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हरी बोल

ज़किया मशहदी

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ज़किया मशहदी

MORE BYज़किया मशहदी

    स्टोरीलाइन

    कहानी बदलते वक़्त के साथ ख़ूनी रिश्तों में हो रहे बदलाव और स्वार्थपूर्ण रवैये को बयान करती है। वह एक अफ़सर की बीवी थी और एक आलीशान घर में रहती थी। शौहर की मौत हो चुकी थी और बच्चे अपनी ज़िंदगी में मस्त थे। बेटा जर्मनी में रहता था और बेटी ससुराल की हो कर रह गई थी। उन्हें अपनी बूढ़ी माँ से कोई सरोकार नहीं था। मगर जब उन्हें पैसों की ज़रूरत पेश आई तो उन्होंने अपना पैतृक घर बेचने का फ़ैसला किया और माँ को नानी के घर भेज दिया, जहाँ आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी न तो बिजली पहुँची थी और न ही शौचालय था।

    नानी का नानिहाल

    गरचे वो ख़ुद अर्सा पहले नानी बन चुकी थी और अर्सा-ए-दराज़ के बाद अपने नानिहाली गांव आई थी लेकिन सब कुछ वैसा ही था। कुछ नहीं बदला था। अगर बदला भी था तो बस इतना ही कि नज़र में आए। कोई बताए तभी महसूस हो।

    ट्रेन ने हस्ब-ए-मामूल इस ऊँघते उदास स्टेशन पर उतारा। वहां से एक बस लेनी पड़ी जिसकी चूलें हिली हुई थीं। उसने जहां लाकर छोड़ा वहां के बाद सड़क नहीं थी और नानिहाल अभी चार पाँच किलो मीटर आगे था। गांव के रिश्ते से मामा कहलाने वाला राम सगुण टम टम लेकर आया हुआ था। बूढ़ा फूस देसी ही घोड़ी। गांव के लोग तो यहां से पैदल रपट दिया करते थे। टम टम शाज़-ओ-नादिर चलती। बैल गाड़ियां तक़रीबन नापैद थीं।

    ज़रीन ने उसे पहचान लिया। उसने भी। चंधी बुवा के हाथ का सहारा लेकर ज़रीन बदिक़्क़त तमाम टिम में सवार हुई।

    मालिक गेहूँ छिटवा रहे थे। राम सगुण ने अंगोछे से चेहरा पोंछा फिर कूदते हुए टम टम पर सवार हो कर बताया, बस खड़े खड़े गिर गए। कभी बीमार नहीं पड़े थे। सर्दी खांसी हुई तो बस तुलसी का काढ़ा पी लिया। गांव में कोई ज़्यादा बीमार नहीं पड़ता। जानता है पड़ेगा तो दवा दारू नहीं मिलेगी। फिर उसने क़दरे तवक़्क़ुफ़ के बाद कहा, हमारे जवान भतीजे को साँप ने काट लिया था। लाद कर सेंटर ले गए। जाने में ही दो घंटे लग गए। वहां कोई नहीं था। बस लेकर अनू मंडल गए। हस्पताल में पड़ा रहा। ईलाज शुरू होते होते बहुत देर हो चुकी थी।

    तब? चंधी बुवा ने बिला-वजह ही सवाल कर डाला वर्ना बात तो अयाँ थी।

    तब क्या, चल बसा एक ही लड़का था।

    राम सगुण हमेशा से बहुत बोलता था। लेकिन इस वक़्त तो वो अपना दुख बांट रहा था। ज़रीन की आँखें भर आईं। बहुत दिन से सोचती थी कि एक-बार गांव आकर मामूं से मिल ले। वो उससे बस कोई चार एक बरस बड़े थे। यहां आती थी तो ख़ाला मामूं उसके साथ मिलकर भाई-बहनों की तरह खेला करते थे। पहले शादियां इतनी कम उमरी में होती थीं कि कई कुंबों में तो माँ-बेटी के यहां आगे पीछे बच्चे पैदा होते रहते थे। लोगों को इस पर हैरत होती थी इसे मज़हका-ख़ेज़ समझा जाता था।

    उदासी के बावजूद दिल में कुछ यादों ने गुदगुदी की।

    नौ उमरी के ज़माने में वो यहां एक शादी में आई थी। दुल्हन के छोटे भाई की खतना की रस्म भी उसी शादी में निमटाई जा रही थी फिर भी दुल्हन की वालिदा कहीं नज़र नहीं आरही थीं। पूछने पर मालूम हुआ वो तो सौरी* में हैं। बेटा हुआ है, जो मेहमान शादी में आए थे वो नो मौलूद का मुँह देखकर कोई पाँच रुपये, कोई ग्यारह रुपये सिरहाने रख रहे थे। मिरासिनों ने ब्याह के गीतों के साथ ज़च्चा गिरीयाँ भी गाई। दुल्हन की अम्मां कुछ हया कुछ फ़ख़्र-ओ-इंबिसात से सुर्ख़ हो गईं। चार बेटीयों के बाद ये उनका दूसरा बेटा था।

    टम टम हिचकोले ले रही थी।

    ठीक से राम सगुण। बीबी की बूढ़ी हड्डियां हैं। चंधी बुवा ने टोका

    अरे तो हमारी कौन सी नई हैं। उसने चाबुक लहरा कर घोड़ी को धमकाया और फिर पता नहीं कहाँ कहाँ की कहानियां शुरू कर दीं।

    पिछले चुनाव में पक्का वादा किया था कि यहां सड़क बन जाएगी। सड़क बन जाती तो आटो चलने लगता। लड़कों का क्या। पैदल चल के आराम से बस अड्डे आजाते हैं। औरतें हुईं, हम जैसे बुड्ढे हुए, अरे हमारी हड्डियां पुरानी सही अब भी कुछ मज़बूत हैं। धक्के सह लेते हैं। बेलगाड़ी का रिवाज नहीं रहा। गांव में एक-आध टम टम है। होती तो आप लोगों को भी पैदल चलना पड़ता।

    तो आते। क्या करने आते तब। चंधी बुआ की ज़बान भी पटा पट चलती थी।

    कैसे आतीं बीबी। मालिक की बड़ी लाडली थीं। एक तो पंदरइयों नहीं आईं। शहर की हवा लग गई है हमारी बीबी को। टम टम होती तो हम डोली ले के आते। मालिक के घर में एक पुरानी डोली पड़ी है। कहार जुटा लेते। भय्या क्यों नहीं आए? उसी सांस में उसने ज़रीन के बेटे के बारे में पूछा।

    भय्या की दुल्हन उन्हें उड़ा ले गईं सात-समुंदर पार। छाप के बैठी हुई हैं।

    चंधी बुवा जो मुँह में आए बोल देने के लिए मशहूर थीं। आग़ा पीछा कुछ देखतीं। ज़रीन का किसी भी क़िस्म का एहतिजाज बेकार होता इसलिए वो ख़ामोश रही।

    बड़े आदमी छोटे आदमी सबकी एक ही कहानी है। राम सगुण ने उदास लहजे में बड़े फ़लसफ़ियाना अंदाज़ में कहा।

    तुम्हारी बहू भी उड़ा ले गई क्या तुम्हारे बेटे को?

    अब की ज़रीन से रहा गया। चुप भी रहा करो कभी। उसने सख़्त लहजे में बुआ को तंबीह की।

    मामूं के घर में भी कोई तबदीली नहीं आई थी। वैसा ही था, नीम पुख़्ता, मिट्टी से लीपा पोता। हाते में छप्पर के नीचे दो गायें जुगाली कर रही थीं। बस हाँ मामूं की ग़ैरमौजूदगी की वजह से उदासी और वीरानी वाज़ह तौर पर महसूस हो रही थी। या शायद ज़रीन को ही ऐसा लग रहा था क्योंकि मुशतर्का ख़ानदान होने के सबब लोग तो बहतेरे थे। जवान, बच्चे, अधेड़ और बूढ़ी ममानी भी। बेहद बूढ़ी, बहरी भिंड। खटोली में सुकड़ी सिमटी पड़ी रहतीं और ख़ुद ही अपनी मक्खियां झला करतीं। बस इतने ही हाथ पांव चल रहे थे। ज़रीन को उन्होंने नाम से पहचाना। ना-काबिल-ए-फ़हम अलफ़ाज़ में दुआएं दीं। मरहूम शौहर को पुकारा, फ़ुलाने के अब्बा, आके मिल लो। भांजी आई है। ज़रीन के गले में कुछ फंसने लगा।

    दोनों मामूं ज़ाद उधेड़ उम्र में दाख़िल हो चुके थे और उम्र बढ़ने पर ज़्यादा कम सुख़न, ज़्यादा मुल्लाटे हो गए थे। डाढ़ीयाँ सीने तक और पाजामे टख़नों से ऊपर। बीवी-बच्चों पर शेर की नज़र। वैसे दिल और मुआमलात के साफ़ थे। मिज़ाज में मुरव्वत और रिश्तों की पासदारी थी। ग़मी का मौक़ा था फिर भी ज़रीन की आमद से सब ख़ुश हो गए। उसके लिए मुर्ग़ ज़बह किया, पुलाव पकाया। अलग बिठा कर खिलाया इलिए कि ये नेअमतें सब के लिए वाफ़र मिक़दार में नहीं थीं। दूसरे वह सब अब भी धुआँ देते, कच्चे फ़र्श वाले बावर्चीख़ाने में पीढ़ियों पर बैठ कर खाना खाया करते थे।

    नाना अपनी ज़मीन-जायदाद में इज़ाफ़ा नहीं कर सके थे। उल्टा उसमें कमी आई थी। बेटों को मदरसे में पढ़ाया और बाग़बानी और किसानी में ही लगाए रखा। किडुलअयाल भी थे। यही सब देखकर ज़रीन की माँ अपने माइके की जायदाद से भाईयों के हक़ में दस्तबरदार हो गई थीं। जब उनकी माँ के ज़ेवर तक़सीम हुए तो उनमें भी अपना हिस्सा नहीं लिया। शादी के वक़्त ही उन्हें ख़ासा सोना मिल गया था।

    बिजली अभी तक नहीं आई? खाना खाते हुए ज़रीं ने पूछा।

    तार खिंच रहे हैं। खम्बे अर्सा हुआ गाड़े जा चुके कभी लाईन भी जाएगी। भावज पंखिया से मक्खियां उड़ा रही थीं। उन्होंने जवाब दिया।

    जहां लाईन आगई है वहां रहती कब है? भतीजे का कमेंट था।

    लाईन से भी ज़्यादा ज़रूरी था कि बैत-उल-ख़ला बन जाते, ज़रीन ने सोचा। उसने आते ही बैत-उल-ख़ला के बारे में पूछा था।

    ज़्यादा-तर लोग अब भी खेत जाते हैं।

    हमारे यहां कुछ इंतिज़ाम हो गया है। जाइये हो आइये। फ़लाने, ज़रा फ़ुपी को 'बाहर' ले जाओ। मामूं ज़ाद भावज ने कहा।

    नहीं नहीं, ज़रा रुक के। उसने हड़बड़ा कर यूं बेसाख़्ता कहा जैसे उसे अमरूदों के बाग़ में जाने को कह दिया गया हो। ये अमरूदों के बाग़ का क़िस्सा ज़रीन की साइकी का हिस्सा था जो उसे अपनी माँ से विर्से में मिला था।

    अमरूदों का बाग़

    ज़रीन की दादी ज़रीन की माँ को अक्सर उसका ताना दिया करती थीं।

    ज़रीन की माँ की शादी सन चालीस में हुई थी। इस वक़्त पूरे गांव में चौधरियों को छोड़कर किसी के यहां बैत-उल-ख़ला नहीं था। वो भी निहायत भद्दा सा। बाक़ी क्या ग़रीब, क्या खाते-पीते (और गांव में खाते पीते ख़ानदान मादूद-ए-चंद ही थे) सब के सब खेत जाते थे या नदी किनारे सरकण्डों के झाड़ के पीछे। और हाँ बसवाड़ी भी थी। लोग मुँह-अँधेरे जाते। ख़ासतौर पर औरतें तारों की छाँव में निकल लेतीं। शहर से आने वाली बारात को सारा दिन, सारी रात ठहर कर कहीं दूसरे दिन सह पहर को रुख़्सत होना था। ज़रीन के नानिहाल वालों ने अपने घर से मुत्तसिल अमरूदों वाले बाग़ में एक आरिज़ी इंतिज़ाम किया। ख़ाली जगहें देखकर दो तीन गहरे गड्ढे खुदवाए। उन पर खुड्डीयां रखवाईं। हर गड्ढे की बग़ल में बड़े बड़े बालटे भर कर पानी रखा गया। दरमियान में ओट के लिए बाँस के टट्टर खड़े किए। इसी तरह कुछ जगहें घेर कर और पानी रखकर नहाने का इंतिज़ाम भी किया गया। यूं मर्द कुँवें पर नहाते थे और औरतें आँगन में बाँस की चारपाइयाँ खड़ी करके। जिन्हें ज़्यादा एहतियात करनी होती वो चारपाई के दूसरी तरफ़ किसी लड़की या मुलाज़िमा को खड़ा कर लेतीं। सर धोना होता तो पहले कपड़े पहने पहने पीढ़ी पर बैठ कर गर्दन झुका कर खली या बेसन से सर धो लेतीं। फिर कुछ कपड़े जिस्म पर रहते चारपाई के पीछे ग़ुसल होता। अच्छा ख़ास्सा झमेला हुआ करता था। लेकिन ये झमेला ज़िंदगी का नागुज़ीर हिस्सा बन कर क़ाबिल-ए-क़बूल था। किसी को कहीं कोई क़बाहत नहीं महसूस होती थी।

    बारात में ग़रारों के बड़े बड़े पायंचे फड़काती, तुलवां दुपट्टे ओढ़े दूल्हा की माँ, बहनें, चचियां, फुपियाँ और अज़ीं क़बील ख़वातीन अच्छी ख़ासी तादाद में आई थीं। दुल्हन के घर पहुंचते पहुंचते वैसे ही हुलिया बिगड़ चुका था।

    वापस आकर दुल्हा की वालिदा ने मश्शाता को बहुत डाँटा।

    ओई बीवी ये कहाँ अल्लाह मियां के पिछवाड़े रिश्ता तय कराया था। मरे गँवारों के घर नहाने की जगह हगने मूतने की। फिर उन्होंने नई दुल्हन यानी ज़रीन की अम्मी से, जो उस वक़्त महज़ चौदह-पंद्रह बरस की थीं, कहा, बीवी, तुम्हारे घर किसी का पेट नहीं ख़राब होता? हो जाएगी तो क्या वक़्त बेवक़्त पछाया खोल खोल कर खेतों में बैठती हो। और जो भागते भागते कपड़ों में हो जाएगी... उनकी ज़बान पर लगाम तो कोई नहीं लगा सकता था। यूं भी उम्र बढ़ने पर ख़वातीन का मुँह खुल जाया करता था। (हाँ अब उम्र बढ़ने की क़ैद नहीं रह गई थी) ज़रीन की कमसिन माँ शर्म से पानी पानी हो जातीं। ये भी कह पातीं कि हम लोग खेतों में नहीं अपने ही बाग़ में जाते हैं और वहां सिर्फ़ औरतें जाती हैं। मर्द या बसवाड़ी जाते हैं या खेत। नेक-बख़्त! दूल्हा के वालिद ने कहा, शयूख़ का ख़ानदान है। लड़की ख़ूबसूरत, मीलाद की किताब सुना के पढ़ लेती है। खेत खलियान वाले लोग हैं। लड़की को हिस्सा भी मिलेगा। अब तुम रोज़ कौन सा उनके घर जाओगी कि तुम्हें बैत-उल-ख़ला की इतनी शिकायत हो गई।

    दुल्हन भी तो बैलगाड़ी में रुख़्सत हुई। हमें दुल्हन के दरवाज़े हचर हचर करती बैल गाड़ियां ले गईं।

    ठीक है, अब मत लाना कोई लड़की वहां से। लेकिन ख़ामोश तो हो जाओ।

    सम्धियाने में शादी ब्याह होगा, बुलावा आएगा तो जाऐंगे?

    हगने मूतने की जगह तो अब भी अलग नहीं थी। (दूर दराज़ कहीं बैठे लोग अज़ीमुश्शान मंदिर बनाने की तैयारियां करने या तैयारी की धमकियां देने में मसरूफ़ थे। लोग, जो इन बुनियादी सहूलतों से महरूम इन्सानों के काँधों पर सवार हो कर अपने अपने तख़्त -ए-शाह पर क़दम रखा करते थे।) बिजली नहीं थी, पानी नहीं था, स्कूल बहुत थे, हैल्थ सेंटर काम नहीं कर रहे थे। बस हाँ लोग अब फ़ाक़ों से नहीं गुज़रते थे जैसे कभी चंधी बुवा का ख़ानदान गुज़रा था और दो वक़्त की रोटी के लिए अपनी ग्यारह बरस की बेटी को दूसरों के हवाले कर गया था। अब सब लोगों को दाल-भात हो या आलू-रोटी, दोनों वक़्त खाना मिल जाया करता था। कुछ कुन्बे ख़ुशहाल भी हो गए थे। ये वो लोग थे जो गांव से बाहर चले गए थे।

    शायद कोई अब दिल पर पत्थर रखकर बेटी को गांव से बाहर झाड़ू-बर्तन करने नहीं भेजता होगा और बुज़ुर्गों को हरी तो क़त्तइ नहीं बुलाया जाता होगा।

    हरी बोल

    ज़रीन को उसकी माँ ने बताया था और ज़रीन की माँ को उनकी माँ ने। ये माओं का सिलसिला जोड़ा जाये तो इब्तदाए आफ़रेनिश तक चलता चला जाएगा। हर माँ की एक माँ होती है और फिर उस माँ की भी अपनी माँ...और... दिमाग़ ख़राब हो जाएगा। जोड़ते जाओ।

    और ये तो तीन नस्ल पहले की ही बात है।

    तब ज़रीन की नानी नई शादीशुदा थीं और इस घर में बहू बन कर आई थीं।

    रात ख़ासी जा चुकी थी। वो शौहर का इंतिज़ार करती बैठी थीं। ख़ुदाए मजाज़ी के आने से पहले सो जाना मुम्किन ही नहीं था। लेकिन नए सुहाग की जागती रातों का शाख़साना नींद का ग़लबा। आँखें झुकी जाती थीं। अमावस की रात थी। सियारों की हूवां हूवां, उल्लूओं की होऊ होऊ। हवा में दरख़्तों के पत्तों की सरसराहाट माँ-बाप, भाई-बहनों, चची-ख़ाला फ़ुपी से भरे घर से आई चौदह बरस की कच्ची उम्र की वो डरी-सहमी लड़की ससुरालियों के दरमियान बत्तीस दाँतों के बीच ज़बान जैसी। अभी तो शौहर से भी सिवाए एक तकलीफ़-दह जिस्मानी ताल्लुक़ के और किसी ताल्लुक़ का एहसास नहीं पनपा था। तभी इस तन्हा, तिलिस्मी, डरावने माहौल में वो आवाज़ें भी सरसराईं। यूं जैसे पिच्छल पैरियाँ घाघरे घुमाती उल्टे पंजों पर रक़्स-कनाँ हों। उन आवाज़ों में कर्ब था, एहसास-ए-गुनाह था, नौहा था, तिलिस्म था और था शानों के ऊपर से दाँत निकाले मुस्कुरा कर झाँकती हुई मौत का ख़ौफ़ हरी बोल, हरी बोल, बोल बोल हरी हरी...फिर इन आवाज़ों के साथ कोई घुटे घुटे गले से रोने भी लगा जैसे किसी पिछली पैरी ने घूमते घूमते किसी को अपने घाघरे तले ले लिया हो और उसका दम घुटने लगा हो। रोने की आवाज़ किसी मर्द की थी। फिर वो सारी आवाज़ें अपने सारे कर्ब, अपने सारे तिलिस्म अपने सारे गुनाह को समेटे क़रीब आती गईं। बिल्कुल उसके घर के हाते के पीछे जहां अमरूदों का बाग़ था। फिर हौले हौले वो बसवाड़ी की तरफ़ निकल गईं। बसवाड़ी के पास से हो कर नदी गुज़रती थी, त्रिल रिल करती, बेपर्वा, बेनयाज़, अपने ला-ज़वाल हुस्न के ग़रूर में गुम किनारे के सब्ज़ा ज़ारों पर ख़ंदां।

    नई दुल्हन के शौहर रात गए कमरे में आए (नानी ने ज़रीं की माँ को बताया था कि उनके वक़्त में मर्द रात को चोरों की तरह चुपके से बीवी की ख़्वाबगाह में दाख़िल होते और सुबह की रोशनी फूटने से पहले चोरों की तरह ही निकल लिया करते थे) तो दुल्हन की घिग्घी बंधी हुई थी। बदिक़्क़त तमाम उसने बताया कि घर के आस-पास बद-रूहें रहती हैं। अभी उनका जलूस जा रहा था। कोई उनके चंगुल में फंसा हुआ था। शायद बहुत बूढ़ा था वो। दूल्हा की गोद में सिमट कर दुल्हन के दाँत भिंचने लगे।

    दूसरे दिन दूल्हा की वालिदा ने कमसिन बहू को समझाया। हम, नजी-बुत-तरफ़ेन शयूख़, शाह चांद के मुरीद हैं। हमारे यहां साये झपेटे का गुज़र नहीं। वो गांव के किनारे रहने वाले ग़रीब कमिए होंगे। किसी बूढ़े को हरी बुलाने ले जा रहे हों। कभी कभी ऐसा करते हैं।

    दुल्हन ने घूँघट ज़रा सा सरका कर सवालिया आँखों से मादर मलिका को देखा। वो क्या होता है? मतलब हरी बुलाना? वो अब भी बहुत डरी हुई थी।

    उधर बहुत ही ग़रीब लोग रहते हैं। कभी खाने को मिलता है, कभी नहीं। यहां तक सुना कि एक ख़ास क़िस्म की घास होती है, उसे उबाल कर नमक लगा कर खा लेते हैं। अब घर में कोई बहुत बूढ़ा खटीया पे पड़ा दो वक़्त रोटी मांगे और पेशाब पाख़ाना समेटने की ख़िदमत तो एक दिन उसे मक़दूर के मुताबिक़ भर पेट अच्छा खाना खिलाते, फिर रात गए खाट पर डाल कर हरी बोल, हरी बोल कहते नदी के सपुर्द कर आते हैं।

    ज़िंदा को! हया भूल कर, आँखें खोल कर दुल्हन ज़ोर से बोल पड़ी। उसके चेहरे पर पसीना फूट बहा था। मादर मलिका मुलाज़िमा को हिदायत देने के लिए उठ गईं कि ढेकी में धान कूटने के बाद चावल कहाँ रखने हैं। ये इशारा था कि अब इस मौज़ू पर कोई बात नहीं करनी है और ये कि बहुओं को आवाज़ ऊंची करके बड़ों से कोई सवाल नहीं करना है। अरे मुर्दे को कोई हरी बोल, हरी बोल करता ले जाये तो इसमें बताने जैसी क्या बात है। ज़िंदा को ले जाते हैं तब तो... कैसी कम-अक़्ल बहू आगई है।

    अब ऐसा नहीं होता होगा। ज़रीन के जिस्म में फिर भी झुरझुरी दौड़ गई। घर में कुछ दिन क़ब्ल इंतिक़ाल करने वाले मामूं की क़ब्र की मिट्टी की महक थी। ज़रीन जिस हुजरे में थी वो ताज़ा-ताज़ा लीपा गया था और मिट्टी तो यहां से वहां तक एक थी। खेत खलियान, दीवारें, क़ब्रिस्तान। वजूद को पैदा होने वाले दिन से ही खाना शुरू कर देने वाली मिट्टी।

    कमरे में बांध की बनी चारपाई पर खेस डाल कर हैंडलूम की मोटी रंगीन चादर पड़ी थी और सेमल की रुई भरा तकिया रखकर ज़रीन के बिस्तर को हत्तल इमकान आरामदेह बनाया गया था। उसे ख़ास कमरा दिया गया था जिसमें हिलती सलाख़ों वाली खिड़की थी जो हाते में खुलती थी। हाते के पार नज़रें दौड़ाने पे गांव के सरसब्ज़ खेत नज़र आते थे और बरगद का वो पुराना जग़ादरी दरख़्त जिसके सामने इस घर की कई नस्लें गुज़र गई थीं। कोने में रखी एक तिपाई पर किसी भतीजी के हाथ का क्रोशिया का बना कवर डाला हुआ था। इस पर एलमोनियम के बड़े से गिलास में पानी रख दिया गया था। ताक़चे में चराग़ रौशन था। सोने से पहले ज़रीन ने उसे फूंक मार कर बुझा दिया। बैलगाड़ी ने जोड़ जोड़ दुखा दिया था। जगह बदलने और बिस्तर की सख़्ती को महसूस करने के बावजूद उसे नींद आगई।

    रात शायद आधी गुज़री थी हाते में खड़े नीम के पुराने छतनार दरख़्त में छपे उल्लू जाग जाग कर फ़आल हो उठे थे। फिर शायद किसी उल्लू ने किसी छोटे परिंदे को धर दबोचा। उसकी तेज़ दर्दनाक चिचियाहट और उल्लू की हक़ होऊ की मनहूस आवाज़ ने ज़रीन को जगा दिया। एक-बार नींद खुल जाये तो दुबारा जल्दी आती नहीं थी। गठिया ज़दा घुटनों पर हाथ रखकर वो उठीं। एक मुसीबत ये भी थी कि नींद खुल जाये तो टायलट जाना ज़रूरी। ज़रा भी देर होती तो पेशाब के क़तरे कपड़ों पर लग जाते। यहां अटैच्ड बाथरूम का क्या काम। निहायत इब्तिदाई सतह का बैत-उल-ख़ला हाते के एक कोने में बना हुआ था। बाँस का फ्रे़म खड़ा करके उसके गिर्द टाट लपेट कर पर्दा कर दिया गया था और अंदर गहरे गड्ढे के ऊपर कदमचा फ़ुट था। पास में पानी का बड़ा सा ड्रम रखा हुआ था। हवा नीम के ख़ुश्क पत्ते उड़ा कर अक्सर पानी में गिरा देती थी जो ड्राम में तैरते रहते थे। सर पर छत नहीं थी इसलिए अगर बरसात हो रही हो तो लोग छाता लेकर या कपड़ा सर पर डाल कर जाते थे। लोगों को इस इंतिज़ाम से कोई दिक़्क़त नहीं थी।

    होऊ हक़... होऊ होऊ होऊ... ऐसा लगा जैसे उल्लू खिड़की के बिल्कुल क़रीब आकर बोलने लगा था। वो घबरा गईं। दिल को समझाया आख़िर एक परिंदा ही तो है। सारे उल्टे सीधे ख़्याल हमारे ज़ेह्न की उपज होते हैं लेकिन ख़ौफ़ मंतिक़ से हारता नहीं। जब सालों तक किसी जगह आया जाये तो वो जगह नई हो जाती है ख़्वाह नानिहाल ही क्यों हो और फिर ऐसा नानिहाल जहां फ़िज़ा में अपने क़दमों की चाप छोड़ती मौत बस आकर गुज़री ही हो। घबराहट ने हाजत को तेज़ कर दिया। मजबूरन वो उठीं। तीन चार दिन रहना है। कल से वो चंधी बुवा को अपने साथ सुलाएँगी। लेकिन मुश्किल ये है कि चंधी बुआ को रतौंधी आती है। उनकी नज़र तो शाम होते ही धुँदलाने लगती है।

    कोहे? बूवा ओसारे में मिट्टी के फ़र्श पर एक पतली चादर डाले सो रही थीं। हड़बड़ा कर करवट बदली तो चादर सिमट कर गोला बन गई।

    सो जाओ, सो जाओ, हम हैं। वो तेज़ तेज़-क़दम बढ़ाती हाते में आगईं। चांद की इब्तिदाई तारीखें थीं। ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने क़ैंची से उसकी एक क़ाश काट कर आसमान से लटका दी हो। नीम का जग़ादरी पेड़ भूत जैसा मालूम हो रहा था। छतरी में कहीं किसी मासूम परिंदे की तिक्का-बोटी करता गोल गोल आँखों से दुनिया को घूरता, मनहूस आवाज़ें निकालता उल्लू छुपा बैठा था। घने बारीक सब्ज़ पत्तों पर शतरंजी बनती मलगजी चांदनी अंधेरे से भी ज़्यादा डरावनी लग रही थी। ज़मीन नाहमवार थी और हाता वसीअ उस पर चल कर टट्टर हटा कर अंदर दाख़िल होने और सँभल कर उकड़ूं बैठने में इतनी देर लगी कि शलवार में चुल्लू भर पेशाब लग ही गया। बेहद कबीदा ख़ातिर हो कर वो लौटीं बैग से बदिक़्क़त तमाम दूसरी शलवार निकाल कर बदली। सुबह चंधी बुवा को धोने के लिए दे देंगी।

    चंधी बुआ

    ज़रीन के सारे काम एक अर्से से चंधी बुआ के ज़िम्मे थे। साये की तरह साथ लगी रहा करती थीं। ज़रीन को इत्मिनान था इसलिए कि वो उम्र में उससे ख़ासी छोटी थीं। बस कोई पच्चास पचपन के लपेटे में। अब हादिसों और नागहानी की तो कोई नहीं जानता लेकिन नॉर्मल उम्र पाई तो आख़िर वक़्त में ज़रीन के पास होंगी। वो ज़रीन की आदत बन गई थीं। उनके आस-पास रहने से ज़रीन को बड़े तहफ़्फ़ुज़ का एहसास होता था। मर्ज़ी के मुताबिक़ पका हुआ खाना मिल जाता। नहाने से पहले गीज़र में गर्म पानी, कपड़े, तौलिया तैयार मिलते। उम्र के असर से लड़खड़ाते क़दम सँभल जाते, मालिश से जिस्म का दर्द निकल जाता। पेशाब के क़तरों से नापाक हुई शलवार उन्हें लुक़्माते हुए किसी शर्मिंदगी का एहसास होता। सुबह को यहां भी वो ज़रीन की इज़्ज़त बचा लेंगी। कहेंगी हमारी बीबी को ऐसे बैत-उल-ख़ला में जाने और पर ड्राम से मग में पानी लेकर आबदस्त की आदत नहीं है। हाथ बहका तो पानी कपड़ों पर चला आया। अब बीबी को तो क्या ख़ुद हमें ऐसी जगह जाने की आदत नहीं है। मगर हाँ हमें रात को उठना नहीं पड़ता। रतौंधी आती होती तो हम रात को भी बीबी के साथ उठ जाते। बोलने की आदत ठहरी और भी जाने क्या-क्या बक बक करेंगी। बस बीबी पे हर्फ़ आए।

    चंधी बुआ का नाम मौलवी साहब ने क़ुरआन शरीफ़ देखकर बीबी सारा ख़ातून रखा था। बीबी और ख़ातून तो छोड़ दीजिए वो सारा भी रह गईं। पाँच छः साल की थीं कि रतौंधी आने लगी। घर में इस तरह के जुमले गूँजने लगे... है चंधी देख के। अरे इस चंधी को शाम पड़े क्या करने को कह दिया सब उलट-पलट कर देगी। एक तो लड़की, ऊपर से चंधी। बेचारे माँ-बाप की क़िस्मत होते होते वो सिर्फ़ चंधी कहलाने लगीं गरचे दिन में तो उन्हें ठीक ठाक ही दिखाई देता था। तो लोग दिन में सारा कह लिया करें, बला से रात बिरात चंधी कह लें। एक-बार उन्होंने ये कहा तो लोग हंस हंसकर दोहरे हो गए। ग्यारह बरस की उम्र में उन्हें नानिहाल की तरफ़ से ज़रीन को दे दिया गया। बदले में उनके माँ-बाप को एक ज़मीन के एक छोटे से क़ता पर छप्पर डाल कर उसे उनके नाम लिख दिया गया। इन दिनों वो जहां रहते थे वहां से निकाल दिये गए थे। ज़रीन के नाना के राब्ते में आने पर मियां-बीवी और सात आठ बरस के लड़के ने ज़रीन के नानिहाल के खेतों में बतौर मज़दूर काम करना शुरू कर दिया था। चार बरस की बीबी सारा ख़ातून को घर में ख़वातीन के हवाले कर के भुला दिया गया। पलंग भर ज़मीन पर पड़ा छप्पर ग्यारह बरस की इस लड़की की क़ीमत थी जो इतनी सी उम्र में मसाला पीसती, रोटियाँ पकाती, ढेकी में धान कूटने में हाथ बटाती, उपले पाथती और अपनी बीनाई के नुक़्स के बावजूद लड़खड़ाती, ठोकरें खाती देर शाम तक सारे घर के अहकाम बजा लाती रहती। ख़रीद-ओ-फ़रोख़त की ये तारीख़ ख़ासी पुरानी थी।

    चंधी बुआ के हिंदू पर दादा बंगाल के क़हत के दौरान अपनी हामिला बीवी को गांव के एक खाते पीते मुसलमान किसान के घर बेच कर चल दिए थे। किसान ने जताया भी कि वो लोग मुसलमान हैं। उन्होंने बंगला की किसी नवाही बोली में समझाया कि उस वक़्त उन्हें मज़हब से ज़्यादा अपनी और अपनी बीवी-बच्चे की जान की फ़िक्र है किसान ने रख लिया तो तीनों बच जाऐंगे। कुछ खाना और चंद सिक्के लेकर वो क़हत का मारा, लाग़र कमज़ोर जवान चल दिया और फिर पलट कर नहीं आया। शायद मर खप गया होगा। रक़म ज़्यादा दिन चल सकी होगी। यहां हामिला बीवी का इंतिज़ाम हो गया था। बेटा पैदा हुआ। वक़्त गुज़रने के साथ माँ-बेटे ने अपने मालिकों का मज़हब क़बूल कर लिया। खेत मज़दूरों के दरमियान शादी ब्याह होई और तीसरी नस्ल में बीबी सारा ख़ातून पैदा होके पाँच बरस की उम्र में ज़रीन के नाना और ग्यारह बरस की उम्र में ज़रीन के यहां चली आईं कि साल भर के अंदर पैदा हो जानेवाले दो बच्चों की परवरिश में हाथ बटाएं।

    बच्चे बड़े हो गए। ख़ुदातरस ज़रीं ने बीबी सारा ख़ातून उर्फ़ चंधी की शादी करा दी। छोड़ छाड़ के एक अदद झूला, एक टीन का बक्स लेकर भाग आईं। हमारा जी नहीं लगता। मरे मोटा खाने वाले गँवार। ऊपर से उसकी अम्मां रोज़ दिन झगड़ा कराती है और जब वो हमें मारता है तो आराम से हुक़्क़ा गुड़ गुड़ाती बैठी रहती है। एक दिन किसी ने कहा समझाओ बेटे को, बहु पर हाथ उठाता है तो धुआँ छोड़ते हुए बोली, हम क्या समझावेंगे। मर्द-महरारू का झगड़ा है, समझें आपस में। बड़ी हरामी है।

    ज़रीन ने बहुत डाँटा। कुछ भी हो बदज़ुबानी क्यूँ-कर रही हो। फिर लाख समझाया। टस से मस नहीं हुईं। आख़िर को खुला दिलवाना पड़ा। ज़रीन के यहां दुबारा यूं रच बस गईं जैसे कभी गई ही हों। एक मुनासिब रिश्ता फिर तय कराया गया मुँह बिगाड़ के निकाह के वक़्त 'हाँ' तो कह दी लेकिन साल पीछे फिर ज़रीन के फाटक पर रिक्शा आन के रुका और झोला लटकाए बुआ बरामद हुईं। दिन में ही उल्लूओं की तरह आँखें पटपटा रही थीं। इस मर्तबा टीन का बक्सा भी छोड़ आई थीं और इस मर्तबा ख़ुला भी नहीं मांगा। अब तीसरा तो हरगिज़ नहीं करना। फ़ार खत्ती ले के क्या करेंगे। कुछ दिन उस दूसरे शौहर ने इंतिज़ार किया फिर हार कर दूसरी शादी करली। बाल बच्चों में मगन हो गया। बुआ उसके नाम के साथ गांव तक का नाम भूल गईं। बस ईद के ईद कामदार चूड़ियां ज़रुर पहनती थीं और गुलाबी दुपट्टा ओढ़ा करती थीं। अब वो चंधी बुआ कहलाने लगी थीं। ज़रीन को सख़्त कोफ्त होती थी लेकिन घर के दूसरे अफ़राद ख़ासतौर पर सफ़ाई करने वाली मुलाज़िमा और माली ने उन्हें ये ख़िताब दिया था जो क़बूल आम की सनद इख़तियार कर गया। उन्हें कोई एतराज़ भी नहीं था। अब अल्लाह मियां ने हमें चनधा कर दिया तो बंदों का क्या। कहेंगे ही चंधी बुआ। रफ़्ता-रफ़्ता लोग उनका नाम भूल गए। भूल जाएं बला से। उनके लिए तो ज़रीन बीबी और उनकी औलादें ही सब कुछ थे। बेटा जर्मनी सिधारा तो सबसे ज़्यादा चंधी बुआ को सदमा हुआ कि एक ही पूत और हमारी बीबी को छोड़कर सात-समुंदर पार चला गया। ज़रीन के शौहर के इंतिक़ाल के बाद से वो साये की तरह ज़रीन के साथ रहने लगी थीं। उस वक़्त भी उन्होंने ही साथ दिया था वर्ना औलादें एक तो अपनी अपनी दुनिया में गुम। ऊपर से तीन तल्ला आने के नाम से कानों पर हाथ धरने वाली। माँ के नानिहाल से क्या वास्ता जब अपने ही नानिहाल से ज़्यादा मतलब रखा। अम्मी क्या करेंगी जाके। अल्लाह मियां का पिछवाड़ा है। फिर जो मर गया वो आपके जाने से वापस आने से तो रहा। इस जुमले में पिनहां मंतिक़ का तो वाक़ई जवाब नहीं था।

    अम्मी, आपसे वहां का सफ़र बर्दाश्त नहीं होगा। बार-बार इस जुमले को दोहराया गया

    हम हैं ना भय्या। जाने दो बीबी को। उनकी नाल वहां गड़ी है, चंधी बुआ ने कहा।

    चंधी बुआ, नाल तो तुम्हारी गड़ी है। दरअसल उसी को खोदने जा रही हो। अम्मी को छोड़ो, तुम्हें हो आओ।

    ज़रीन की ज़िद और बुआ की हिमायत के आगे औलादों की एक चली। वैसे भी यहां रहता कौन था। सारी दलीलें तो फ़ोन पर ही दी जा रही थीं। ढनडार घर में साथ निभाने को चंधी बुआ ही थीं। दो-दो बार शौहरों को छोड़कर भाग आने के लिए कैसी कैसी गालियां उन्होंने खाई थीं। दूसरी मर्तबा तो ज़रीन ने पंखिया से दो-चार हाथ भी जड़ दिए थे लेकिन आज लगता था, कि ज़रीन के लिए उन्हें अल्लाह ने मुक़र्रर किया था। वाक़ई सुबह को उन्होंने वही सब कह कर जो ज़रीन ने सोचा था, शलवार धोकर फैला दी।

    जर्मन बहू

    ज़रीन की बहू पर मेड इन जर्मनी का ठप्पा लगा हुआ था।

    कंप्यूटर इंजीनीयरिंग करने के बाद बेटा जर्मनी चला गया था। वहां उसने आगे की डिग्री भी ली और मुलाज़मत भी की। उस वक़्त ज़रीन के शौहर हयात थे और उसकी शादी के बारे में सोच रहे थे। ज़रीन ने उसके लिए कई लड़कियां नज़र में रख छोड़ी थीं। वो उस वक़्त तक अपनी इंस्ट्रक्टर के साथ रहने लगा था जो उम्र में उससे चंद साल बड़ी लेकिन बहुत हसीन थी। वालदैन से कुछ कहने की हिम्मत नहीं थी इसी लिए जो तस्वीर भेजी जाती, देख लेता पर माक़ूल बहाना बना कर टाल जाता था। दो साल की टाल मटोल के बाद वालदैन को एहसास हो गया कि दाल में कुछ काला है। तभी, ख़ुशक़िस्मती (या बदक़िस्मती ) से वो लड़की रिश्ते को शादी में बदलने पर राज़ी हो गई और बेटे ने वालदैन को अपनी पसंद के बारे में बता कर कह दिया कि वो बद मज़गी पैदा करें, ख़ुशी ख़ुशी यहां आकर शादी में शरीक हों। रिटर्न टिकट भेज दिया जाएगा। वर्ना शादी तो होनी ही है।

    दिल को समझा बुझा कर, ख़ुद अपने आपको बहुत सारी दलीलें देकर मियां-बीवी ने रजामंदी दे दी। ज़रीन ने तलवां ग़रारा, छपका, झूमर और लाँबे लाँबे झुमके बनवाए और शौहर को साथ लेकर जर्मनी रवाना हुई। दुल्हन और उसके घर वाले इन चीज़ों से बहुत महज़ूज़ हुए। लिबास उनके लिए फैंसी ड्रैस जैसा था। गोरी, बक़ौल चंधी बुआ बंदरिया जैसी सूरत वाली जर्मन दुल्हन बड़े मार्के की हिन्दुस्तानी दुल्हन बनी। चर्च वेडिंग में तो ख़ैर उसने गाऊन ही पहना था। ये निकाह का 'गेट अप' था।

    चंधी बुआ अज़-हद रंजीदा थीं। भय्या की शादी के कैसे कैसे अरमान थे। लड़कियां देखने जाएँगी। दो-चार को लड़की वालों से ख़ूब ख़ातिरें कराने के बाद रिजेक्ट किया जाएगा। फिर किसी एक के लिए 'हाँ' कहने के बाद मंगनी, बरी की तैयारी, शादी की रस्में, समधनों को गालियां, जहेज़ में ऐब निकालने से लेकर फिर दुल्हन पर सदक़े वारी जाने तक जाने कितना कुछ। ख़ैर जब बीबी इन सारे अरमानों पर पानी फेर कर, घर पर उन्हें तन्हा छोड़कर ब्याह के लिए गईं तो देर शाम को अकेले घर में उन्होंने हफ़्ता भर तक ढोलक ठनकाई और ख़ूब गीत गाये। माली की बीवी और झाड़ू बर्तन करने वाली चंदा को बुला कर चाय बिस्कुटों से तवाज़ो भी कर दिया करती थीं। तीनों साथ मिलकर ज़माने और फ़िरंगियों सब पर लानत भेजतीं जो भय्या को वरग़ला करले उड़े थे।

    भय्या एक-बार दुल्हन को लेकर हिन्दोस्तान आए थे। बजाय उसे अपनी ज़बान सिखाने के उसी की ज़बान सीख ली थी। फिर अंग्रेज़ी भी दोनों के दरमियान मुश्तर्क थी। ज़रीन का काम चल जाता था लेकिन बहू से गपशप करने, उसके माँ-बाप, बहन-भाई, मामूं-चचा की बख़ीया उधेड़ने के जो अरमान बाक़ी बचे थे वो बहू की सूरत देखने के बावजूद दिल के दिल में रह गए। उन्होंने उसे घोड़े जैसे मुँह वाली क़रार दिया और कहा कि भय्या का वही हाल है कि जात मिली भात। बहर कैफ़ ससुराल वालों से मिलकर, ताज-महल देखकर, मच्छरों मक्खीयों और दिल्ली बेली (Delhi belly) से परेशान हो कर दुल्हन वापस सिधारीं।

    सोलह सतरह बरस गुज़र गए। दो बेटे हुए जिनकी महज़ तस्वीरें देखने को मिला करती थीं। ज़रीन और उसके शौहर एक-बार और बच्चों के लालच में जर्मनी हो आए और जब बच्चे अच्छे ख़ासे टीन एजर हो रहे थे और ज़रीन को इस रिश्ते की तरफ़ से इत्मिनान हो गया था, अचानक तलाक़ की इत्तिला मिली। (दुख बांटने को अब उसके शौहर नहीं रहे थे। पता नहीं क्या सोच कर वसियत तबदील कराई थी और मकान ज़रीन के नाम कर दिया था। ज़्यादा-तर कैश कैंसर के ईलाज, जर्मनी जाने और बच्चों को भारी तोहफ़े देने में ख़र्च हो चुका था मगर हाँ एक अच्छी सरकारी नौकरी की माक़ूल फ़ैमिली पेंशन ज़रीन के लिए थी।)

    बोलो बोलो, हरी हरी

    वो कॉलोनी रिटायर्ड लोगों की कॉलोनी कहलाती थी। किसी ज़माने में वहां बड़ा सा झील नुमा तालाब था। लोग बतखों और मुर्ग़ाबियों के शिकार को आया करते थे। लेकिन ये बात बुज़ुर्गों के वक़्त की है। आज के बुज़ुर्ग नहीं बल्कि उन बुज़ुर्गों के बुज़ुर्गों के वक़्त की। फिर ऐसा हुआ कि तालाब में पानी कम होने लगा। मुर्ग़ाबीयों ने आना बंद कर दिया। ज़मीन निकल आई। वो ज़मीन बहुत सस्ती बिकी। लोग कहते थे कौन जाएगा वहां रहने। पानी तो ख़त्म हुआ लेकिन अब भी गीदड़ और उल्लू बोलते हैं। कोई बीमार पड़े तो दवा डाक्टर। अक़लमंदों ने वहां धड़ा धड़ ज़मीनें खरीदीं और ख़रीद कर चहार-दीवारी करा के डाल दीं। फिर मकान भी बन गए। आज के कसीर मंज़िला इमारतों के घुटे घुटे फ़्लैटों के मुक़ाबले वो महल जैसे लगते। आगे वसीअ और सब्ज़ लॉन, पोर्टिको, बड़ा सा बरामदा फिर असल इमारत। नाज़ुक सतूनों पर ईस्तादा वो बँगले कोलोनियल हिन्दोस्तान की याद दिलाते थे। वहां रहने वाले भी ज़्यादा-तर सरकारी अफ़्सर ही थे। फिर वहां रफ़्ता-रफ़्ता एक तबदीली आई। घोंगे जैसी रफ़्तार के साथ लेकिन पच्चास बरस के अर्से में किसी जवान दिल की तरह धड़कती, दूर से समझ में आती तबदीली। वो पूरा इलाक़ा ऐसा मनहूस लगने लगा जैसे रिहायशी मकान हो कर क़ब्रें हों। एक तो वैसे ही शहर बहुत रोशन नहीं रहा करता था, इस पर से यहां बेशतर घरों में बाहर की लाईट रोशन नहीं की जाती थी। लोग रह ही नहीं गए थे। बहुत से घर बंद थे। ज़्यादा-तर घरों में बूढ़े, रिटायर्ड लोग थे। बस मियां-बीवी। एक-आध मुलाज़िम। वजह दरअसल ये थी कि ये खाते पीते और तालीम याफ्ता कुन्बे थे जिन्होंने लड़कों को आला तालीम दिलवाई थी और बेटीयों की अच्छी जगह शादियां की थीं अब ये सारे नवजवान फुर हो गए थे। या ग़ैर ममालिक में नहीं तो फिर बंबई, मद्रास, बैंगलौर जैसी जगहों में जहां कॉरपोरेट सैक्टर में उनकी अच्छी मुलाज़मतें थीं। छुट्टीयों में अक्सर घूमने ग़ैर ममालिक निकल जाते। कभी-कभार माँ-बाप की ख़बर लेने भी निकलते या फिर ज़्यादा बा-हिम्मत वालदैन हुई तो औलादों की मेज़बानी क़बूल करके दो-चार महीना उनके घर रह आते। शहर के दूसरे इलाक़ों में रहने वाले लोग इस कोलोनी को ओल्ड एज होम कहने लगे थे। कुछ सितम-ज़रीफ़ कहते थे यहां बुज़ुर्गों को छोड़ दिया जाता है कि बाहर बैठी औलादें उनकी मौत का इंतिज़ार करें और इत्तिला मिलने पर आकर फ़ातिहा दुरूद के बाद आख़िरी बार अलविदा कह दें

    अचानक कुछ लोगों को ख़्याल आया कि ये बड़ी बड़ी ज़मीनें , उन पर बने वसीअ बँगले और रहने वाले दो तीन। वो भी ज़्यादा-तर बूढ़े खूसट जिन्हें इतनी जगह, ज़मीन की ज़रूरत ही नहीं है। एक एक बँगले पर ऐसी इमारत उठ सकती है जिसमें सोलह से बीस फ़्लैट बन जाएं। बिल्डर्ज़ ने अच्छी क़ीमतें लगानी शुरू कीं। कुछ लोग मकान बेच कर फ़्लैटों में उठ गए। बड़े, तन्हा मकान ग़ैर महफ़ूज़ भी थे और उनका रख-रखाव भी बहुत मुश्किल था। अक्सर मकानों में सिर्फ़ दो एक कमरे, बावर्चीख़ाना और ड्राइंगरूम तसर्रुफ़ में रहते। बाक़ी हिस्सा उजाड़ रहता। अक्सर बंद भी कर दिया जाता। फ़ैज़ के इंतिक़ाल के बाद ख़ुद ज़रीन ने ऊपरी मंज़िल बिल्कुल ही बंद करा दी थी। उसकी तरफ़ देखने से ही हौल आता था, ऐसी वीरान लगा करती थी। कुछ लोगों ने कहा इसमें जिन्न दख़ल कर लेंगे। किराए पर लगा दें तो बेहतर होगा। चंधी बुआ तुनक के बोलीं, जिन्नों को मोली साब दुआ तावीज़ करके भगा देंगे, कीराएदार मरे पर तो कोई झाड़ फूंक भी असर करेगी। जस्टिस एहसान अहमद के मकान को उनके बेटों ने किराए पर लगा दिया था, लोग क़ब्ज़ा करके बैठ गए, अब चेन्नई में बैठ के करो मुक़द्दमे बाज़ी।

    भय्या का फ़ोन आया जर्मनी से। अम्मी आप क्यों इस ढनडार घर में पड़ी हैं। बिल्डर दो सवा दो करोड़ देने को राज़ी है। बीच के छुट्टी कीजिए। आपके रहने को फ़्लैट अलग दे देगा। ज़रीन थोड़ी सी देर को हक्का बका रह गई। यहां बैठ के तुम्हें बिल्डर ने क़ीमत कैसे बता दी। यही जोड़ तोड़ कर रहे हो?

    बिल्डर से बात मैंने नहीं की। आपा के ज़रिये कराई है। आपको मालूम नहीं मैं यहां किस माली मुसीबत में फंस गया हूँ। बहुत अच्छा मकान था वो बीवी ने ले लिया। बैंक बैलंस भी alimony मैं चला गया। अब बच्चों की परवरिश के लिए मालूम है कितना देना है? आपकी इंडियन करंसी में दो लाख माहवार।

    तुम वापस जाओ। ज़रीन ने बेचैन हो कर कहा।

    आप कैसी ज़ालिम माँ हैं। अपने बच्चों को छोड़ दूं? यहां रह कर ही उनके क़रीब रह सकता हूँ।

    ये बात मेरे ज़हन में फ़ौरी तौर पर नहीं आई। बस मुँह से निकल गया कि जाओ। लेकिन तुम्हें माँ को ज़ालिम कहने में ज़रा सी झिजक नहीं हुई। ज़रीन के दिल में छन से कुछ टूटा। हमेशा हर ख़्वाहिश के आगे सर झुकाया, बच्चों के आराम, उनके फ़ायदे को मुक़द्दम जाना। अब ये मकान लेकर क़ब्र में तो नहीं जाऊँगी। तुम्हारा माली मसला हल होता है तो बेच दो। मेरा कुछ इंतिज़ाम कर देना।

    बेटा जो हिन्दोस्तान आने के नाम से बबिदकता था जल्द ही आगया।

    बिल्डर एक पलश फ़्लैट के साथ सवा दो करोड़ दे रहे थे। फ़्लैट नहीं लेने पर रक़म तीन करोड़ पहुंच रही थी। भाई बहन ने मश्वरा किया। बहन को एक करोड़ मिल जाएगा और भाई को दो करोड़। ये रक़म परदेस में फिर से एक फ़्लैट खरीदवा देगी। ज़ाती मकान होगा तो बड़े तहफ़्फ़ुज़ का एहसास होगा। जो कुछ हाथ से निकल गया उसकी भरपाई हो जाएगी। फिर कब अम्मी की हिमाक़त से कोई क़ाबिज़ हो गया। रातों रात उन्हें और चंधी बुआ को मार के निकल गया। लेकिन तीन करोड़ इस सूरत में मिल रहे थे जब फ़्लैट लिया जाये तो अम्मी कहाँ रहेंगी। उनसे कहा जाये कि जर्मनी चलिए, तो ज़रूर यही कहेंगी मियां दीवाने हुए हो। और फिर अगर राज़ी हुईं तो चंधी बुआ को छोड़ेंगी। अब उन्हें कहाँ लटकाया जाएगा। आपा अम्मी को रखना पड़ेगा। उसने कहा। मियां दीवाने हो रहे हो? इसका मतलब है चंधी बुआ भी साथ में रहेंगी। उन्हें अगर ज़बरदस्ती निकाल दिया गया तो भी उस बिल्ली की तरह मालकिन के पास लौट आयेंगी जिसे बोरे में भर कर गंगा पार उतार दिया गया था और तुम जानो बैंगलौर में मेरे फ़्लैट में ढाई कमरे, एक ड्राइंग कम डाइनिंग और सास सुसर आते हैं तो छः छः महीना रह के जाते हैं। बच्चे आजिज़ हैं। बड़े हो रहे हैं उनका सामान बढ़ रहा है। अम्मी को गांव भेज दो। हमारी नानी अपने हिस्से से दस्त-बरदार हो गई थीं इसीलिए मामूं और अब उनकी औलादों को वो जायदाद मिल गई जो हमारी अम्मी तक भी पहुंची होती तो क्या अम्मी का इतना हक़ नहीं बनता कि वो अपने आख़िरी अय्याम वहां काट लें। माना कि वो लोग अब पहले जैसे नहीं रहे फिर भी बड़ा सा घर है, कमरे हैं , कुछ खेत हैं। पापा की पेंशन है। कुछ हम लोग दे सकते हैं। ख़र्च उनका मसला नहीं होगा। बस रख लें इन दोनों को।

    गांव की खुली फ़िज़ा, हरे-भरे खेत, किनारे बहती नदी। यक़ीनन अम्मी की लाईफ़ बढ़ जाएगी। अम्मी आप वहीं चली जाएं। आख़िर आपकी जड़ें वहां हैं। हमने पूछ लिया है। लोग राज़ी हैं। उन्हें हर माह रक़म दे दिया करेंगे।

    ज़रीन को चुप लग गई। चंधी बुआ ने कहा हमारी बीबी को कुछ हो जाएगा। मर जाएँगी बे-मौत। अरे वहां तो हम रह सकें, ग़रीब, बिके हुए माँ-बापों की औलाद अब तो हमें भी यहां का चस्का लगा हुआ है। अम्मी की लीफ़ बढ़ जाएगी! अरे दुश्मनों से दूर कल की मरती आज मर जाएं गी हमारी बीबी। फिर कभी कहतीं। माँ से ज़्यादा चाहे फ़ा फ़ा कुटनी कहलाये। क्या हम औलाद से ज़्यादा मुहब्बत कर लेंगे? हमें क्या। मगर हम जाते ऐसे गांव। साल भर ही तो हुआ कि मामूं साहिब के मरने पे देख के आए कि क्या हश्र होगा।

    बच्चे को रक़म की ज़रूरत है। आख़िर को ज़रीन ने चुप तोड़ी। वो जर्मन नागिन डस गई तो ज़हर हमें ही उतारना है। हम ये मकान लेकर क़ब्र में जाऐंगे? रहना तो अब दो-गज़ के गड्ढे में है। हमारे लिए शहर क्या और गांव क्या। बुआ तुम चाहो तो यहां किसी के यहां रह लो।औलाद पैदा करने का दर्द झेला अब ये दर्द भी हम तन्हा झेल लेंगे।

    बुआ सर पे दो हत्तड़ मार मार के रोने लगीं।

    तो चलो फिर।

    मकान बिकने की काग़ज़ी कार्रवाई मुकम्मल हो गई। रुपया ट्रांसफ़र होने का इंतिज़ाम हो गया। बेटे ने दबी ज़बान से कहा कि अम्मी की तरह उसकी बहन भी उसके हक़ में अपने शरई हक़ से दस्तबरदार हो जाये मगर बहन ने ज़ाहिर किया कि वो कोई ऐसी बात सुनने को तैयार नहीं और ज़रूरत पड़ने पर क़ानून का सहारा ले सकती है। ख़ैर बाक़ी रक़म भी बहुत काफ़ी थी। उसने छुट्टी कुछ बढ़ाई और अम्मी को ख़ुद उनके नानिहाली गांव पहुंचाने का फ़ैसला किया। इस तरह उनकी नानिहाल हो आएगा। लोग ख़ुश हो जाएं और जाते-जाते अम्मी को वो कुछ ख़ुशी दे जाएगा कि वो उनके साथ गया, उनका आबाई वतन देखा। उसने बड़ी सी एअरकंडीशंड आरामदेह जीप का इंतिज़ाम किया तारों की छाँव में अम्मी और चंधी बुआ अपने मुख़्तसर से सामान के साथ सवार हुईं। अम्मी की ज़िद पर उनके तोते का पिंजरा भी साथ रखा गया

    ज़रीन ने एक आख़िरी नज़र अपने शौहर के बनवाए हुए अरमान भरे वसीअ-ओ-अरीज़ दोमंज़िला मकान पर डाली। करौंदे की झाड़ीयों में जुगनू चमक रहे थे। सड़क के इस पार तेल और सिंदूर पुते हुए तने वाले बरगद के नीचे चराग़-ए-रौशन था और तने पर सुर्ख़ धागे लिपटे हुए थे। औरतें उसके गिर्द घूम घूम कर बट सावित्री के मौके़ पर पूजा करती और शौहर की लाँबी ज़िंदगी की तमन्ना करते हुए सुर्ख़ धागे लपेटा करती थीं। अब यहां चार मंज़िला इमारत बनेगी। हर फ़्लोर पर चार चार फ़्लैट। इस तरह यहां सोला कुन्बे रहेंगे। ज़रीन के दिल में हूक उठी। उसी वक़्त पत्तों में छुपा उल्लु रात के आख़िरी पहर की बोली बोल उठा, हक़ होऊ... हक़ होऊ। क्या बरगद की घनी छतरी में छुपी पच्छल पाइयाँ उतरने लगी थीं? ज़रीन ने घबरा कर चंधी बुआ के शानों का सहारा लिया।

    अम्मी चलें, बिस्मिल्लाह। जीप स्टार्ट हुई।

    हरी बोल हरी बोल...ये आवाज़ें कहाँ से आरही थीं? बेटी ने तो फ़ी अमान अल्लाह कहा था और बेटे ने बिस्मिल्लाह मुजरिहा मुरसाहा कह कर ड्राईवर को जीप स्टार्ट करने का इशारा दिया था।

    कोई घुटे घुटे गले से रोने लगा था। कोई बूढ़ी सी आवाज़ थी।

    वो आवाज़ें फिर आईं जैसे रूहें सरगोशियाँ कर रही हों।

    हरी बोल हरी बोल। हरी बोल हरी बोल। बोलो बोलो हरी हरी

    * ज़च्चाख़ाना जो घर में ही एक कमरा हुआ करता था।

    स्रोत:

    Aankhan Dekhi (Pg. 6)

    • लेखक: ज़किया मशहदी
      • प्रकाशक: एजुकेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली

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