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गर्मियों की एक रात

सज्जाद ज़हीर

गर्मियों की एक रात

सज्जाद ज़हीर

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    स्टोरीलाइन

    कहानी में सामाजिक विषमता को बहुत बारीकी से दिखाया गया है। एक ही दफ़्तर में काम करने वाले मुंशी बरकत अली और जुम्मन मियाँ के ज़रिए भारतीय समाज के निम्न मध्यवर्गीय लोगों के अभाव, विवशता, बनावटी ज़िंदगी और दोहरे चरित्र का बहुत मार्मिक ढंग से पेश किया गया है।

    मुंशी बरकत अली इशा की नमाज़ पढ़ कर चहलक़दमी करते हुए अमीनाबाद पार्क तक चले आए। गर्मियों की रात, हवा बंद थी। शर्बत की छोटी छोटी दुकानों के पास लोग खड़े बातें कर रहे थे। लौंडे चीख़ चीख़ कर अख़बार बेच रहे थे, बेले के हार वाले हर भले मानुस के पीछे हार लेकर लपकते। चौराहे पर ताँगा और यक्का वालों की लगातार पुकार जारी थी।

    “चौक! एक सवारी चौक! मियां चौक पहुंचा दूं!”

    “ए हुज़ूर कोई ताँगा वांगा चाहिए?”

    “हार बेले के! गजरे मोतिए के!”

    “क्या मलाई की बर्फ़ है।”

    मुंशी जी ने एक हार ख़रीदा, शर्बत पिया और पान खा कर पार्क के अंदर दाख़िल हुए। बेंचों पर बिलकुल जगह ना थी। लोग नीचे घास पर लेटे हुए थे। चंद बे सुरे गाने के शौक़ीन इधर उधर शोर मचा रहे थे, बा’ज़ आदमी चुप बैठे धोतियां खिसका कर बड़े इत्मीनान से अपनी टांगें और रानें खुजाने में मशग़ूल थे। इसी दौरान में वो मच्छरों पर भी झपट झपटकर हमले करते जाते थे।

    मुंशी जी चूँकि पाएजामा पोश आदमी थे उन्हें इस बदतमीज़ी पर बहुत ग़ुस्सा आया। अपने जी में इन्होंने कहा कि इन कमबख़्तों को कभी तमीज़ ना आएगी, इतने में एक बेंच पर से किसी ने उन्हें पुकारा।

    “मुंशी बरकत अली!”

    मुंशी जी मुड़े।

    “अख़्ख़ाह लाला जी आप हैं, कहिए मिज़ाज तो अच्छे हैं!”

    मुंशी जी जिस दफ़्तर में नौकर थे लाला जी उसके हैडक्लर्क थे। मुंशी जी उनके मातहत थे। लाला जी ने जूते उतार दिए थे और बेंच के बीचो बीच में पैर उठा कर अपना भारी भरकम जिस्म लिए बैठे थे। वो अपनी तोंद पर नरमी से हाथ फेरते जाते और अपने साथियों से जो बेंच के दोनों कोनों पर अदब से बैठे हुए थे चीख़ चीख़ कर बातें कर रहे थे। मुंशी जी को जाते देखकर उन्होंने उन्हें भी पुकार लिया। मुंशी जी लाला साहिब के सामने आकर खड़े हो गए।

    लाला जी हंस के बोले कहो, “मुंशी बरकत अली, ये हार वार ख़रीदे हैं क्या, इरादे क्या हैं?” और ये कह कर ज़ोर से क़हक़हा लगा कर अपने दोनों साथियों की तरफ़ दाद तलब करने को देखा। उन्होंने भी लाला जी का मंशा देखकर हँसना शुरू किया।

    मुंशी जी भी रूखी फीकी हंसी हँसे, “जी इरादे क्या हैं हम तो आप जानिए ग़रीब आदमी ठहरे, गर्मी के मारे दम नहीं लिया जाता, रातों की नींद हराम हो गई, ये हार ले लिया शायद दो-घड़ी आँख लग जाये।”

    लाला जी ने अपने गंजे सर पर हाथ फेरा और हँसे, “शौक़ीन आदमी हो मुंशी, क्यों ना हो!” और ये कह कर फिर अपने साथियों से गुफ़्तगु में मशग़ूल हो गए।

    मुंशी जी ने मौक़ा ग़नीमत जान कर कहा, “अच्छा लाला जी चलते हैं, आदाब अर्ज़ है।” और ये कह कर आगे बढ़े। दिल ही दिल में कहते थे कि दिन-भर की घुस घुस के बाद ये लाला कम्बख़्त सर पड़ा। पूछता है इरादे क्या हैं! हम कोई रईस तालुकदार हैं कहीं के कि रात को बैठ कर मुजरा सुनें और कोठों की सैर करें, जेब में कभी चवन्नी से ज़्यादा हो भी सही, बीवी, बच्चे, साठ रुपया महीना, ऊपर से आदमी का कुछ ठीक नहीं, आज ना जाने क्या था जो एक रुपया मिल गया।

    ये देहाती अहले मुआमला कम्बख़्त रोज़ बरोज़ चालाक होते जाते हैं। घंटों की झक-झक के बाद जेब से टका निकालते हैं। और फिर समझते हैं कि ग़ुलाम ख़रीद लिया, सीधे बात नहीं करते।कमीना नीचे दर्जे के लोग उनका सर फिर गया है।आफ़त हम बेचारे शरीफ़ सफ़ेद पोशों की है। एक तरफ़ तो नीचे दर्जे के लोगों के मिज़ाज नहीं मिलते, दूसरी तरफ़ बड़े साहिब और सरकार की सख़्ती बढ़ती जाती है। अभी दो महीने पहले का ज़िक्र है, बनारस के ज़िला में दो मुहर्रिर बेचारे रिश्वत सतानी के जुर्म में बरख़ास्त कर दिए गए। हमेशा यही होता है ग़रीब बेचारा पिस्ता है,

    बड़े अफ़्सर का बहुत हुआ तो एक जगह से दूसरी जगह तबादला हो गया।

    “मुंशी जी साहिब” किसी ने बाज़ू से पुकारा। जुम्मन चपरासी की आवाज़।

    मुंशी जी ने कहा, “अख़्ख़ाह तुम हो जुम्मन।”

    मगर मुंशी जी चलते रहे रुके नहीं। पार्क से मुड़ कर नज़ीर आबाद में पहुंच गए। जुम्मन साथ साथ हो लिया। दुबले पुतले, पिस्ताक़द, मख़मल की क्षति नुमा टोपी पहने, हार हाथ में लिये, आगे आगे मुंशी जी और उनसे क़दम दो क़दम पीछे साफा बाँधे, चपकन पहने क़वी हैकल, लंबा चौड़ा चपरासी जुम्मन।

    मुंशी जी ने सोचना शुरू किया कि आख़िर इस वक़्त जुम्मन का मेरे साथ साथ चलने में क्या मक़सद है।

    “कहो भई जुम्मन, क्या हाल है। अभी पार्क में हड क्लर्क साहिब से मुलाक़ात हुई थी वो भी गर्मी की शिकायत करते थे।”

    “अजी मुंशी जी क्या अर्ज़ करूँ, एक गर्मी सिर्फ थोड़ी है जो मारे डालती है, साढे़ चार पाँच बजे दफ़्तर से छुट्टी मिली। इस के बाद सीधे वहां से बड़े साहिब के हाँ घर पर हाज़िरी देनी पड़ी। अब जा कर वहां से छुटकारा हुआ तो घर जा रहा हूँ, आप जानिए कि दस बजे सुबह से रात के आठ बजे तक दौड़ धूप रहती है, कचहरी के बाद तीन दफ़ा दौड़ दौड़ कर बाज़ार जाना पड़ा। बर्फ़, तरकारी, फल सब ख़रीद के लाओ और ऊपर से डाँट अलग पड़ती है, आज दामों में टिका ज़्यादा क्यों है और ये फल सड़े क्यों हैं। आज जो आम ख़रीद के लेगया था वो बेगम साहिब को पसंद नहीं आए, वापसी का हुक्म हुवा मैंने कहा हुज़ूर! अब रात को भला ये वापस कैसे होंगे, तो जवाब मिला हम कुछ नहीं जानते कूड़ा थोड़ी ख़रीदना है। सो हुज़ूर ये रुपया के आम गले पड़े, आम वाले के हाँ गया तो एक तू तू मैं मैं करनी पड़ी, रुपया आम बारह आने में वापसी हुए, चवन्नी को चोट पड़ी महीना का ख़त्म, और घर में हुज़ूर कसम ले लीजिए जो सूखी रोटी भी खाने को

    हो। कुछ समझ में नहीं आता क्या करूँ और कौनसा मुँह लेकर जोरू के सामने जाऊं।”

    मुंशी जी घबराए, आख़िर जुम्मन का मंशा इस सारी दास्तान के बयान करने से क्या था। कौन नहीं जानता कि ग़रीब तकलीफ़ उठाते हैं और भूके मरते हैं। मगर मुंशी जी का इस में क्या क़सूर? उनकी ज़िंदगी ख़ुद कौन बहुत आराम से कटती है, मुंशी जी का हाथ बे इरादे अपनी जेब की तरफ़ गया। वो रुपया जो आज उन्हें ऊपर से मिला था सही सलामत जेब में मौजूद था।

    “ठीक कहते हो मियां जुम्मन, आजकल के ज़माने में ग़रीबों की मरन है जिसे देखो यही रोना रोता है, कुछ घर में खाने को नहीं। सच्च पूछो तो सारे आसार बताते हैं कि क़ियामत क़रीब है। दुनिया-भर के जालीए तो चैन से मज़े उड़ाते हैं और जो बेचारे अल्लाह के नेक बंदे हैं उन्हें हर किस्म की मुसीबत और तकलीफ़ बर्दाश्त करनी होती है।”

    जुम्मन चुप-चाप मुंशी जी की बातें सुनता उनके पीछे पीछे चलता रहा।

    मुंशी जी ये सब कहते तो जाते थे मगर उनकी घबराहट भी बढ़ती जाती थी। मालूम नहीं उनकी बातों का जुम्मन पर क्या असर हो रहा था।

    “कल जुमा की नमाज़ के बाद मौलाना साहिब ने आसारे-ए- क़ियामत पर वाज़ फ़रमाया, मियां जुम्मन सच्च कहता हूँ, जिस जिसने सुना उसकी आँखों से आँसू जारी थे। भाई दरअसल ये हम सबकी स्याह कारीयों का नतीजा है, ख़ुदा की तरफ़ से जो कुछ अज़ाब हम पर नाज़िल हो वो कम है।

    कौनसी बुराई है जो हम में नहीं? इस से कम क़सूर पर अल्लाह ने बनीइसराईल पर जो जो मुसीबतें नाज़िल कीं उनका ख़्याल कर के बदन के रौंगटे खड़े हो जाते हैं मगर वो तो तुम जानते ही होगे।”

    जुम्मन बोला, “हम ग़रीब आदमी मुंशी जी, भला ये सब इल्म की बातें क्या जानें क़ियामत के बारे में तो मैंने सुना है मगर हुज़ूर आख़िर ये बनीइसराईल बेचारे कौन थे।”

    इस सवाल को सुनकर मुंशी जी को ज़रा सुकून हुवा। ख़ैर ग़ुर्बत और फ़ाक़े से गुज़र कर अब क़ियामत और बनीइसराईल तक गुफ़्तगु का सिलसिला पहुंच गया था। मुंशी जी ख़ुद काफ़ी तौर पर इस क़बीले की तारीख़ से वाक़िफ़ ना थे मगर इन मज़्मूनों पर घंटों बातें कर सकते थे।

    “ऐं! वाह मियां जुम्मन वाह, तुम अपने को मुसलमान कहते हो और ये नहीं जानते कि बनीइसराईल किस चिड़िया का नाम है। मियां सारा कलाम पाक बनीइसराईल के ज़िक्र से तो भरा पड़ा है। हज़रत-ए- मूसा कलीम-उल-लाह का नाम भी तुमने सुना है?”

    “जी क्या फ़रमाया आपने? कलीम-उल- लाह?”

    “अरे भई हज़रत मूसा। मू... सा।”

    “मूसा... वही तो नहीं जिन पर बिजली गिरी थी?”

    मुंशी जी ज़ोर से ठट्ठा मार कर हँसे। अब उन्हें बिलकुल इत्मीनान हो गया।

    चलते चलते वो कैसरबाग के चौराहे तक भी पहुंचे थे। यहां पर तो ज़रूर ही इस भूके चपरासी का साथ छूटेगा। रात को इत्मीनान से जब कोई खाना खा कर नमाज़ पढ़ कर, दम-भर की दिलबस्तगी के लिए चहलक़दमी को निकले, तो एक ग़रीब भूके इन्सान का साथ साथ हो जाना, जिससे पहले की वाक़फियत भी हो, कोई ख़ुशगवार बात नहीं।

    मगर मिया जी आख़िर करते क्या? जुम्मन को कुत्ते की तरह धुतकार तो सकते ना थे क्यों कि एक तो कचहरी में रोज़ का सामना, दूसरे वो नीचे दर्जे का आदमी ठहरा, क्या ठीक, कोई बदतमीज़ी कर बैठे तो सर-ए-बाज़ार ख़्वाह-मख़ाह को अपनी बनी बनाई इज़्ज़त में बट्टा लगे। बेहतर यही था कि अब इस चौराहे पर पहुंच कर दूसरी राह ली जाये और यूं

    इससे छुटकारा हो।

    “ख़ैर, बनीइसराईल और मूसा का ज़िक्र मैं तुमसे फिर कभी पूरी तरह करूँगा, उस वक़्त तो ज़रा मुझे इधर काम से जाना है... सलाम मियां जुम्मन।”

    ये कह कर मुंशी जी कैसरबाग के सिनेमा की तरफ़ बढ़े। मुंशी जी को यूं तेज़-क़दम जाते देखकर पहले तो जुम्मन एक लम्हा के लिए अपनी जगह पर खड़ा का खड़ा रह गया, उस की समझ में नहीं आता था कि वो आख़िर करे तो क्या करे। उसकी पेशानी पर पसीने के क़तरे चमक रहे थे उसकी आँखें एक बेमानी तौर पर इधर उधर मुंडी। तेज़ बिजली की रोशनी, फव़्वारा, सिनेमा के इश्तिहार, होटल, दूकानें, मोड़, ताँगे, यक्के और सब के ऊपर तारीक आसमान और झिलमिलाते हुए सितारे ग़रज़ ख़ुदा की सारी बस्ती।

    दूसरे लम्हा में जुम्मन मुंशी जी की तरफ़ लपका। वो अब खड़े सिनेमा के इश्तिहार देख रहे थे और बेहद ख़ुश थे कि जुम्मन से जान छूटी।

    जुम्मन ने उनके क़रीब पहुंच कर कहा, “मुंशी जी!”

    मुंशी जी का कलेजा धक से हो गया। सारी मज़हबी गुफ़्तगु, सारी क़ियामत की बातें, सब बेकार गईं। मुंशी जी ने जुम्मन को कुछ जवाब नहीं दिया।

    जुम्मन ने कहा, “मुंशी जी अगर आप इस वक़्त मुझे एक रुपया क़र्ज़ दे सकते हों तो मैं हमेशा...”

    मुंशी जी मुड़े, “मियां जुम्मन मैं जानता हूँ कि तुम इस वक़्त तंगी में हो मगर तुम तो ख़ुद जानते हो कि मेरा अपना क्या हाल है। रुपया तो रुपया एक पैसा तक मैं तुम्हें नहीं दे सकता, अगर मेरे पास होता तो भला तुमसे छुपाना थोड़ा ही था, तुम्हारे कहने की भी ज़रूरत ना होती पहले ही जो कुछ होता तुम्हें दे देता।”

    बावजूद इस के जुम्मन ने इसरार शुरू किया, “मुंशी जी! कसम ले लीजिए में ज़रूर आपको तनख़्वाह मिलते ही वापस कर दूँगा, सच्च कहता हूँ हुज़ूर इसवक़्त कोई मेरी मदद करने वाला नहीं...” 

    मुंशी जी इस झक-झक से बहुत घबराते थे। इनकार चाहे वो सच्चा ही क्यों ना हो तकलीफ़-दह होता है। इसी जा से तो वो शुरू से चाहते थे कि यहां तक नौबत ही ना आए।

    इतने में सिनेमा ख़त्म हुआ और तमाशाई अंदर से निकले।

    “अरे मियां बरकत, भई तुम कहाँ?” किसी ने पहलू से पुकारा।

    मुंशी जी जुम्मन की तरफ़ से उधर मुड़े। एक साहिब मोटे ताज़े, तीस पैंतीस बरस के। अंगरखा और दो पल्ली टोपी पहने, पान खाए, सिगरेट पीते हुए मुंशी जी के सामने खड़े थे।

    मुंशी जी ने कहा, “अख़ाह तुम हो! बरसों के बाद मुलाक़ात हुई, तुमने लखनऊ तो छोड़ ही दिया? मगर भाई क्या मालूम आते भी होगे तो हम-ग़रीबों से क्यों मिलने लगे!”

    ये मुंशी जी के पुराने कॉलेज के साथी थे। रुपये, पैसे वाले रईस आदमी, वो बोले,

    “ख़ैर ये सब बातें तो छोड़ो, मैं दो दिन के लिए यहां आया हूँ, ज़रा लखनऊ में तफ़रीह के लिए चलो, इस वक़्त मेरे साथ चलो तुम्हें वो मुजरा सुनवाऊँ कि उम्र-भर याद करो, मेरी मोटर मौजूद है, अब ज़्यादा मत सोचो, बस चले चलो, सुना है तुमने कभी नूर जहां का गाना...? अबा हाहा क्या गाती है, क्या बताती है, क्या नाचती है, वो अदा, वो फबन, उसकी कमर की लचक, उसके पांव के घुंघरू की झनकार! मेरे मकान पर, खुले सेहन में, तारों की छाओं में, महफ़िल होगी। भैरवी सुनकर जलसा बर्ख़ास्त होगा।

    बस अब ज़्यादा ना सोचो, चले ही चलो। कल इतवार है... बीवी!

    बेगम साहिबा की जूतियों का डर है, अगर ऐसा ही औरत की गु़लामी करना थी तो शादी क्यों की? चलो भी मियां! लुत्फ़ रहेगा, रूठी बेगम को मनाने में भी तो मज़ा है...”

    पुराना दोस्त, मोटर की सवारी, गाना नाच, जन्नत-ए- निगाह, फ़िरदौस-ए-गोश मुंशी जी लपक कर मोटर में सवार हो लिये। जुम्मन की तरफ़ उनका ख़्याल भी ना गया। जब मोटर चलने लगी तो उन्होंने देखा कि वो वहां इसी तरह चुप खड़ा है।

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