को घुमाता रहा। बाबू गोपीनाथ को इसका इल्म होने पर दुख हुआ। उसने मुझ से कहा, “मंटो साहब ये कैसे लोग हैं। भई दिल उचाट हो गया है तो साफ़ कह दो। लेकिन ज़ीनत भी अजीब है।

    अच्छी तरह मालूम है क्या होरहा है मगर मुँह से इतना भी नहीं कहती, मियां! अगर तुमने उस क्रिश्चियन छोकरी से इश्क़ लड़ाना है तो अपनी मोटर कार का बंदोबस्त करो, मेरी मोटर क्यों इस्तेमाल करते हो। मैं क्या करूं मंटो साहब! बड़ी शरीफ़ और नेक बख़्त औरत है। कुछ समझ में नहीं आता... थोड़ी सी चालाक तो बनना चाहिए।”

    यासीन से ताल्लुक़ क़ता होने पर ज़ीनत ने कोई सदमा महसूस किया।

    बहुत दिनों तक कोई नई बात वक़ूअ पज़ीर हुई। एक दिन टेलीफ़ोन किया तो मालूम हुआ बाबू गोपी नाथ, ग़ुलाम अली और ग़फ़्फ़ार साईं के साथ लाहौर चला गया, रुपये का बंदोबस्त करने, क्योंकि पच्चास हज़ार ख़त्म होगए थे। जाते वक़्त वो ज़ीनत से कह गया था कि उसे लाहौर में ज़्यादा दिन लगेंगे क्योंकि उसे चंद मकान फ़रोख़्त करने पड़ेंगे।

    सरदार को मोर्फिया के टीकों की ज़रूरत थी। सेनडो को पोलसन मक्खन की। चुनांचे दोनों ने मुत्तहदा कोशिश की और हर रोज़ तीन आदमी फांस कर ले आते। ज़ीनत से कहा गया कि बाबू गोपीनाथ वापस नहीं आएगा, इसलिए उसे अपनी फ़िक्र करनी चाहिए। सौ सवा सौ रुपये रोज़ के हो जाते जिनमें से आधे ज़ीनत को मिलते बाक़ी सेनडो और सरदार दबा लेते।

    मैंने एक दिन ज़ीनत से कहा, “ये तुम क्या कर रही हो।”

    उसने बड़े अल्हड़पन से कहा, “मुझे कुछ मालूम नहीं भाई जान। ये लोग जो कुछ कहते हैं मान लेती हूँ।”

    जी चाहा कि बहुत देर पास बैठ कर समझाऊं कि जो कुछ तुम कर रही हो, ठीक नहीं, सेनडो और सरदार अपना उल्लू सीधा करने के लिए तुम्हें बेच भी डालेंगे मगर मैंने कुछ कहा। ज़ीनत उकता देने वाली हद तक बे समझ, बे उमंग और बेजान औरत थी।

    उस कमबख़्त को अपनी ज़िंदगी की क़दर-क़ीमत ही मालूम नहीं थी। जिस्म बेचती मगर उसमें बेचने वालों का कोई अंदाज़ तो होता। वल्लाह मुझे बहुत कोफ़्त होती थी उसे देख कर सिगरेट से, शराब से, खाने से, घर से, टेलीफ़ोन से, हत्ता कि उस सोफे से भी जिस पर वो अक्सर लेटी रहती थी, उसे कोई दिलचस्पी थी।

    बाबू गोपीनाथ पूरे एक महीने के बाद लौटा। वहां गया तो वहां फ़्लैट में कोई और ही था। सेनडो और सरदार के मशवरे से ज़ीनत ने बांद्रा में एक बंगले का बालाई हिस्सा किराए पर ले लिया था। बाबू गोपी नाथ मेरे पास आया तो मैंने उसे पूरा पता बता दिया। उसने मुझसे ज़ीनत के मुतअल्लिक़ पूछा। जो कुछ मुझे मालूम था, मैंने कह दिया लेकिन ये कहा कि सेनडो और सरदार उससे पेशा करा रहे हैं।

    बाबू गोपीनाथ अब कि दस हज़ार रुपया अपने साथ लाया था जो उसने बड़ी मुश्किलों से हासिल किया था। ग़ुलाम अली और ग़फ़्फ़ार साईं को वो लाहौर ही छोड़ आया था, टैक्सी नीचे खड़ी थी। बाबू गोपी नाथ ने इसरार किया मैं भी उसके साथ चलूं।

    तक़रीबन एक घंटे में हम बांद्रा पहुंच गए। पाली हिल पर टैक्सी चढ़ रही थी कि सामने तंग सड़क पर सेनडो दिखाई दिया। बाबू गोपीनाथ ने ज़ोर से पुकारा, “सेनडो!”

    सेनडो ने जब बाबू गोपी नाथ को देखा तो उसके मुँह से सिर्फ़ इतना निकला, “धड़न तख़्ता।”

    बाबू गोपीनाथ ने उससे कहा, “आओ टैक्सी में बैठ जाओ और साथ चलो”, लेकिन सेनडो ने कहा, “टैक्सी एक तरफ़ खड़ी कीजिए, मुझे आप से कुछ प्राईवेट बातें करनी हैं।”

    टैक्सी एक तरफ़ खड़ी की गई। बाबू गोपीनाथ बाहर निकला तो सेनडो उसे कुछ दूर ले गया, देर तक उन में बातें होती रहीं, जब ख़त्म हुईं तो बाबू गोपीनाथ अकेला टैक्सी की तरफ़ आया। ड्राईवर से उसने कहा, “वापस ले चलो!”

    बाबू गोपीनाथ ख़ुश था। हम दादर के पास पहुंचे तो उसने कहा, “मंटो साहब! ज़ीनो की शादी होने वाली है।”

    मैंने हैरत से कहा, “किस से?”

    बाबू गोपीनाथ ने जवाब दिया, “हैदराबाद सिंध का एक दौलतमंद ज़मींदार है। ख़ुदा करे वो ख़ुश रहें। ये भी अच्छा हुआ जो मैं ऐन वक़्त पर पहुंचा। जो रुपये मेरे पास हैं, उनसे ज़ीनो का ज़ेवर बन जाएगा... क्यों, क्या ख़याल है आपका?”

    मेरे दिमाग़ में उस वक़्त कोई ख़याल था। मैं सोच रहा था कि ये हैदराबाद सिंध का दौलतमंद ज़मींदार कौन है, सेनडो और सरदार की कोई जालसाज़ी तो नहीं, लेकिन बाद में उसकी तस्दीक़ होगई कि वो हक़ीक़तन हैदराबाद का मुतमव्विल ज़मींदार है जो हैदराबाद सिंध ही के एक म्यूज़िक टीचर की मार्फ़त ज़ीनत से मुतआरिफ़ हुआ।

    ये म्यूज़िक टीचर ज़ीनत को गाना सिखाने की बेसूद कोशिश किया करता था। एक रोज़ वो अपने मुरब्बी ग़ुलाम हुसैन (ये उस हैदराबाद सिंध के रईस का नाम था) को साथ लेकर आया। ज़ीनत ने ख़ूब ख़ातिर मुदारात की। ग़ुलाम हुसैन की पुरज़ोर फ़र्माइश पर उसने ग़ालिब की ग़ज़ल,

    नुक्ता चीं है ग़म-ए-दिल उस को सुनाए बने

    गाकर सुनाई। ग़ुलाम हुसैन सौ जान से उस पर फ़रेफ़्ता होगया। उसका ज़िक्र म्यूज़िक टीचर ने ज़ीनत से किया। सरदार और सेनडो ने मिल कर मुआमला पक्का कर दिया और शादी तय होगई।

    बाबू गोपीनाथ ख़ुश था। एक दफ़ा सेनडो के दोस्त की हैसियत से वो ज़ीनत के हाँ गया। ग़ुलाम हुसैन से उसकी मुलाक़ात हुई। उससे मिल कर बाबू गोपीनाथ की ख़ुशी दोगुनी होगई। मुझसे उसने कहा, “मंटो साहब! ख़ूबसूरत, नौजवान और बड़ा लायक़ आदमी है। मैंने यहां आते हुए दातागंज बख़्श के हुज़ूर जा कर दुआ मांगी थी जो क़बूल हुई। भगवान करे दोनों ख़ुश रहें!”

    बाबू गोपीनाथ ने बड़े ख़ुलूस और बड़ी तवज्जो से ज़ीनत की शादी का इंतिज़ाम किया। दो हज़ार के ज़ेवर और दो हज़ार के कपड़े बनवा दिए और पाँच हज़ार नक़द दिए। मोहम्मद शफ़ीक़ तूसी, मोहम्मद यासीन प्रोप्राइटर नगीना होटल, सेनडो, म्यूज़िक टीचर, मैं और गोपी नाथ शादी में शामिल थे दुल्हन की तरफ़ से सेनडो वकील थे।

    ईजाब-ओ-क़बूल हुआ तो सेनडो ने आहिस्ते से कहा, “धड़न तख़्ता।”

    ग़ुलाम हुसैन सर्ज का नीला सूट पहने थे। सबने उसको मुबारकबाद दी जो उसने ख़ंदापेशानी से क़बूल की। काफ़ी वजीह आदमी था। बाबू गोपीनाथ उसके मुक़ाबले में उसके सामने छोटी सी बटेर मालूम होता था।

    शादी की दावतों पर ख़ुर्द-ओ-नोश का जो सामान भी होता है, बाबू गोपीनाथ ने मुहय्या किया था। दावत से जब लोग फ़ारिग़ हुए तो बाबू गोपीनाथ ने सब के हाथ धुलवाए। मैं जब हाथ धोने के लिए आया तो उसने मुझसे बच्चों के अंदाज़ से कहा, “मंटो साहब! ज़रा अंदर जाइए और देखिए ज़ीनो दुल्हन के लिबास में कैसी लगती है।”

    मैं पर्दा हटा कर अंदर दाख़िल हुआ। ज़ीनत सुर्ख़ ज़रबफ़्त का शलवार कुर्ता पहने थी... दुपट्टा भी उसी रंग का था जिस पर गोट लगी थी चेहरे पर हल्का हल्का मेकअप था हालाँकि मुझे होंटों पर लिपस्टिक की सुर्ख़ी बहुत बुरी मालूम होती है मगर ज़ीनत के होंट सजे हुए थे। उसने शर्मा कर मुझे आदाब किया तो बहुत प्यारी लगी लेकिन जब मैंने दूसरे कोने में एक मसहरी देखी जिस पर फूल ही फूल थे तो मुझे बेइख़्तयार हंसी आगई। मैंने ज़ीनत से कहा, “ये क्या मस्ख़रापन है।”

    ज़ीनत ने मेरी तरफ़ बिल्कुल मासूम कबूतरी की तरह देखा, “आप मज़ाक़ करते हैं भाई जान!” उसने ये कहा और आँखों में आँसू डबडबा आए।

    मुझे अभी ग़लती का एहसास भी हुआ था कि बाबू गोपीनाथ अंदर दाख़िल हुआ। बड़े प्यार के साथ उसने अपने रूमाल के साथ ज़ीनत के आँसू पोंछे और बड़े दुख के साथ मुझ से कहा, “मंटो साहब! मैं समझा था कि आप बड़े समझदार और लायक़ आदमी हैं... ज़ीनो का मज़ाक़ उड़ाने से पहले आपने कुछ तो सोच लिया होता।”

    बाबू गोपीनाथ के लहजे में वो अक़ीदत जो उसे मुझसे थी, ज़ख़्मी नज़र आई लेकिन पेशतर इसके कि मैं उससे माफ़ी मांगूं, उसने ज़ीनत के सर पर हाथ फेरा और बड़े ख़ुलूस के साथ कहा, “ख़ुदा तुम्हें ख़ुश रखे!”

    ये कह कर बाबू गोपी नाथ ने भीगी हुई आँखों से मेरी तरफ़ देखा। उनमें मलामत थी... बहुत ही दुख भरी मलामत... और चला गया।

    वीडियो
    This video is playing from YouTube

    Videos
    This video is playing from YouTube

    अज्ञात

    अज्ञात

    स्रोत:

    Fasane Manto Ke (Pg. 69)

      • प्रकाशक: किताबी दुनिया, दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 2007

    यह पाठ नीचे दिए गये संग्रह में भी शामिल है

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

    GET YOUR PASS
    बोलिए