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आम

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    स्टोरीलाइन

    यह एक ऐसे बूढ़े मुंशी की कहानी है जो पेंशन के बूते अपने परिवार का पालन पोषण कर रहा है। अपने अच्छे स्वभाव के कारण उसकी अमीर लोगों से जान-पहचान है। लेकिन उन अमीरों में दो लोग ऐसे भी हैं जो उसे बहुत प्रिय हैं। उनके लिए वह हर साल आम के मौसम में अपने परिवार वालों की इच्छाओं का गला घोंट कर आम के टोकरे भिजवाता है। मगर इस बार की गर्मी इतनी भयानक थी कि वह बर्दाश्त न कर सका और उसकी मौत हो गई। उसके मरने की सूचना जब उन दोनों अमीर-ज़ादों को दी गई तो दोनों ने ज़रूरी काम का बहाना करके उसके घर आने से इनकार कर दिया।

    खज़ाने के तमाम कलर्क जानते थे कि मुंशी करीम बख़्श की रसाई बड़े साहब तक भी है। चुनांचे वो सब उसकी इज़्ज़त करते थे। हर महीने पेंशन के काग़ज़ भरने और रुपया लेने के लिए जब वो खज़ाने में आता तो उसका काम इसी वजह से जल्द जल्द कर दिया जाता था। पच्चास रुपये उसको अपनी तीस साला ख़िदमात के ए’वज़ हर महीने सरकार की तरफ़ से मिलते थे।

    हर महीने दस दस के पाँच नोट वो अपने ख़फ़ीफ़ तौर पर काँपते हुए हाथों से पकड़ता और अपने पुराने वज़ा के लंबे कोट की अंदरूनी जेब में रख लेता। चश्मे में ख़ज़ानची की तरफ़ तशक्कुर भरी नज़रों से देखता और ये कह कर “अगर ज़िंदगी हुई तो अगले महीने फिर सलाम करने के लिए हाज़िर हूँगा,” बड़े साहब के कमरे की तरफ़ चला जाता।

    आठ बरस से उसका यही दस्तूर था। खज़ाने के क़रीब क़रीब हर क्लर्क को मालूम था कि मुंशी करीम बख़्श जो मुतालिबात-ए-ख़ुफ़िया की कचहरी में कभी मुहाफ़िज़-ए-दफ़्तर हुआ करता था बेहद वज़ा’दार, शरीफ़ुत्तबा और हलीम आदमी है। मुंशी करीम बख़्श वाक़ई इन सिफ़ात का मालिक था। कचहरी में अपनी तवील मुलाज़मत के दौरान में आफ़सरान-ए-बाला ने हमेशा उसकी तारीफ़ की है। बा’ज़ मुंसिफ़ों को तो मुंशी करीम बख़्श से मोहब्बत हो गई थी। उसके ख़ुलूस का हर शख़्स क़ाइल था।

    इस वक़्त मुंशी करीम बख़्श की उम्र पैंसठ से कुछ ऊपर थी। बुढ़ापे में आदमी उमूमन कमगो और हलीम हो जाता है मगर वो जवानी में भी ऐसी ही तबीयत का मालिक था। दूसरों की ख़िदमत करने का शौक़ इस उम्र में भी वैसे का वैसा ही क़ायम था।

    खज़ाने का बड़ा अफ़सर मुंशी करीम बख़्श के एक मुरब्बी और मेहरबान जज का लड़का था। जज साहब की वफ़ात पर उसे बहुत सदमा हुआ था। अब वो हर महीने उनके लड़के को सलाम करने की ग़रज़ से ज़रूर मिलता था। इससे उसे बहुत तस्कीन होती थी। मुंशी करीम बख़्श उन्हें छोटे जज साहब कहा करता था।

    पेंशन के पच्चास रुपये जेब में डाल कर वह बरामदा तय करता और चिक़ लगे कमरे के पास जा कर अपनी आमद की इत्तिला कराता। छोटे जज साहब उसको ज़्यादा देर तक बाहर खड़ा रखते, फ़ौरन अंदर बुला लेते और सब काम छोड़कर उससे बातें शुरू कर देते।

    “तशरीफ़ रखिए मुंशी साहब... फ़रमाईए मिज़ाज कैसा है?”

    “अल्लाह का लाख लाख शुक्र है, आपकी दुआ से बड़े मज़े में गुज़र रही है। मेरे लायक़ कोई ख़िदमत?”

    “आप मुझे क्यों शर्मिंदा करते हैं। मेरे लायक़ कोई ख़िदमत हो तो फ़रमाईए। ख़िदमतगुज़ारी तो बंदे का काम है।”

    “आपकी बड़ी नवाज़िश है।”

    इस क़िस्म की रस्मी गुफ़्तुगू के बाद मुंशी करीम जज साहब की मेहरबानियों का ज़िक्र छेड़ देता। उन के बलंद किरदार की वज़ाहत बड़े फिदवियाना अंदाज़ में करता और बार बार कहता, “अल्लाह बख़्शे मरहूम फ़िरिश्ता खस्लत इंसान थे। ख़ुदा उनको करवट करवट जन्नत नसीब करे।”

    मुंशी करीम बख़्श के लहजे में ख़ुशामद वग़ैरा की ज़र्रा भर मिलावट नहीं होती थी। वो जो कुछ कहता था, महसूस करके कहता था। उसके मुतअ’ल्लिक़ जज साहब के लड़के को जो अब खज़ाने के बड़े अफ़सर थे, अच्छी तरह मालूम था। यही वजह है कि वो उसको इज़्ज़त के साथ अपने पास बिठाते थे और देर तक इधर उधर की बातें करते रहते थे।

    हर महीने दूसरी बातों के इलावा मुंशी करीम बख़्श के आम के बाग़ों का ज़िक्र भी आता था। मौसम आने पर जज साहब के लड़के की कोठी पर आमों का एक टोकरा पहुंच जाता था। मुंशी करीम बख़्श को ख़ुश करने के लिए वो हर महीने उसको याद-दहानी करा देते थे, “मुंशी साहब, देखें इस मौसम पर आमों का टोकरा भेजना भूलिएगा। पिछली बार आपने जो आम भेजे थे उसमें तो सिर्फ़ दो मेरे हिस्से में आए थे।”

    कभी ये तीन हो जाते थे, कभी चार और कभी सिर्फ़ एक ही रह जाता था।

    मुंशी करीम बख़्श ये सुन कर बहुत ख़ुश होता था। “हुज़ूर ऐसा कभी हो सकता है... जूंही फ़सल तैयार हुई मैं फ़ौरन ही आपकी ख़िदमत में टोकरा लेकर हाज़िर हो जाऊंगा। दो कहिए दो हाज़िर कर दूँ। ये बाग़ किसके हैं... आप ही के तो हैं।”

    कभी कभी छोटे जज साहब पूछ लिया करते थे, “मुंशी जी आपके बाग़ कहाँ हैं?”

    “देनानगर में हुज़ूर, ज़्यादा नहीं हैं सिर्फ़ दो हैं। उसमें से एक तो मैंने अपने छोटे भाई को दे रखा है जो इन दोनों का इंतज़ाम वग़ैरा करता है।”

    मई की पेंशन लेने के लिए मुंशी करीम बख़्श जून की दूसरी तारीख़ को खज़ाने गया। दस दस के पाँच नोट अपने ख़फ़ीफ़ तौर पर काँपते हुए हाथों से कोट की अंदरूनी जेब में रख कर इस ने छोटे जज साहब के कमरा का रुख़ किया।

    हस्ब-ए-मा’मूल उन दोनों में वही रस्मी बातें हुईं। आख़िर में आमों का ज़िक्र भी आया जिस पर मुंशी करीम बख़्श ने कहा, “दीनानगर से चिट्ठी आई है कि अभी आमों के मुँह पर चीप नहीं आया। जूंही चीप आगया और फ़सल पक कर तैयार हो गई मैं फ़ौरन पहला टोकरा लेकर आपकी ख़िदमत में हाज़िर हो जाऊंगा... छोटे जज साहब! इस दफ़ा ऐसे तोहफ़ा आम होंगे कि आपकी तबीयत ख़ुश हो जाएगी। मलाई और शहद के घूँट हुए तो मेरा ज़िम्मा। मैंने लिख दिया है कि छोटे जज साहब के लिए एक टोकरा ख़ासतौर पर भरवा दिया जाये और सवारी गाड़ी से भेजा जाये ताकि जल्दी और एहतियात से पहुंचे। दस-पंद्रह रोज़ आपको और इंतिज़ार करना पड़ेगा।”

    छोटे जज साहब ने शुक्रिया अदा किया। मुंशी करीम बख़्श ने अपनी छतरी उठाई और ख़ुश ख़ुश घर वापस आगया।

    घर में उसकी बीवी और बड़ी लड़की थी। ब्याह के दूसरे साल जिसका ख़ाविंद मर गया था। मुंशी करीम बख़्श की और कोई औलाद नहीं थी मगर उस मुख़्तसर से कुन्बे के बावजूद पच्चास रूपों में उसका गुज़र बहुत ही मुश्किल से होता था। इसी तंगी के बाइ’स उसकी बीवी के तमाम ज़ेवर इन आठ बरसों में आहिस्ता आहिस्ता बिक गए थे।

    मुंशी करीम बख़्श फ़ुज़ूलखर्च नहीं था। उसकी बीवी और वो बड़े किफ़ायत शिआर थे मगर इस किफ़ायत शिआरी के बावस्फ़ तनख़्वाह में से एक पैसा भी उनके पास बचता था। उसकी वजह सिर्फ़ ये थी कि मुंशी करीम बख़्श चंद आदमियों की ख़िदमत करने में बेहद मसर्रत महसूस करता था। उन चंद ख़ासुलख़ास आदमियों की ख़िदमतगुज़ारी में जिनसे उसे दिली अ’क़ीदत थी।

    उन ख़ास आदमियों में से एक तो जज साहब के लड़के थे। दूसरे एक और अफ़सर थे जो रिटायर हो कर अपनी ज़िंदगी का बक़ाया हिस्सा एक बहुत बड़ी कोठी में गुज़ार रहे थे। उनसे मुंशी करीम बख़्श की मुलाक़ात हर रोज़ सुबह सवेरे कंपनी बाग़ में होती थी।

    बाग़ की सैर के दौरान में मुंशी करीम बख़्श उनसे हर रोज़ पिछले दिन की ख़बरें सुनता था। कभी कभी जब वो बीते हुए दिनों के तार छेड़ देता तो डिप्टी सुपरिंटेंडेंट साहब अपनी बहादुरी के क़िस्से सुनाना शुरू कर देते थे कि किस तरह उन्होंने लायलपुर के जंगली इलाक़े में एक ख़ूँख़ार क़ातिल को पिस्तौल, ख़ंजर दिखाए बग़ैर गिरफ़्तार किया और किस तरह उनके रोब से एक डाकू सारा माल छोड़कर भाग गया।

    कभी कभी मुंशी करीम बख़्श के आम के बाग़ों का भी ज़िक्र आजाता था, “मुंशी साहब कहिए, अब की दफ़ा फ़सल कैसी रहेगी।” फिर चलते चलते डिप्टी सुपरिटेंडेंट साहब ये भी कहते, “पिछले साल आप ने जो आम भिजवाए थे बहुत ही अच्छे थे बेहद लज़ीज़ थे।”

    “इंशाअल्लाह, ख़ुदा के हुक्म से अब की दफ़ा भी ऐसे ही आम हाज़िर करूंगा। एक ही बूटे के होंगे। वैसे ही लज़ीज़, बल्कि पहले से कुछ बढ़ चढ़ कर ही होंगे।”

    उस आदमी को भी मुंशी करीम बख़्श हर साल मौसम पर एक टोकरा भेजता था। कोठी में टोकरा नौकरों के हवाले करके जब वो डिप्टी साहब से मिलता और वो उसका शुक्रिया अदा करते तो मुंशी करीम बख़्श निहायत इन्किसारी से काम लेते हुए कहता, “डिप्टी साहब आप क्यों मुझे शर्मिंदा करते हैं... अपने बाग़ हैं। अगर एक टोकरा यहां ले आया तो क्या होगया। बाज़ार से आप एक छोड़ कई टोकरे मंगवा सकते हैं। ये आम चूँकि अपने बाग़ के हैं और बाग़ में सिर्फ़ एक बूटा है जिसके सब दाने घुलावट ख़ुशबू और मिठास में एक जैसे हैं इसलिए ये चंद तोहफ़े के तौर पर ले आया।”

    आम देने के बाद जब वो कोठी से बाहर निकलता तो उसके चेहरे पर तमतमाहट होती थी, एक अ’जीब क़िस्म की रुहानी तस्कीन उसे महसूस होती थी जो कई दिनों तक उसको मसरूर रखती थी।

    मुंशी करीम बख़्श इकहरे जिस्म का आदमी था। बुढ़ापे ने उसके बदन को ढीला कर दिया था। मगर ये ढीलापन बदसूरत मालूम नहीं होता था। उसके पतले पतले हाथों की फूली हुई रगें सर का ख़फ़ीफ़ सा इर्तिआ’श और चेहरे की गहरी लकीरें उसकी मतानत-ओ-संजीदगी में इज़ाफ़ा करती थीं। ऐसा मालूम होता था कि बुढ़ापे ने उसको निखार दिया है। कपड़े भी वो साफ़ सुथरे पहनता था जिससे ये निखार उभर आता था।

    उसके चेहरे का रंग सफेदी माइल ज़र्द था। पतले पतले होंट जो दाँत निकल जाने के बाद अंदर की तरफ़ सिमटे रहते थे, हल्के सुर्ख़ थे, ख़ून की इस कमी के बाइ’स उसके चेहरे पर ऐसी सफ़ाई पैदा होगई थी जो अच्छी तरह मुँह धोने के बाद थोड़ी देर तक क़ायम रहा करती है।

    वो कमज़ोर ज़रूर था, पैंसठ बरस की उम्र में कौन कमज़ोर नहीं हो जाता मगर इस कमज़ोरी के बावजूद उसमें कई कई मील पैदल चलने की हिम्मत थी। ख़ासतौर पर जब आमों का मौसम आता तो वो डिप्टी साहब और छोटे जज साहब को आमों के टोकरे भेजने के लिए इतनी दौड़ धूप करता था कि बीस-पच्चीस बरस के जवान आदमी भी क्या करेंगे।

    बड़े एहतिमाम से टोकरे खोले जाते थे। इन का घास फूस अलग किया जाता था। दाग़ी या गले सड़े दाने अलग किए जाते थे और साफ़ सुथरे आम नए टोकरों में गिन कर डाले जाते थे। मुंशी करीम बख़्श एक बार फिर इत्मिनान करने की ख़ातिर उनको गिन लेता था ताकि बाद में शर्मिंदगी उठानी पड़े।

    आम निकालते और टोकरों में डालते वक़्त मुंशी करीम बख़्श की बहन और उसकी बीवी के मुँह में पानी भर आता। मगर वो दोनों ख़ामोश रहतीं। बड़े बड़े रस भरे ख़ूबसूरत आमों का ढेर देख कर जब उनमें से कोई ये कहे बग़ैर रह सकती, “क्या हर्ज है अगर इस टोकरे में से दो आम निकाल लिये जाएं।” तो मुंशी करीम बख़्श से ये जवाब मिलता, “और आजाऐंगे इतना बेताब होने की क्या ज़रूरत है।”

    ये सुन कर वो दोनों चुप हो जातीं और अपना काम करती रहतीं।

    जब मुंशी करीम बख़्श के घर में आमों के टोकरे आते थे तो गली के सारे आदमियों को उसकी ख़बर लग जाती थी। अब्दुल्लाह नेचा बंद का लड़का जो कबूतर पालने का शौक़ीन था दूसरे रोज़ ही धमकता था और मुंशी करीम बख़्श की बीवी से कहता था, “ख़ाला मैं घास लेने के लिए आया हूँ। कल खालू जान आमों के दो टोकरे लाए थे, उनमें से जितनी घास निकली हो मुझे दे दीजिए।”

    हमसाई नूरां जिसने कई मुर्ग़ियां पाल रखी थीं, उसी रोज़ शाम को मिलने आजाती थी और इधर उधर की बातें करने के बाद कहा करती थी, “पिछले बरस जो तुमने मुझे एक टोकरा दिया था बिल्कुल टूट गया है। अब के भी एक टोकरा देदो तो बड़ी मेहरबानी होगी।”

    दोनों टोकरे और उनकी घास यूं चली जाती।

    हस्ब-ए-मा’मूल इस दफ़ा भी आमों के दो टोकरे आए। गले-सड़ने दाने अलग किए गए जो अच्छे थे उनको मुंशी करीम बख़्श ने अपनी निगरानी में गिनवा कर नए टोकरों में रखवाया। बारह बजे पहले पहल ये काम ख़त्म होगया। चुनांचे दोनों टोकरे ग़ुस्लख़ाने में ठंडी जगह रख दिए गए ताकि आम ख़राब हो जाएं।

    इधर से मुतमइन हो कर दोपहर का खाना खाने के बाद मुंशी करीम बख़्श कमरे में चारपाई पर लेट गया।

    जून के आख़िरी दिन थे। इस क़दर गर्मी थी कि दीवारें तवे की तरह तप रही थीं। वो गर्मियों में आम तौर पर ग़ुस्लख़ाने के अंदर ठंडे फ़र्श पर चटाई बिछा कर लेटा करता था। यहां मोरी के रस्ते ठंडी ठंडी हवा भी आजाती थी लेकिन अब के इसमें दो बड़े बड़े टोकरे पड़े थे। उसको गर्म कमरे ही में जो बिल्कुल तनूर बना हुआ था, छः बजे तक वक़्त गुज़ारना था।

    हर साल गर्मियों के मौसम में जब आमों के ये टोकरे आते उसे एक दिन आग के बिस्तर पर गुज़ारना पड़ता था मगर वो इस तकलीफ़ को ख़ंदापेशानी से बर्दाश्त कर लेता था। क़रीबन पाँच घंटे तक छोटा सा पंखा बार बार पानी में तर करके झलता रहता। इंतहाई कोशिश करता कि नींद आजाए मगर एक पल के लिए भी उसे आराम नसीब होता। जून की गर्मी और ज़िद्दी क़िस्म की मक्खियां किसे सोने देती हैं।

    आमों के टोकरे ग़ुस्लख़ाने में रखवा कर जब वो गर्म कमरे में लेटा तो पंखा झलते झलते एक दम उसका सर चकराया। आँखों के सामने अंधेरा सा छाने लगा। फिर उसे ऐसा महसूस हुआ कि उसका सांस उखड़ रहा है और वो सारे का सारा गहराईयों में उतर रहा है। इस क़िस्म के दौरे उसे कई बार पड़ चुके थे इसलिए कि उसका दिल कमज़ोर था मगर ऐसा ज़बरदस्त दौरा पहले कभी नहीं पड़ा था। सांस लेने में उसको बड़ी दिक़्क़त महसूस होने लगी, सर बहुत ज़ोर से चकराने लगा। घबरा कर उसने आवाज़ दी और अपनी बीवी को बुलाया।

    ये आवाज़ सुन कर उसकी बीवी और बहन दोनों दौड़ी दौड़ी अंदर आईं। दोनों जानती थीं कि उसे इस क़िस्म के दौरे क्यों पड़ते हैं। फ़ौरन ही उसकी बहन ने अब्दुल्लाह नेचा बंद के लड़के को बुलाया और उससे कहा कि डाक्टर को बुला लाए ताकि वो ताक़त की सूई लगा दे। लेकिन चंद मिनटों ही में मुंशी करीम बख़्श की हालत बहुत ज़्यादा बिगड़ गई। उसका दिल डूबने लगा। बेक़रारी इस क़दर बढ़ गई कि वो चारपाई पर मछली की तरह तड़पने लगा। उसकी बीवी और बहन ने ये देख कर शोर बरपा कर दिया। जिसके बाइ’स इस के पास कई आदमी जमा हो गए।

    बहुत कोशिश की गई, उसकी हालत ठीक हो जाये लेकिन कामयाबी नसीब हुई। डाक्टर बुलाने के लिए तीन-चार आदमी दौड़ाए गए थे लेकिन इससे पहले कि उनमें से कोई वापस आए, मुंशी करीम बख़्श ज़िंदगी के आख़िरी सांस लेने लगा। बड़ी मुश्किल से करवट बदल कर उसने अब्दुल्लाह नेचा बंद को जो उसके पास ही बैठा था, अपनी तरफ़ मुतवज्जा किया और डूबती हूई आवाज़ में कहा, “तुम सब लोग बाहर चले जाओ। मैं अपनी बीवी से कुछ कहना चाहता हूँ।”

    सब लोग बाहर चले गए। उसकी बीवी और लड़की दोनों अंदर दाख़िल हुईं, रो-रो कर उनका बुरा हाल हो रहा था। मुंशी करीम बख़्श ने इशारे से अपनी बीवी को पास बुलाया और कहा, “दोनों टोकरे आज शाम ही डिप्टी साहब और छोटे जज साहब की कोठी पर ज़रूर पहुंच जाने चाहिऐं। पड़े पड़े ख़राब हो जाऐंगे।”

    इधर उधर देखकर उसने बड़े धीमे लहजे में कहा, “देखो, तुम्हें मेरी क़सम है, मेरी मौत के बाद भी किसी को आमों का राज़ मालूम हो। किसी से कहना कि ये आम हम बाज़ार से ख़रीद कर लोगों को भेजते थे। कोई पूछे तो यही कहना कि दीनानगर में हमारे बाग़ हैं... बस... और देखो जब मैं मर जाऊं तो छोटे जज साहब और डिप्टी साहब को ज़रूर इत्तिला भेज देना।”

    चंद लम्हात के बाद मुंशी करीम बख़्श मर गया। उसकी मौत से डिप्टी साहब और छोटे साहब को लोगों ने मुत्तला कर दिया। मगर दोनों चंद नागुज़ीर मजबूरियों के बाइ’स जनाज़े में शामिल हो सके।

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    अज्ञात

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    स्रोत:

    افسانےاورڈرامے

      • प्रकाशन वर्ष: 1943

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