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ग़ालीचा

कृष्ण चंदर

ग़ालीचा

कृष्ण चंदर

MORE BYकृष्ण चंदर

    स्टोरीलाइन

    "यह तकनीक के प्रयोग के रूप में लिखी गई कहानी है। कई दृश्यों को जमा करके एक ग़ालीचा को साकार मान कर कहानी बुनी गई है। रूपवती अतिसुंदर, इटली की एक शिक्षित औरत है जो एक स्थानीय कॉलेज में प्रिंसिपल है। आर्टिस्ट की मुलाक़ात ग़ालीचा ख़रीदते वक़्त होती है और आर्टिस्ट उसके हुस्न से घायल हो जाता है, लेकिन रूपवती पहले तो इटली के शायर जो से अपनी मुहब्बत का इज़हार करती है जो तपेदिक़ में मुब्तला हो कर मर गया था और बाद में आर्टिस्ट के दोस्त मजहूल किस्म के शायर से मुहब्बत का इन्किशाफ़ करती है और उससे शादी करके दूसरे शहर चली जाती है। ग़ालीचा विभिन्न घटनाओं व दृश्यों का गवाह रहता है, इसीलिए आर्टिस्ट अक्सर उससे सवाल-जवाब करता है। आर्टिस्ट दूसरी लड़कियों में यदाकदा दिलचस्पी लेता है लेकिन रूपवती उसके हवास पर छाई रहती है। एक दिन स्टेशन पर उसे रूपवती मिल जाती है और उसे पता चलता है कि रूपवती तपेदिक़ में मुब्तला है, उसके शायर शौहर ने उसे छोड़ दिया है।"

    अब तो ये ग़ालीचा पुराना हो चुका, लेकिन आज से दो साल पहले जब मैंने इसे हज़रत गंज में एक दुकान से ख़रीदा था, उस वक़्त ये ग़ालीचा बिल्कुल मा’सूम था, इसकी जल्द मा’सूम थी। इसकी मुस्कुराहट मा’सूम थी, इसका हर रंग मा’सूम था। अब नहीं, दो साल पहले, अब तो इसमें ज़हर घुल गया है, इसका एक-एक तार मस्मूम और मुतअ’फ़्फ़िन हो चुका है, रंग मांद पड़ गया है, तबस्सुम में आँसुओं की झलक है और जिल्द में किसी आतिश-ज़दा मरीज़ की तरह जा-ब-जा गड्ढ़े पड़ गए हैं। पहले ये ग़ालीचा मा’सूम था। अब क़ुनूती है, ज़हरीली हँसी हँसता है और इस तरह सांस लेता है जैसे कायनात का सारा कूड़ा-कर्कट इसने अपने सीने में छिपा लिया हो।

    इस ग़ालीचे का क़द नौ फ़ुट है, चौड़ाई में पाँच फ़ुट, बस जितनी एक औसत दर्जे के पलंग की चौड़ाई होती है, किनारा चौकोर बादामी है, और डेढ़ इंच तक गहरा है, इसके बा’द अस्ल ग़ालीचा शुरू’ होता है और गहरे सुर्ख़-रंग से शुरू’ होता है, ये रंग ग़ालीचे की पूरी चौड़ाई में फैला हुआ है और दो फ़ुट की लंबाई में है गोया 5x2 फ़ुट की मुस्ततील है, सुर्ख़-रंग की इक झील बन गई है, लेकिन इस झील में भी सुर्ख़-रंग की झलकियाँ कई रंगों के तमाशे दिखाती हैं, गहरा सुर्ख़, हल्का सुर्ख़, गुलाबी, हल्का क़िर्मिज़ी और सुर्ख़ जैसे गंदा ख़ून होता है। लेटते वक़्त ग़ालीचे के इस हिस्से पर मैं हमेशा अपना सर रखता हूँ और मुझे हर बार ये एहसास होता है कि मेरे सर में जोंकें लगी हैं। और मेरा गंदा ख़ून चूस रही हैं।

    फिर उस ख़ूनी मुस्ततील के नीचे पाँच और मुस्ततीलें हैं, जिनके अलग-अलग रंग हैं, ये मुस्ततीलें ग़ालीचे की पूरी चौड़ाई में फैली हुई हैं, इस तरह कि आख़िरी मुस्ततील पर ग़ालीचे की लंबाई भी ख़त्म हो जाती है और दरी की कोर शुरू’ होती है... ख़ूनी मुस्ततील के बिल्कुल नीचे तीन छोटी-छोटी मुस्ततीलें हैं, पहली सपेद और सियाह-रंग की शतरंजी है। दूसरी सपेद और नीले रंग की, तीसरी ब्लू ब्लैक और ख़ाकी रंग की। ये शतरंजियाँ दूर से बिल्कुल चेचक के दाग़ों की तरह दिखाई देती हैं और क़रीब से देखने पर भी उनके हुस्न में ज़ियादा इज़ाफ़ा नहीं होता। बल्कि नीलाम-शुदा पुराने गर्म कोटों की जिल्द की तरह मैली-मैली और बदनुमा नज़र आती हैं। पहली मुस्ततील अगर ख़ून की झील है तो ये तीन छोटी-छोटी मुस्ततीलें मजमूई’ तौर पर पीप की झील का तअस्सुर पैदा करती हैं। उनके सपेद, काले, पीले, ब्लू ब्लैक रंग पीप की झील में गड-मड होते नज़र आते हैं, इस झील में मेरे शाने, मेरा दिल और मेरे फेफड़े, पसलियों के बक्स में धरे रहते हैं।

    चौथी मुस्ततील का रंग पीला है, और पाँचवें का सब्ज़ है, लेकिन ऐसा सब्ज़ जैसा गहरे समंदर का होता है। ऐसा सब्ज़ नहीं जिस तरह मौसम-ए-बिहार का होता है। ये एक ख़तरनाक रंग है, इसे देखकर शार्क मछलियों की याद ताज़ा होती है और डूबते हुए जहाज़-रानों की चीख़ें सुनाई देती हैं और उछलती हुई तूफ़ानी, वेव हैकल लहरों की गूंज और गरज रा’शा पैदा करती है, और ये पीला, मटियाला रंग तो मनहूस हुई, ये रंग ज़ाफ़रान की तरह, बसंत की तरह पीला नहीं, ये रंग मिट्टी की तरह पीला है, तपेदिक़ के मरीज़ की तरह पीला है। पीले गुनाह की तरह ज़र्द है, इक ऐसा ज़र्द रंग जिसमें शायद इक हल्का सा एहसास-ए-नदामत भी शामिल है। मुझे तो ऐसा मा’लूम होता है, जैसे ये मुस्ततील बार-बार कह रही हो। मैं क्यों हूँ, मैं क्यों हूँ...

    जहाँ मैं अपना सर रखता हूँ, उसके दाएँ कोने में नीले और पीले रंग के दस ख़ुतूत-ए-वहदानी बने हुए हैं और जहाँ मैं अपने पाँव पसार के सोता हूँ, वहाँ ग्यारह ख़ुतूत-ए-वहदानी हैं, ये पीले और फ़ीरोज़ी रंग के हैं, ग़ालीचे के वस्त में छः ख़ुतूत-ए-वहदानी सुर्ख़-ओ-सपेद रंग में हैं और उनके बीच में एक गहरा सियाह नुक़्ता है। जब मैं ग़ालीचे पर लेट जाता हूँ तो मुझे ऐसा मा’लूम होता है कि गोया सर से पाँव तक किसी ने मुझे इन ख़ुतूत वहदानी के हल्क़ों में जकड़ लिया है। मुझे सलीब पर लटका कर मेरे दिल में इक गहरे सियाह-रंग की मेख़ ठोंक दी है, चारों तरफ़ गंदा ख़ून है, पीप है, और सब्ज़-रंग का समंदर है। जो शार्क मछलियों और समुंदरी हज़ार-पायों से मा’मूर है।

    शायद मसीह को भी सलीब पर इतनी ईज़ा पहुँची होगी, जितनी मुझे इस ग़ालीचे पर लेटते वक़्त हासिल होती है, लेकिन ईज़ा-परस्ती तो इंसान का शेवा है, इसीलिए तो ये ग़ालीचा मैं अपने आपसे जुदा नहीं कर सकता। इसकी मौजूदगी में मुझे कोई और ग़ालीचा ख़रीदने की जुरअत होती है, मेरे पास यही एक ग़ालीचा है, और मेरा ख़याल है कि मरते दम तक यही एक ग़ालीचा रहेगा। इस ग़ालीचे को दर-अस्ल एक ख़ातून ख़रीदना चाहती थी, हज़रतगंज में एक दुकान के अंदर वो इसे खुलवा कर देख रही थी कि मेरी निगाहों ने इसे पसंद कर लिया और वो ख़ातून कुछ फ़ैसला कर सकी और इसे वहीं छोड़कर अपने ब्लाउज़ के लिए रेशमी कपड़े देखने लगी।

    मैंने मैनेजर से कहा, “ये ग़ालीचा मैं ख़रीदना चाहता हूँ।”

    वो ख़ातून की तरफ़ इशारा करते हुए बोला, “मिस रूपवती... शायद... इसे पसंद कर चुकी हैं। शायद... ठहरिए। मैं उनसे पूछता हूँ।”

    रूपवती बोली, “ग़ालीचा... बुरा नहीं!

    “बुरा नहीं? क्या मतलब है आपका।”, मैंने भड़क कर कहा, “ऐसा ग़ालीचा दुनिया में और कहीं नहीं होगा। दांते के तख़य्युल ने भी ऐसा जहन्नुमी नक़्शा तैयार किया होगा, ये ग़ालीचा हस्पताल की गंदी बाल्टी की तरह हसीन है। अमराज़-ए-ख़बीसा की तरह रूह-परवर है, ये आग और पीप का दरिया-ए-हातिमताई के सफ़र की याद दिलाता है, क़दीम इतालवी राहिब मुसव्विरों के शाहकारों की याद ताज़ा करता है, ये ग़ालीचा नहीं है तारीख़ है इंसान की, इंसान की रूह की!”

    वो मुस्कुराई, दाँत बेहद सपेद थे, लेकिन ज़रा टेढ़े-मेढ़े और एक दूसरे से बहुत क़रीब, फिर भी वो मुस्कुराहट अच्छी तरह मा’लूम हुई, कहने लगी, “क्या आप कभी इटली गए हैं?”

    मैंने कहा, “इटली कहाँ मैं तो कभी हज़रतगंज के उस पार नहीं गया, उ’म्र गुज़री है इसी वीराने में, ये पान की दुकान और सामने वो काफ़ी हाऊस।”

    मैनेजर ने अब तआ’रुफ़ कराना मुनासिब समझा। बोला, “आप आर्टिस्ट हैं। काग़ज़ पर तस्वीर खींचते हैं, ये मिस रूपवती हैं। यहाँ लड़कियों के कॉलेज में प्रिंसिपल हो कर आई हैं। अभी-अभी इंगलैंड से ता’लीम हासिल कर के यहाँ...”

    वो बोली, “चलिए तो ये ग़ालीचा आप ही लीजिए। मुझे तो ख़ास पसंद नहीं।”

    “आपका बड़ा एहसान है।”, मैंने ग़ालीचे की क़ीमत अदा करते हुए कहा, “क्या आप मेरे साथ... काफ़ी पीना गवारा करेंगी, चलिए ज़रा काफ़ी हाऊस तक, अगर ना-गवार-ए-ख़ातिर या’नी...”

    “शुक्रिया। मगर मैं ज़रा ये बलाउज़ देख लूँ।”, वो फिर मुस्कुराई। मुस्कुराहट भली मा’लूम हुई। ज़हीन बैज़वी चेहरे का रंग ज़र्द था। संदली रंग पर लबों की हल्की सी सुर्ख़ी इक अ’जब रसीला तमव्वुज सा पैदा कर रही थी। बलाउज़ का कपड़ा ख़रीद कर जब वो मेरे साथ चलने लगी तो लड़खड़ा गई। मैंने बाँह से पकड़ कर सहारा दिया और पूछा, “क्या बात है। क्या आप हमेशा लड़खड़ा कर चलती हैं।”

    वो बोली, “नहीं तो...”

    मैंने ग़ौर से देखा, पाँव पर पट्टी बंधी हुई थी।

    “ज़ख़्म है?”, मैंने पूछा।

    “हाँ। अंगूठे का नाख़ुन बढ़ गया था, जिल्द के अंदर... जहाज़ का सर्जन बिल्कुल गधा था।”

    उसने माथे पर साड़ी का पल्लू सरकाया और जब वो पहली बार मुड़ी तो मैंने उसके बालों में गर्दन के क़रीब दाईं तरफ़ गुलाब के ज़र्द फूल टके हुए देखे, फिर जब वो मुड़ी तो माथे का क़ुमक़ुम दरख़्शाँ नज़र आया। इससे पहले क्यों ये क़ुमक़ुम इस क़दर ख़ूबसूरत था? काफ़ी हाऊस में बैठ कर मा’लूम हुआ कि वो ख़ूबसूरत थी, कुछ तो काफ़ी हाऊस में रोशनी का इंतिज़ाम ऐसा है कि मर्द बदसूरत नज़र आते हैं, औ’रतें हसीन-तर, फिर... हाँ... कुछ तो था, वर्ना ये लोग बार-बार मुड़ कर क्यों देखते थे, औ’रतें तेज़ निगाह से क्यों घूरती थीं, बैरे इतनी जल्दी मेज़ पर क्यों थे।

    वो मुस्कुरा कर कहने लगी, “देखो बैरा, थोड़ा सा गर्म दूध और गर्म पानी एक अलग प्याले में।”

    “गर्म पानी तो...”, बैरे ने रुक कर कहा।

    “थोड़ा सा गर्म पानी। बस!”, वो फिर मुस्कुराई और बैरा सर से लेकर पाँव तक पिघल गया। जैसे उसका सारा जिस्म शीशे का बना हो, मैं उसे पिघलते हुए देख रहा था, उसके होंटों पर मुस्कुराहट आई और उसके सारे जिस्म को पिघलाती हुई चली गई। ये निगाह क्या है? ये तजल्ली कैसी है? क्या ये काफ़ी हाऊस की बिजलियों का शो’बदा तो नहीं!

    “और बैरा... अंडे के सैंडविच।”, वो फिर बोली। बैरे ने वापिस कर कहा, “जी अंडे के सैंडविच तो ख़त्म हो गए।”

    “थोड़े से भी नहीं हैं?”

    उसकी बड़ी-बड़ी मा’सूम ज़ख़्मी सी आँखें और भी खुलती हुई मा’लूम हुईं, “बस दो-चार एक प्लेट भी नहीं?”

    सैंडविच भी मिल गए।

    “नहीं बिल मैं अदा करूँगी!”

    “नहीं ये कैसे हो सकता है। मैं मर्द हूँ।”

    वो हँसी, “बहुत पुरानी बात है।”

    और उसने बिल अदा कर दिया।

    घर पर नौकर को ग़ालीचा पसंद आया, उन दिनों एक तुनुक-मिज़ाज शाइ’र मेहमान था और जो आज़ाद बहर में नज़्में लिखा करता था। शराब पीता था और पाँच वक़्त-ए-नमाज़ अदा करता था, उसे भी ये ग़ालीचा पसंद आया। मैंने पूछा तो “हूँ” कर के रह गया, वो नज़्में जितनी लंबी लिखता था, बातें उसी निस्बत से कम करता था।

    “हूँ का क्या मतलब है।”, मैंने चिड़ कर कहा, “कुछ तो कहो। इन रंगों का तनासुब।”

    “हूँ।”

    रूप उसे बड़े ग़ौर से देख रही थी, अब खिलखिला कर हँस पड़ी, उस सडे-बसे शाइ’र से कहने लगी, अपनी ताज़ा नज़्म सुनाओ... तुम्हें मा’लूम है आजकल स्पेंडर और रोडन इग़्लामियत के हक़ में नज़्में लिख रहे हैं।”

    “हूँ।”, वो अपनी दाढ़ी पर हाथ फेर कर गुर्राया।

    मैंने रूप से पूछा, “तुम्हें कैसे मा’लूम है? क्या उन लोगों ने तुम्हें अपनी नज़्में सुनाई थीं।”

    “नहीं। लेकिन मुझे जो ने बताया था।”

    “कौन? जो?”

    “जो ब्राउन, नाम नहीं सुना है किया? आजकल ऑक्सफ़ोर्ड का महबूब-तरीन शाइ’र है, हिन्दोस्तान में अभी उसका कलाम नहीं पहुँचा, लंदन में मुझ पर आ’शिक़ हो गया था।”

    वो कुछ अजब, कुछ बे-बाक, कुछ शर्मीली सी हँसी के साथ कहने लगी और माथे का क़ुमक़ुम या’क़ूत की तरह दमकने लगा।

    मैंने पूछा, “तुम्हारी ज़िंदगी फ़ुतूहात से पुर मा’लूम होती है।”

    “नहीं।”, उसने आह भर कर कहा। इस तरह कि मेरा जी चाहा उसे गले से लगा लूँ।

    “हूँ।”, शाइ’र बोला।

    रूप मुस्कुरा कर कहने लगी, “तुम्हारा शाइ’र बहुत बातूनी है... सुनो... तुम्हें एक नज़्म सुनाती हूँ।”

    मेरी हैरत बढ़ती जा रही थी, मैंने पूछा, “तुम शाइ’र भी हो।”

    “नहीं। ये नज़्म मेरी वालिदा ने कही थी।”

    “ठहरो। मुझे ये ग़ालीचा बिछा लेने दो।”

    ग़ालीचा बिछ गया। और नज़्म रूप ने गा कर सुनाई। बंगाली नज़्म थी, उदास, महज़ू, शब-ए-फ़िराक़ की जली हुई, लय शम्अ’ की तरह ख़ूबसूरत थी, आवाज़ शो’ले की तरह लर्ज़ां, तअस्सुर शराब की तरह ख़ुमार-आगीं, बंगाली दोशीज़ाएँ क़तार अंदर... घड़े उठाए हुए घाट की तरफ़ जा रही थीं। समंदर की सब्ज़ लहरें उछल रही थीं। शिव जी का डमरू बज रहा था, पार्बती रक़्स कर रही थीं, बर्फ़ गिर रही थी... अब फ़िज़ा ख़ामोश थी और रूप की आँखों में आँसू थे। आँसू रुख़्सारों से ढलक कर ग़ालीचे पर गिर पड़े और वो सुर्ख़ मुस्ततील, जैसे आग का शो’ला गई...!

    “तुम्हें जो ब्राउन से इ’श्क़ नहीं हुआ।”, मैंने पूछा।

    रूप ने अपने आँसू पोंछ डाले। बोली, “मुझे जिस लड़के से इ’श्क़ था, उसे लंदन ही में तपेदिक़ हो गया था। वो जहाज़ पर मेरे साथ रहा था, लेकिन रास्ते ही में उसकी मौत हो गई, अ’दन से परे बहीरा-ए-सुर्ख़ में!”

    “बहीरा-ए-सुर्ख़।”, मैंने सोचा और ग़ालीचे की सुर्ख़ मुस्ततील बहीरा-ए-सुर्ख़ बन गई और उसके गहरे पानियों में मुझे इक ज़र्द रूखा नसता हुआ चेहरा नज़र आया और फिर भंवर में ग़ायब हो गया, महव-ए-ख़्वाब है रूप का महबूब, सुर्ख़ समंदर के पानियों में और रूप के आँसू मेरे ग़ालीचे पर गिर रहे हैं...

    “हूँ।”, शाइ’र ने कहा। और मैंने एक किताब उसके सर पर्दे मारी।

    रूप आँसुओं में मुस्कुरा दी, बाज़-औक़ात आँसू रोने से आँसू पीना ज़ियादा अन्दोहनाक मा’लूम होता है!

    रूप कैसी अ’जीब सी लड़की थी वो। लंदन में शाइ’र जो ब्राउन उसे मुहब्बत करता था और लखनऊ में हज़रतगंज का ये आवारा मिज़ाज ग़रीब और आर्टिस्ट उसकी मुहब्बत में गिरफ़्तार हो गया, ये जानते हुए भी कि ये ज़हर है, वो किस तरह इस प्याले को पी गया, यासियत, ना-मुरादी, बेबसी, इ’श्क़ का जवाब हमेशा इ’श्क़ क्यों नहीं होता? ये कैसी आग है जो एक को जलाती है और दूसरे के दिल में बर्फ़ की सिल बन जाती है, जो महरूम-ए-तमन्ना को आँसू रुलाती है और जान-ए-तमन्ना के लबों पर तबस्सुम-रेज़ साया भी नहीं ला सकती। मैंने ग़ालीचे से थपकते हुए पूछा।

    ग़ालीचे ने कहा, “मैं सलीब हूँ, मैं दुख और दर्द जानता हूँ, दुख और दर्द की दवा नहीं जानता!”

    और रूप ने कहा, “ये क़िस्मत है, क़िस्मत तुम्हें ग़ालीचा ख़रीदने के लिए वहाँ ले गई। क़िस्मत ने तुम्हें मुझसे रू-शनास होने का मौक़ा’ दिया, अब ये तुम्हारी क़िस्मत है कि मुझे तुमसे वो मुहब्बत हो सकी। हज़ार कोशिश करने पर भी ये रिफ़ाक़त, मुहब्बत में मुबद्दल नहीं हो सकती। ये क़िस्मत नहीं तो और क्या है?”

    फिर कहने लगी, “शाइ’र अपने शे’र सुनाओ।”

    चंद रोज़ के बा’द उसने यकायक मुझसे कहा, “मुझे तुम्हारे शाइ’र से मुहब्बत हो गई है।”

    “झूट... उस चुग़्द से...”

    “उसकी आँखें देखीं तुमने।”, वो आह भर कर बोली, “जैसे मसीह दार पर लटका हो। कितना अंदोह है उनमें!”

    मैंने कहा, “अगर तुम कहो तो मैं अपनी आँखें अंधी कर लूँ।”

    शायद मेरी तल्ख़ी उसे नागवार गुज़री। संजीदा हो कर बोली, “क्या करूँ?”

    “हाँ... दिल ही तो है!”, मैंने तंज़न कहा।

    “हूँ।”, शाइ’र बोला।

    जिस रोज़ दोनों रुख़्सत हुए, मैंने घर पर इक छोटी सी दावत की, रूप ने ढाके की सियाह सारी पहनी हुई थी। आँखों में काजल गहरा था। रेशमी चूड़ियों का रंग भी सियाह था। हर रोज़ उसे देखकर उजियाले का, सूरज का, चाँद की किरन का, रोशनी का एहसास होता था। जाने आज उसे देख देखकर क्यों तारीकी का एहसास हो रहा था। क्यों वो इस अपनी मुकम्मल कामरानी के लम्हों में भी मुजस्सम यास-ओ-ग़म की तस्वीर दिखाई देती थी, क्या ये ग़रीब आर्टिस्ट के दिल का अंधेरा तो नहीं था।

    क्या ये उसके ब्रश की तारीकी तो थी! आज मैंने उससे वही गीत सुनने की तमन्ना की थी जो उसने पहले रोज़ गाया था। मुझे याद है, गाने के बा’द वो नाची भी थी, मैंने उसका चेहरा नहीं देखा, मैं उसके पाँव देखता रहा, धुँदले-धुँदले तारीक से पाँव जिनमें हिना की सुर्ख़ लकीर बिजली की तरह चमक-चमक जाती थी, इस तारीकी में सिर्फ़ यहाँ रोशनी थी, वो नाचती रही और मैं इस तारीकी में हिनाई लकीर का नाच देखता रहा, और जब नाच भी बंद हो गया, तो मैंने वो पाँव उठा कर अपने सीने में रख लिए, क्यों ये पाँव आज तक इस सीने में महफ़ूज़ हैं... क्या इस एहराम में ममियों के सिवाए और किसी के लिए जगह नहीं?

    जब वो चली गई तो मैं फिर ग़ालीचे पर बैठा। ज़र्द गुलाब की इक कली उसके जोड़े से निकल कर ग़ालीचे पर पड़ी रह गई थी। मेरे दिल में शायद अब रूप की कोई याद बाक़ी नहीं, सिर्फ़ ये दो पाँव हैं और इक ये गुलाब की ज़र्द कली... कैसी तस्वीर है ये? मुसव्विर हो कर भी मैंने शायद ऐसी अ’जीब तस्वीर इससे पहले कभी बनाई थी...

    फिर मैं ग़ालीचे से पूछता हूँ।

    ग़ालीचा कहता है, “मैं तो सलीब हूँ, सलीब मौत बख़्शती है, उसे ज़िंदगी की तर्तीब, मुनासिब तवातुर से आगाही नहीं...”

    अच्छा इसे भी जाने दो। जो हुआ सो हुआ। अगर ज़िंदगी में क़ब्र ही का मज़ा लेना है तो क्यों उसे आराम से हासिल किया जाए, अगर शहद में ज़हर ही मिला कर पीना है, तो क्यों ख़ालिस ज़हर पिया जाए। अगर मा’सूमियत बरक़रार नहीं रह सकती तो क्यों गहरी मा’सियत की आग़ोश में पनाह ली जाए, आओ, अपने दिल में ज़मीर की जो हल्की सी शम्अ’ रह गई है उसे भी ख़मोश कर दें और बढ़ती हुई तारीकी में गुनाह फैलते हुए दूद को देखें और ज़िंदगी का मुँह चिढ़ाएँ और क़हक़हे लगाएँ। मुहब्बत सही, बुल-हवसी सही!

    आर्टिस्ट ने एक और लड़की से आश्नाई पैदा कर ली, जो वीक में मुलाज़िम थी, उसका नाम था आशा लेकिन सूरत पर बिल्कुल निराशा बरसती थी, ऐसी भूकी लड़की थी वो, कभी मर्द देखा ही था, कुतिया की तरह साथ-साथ लगी फिरती थी, बे-चारी आर्टिस्ट को शायद उस पर रहम आने लगा था, वो उसके साथ शफ़क़त बरतने लगा। इक मुरब्बियाना, पिदराना अंदाज़ के साथ अब वो उसे हर जगह लिए फिरता, लोग तंज़न उसके हुस्न-ए-इंतिख़ाब की दाद देते और वो बड़े ख़ुलूस से दाद क़बूल करता, कोई कहता, “भई, बड़ी बदसूरत है। तुमने क्या सोच कर...” तो वो लड़ने पर आमादा हो जाता, घंटों उसकी ख़ूबसूरती का तज्ज़िया करता, कोयले से उसने आशा की तस्वीर बनाई थी और अपने स्टूडियो में हरकिस-ओ-नाक़िस को वो ये तस्वीर दिखाता था। वो अपने ज़ख़्म दिखा रहा था। देखो... देखो... मुझे तुम्हारी क्या पर्वा है... मैं अपनी रूह का आप मालिक हूँ... ज़हर-ख़ंद... कोयले

    लेकिन वो कभी हज़रत गंज के उस पार गया था। अब वहाँ से भागने का इरादा करने लगा। फ़ुटपाथ पर चलते-चलते वो हज़ारों उल्टे सीधे ख़्वाब देखने लगा, रह-गुज़र के हर पत्थर पर उसे किसी के पैरों के धुँदले-धुँदले साये काँपते हुए मा’लूम होते, काफ़ी की प्याली के हर सांस में क़ुमक़ुम तैरते हुए दिखाई देते, ये हँसी? वो मुड़कर देखता कहाँ से आई थी लेकिन ये तो वही कश्मीरी पालतू मैना अपने पिंजरे में चहक रही थी, बुलबुल क़फ़स की तीलियाँ तोड़ कर परवाज़ कर गई थी और वो अभी तक क्यों हज़रतगंज के वीराने में मुक़य्यद था... क्यों?

    क्यों? वो हिनाई लकीर बार-बार बिजली की तरह चमक कर उससे बार-बार पूछ रही थी।

    अब जबकि वो शहर छोड़कर जा रहा था, उसने अपने सब दोस्तों को, उस वीक लड़की को, और उसकी सब सहेलियों को आख़िरी दा’वत दी थी, और जब दा’वत के बा’द सब लोग चले गए थे तो वीक लड़की हैरान-ओ-परेशान इस ग़ालीचे पर बैठी रही थी और फिर यकायक उसके सीने से लग कर रो पड़ी थी, ये गर्म-गर्म आँसू जो उसके सीने में बर्फ़ के फूल बनते जा रहे थे। इ’श्क़ का जवाब इ’श्क़ क्यों नहीं होता, ये कैसी आग है जो एक को जलाती है और दूसरों के दिल में बर्फ़ की सिल बन जाती है।

    वीक लड़की ग़ालीचे पर लेटी थी, बाज़ू ऊपर के ख़ुतूत-ए-वहदानी के हक में थे। पाँव नीचे के ख़ुतूत-ए-वहदानी में। ग़ालीचे ने चुपके से उसके दिल में एक सियाह मेख़ ठोंक दी, एहराम के लिए एक और ममी तैयार हो गई, लेकिन वहाँ जगह कहाँ थी, सीने में अब भी वही दो पाँव नाच रहे थे... और वही गुलाब की इक कली!

    मैंने ग़ालीचे से पूछा, “ये कैसा खेल है? मैं किस का मुँह चिड़ा रहा हूँ, ये ज़ख़्म किसके हैं? ये लड़की क्यों रो रही है, अगर ये सब क़िस्मत है तो फिर ये काविश-ए-पैहम क्या है जो ममी को भी ज़िंदा कर देने पर तुली हुई है।”

    ग़ालीचे ने जवाब दिया, “मुझे मा’लूम नहीं। मैं तो एक सलीब हूँ, जो दिल में सियाह कील ठोंकती है, सपेद रोशनी नहीं लाती, जो क़िस्मत का अंजाम दिखाती है, उसका आग़ाज़-ओ-शबाब नहीं!”

    तुझे जला कर ख़ाक कर डालूँ!

    इस नए शहर में!

    चार आदमी ग़ालीचे पर ताश खेल रहे हैं।

    दो ऐक्टर

    दो तुज्जार

    और जो तमाशा देख रहा है वो आर्टिस्ट है!

    ताश खेलते-खेलते ऐक्टर और तुज्जार लड़ना शुरू’ करते हैं, हाथा-पाई की नौबत आती है, ग़ालीचा नोचा जाता है, क्योंकि एक चाल में एक तुज्जार ग़लती से या जान बूझ कर आठ आने ज़ियादा ले गया था। मेरा गिरेबान तार-तार हो चुका है, क्योंकि जो आदमी लड़ाई रफ़ा करना चाहता है, वही सबसे ज़ियादा पिटता है। फिर मैं सोचता हूँ, इस बद-मज़गी को दूर करने का क्या तरीक़ा है, बज़्ला-संजी ना-मुम्किन। ग्रामोफोन? बड़ा वाहियात! चाय ला’नत! शराब? सुब्हान-अल्लाह!

    सब लोग शराब पी रहे हैं, आर्टिस्ट की आँखें सुर्ख़ हैं, हमेशा हँसने और ख़ुश रहने वाला ख़ुश शक्ल ऐक्टर हमेशा चुप रहने वाले क़ुबूल-ए-सूरत ऐक्टर से कह रहा है, मुहब्बत? मुहब्बत? साला तू मुहब्बत क्या जाने, अभी कॉलेज का लौंडा है तो... ऐं... मुहब्बत का नशा मुझसे पूछ... साली ये शराब भी बिल्कुल तल्ख़ नहीं है... रानी को तू देखा है तूने?

    “रानी 1945 की बेहतरीन ऐक्ट्रस है ना।”, मैंने पूछा।

    “जी हाँ, वो... वही... साला तो क्या जाने... वो मेरी महबूबा है... समझे...? ऐं मैंने उसके लिए अपने माँ बाप की गालियाँ खाईं... कई लड़ाईयां लड़ीं रक़ीबों से... अपना घर-बार छोड़ दिया... ये अँगूठी शाले देखते हो, ये क़मीस के बटन, ये कफ़ बटन, ये सब सोने के हैं, शाले तो क्या जाने... ये सब उसने दिए हैं... तोहफ़े... मगर मैं उससे शादी नहीं करूँगा। कभी नहीं करूँगा!”, उसने फ़ैसला-कुन अंदाज़ में कहा।

    “क्यों?”

    “वो मुझे चाहती है। पर वो मुझसे बहुत अमीर है। वो चाहती है कि मुझसे शादी कर ले, पर मैं मर जाऊँगा, उससे ब्याह नहीं करूँगा!”

    “तुम्हें इस से मुहब्बत नहीं!”, एक तुज्जार ने पूछा।

    “लेकिन भई घर आई दौलत क्यों छोड़ते हो।”, दूसरे तुज्जार ने पूछा।

    ऐक्टर ने मुट्ठियाँ भींच कर कहा, “मैं जो हूँ वही रहूँगा। मैं उससे मुहब्बत करता हूँ, लेकिन उसका ग़ुलाम बन कर नहीं रह सकता, मैं उसकी मुहब्बत चाहता हूँ, दौलत नहीं, ऊख़!”

    ऐक्टर ने ज़ोर से ग़ालीचे पर हात मार कर कहा। और फिर क़हक़हा लगा कर हँसने लगा।

    ग़ालीचा काँप उठा। उसका रंग अ’जीब सा हो गया। और शराब दे हराम-ज़ादे वो अपने ख़ाली गिलास को टटोल रहा था।

    मैंने कहा, “रानी? अरे भई। आज ही तो मैंने अख़बार में पढ़ा है कि रानी ने एक अमरीकन से शादी कर ली।”

    ऐक्टर ने आहिस्ता से शराब का गिलास ग़ालीचे पर लुंढा दिया। उसकी उँगलियाँ कांच की सत्ह पर सख़्ती से जम गईं। कांच उसकी उँगलियों को ज़ख़्मी करता हुआ रेज़ा-रेज़ा हो गया। वो रुँधे हुए गले से कहने लगा, “ये ग़लत है, बिल्कुल ग़लत है!”

    आर्टिस्ट ने मेज़ पर से अख़बार उठा कर पढ़ा।

    ऐक्टर का चेहरा...।

    वो ग़ालीचे पर दोनों कुहनियाँ टेके मेरी तरफ़ देख रहा था। उसके चेहरे रंग का बदलने लगा... उसका चेहरा सुता जा रहा था। ममी के ख़द-ओ-ख़ाल उभर रहे थे।

    “ये ग़लत है। बिल्कुल ग़लत है।”, वो फिर चीख़ा। फिर एक दम ख़ामोश हो गया।

    दूसरा ऐक्टर उसके गिलास में शराब उंडेलने लगा। वो अब भी ख़ामोश था, लेकिन पहला ऐक्टर ग़ालीचे से लग कर सिसकियाँ ले रहा था। फिर उस ने ग़ालीचे पर क़य कर दी... मुझे ग़ालीचे का रंग उड़ता हुआ मा’लूम हुआ। सुर्ख़ से सपेद-ओ-ज़र्द... जैसे ये ग़ालीचा हो, ज़िंदगी का कफ़न हो

    रानी! रानी! रानी!

    सुब्ह मैंने ग़ालीचा धुलवाया और साफ़ करा के फिर कमरे में रखा, कि मेरी महबूबा कमरे में दाख़िल हुई, ये मेरी नए शहर की महबूबा थी, यहाँ आकर आर्टिस्ट ने फिर इ’श्क़ कर लिया था। इ’श्क़ करना किस क़दर मुश्किल है लेकिन जब इ’श्क़ मर जाए, उसके बा’द इ’श्क़ करना किस क़दर आसान हो जाता है! है ना, मर्दूद बोलते क्यों नहीं? जवाब दो!

    मेरी महबूबा के होंट मोटे थे, रुख़्सार भी मोटे। जिस्म भी मोटा, हँसी भी मोटी, अ’क़्ल भी मोटी, वो औ’रत थी, इक दोहरा-तिहरा ग़ालीचा थी। आज उसने अपने बालों की दो चोटियाँ बना डाली थीं और उनमें चम्बेली के फूल सजाए थे।

    वो ग़ालीचे पर आकर बैठ गई। मैंने उसकी बलाएँ लेकर कहा, “आज तो तुम क्लियोपैत्रा को भी मात करती हो।”

    “क्लियोपैत्रा क्या है?”, उसने पूछा।

    “मिस्र की मलिका थी।”

    “मिस्र?”

    “हाँ मिस्र वो मुल्क जहाँ मरने के बा’द एहराम तैयार होते हैं और मर्दों की ममियाँ तैयार की जाती हैं... ख़ुदा करे तुम्हारी मौत भी क्लियोपैत्रा की तरह हो!”

    “हाय कैसी बातें करते हो? क्या हुआ था उसे?”

    “साँप से डसवा कर मर गई थी।”

    वो इक हल्की सी चीख़ मार कर मेरे क़रीब गई, “डराते हो मुझे?”

    उसने मेरा बाज़ू पकड़ कर कहा। फिर वो हँसी, अपनी मोटी भद्दी हँसी, जैसे भैंस जुगाली कर रही हो। फिर उसने अपने होंट मेरे आगे बढ़ा दिए। जैसे कोई फ़य्याज़ जाट किसी अजनबी शहरी को गन्ना चूसने को दे दे। मैंने गन्ना चूसते हुए कहा, “ये ग़ालीचा जीता एक-बार है लेकिन मरता बार-बार है... तो, ये मौत बार-बार क्यों आती है... अब भी जाए मौत!

    “आज ये तुम क्यों बार-बार मौत का ज़िक्र रहे हो।”, वो मिनमिनाई।

    “कुछ नहीं। तुम नहीं समझोगी।”, मैंने कहा, “हाँ ये तो बताओ, आज तुम्हारे ताज़ा लबों से, रुख़्सारों से, आँखों से, बालों से, ये कैसी लतीफ़ ख़ुशबू निकल रही है।”

    “कुछ नहीं!”, वो हँसकर बोली, “आज खोपरे का ख़ुश्बूदार तेल लगाया है।”

    मैंने ग़ालीचे की तरफ़ कनखियों से देखा, उसका रंग उड़ता जा रहा था। बेचारा एक-बार फिर मर रहा था, उसकी जाँ-कनी मुझसे देखी जाती थी। मैं घबरा कर कमरे से बाहर निकल गया। सीधा स्टेशन पहुँच गया, इरादा था, जी भरकर पियूँगा। बियर पियूँगा। सिर्फ़ अपने गुर्दों को बल्कि अपनी रूह को भी जुलाब दूँगा ताकि ये सारा कूड़ा-कर्कट बह जाए। निकल जाए। तबीअ’त हल्की हो जाए।

    स्टेशन पर बियर से पहले रूप मिल गई।

    “अरे? तुम कहाँ?”

    “जूनागढ़ गई थी पहाड़ पर।”

    “और शाइ’र?”

    वो खांस कर कहने लगी, “उसने मुझे छोड़ दिया है।”

    “छोड़ दिया? क्यों?”

    “मुझे तपेदिक़ है, जूनागढ़ सैनीटोरियम में गई थी ना!”

    उसकी निगाहों में सब्ज़-रंग का समंदर था और इक ज़र्द-ओ-नहीफ़ चेहरा भंवर में ग़ोते खा रहा था, फिर वो चेहरा भी ग़ायब हो गया, अब शाइ’र का सड़ा-बसा बुशरा लहरों पर तैरने लगा, शाइ’र का चेहरा सर हिला कर कह रहा था, “हूँ।”

    मैंने कहा, “कहाँ है वो हरामज़ादा?”

    “जाने दो।”, वो महज़ू अंदाज़ में कहने लगी, “उसे गाली ना दो... मुझे उससे अभी तक मुहब्बत है!”

    “लेकिन...”

    “हाँ।”, वो बोली, “इस लेकिन के बा’द भी... अब मैं अपने घर जा रही हूँ, मैके, आराम से मरूँगी।”

    “नहीं, नहीं।”, मैंने सख़्ती से कहा, “अब मैं तुम्हें नहीं जाने दूँगा, ज़िंदगी ने तुम्हें मुझसे छीन लिया, अब मौत के दरवाज़े तक हम दोनों इकट्ठे चलेंगे और अगर इस दुनिया के बा’द कोई दूसरी दुनिया है तो शायद...”

    वो हँसी, वही उजियाली हँसी, वही संदली चेहरा, वही दमकता हुआ क़ुमक़ुम। मैंने उसकी बाँह पकड़ कर कहा, “घर चलो... रूप जीते-जी तुमने मुझे अपने साथ रहने दिया। अब मौत के चंद लम्हे तो बख़्श दो।

    वो मुस्कुराई।

    बोली, “तुम नहीं जानते? मुहब्बत ज़िंदगी में और मौत में भी यकसाँ सुलूक करती है!”

    गाड़ी ने सीटी दी। वो बोली, “मुझे उम्मीद थी तुम कभी मिलोगे। अफ़सोस है कि मैं यहाँ रुक नहीं सकती, हाँ ये किताब तुम्हें दे सकती हूँ, रिल्के की नज़्में।”

    गार्ड ने झंडी दिखाई। वो अपने डिब्बे की तरफ़ चल दी, मैं उसके चेहरे की तरफ़ देख सका। मेरी आँखें फिर उसके पाँव पर गड़ गईं, वो पाँव चलते गए, चलते गए, दूर जाते हुए भी गोया क़रीब आते गए, बिल्कुल मेरे सीने पर गए और मैंने उन्हें उठा कर अपने सीने के अंदर छिपा लिया।

    मैंने निगाह उठाई। गाड़ी जा चुकी थी महबूबा अभी तक मेरी राह देख रही थी। बोली, कहाँ चले गए थे। मैं चुप हो रहा।

    “ये कौन सी किताब है।”

    “रिल्के की।”

    “क्या?”

    “एक शाइ’र की नज़्में हैं।”

    “मुझे सुनाओ। क्या कहता है?”

    मैंने किताब खोली। पंद्रहवाँ सफ़्हा आँखों के सामने आया। आहिस्ता से पढ़ना शुरू’ किया, “ऐ ख़ुदा तूने ज़िंदगी अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ दी, अब मौत तो मेरी मर्ज़ी के मुताबिक़ बख़्श दे। तुझसे और कुछ नहीं चाहता हूँ ख़ुदावंद!”

    “फिर मौत!”, वो बोली, “बुरा शुगून है।”

    उसने किताब मेरे हाथ से छीन कर अलग कर दी और अपने लब मेरी तरफ़ बढ़ा दिए। ग़ालीचा उबल रहा था। बिल्कुल आग... शो’लों का दरिया। पीप का समंदर, ज़हर का खौलता हुआ गर्म चश्मा, मैंने उससे पूछा, “तुम सलीब हो, तुमने आदमी के बेटे को मसीहा बना दिया। बताओ मुझे क्या बनाओगे?” ग़ालीचे ने कहा, “जो तुम ख़ुद बन चुके हो। इक एहराम... इक खोखला एहराम जिसके सीने में ममियाँ दफ़्न हैं!”

    मैंने अपनी महबूबा से कहा, “मेरा जी चाहता है। इस ग़ालीचे को जला कर ख़ाक कर डालूँ।”

    वो बोली, “हाँ पुराना तो हो गया है।”

    “लेकिन...”, मैंने रुक कर अफ़्सुर्दा लहजे में कहा, “मेरे पास तो यही एक ग़ालीचा है और यही एक ज़िंदगी है। इसे बदल सकता हूँ। उसे।

    ये कह कर आर्टिस्ट गन्ना चूसने लगा।

    स्रोत:

    Krishan Chander Ke Behtareen Afsane (Pg. 94)

      • प्रकाशक: एशिया पब्लिशर्ज़, दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 2004

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