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हिन्दुस्तान छोड़ दो

इस्मत चुग़ताई

हिन्दुस्तान छोड़ दो

इस्मत चुग़ताई

MORE BYइस्मत चुग़ताई

    स्टोरीलाइन

    हिन्दुस्तान छोड़ दो मुहीम के ज़माने में वह अंग्रेज़ अफ़सर बड़ा सरगर्म था। आज़ादी के बाद अंग्रेजों ने हिन्दुस्तान छोड़ दिया मगर उसने नहीं छोड़ा। वह इंग्लैंड के एक किसान परिवार से तअल्लुक़ रखता था और एक अमीरज़ादी से शादी कर के हिन्दुस्तान में अफ़सर हो कर आया था। यहाँ उसकी ज़िंदगी अच्छी-ख़ासी कट रही थी। मगर अस्ल संघर्ष तो तब सामने आया जब अंग्रेज़ अपने मुल्क लौट गए और उसने हिन्दुस्तान छोड़ने से इंकार कर दिया।

    “साहब मर गया”, जयंत राम ने बाज़ार से सौदे के साथ ये ख़बर ला कर दी...

    “साहब कौन साहब?”

    “वो कांड़िया साहब था ना।”

    “ओ काना साहब, जैक्सन... च्च, बेचारा।”

    मैंने खिड़की में से झांक कर देखा। काई लगी, पुरानी, जगह जगह से खूंडी बत्तीसी की तरह मुनहदिम होती हुई दीवार के उस पार उधड़े हुए सीमेंट के चबूतरे पर सक्खू बाई पैर पसारे बैठी मराहटी ज़बान में बैन कर रही थी। उसके पास पट्टू उकड़ूं बैठा हिचकियों से रो रहा था। पट्टू यानी पीटर, काले गोरे मील का नादिर नमूना, उस की आँखें जैक्सन साहब की तरह नीली और बाल भूरे थे। रंग गंदुमी था जो धूप में जल कर बिलकुल ताँबे जैसा हो गया था।

    इसी खिड़की में से मैं बरसों से एक अजीब-ओ-ग़रीब ख़ानदान को देखती आई हूँ। यहीं बैठ कर मेरी जैक्सन से पहली मर्तबा बातचीत हुई थी। सन बयालिस का “हिंदुस्तान छोड़ दो” का हंगामा ज़ोरों पर था। ग्रांट रोड से दादर तक का सफ़र मलिक की बेचैनी का एक मुख़्तसर मगर जानदार नमूना साबित हुआ था। मिंगटन रोड के नाले पर एक बड़ा अलाव जल रहा था। जिसमें राह चलतों की टाईयां हैट और कभी मोड़ जाता तो पतलूनें उतार कर जलाई जा रही थीं। सीन कुछ बचकाना सही मगर दिलचस्प था। लच्छेदार टाईयां नए तरह-दार हैट, इस्त्री की हुई पतलूनें बड़ी बेदर्दी से आग में झोंकी जा रही थीं। फटे छीतड़े पहने आतिशबाज़ नए-नए कपड़ों की निहायत बे-तकल्लुफ़ी से आग में झोंक रहे थे। एक लम्हे को भी तो किसी के दिल में ये ख़्याल नहीं रहा था कि नई गेबर्डीन की पतलून को आग के मुँह में झोंकने के बजाय अपनी नंगी स्याह टांगों पर ही चढ़ाले।

    इतने में मिल्ट्री ट्रक गई थी जिसमें से लाल भबूका थूथनियों वाले गोरे हाथों में मशीन गनें सँभाले धमाधम कूदने लगे। मजमा एक दम फिर से ना जाने कहाँ उड़ गया था। मैंने ये तमाशा म्यूनसिपल दफ़्तर के महफ़ूज़ अहाते से देखा था और मशीन गनें देखकर में जल्दी से अपने दफ़्तर में घुस गई थी।

    रेल के डिब्बों में भी अफ़रातफ़री मची हुई थी। बंबई सैंटर्ल से जब रेल चली थी तो डिब्बे की आठ सीटों में से सिर्फ़ तीन सलामत थीं। लोअर परेल तक वो तीनों भी उखेड़ कर खिड़कियों से बाहर फेंक दी गईं। और मैं रास्ता भर खड़ी दादर आई। मुझे उन छोकरों पर क़तई कोई ग़ुस्सा नहीं रहा था। ऐसा मालूम हो रहा था ये सारी रेलें, ये टाईयां, पतलूनें हमारी नहीं दुश्मन की हैं। उनके साथ हम दुश्मन को भी भवन रहे हैं। उठाकर फेंक रहे हैं। मेरे घर के क़रीब ही सड़क के बेचों बीच ट्रैफ़िक रोकने के लिए एक पेड़ का लंबा सा गुद्ध्া सड़क पर लंबा लंबा डाल कर उस पर कूड़े करकट की अच्छी ख़ासी दीवार खड़ी कर दी गई थी। मैं बमुश्किल उसे फलाँग कर अपने फ़्लैट के दरवाज़े तक पहुंची ही थी कि मिल्ट्री ट्रक गई। और जो पहला गोरा मशीन गन लिए धम से कूदा था। वो जैक्सन साहब ही था। ट्रक की आमद की ख़बर सुनते ही सड़क पर रोक बाँधने वाला इधर उधर बिल्डिंगों पर स्टिक गया था।

    मेरा फ़्लैट चूँकि सबसे निचली मंज़िल पर था लिहाज़ा बहुत से छोकरे एक दम रेला करके घुस आए। कुछ बावरीचीख़ाना में घुस गए। कुछ ग़ुस्ल-ख़ाने में और संडास में दुबक गए।

    चूँकि मेरा दरवाज़ा खुला था इसलिए जैक्सन मआ दो मुसल्लह गोरों के मुझसे जवाब तलब करने आगे आया।

    “तुम्हारे घर में बदमाश छुपे हैं उन्हें हमारे सपुर्द कर दो।”

    “मेरे घर में तो कोई नहीं। सिर्फ मेरे नौकर हैं” मैंने बड़ी लापरवाही से कहा।

    “कौन हैं तुम्हारे नौकर?”

    “ये तीनों...” मैंने तीन आदमीयों की तरफ़ इशारा किया जो बर्तन खड़पड़ कर रहे थे।

    “ग़ुस्ल-ख़ाने में कौन है?”

    “मेरी सास नहा रही हैं”, मेरी सास ना जाने उस वक़्त कहाँ होंगी।

    “और पाख़ाना में”, उसके चेहरे पर कुछ शरारत की झपकी आई।”

    “मेरी माँ होंगी या शायद बहन हो। मुझे क्या पता में तो अभी बाहर से आई हूँ।”

    “फिर तुम्हें कैसे मालूम हुआ ग़ुस्ल-ख़ाने में तुम्हारी सास है?”

    “मैं दाख़िल हुई तो उन्होंने आवाज़ दे कर तौलिया मांगा था।”

    “हूँ... अच्छा अपनी सास से कह दो सड़क रोकना जुर्म है”, उसने दबी आवाज़ में कहा और अपने साथियों को जिन्हें वो बाहर खड़ा कर आया था वापस ट्रक में जाने को कहा।

    “हूँ... हूँ हूँ।” वो गर्दन हिलाकर मुस्कुराता हुआ चला गया। उसकी आँखों में पुर-म’आनी जुगनू चमक रहे थे।

    जैक्सन का बंगला मेरे अहाते से मुल्हिक़ा ज़मीन पर था। मग़रिबी रुख पर समुंद्र था। उसकी मेम साहब मअ दो बच्चों के इन दिनों हिंदुस्तान आई हुई थी। बड़ी लड़की जवान थी और छोटी बारह तेराह बरस की। मेम साहब सिर्फ़ छुट्टियों में थोड़े दिनों के लिए हिंदुस्तान जाती थी। उसके आते ही बंगले का हुलिया बदल जाया करता था। नौकर चाक़-ओ-चौबंद हो जाते। अंदर बाहर पुताई की जाती। बाग़ में नए गमले मुहय्या किए जाते। जो मेम साहब के जाते ही पास पड़ोस के लोग चुराना शुरू कर देते। कुछ माली बीज डालता और दोबारा जब मेम साहब की आमद का ग़लग़ला मचता तो साहब फिर विक्टोरिया गार्डन से गमले उठवा लाता। जितने दिन मेम साहब रहती नौकर बावर्दी नज़र आते, साहब भी यूनिफ़ॉर्म डाले रहता या निहायत उम्दा ड्रेसिंग गाउन पहने साफ़ सुथरे कुत्तों के साथ फूलों का बिलकुल इस तरह मुआयना करता फिरता गोया वो सौ फ़ीसद साहब लोगों में से है। मगर मेम साहब के जाते ही वो इतमीनान की सांस लेकर दफ़्तर जाता डयूटी के बाद नेकर और बनियान पहने चबूतरे पर कुर्सी डाले बियर पिया करता और शायद उस का ड्रेसिंग गाउन उस का बैरा चुरा ले जाता। कुत्ते तो मेमसाहब के साथ ही चले जाते। दो-चार टेरी कुत्ते बंगले को यतीम समझ कर अहाते में डेरा डाल देते।

    मेमसाहब जितने दिन रहती डिनर पार्टीयों का ज़ोर रहता। और वो सुबह ही सुबह पंचम सुरों में अपनी आया को आवाज़ देती... “आयो, विदो!”

    “जी मेम साहब।” आया उस की आवाज़ पर तड़प कर दौड़ती। मगर जब मेम साहब चली जाती तो लोगों का कहना था बेगम बन बैठी थी। वो उस की गैर हाज़िरी में ग़ीवज़ी भुगताया करती थी। फ्लोमीना और पट्टू इसी आरिज़ी राज के मुस्तक़िल सबूत थे।

    कुछ हिंदुस्तान छोड़ दो का हंगामा और कुछ मेम साहब उकता गई थी। इस गंदे पिच पिचाते मुल्क और इसके बासीयों से। इसलिए वो जल्द ही वतन सिधार गई। उन्हीं दिनों फिर मेरी मुलाक़ात जैक्सन से इसी खिड़की के ज़रिये हुई। “तुम्हारा सास नहा चुका...” उसने बम्बई की ज़बान में बदज़ाती से मुस्कराकर पूछा।

    “हाँ साहब... नहा चुका... ख़ून का ग़ुस्ल किया उसने।” मैंने तल्ख़ी से कहा। चौदह चौदह बरस के चंद बच्चे कुछ ही दिन पहले हरी निवास पर जो गोली चली थी, उसमें मारे गए थे। मुझे यक़ीन था कि उनमें कुछ वही बच्चे होंगे जो उस दिन जब ट्रक गई थी तो मेरे घर में छुप गए थे। मुझे साहब से घिन आने लगी थी। ब्रिटिश सामराज का जीता जागता हथियार मेरे सामने खड़ा उन बे-गुनाहों के ख़ून का मज़ाक़ उड़ा रहा था जो उस के हाथ से मारे गए थे। मेरा जी चाहा उस का मुँह नोच लूं उस की कौन सी आँख शीशे की थी। ये अंदाज़ा लगाना मेरे लिए मुश्किल था क्योंकि वो शीशे वाली आँख विलाइती फ़नकारी का आला नमूना थी। उसमें सारी जैक्सन की सफ़ेद क़ौम की चालबाज़ी भरी हुई थी। एहसास-ए-बरतरी का ज़हर दोनों ही आँखों में बराबर रचा हुआ था। मैंने धड़ से खिड़की के पट बंद कर दिए।

    मुझे सक्खू बाई पर ग़ुस्सा आता था। सूअर की बच्ची सफ़ेद क़ौम के ज़लील कुत्ते का तर निवाला बनी हुई थी। क्या ख़ुद इस मुल्क के कोढ़ियों और हरामज़ादों की कमी थी। जो वो मुल्क की ग़ैरत के नीलाम पर तुल गई थी। हर-रोज़ जैक्सन शराब पी कर उस की ठुकाई करता। मुल्क में बड़े बड़े मा’रके सर किये जा रहे थे। सफ़ेद हाकिम बस चार दिनों के मेहमान थे।

    “बस अब चल-चलाव है उनकी हुकूमत का”, कुछ लोग कहते।

    “अजी ये शैख़-चिल्ली के ख़्वाब हैं। उन्हें निकालना मज़ाक़ नहीं।” दूसरे लोग कहते। और मैं मुल्क के नेताओं की लंबी चौड़ी तक़रीरें सुनकर सोचती। “कोई जैक्सन काने साहब का ज़िक्र ही नहीं करता। वो मज़े से सक्खू बाई के झोंटे पकड़ कर पीटता है। फ्लोमीना और पट्टू को मारता है। जय हिंद के नारे लगाने वाले इस कमबख़्त का कुछ फ़ैसला क्यों नहीं करते।

    मगर मेरी समझ में नहीं रहा था कि क्या करूँ। पिछवाड़े शराब बनती थी। मुझे मालूम था सब कुछ, मगर मैं क्या कर सकती थी। सुना था कि अगर इन ग़ुंडों की रिपोर्ट कर दो तो ये जान के लागू हो जाते हैं। वैसे मुझे ये भी तो नहीं मा’लूम था कि किस से रिपोर्ट करूँ। सारी बिल्डिंग के नल दिन रात टपकते थे। मोरियाँ सड़ रही थीं, मगर मुझे क़त’ई नहीं मा’लूम था कि कहाँ और किस से रिपोर्ट की जाती है। आस-पास रहने वालों में भी किसी को नहीं मालूम था कि अगर कोई बदज़ात औरत ऊपर से सर पर कूड़े का टीन उलट दे तो उसकी किस से शिकायत करो। ऐसे मौक़ों पर उमूमन जिसके सर पर कूड़ा गिरता वो मुँह ऊँचा करके खिड़कियों को गालियाँ देता, कपड़े झाड़ता अपनी राह लेता।

    मैंने मौक़ा पाकर एक दिन सक्खू बाई को पकड़ा।

    “क्यों कमबख़्त ये पाजी तुम्हें रोज़ पीटता है तुझे शर्म भी नहीं आती।”

    “रोज कभी मारता बाई?” वो बहस करने लगी।

    “ख़ैर वो महीने में चार पाँच दफ़ा तो मारता है ना!”

    “हाँ मारता है बाई... सो हम भी साले को मारता है”, वो हंसी।

    “चल झूटी।”

    “अरे पट्टू का सौगन्द... हम थोड़ा मार दिया साला को परसों?”

    “मगर तुझे शर्म नहीं आती, ये सफ़ेद चमड़ी वाले की जूतियां सहती है?” मैंने एक सच्चे वतन परस्त की तरह जोश में आकर लेकचर दे डाला। इन लुटेरों ने हमारे मुल्क को कितना लूटा है, वग़ैरा वग़ैरा।

    “अरे बाई क्या बात करता तुम। साहब साला कोई को नहीं लूटा। ये जो मवाली लोग है ना ये बेचारा को दिन रात लूटता। मेम-साहब गया। पीछे सब कटलरी फटलरी बैरा लोग पार कर दिया। अक्खा पाटलोन, कोट हैट, इतना फस्ट क्लास जूता... सब खत्म... देखो चल के बंगले में कुछ भी नईं छोड़ा। तुम कहता है चोर है साहब, हम बोलता हम नईं होवे तो साला उस का बोटी काट के जावे लोग।”

    “मगर तुम्हें क्यों उस का इतना दर्द है?”

    “काई को नईं होवे दर्द वो हमारा मर्द है ना बाई...” सक्खू बाई मुस्कुराई।

    “और मेम साहब?”

    “मेम साहब साली पक्की छिनाल हाँ” सक्खू बाई ने फ़ैसला किया। “हम उसको अच्छी तरह जानता... हाँ... लंदेन में उसका बूत यार है।”

    यहां सक्खू बाई ने मोटी सी गाली देकर कहा। “वहीं मरी रहती है। आती भी नईं, पन आती तो अक्खा दिन साहब से खट खट। नौकर लोग से खट खट।”

    मैंने उसे समझाने की कोशिश की कि अब अंग्रेज़ हिंदुस्तान से जा रहे हैं। साहब भी चला जाएगा। मगर वो क़त’ई नहीं समझी। यही कहती रही, “साहब हमको छोड़ के क्या जाएगा... बाई उस को हलाएत एक दम पसंद नहीं।”

    कुछ साल के लिए मुझे पूना रहना पड़ा। इस अर्से में दुनिया बदल गई। फिर वाक़ई अंग्रेज़ चले गए। मुल्क का बटवारा हुआ। सफ़ेद हाकिम पिटी हुई चाल चल गया और मुल्क ख़ून की लहरों में नहा गया।

    जब बम्बई वापस आई तो बंगले का हुलिया बदला हुआ था। साहब ना जाने कहाँ चला गया था। बंगले में एक और फ़ौजी ख़ानदान बसा था। बाहर नौकरों के क्वर्टरों में से एक कोठड़ी में सक्खू बाई रहने लगी थी। फ्लोमीना ख़ासी लंबी हो गई थी। पट्टू और वो माहिम के क़रीब एक यतीम ख़ाने में पढ़ने जाते थे।

    जैसे ही सक्खू बाई को मेरे आने की ख़बर मिली फ़ौरन हाथ में दो-चार मूंगने की फलियाँ लिए आन धमकी।

    “कैसा है बाई?” उसने रस्मन मेरे घुटने दबाकर पूछा।

    “तुम कैसा है... साहब कहाँ है तुम्हारा? चला गया ना लंदन।”

    “नईं बाई”, सक्खू बाई का मुँह सूख गया। “हम बोला भी जाने को पर नईं गया। उसका नौकरी भी ख़ल्लास हो गया था। आर्डर भी आया पर नईं गया।”

    “फिर वो गया कहाँ?”

    “हस्पताल में!”

    “क्यों क्या हो गया?”

    “डाक्टर लोग बोलता... कि दारू बहुत पिया। इस के कारन मस्तक फिर गया। उधर पागल साहब का हस्पताल है। उच्चा, एक दम फ़रस्ट क्लास, उधर उस को डाला।”

    “मगर वो तो वापस जाने वाला था।”

    “कितना सब लोग बोला, हम भी बोला... बाबा चला जाओ”, सक्खू बाई रो पड़ी।

    “पन नहीं, हमको बोला सक्खू डालिंग तेरे को छोड़ कर नहीं जाएगा।”

    ना जाने सक्खू बाई को रोते देखकर मुझे क्या हो गया। मैं बिलकुल भूल गई कि साहब एक ग़ासिब क़ौम का फ़र्द है जिसने फ़ौज में भर्ती हो कर मेरे मलिक की गु़लामी की ज़ंजीरों को चौहीरा कर दिया था। जिसने मेरे हम वतन बच्चों पर गोलिया चलाई थीं। निहत्ते लोगों पर मशीन गनों से आग बरसाई थी। ब्रिटिश सामराज के उन घिनौने कल पुर्ज़ों में से था जिसने मेरे देस के जाँबाज़ों का ख़ून सड़कों पर बहाया था। सिर्फ इस क़ुसूर में कि वो अपना हक़ मांगते थे। मगर मुझे उस वक़्त कुछ याद ना रहा। सिवाए उस के कि सक्खू बाई का मर्द पागल ख़ाने में था। मुझे अपने जज़्बाती होने पर बहुत दुख था क्योंकि एक क़ौम परस्त को जाबिर क़ौम के एक फ़र्द से क़त’ई किसी किस्म की हमदर्दी या लगाओ ना महसूस करना चाहिए।

    मैं ही नहीं सब भूल चुके थे। मुहल्ले के सारे लौंडे नीली आँखों वाली फ्लोमीना पर बग़ैर ये सोचे समझे फ़िदा थे कि वो कीड़ा जिससे उस की हस्ती वजूद में आई सफ़ेद था या काला। जब वो स्कूल से लोटती तो कितनी ही ठंडी साँसें उस के जुलू में होतीं। कितनी ही निगाहें उस के पांव तले बिछाई जातीं। किसी लौंडे को उसके इश्क़ में सर धुनते वक़्त क़त’ई ये याद ना रहता था कि ये उसी सफ़ेद दरिंदे की लड़की है जिसने हरी निवास के नाके पर चौदह बरस के बच्चे को ख़ून में डुबो मारा था। जिसने बाहम चर्च के सामने निहत्ती औरतों पर गोलीयां चलाई थीं। क्योंकि वो नारे लगा रही थीं, “हिंदुस्तान छोड़ दो।”

    जिसने चौपाटी की रेत में जवानों का ख़ून निचोड़ा था और सेक्रेटरी के सामने सूखे मारे नंगे भूके लड़कों के जलूस को मशीन गनों से दरहम-बरहम किया था। वो सब भूल चुके थे। बस इतना याद था कि कुंदनी गालों और नीली आँखों वाली छोकरी की कमर में ग़ज़ब की लचक है मोटे मोटे गदराए हुए होंटों की जुंबिश में मोती रुलते हैं।

    एक दिन सक्खू बाई झोली में प्रसाद लिए भागी भागी आई।

    “हमारा साहब गया”, उनकी आवाज़ लरज़ रही थी। आँखों में मोती चमक रहे थे। कितना प्यार था। इस लफ़्ज़ ‘हमारा’ में। ज़िंदगी में एक-बार किसी को यूं जी जान का दम निचोड़ कर अपना कहने का मौक़ा मिल जाये तो फिर जन्म लेने का मक़सद पूरा हो जाता है।

    “अच्छा हो गया?”

    “अरे बाई पागल कभी था? ऐसे इज साहब लोग पकड़ कर ले गया था। भाग आया...” वो राज़दारी के लहजे में बोली।

    मैं डर गई कि लो भई एक तो हारा हुआ अंग्रेज़ ऊपर से पागलख़ाना से भागा हो। किस को रिपोर्ट करूँ। बंबई की पुलिस के लफ़ड़े में कौन पड़ता फिरे। हुआ करे पागल मेरी बला से। कौन मुझे उससे मेल-जोल बढ़ाना है।

    लेकिन मेरा ख़्याल ग़लत निकला। मुझे मेल-जोल बढ़ाना पड़ा। मेरे दिल में भी खदबद हो रही थी कि किसी तरह पूछूँ जैक्सन इंग्लिस्तान अपनी बीवी के पास क्यों नहीं जाता। भला ऐसा भी कोई इन्सान होगा जो फ़िर्दौस को छोड़कर यूं एक खोली में पड़ा रहे और एक दिन मुझे मौक़ा मिल ही गया। कुछ दिन तक तो वो कोठड़ी से बाहर ही ना निकला। फिर आहिस्ता-आहिस्ता निकल कर चौखट पर बैठने लगा। वो सूख कर चर्ख़ हो गया था। उसका रंग जो पहले बंदर की तरह लाल चुक़ंदर था झुलस कर कत्थई हो गया था। बाल सफ़ेद हो गए थे। चार ख़ाना की लुंगी बाँधे मैला बनियान चढ़ाए वो बिलकुल हिंदुस्तान की गलीयों में घूमते पुराने गोरखों जैसा लगता था। उसकी नक़ली और असली आँख में फ़र्क़ मालूम होने लगा था। शीशा तो अब भी वैसा ही चमकदार, शफ़्फ़ाफ़ और ‘अंग्रेज़’ था, मगर असली आँख गदली बेरौनक हो कर ज़रा दब गई। उमूमन वो शीशे वाली आँख के बग़ैर ही घूमा करता था। एक दिन मैंने खिड़की में से देखा तो वो जामुन के पेड़ के नीचे खड़ा खोए खोए अंदाज़ में कभी ज़मीन से कोई कंकर उठाता, उसे बच्चों की तरह देखकर मुस्कुराता फिर पूरी ताक़त से उसे दूर फेंक देता। मुझे देखकर वो मुस्कुराने और सर हिलाने लगा।

    “कैसे तबीयत है साहब?” तजस्सुस ने उकसाया तो मैंने पूछा।

    “अच्छा है। अच्छा है”, वो मुस्कराकर शुक्रिया अदा करने लगा।

    मैंने बाहर जाकर इधर-उधर की बातें करना शुरू कीं। जल्द ही वो मुझसे बातें करने में बे-तकल्लुफ़ी सी महसूस करने लगा। फिर एक दिन मैंने मौक़ा पाकर कुरेदना शुरू किया। कई दिन की जाँ-फ़िशानी के बाद मुझे मालूम हुआ कि वो एक शरीफ़ ज़ादी का नाजायज़ बेटा था। उसके नाना ने एक किसान को कुछ रुपया दे दिलाकर पालने पर राज़ी कर लिया। मगर ये मुआमला इस सफ़ाई से किया गया कि उस किसान को भी पता ना चल सका कि वो किस ख़ानदान का है। किसान बड़ा जाबिर था। उसके कई बेटे थे जो जैक्सन को तरह तरह से ज़क पहुंचाया करते थे। रोज़ पिटाई होती थी। मगर खाने को अच्छा मिलता था। उसने बारह तेराह बरस की उम्र से भागने की कोशिश करना शुरू की। तीन चार साल की मुस्तक़िल कोशिशों के बाद वो लुढ़कता पढ़कता धक्के खाता लंदन पहुंचा। वहां उसने दुनिया-भर के पेशे बारी बारी इख़तियार किए। मगर इस अरसे में वो इतना ढीट मक्कार और ख़ुद-सर हो गया था कि दो दिन से ज़्यादा कोई नौकरी ना रहती।

    वो शक्ल-ओ-सूरत का वजहीह था। इसलिए लड़कीयों में काफ़ी हर दिल अज़ीज़ था। डार्थी, उस की बीवी बड़े नक चढ़े ख़ानदान की लड़की थी। कम-रू और कम-ज़र्फ़ भी थी। उसका बाप बा-रसूख़ आदमी था। जैक्सन ने सोचा इस ख़ाना-बदोशी की ज़िंदगी में बड़े झंझट हैं। आए दिन पुलिस और कचहरी से वास्ता पड़ता है। क्यों ना डार्थी से शादी करके आक़िबत सँवार ली जाये।

    डार्थी उस के बाप की बेटी उस की दस्तरस से बाहर थी वो ऊंची सोसाइटी में उठने बैठने की आदी थी मगर जैक्सन की उस वक़्त दोनों आँखें खरी असली थीं। ये तो जब डार्थी से लड़ कर वो शराब-ख़ानों का हो रहा, वहां किसी से मार पीट में आँख जाती रही। जब तक उस की सिर्फ़ बड़ी बेटी पैदा हुई थी।

    “हाँ तुमने डार्थी को कैसे घेर कर फाँसा...?” मैंने और कुरेदा।

    “जब मेरी दोनों आँखें सलामत थीं”, जैक्सन मुस्कुराया।

    किसी ना किसी तरह डार्थी हत्थे चढ़ गई। कमबख़्त कुँवारी भी नहीं थी मगर ऐसे फ़ेल मचाए कि बाप की मुख़ालिफ़त के बावजूद शादी कर ली। शायद वो अपनी शादी से ना-उम्मीद हो चुकी थी और ख़ुद उसकी घात में थी।

    बाप ने भी लड़की की मजबूरीयों को समझ लिया। नीज़ बीवी के रोज़ रोज़ के तक़ाज़ों से मजबूर हो कर उसे हिंदुस्तान भिजवा दिया। ये वो ज़माना था जब हर अंग्रेज़ हिंदुस्तान के सर मंढ दिया जाता था। ख़्वाह वहां वो जूते गांठता हो यहां आते ही साहब बन बैठता था।

    जैक्सन ने हद कर दी। वो हिंदुस्तान में भी वैसा ही निकम्मा और ला-उबाली साबित हुआ। सब से बड़ी ख़राबी जो उसमें थी वो उस का छिछोरा पन था। बजाय साहब बहादुरों की तरह रोब दाब से रहने के वो निहायत भोंडे पन से नेटो लोगों में घुल मिल जाता था। जब वो बस्ती के इलाक़े में जंगलात के महिकमा में तैनात हुआ तो वो क्लब के बजाय ना जाने किन चन्डूख़ानों में घूमता फिरता था।

    आस-पास सिर्फ चंद अंग्रेज़ों के बंगले थे। बद-क़िस्मती से ज़्यादा-तर लोग मुअम्मर और बुर्दबार थे। सुनसान क्लब में जहां हिंदूस्तानियों और कुत्तों को आने की इजाज़त ना थी। ज़्यादा-तर उल्लू बोला करता था। सब ही अफ़िसरों की बीवियां अपने वतन में रहती थीं। जब कभी किसी अफ़्सर की बीवी आती तो वो उसे बजाय जंगल में लाने के ख़ुद छुट्टी लेकर शिमला या नैनीताल चला जाता। फिर बीवी हिंदुस्तान की ग़लाज़त से आजिज़ आकर वापस चली जाती। और उसका साहब ठंडी आहें भरता बीवी की हसीन याद लिए लौट आता। साहब लोग वैसे अपना काम नेटो औरतों से चला लिया करते थे। इस किस्म के ताल्लुक़ात से किसी का भी नुक़्सान नहीं होता था। हिसाब भी सस्ता रहता था। हिंदुस्तान का भी फ़ायदा था। इस में एक तो उनसे पैदा होने वाली औलाद बादामी और कभी ख़ासी गोरी पैदा होती थी, और फिर उनके बा-रसूख बाप उनके लिए यतीम-ख़ाने और स्कूल भी खोल देते थे। सरकारी ख़र्चे पर उनकी दूसरे हिंदुस्तान से बेहतर तालीम-ओ-तर्बीयत होती थी। ये ऐंगलो इंडियन ख़ुश शक्ल तबक़ा अंग्रेज़ों से बस दूसरे नंबर पर था। लड़के रेलवे, जंगलात और नेवी में बड़ी आसानी से खप जाते थे। जो मामूली शक्ल की लड़कियां होतीं उन्हें हिन्दुस्तानी लड़कियों के मुक़ाबले में बेहतर नौकरियां मिल जातीं और वो स्कूलों, दफ़्तरों और हस्पतालों की रौनक बढ़ातीं। जो ज़्यादा हसीन होतीं वो बड़े बड़े शहरों के मग़रिब-ज़दा बाज़ार-ए-हुस्न में बड़ी कामयाब साबित होती थीं।

    जैक्सन साहब जब हिंदुस्तान आया तो उसमें काने शख़्स के तमाम ऐब बड़ी इफ़रात से मौजूद थे। शराब उस की आदत-ए- सानी बन चुकी थी। हर जगह उसकी किसी ना किसी से चख़ चल जाती और उसका तबादला हो जाता। जंगलात से हटाकर उसे पुलिस में भेज दिया गया। उसका उसे बहुत मलाल था। क्योंकि वहां एक पहाड़न पर उसका बेतरह दिल गया था। जबलपुर पहुंच कर वो उसे ज़रूर बुलवा लेता मगर वहां से एक नटनी से इश्क़ हो गया। ऐसा शदीद इश्क़ कि उसकी बीवी सारी छुट्टियां नैनीताल में गुज़ार कर वापस चली गई और वो ना गया। काम की ज़्यादती का बहाना करता रहा। छुट्टी ना मिलने का उज़्र किया। मगर डार्थी के डैडी के कितने ही दोस्त थे जिनकी रसूख़ की वजह से उसे ज़बरदस्ती छुट्टी दिलवाई गई। जब वो नैनीताल पहुंचा तो उसका दिल वहां क़त’ई ना लगा। एक तो डार्थी उसकी जुदाई में इस पर बे-तरह आशिक़ हो गई थी और चाहती थी दोबारा हनीमून मनाया जाये। दूसरी तरफ़ उसे जैक्सन के तरीक़ा-ए-इशक़ से बड़ी वहशत होती थी। वो इतने दिन हिंदुस्तान में रह कर बिलकुल ही अजनबी हो चुका था। पहाड़न और नटनी दोनों ने उसकी हिन्दुस्तानी पति-व्रता इस्त्रीयों की तरह ख़िदमत करके उस का दिमाग़ ख़राब कर दिया था।

    साल में सिर्फ दो महीने के लिए आने वाली बीवी बिलकुल अजनबी हो गई थी। फिर उसके सामने जैक्सन को तकल्लुफ़ात बरतना पड़ते थे।

    एक दिन नशे में उसने कुछ पहाड़न और नटनी के अंदाज़-ए-मुहब्बत का अपनी बीवी से भी मुतालिबा कर दिया। वो ऐसी चिराग़ पा हुई कि जैक्सन के छक्के छूट गए। उसने बहुत जिरह की बहुत कुरेदा कि “कहीं तुम भी दूसरे बे-ग़ैरत और नीच अंग्रेज़ों की तरह लोकल औरतों से मेल-जोल तो नहीं बढ़ाने लगे हो।” जैक्सन ने कसमें खाईं और डार्थी के इतने प्यार लिये कि वो उस की पारसाई की क़ाइल हो गई। उसे बड़ा तरस आया और बड़े इसरार से वो उसे जबल पूर ले आया। मगर वो वहां की मक्खीयों और गर्मी से बौखला कर नीम पागल हो गई। और तो सब झेल जाती मगर जब उस के ग़ुस्ल-ख़ाने में दो मोई निकली तो वो उसी वक़्त सामान बाँधने लगी। जैक्सन ने बहुत समझाया कि ये साँप नहीं और काटता भी नहीं मगर उसने एक ना सुनी और दूसरे दिन दिल्ली चली गई।

    वहां से उसने ज़ोर लगाकर उसका तबादला बम्बई करवा दिया। ये उस ज़माने की बात है जब दूसरी जंग शुरू हो चुकी थी। नटनी की जुदाई और डार्थी का बम्बई में मुस्तक़िल क़ियाम सोहान-ए-रूह बन गया। सक्खू बाई बच्चों की आया का हाथ बटाने के लिए रखी गई थी। मगर जब बारिश से जी छोड़कर डार्थी मअ बच्चों के वतन गई तो जैक्सन की नज़र-ए-इनायत उस पर पड़ी। उफ़ किस क़दर उलझी हुई दास्तान थी साहब की। क्योंकि सक्खू बाई अस्ल में गनपत हैड बैरे की रखैली औरत थी। वो उसे पवन पुल से फुसला लाया था। वैसे बीवी बच्चों वाला आदमी था। सक्खू बाई अपनी इस नौकरी से जिसमें ज़मीन पोंछने, बर्तन धोने के इलावा गणपत के नाज़ उठाना भी शामिल था। काफ़ी मुत्मइन थी।

    गनपत उसे कभी अपने किसी दोस्त को भी अज़राह-ए-करम या क़र्ज़े के इव्ज़ में दे दिया करता था। मगर बड़ी चालाकी से कि बहुत दिन तक सक्खू बाई को भी पता ना चला। वो पीने से तो पहले ही कुछ वाक़िफ़ थी। गनपत की सोहबत में पाबंदी से शाम को ठर्रा चढ़ाने लगी। गनपत गाहक को अपनी कोठरी में ले आता। जैक्सन का डर तो किसी को था नहीं। सब काम काज छोड़कर नौकर मज़े से जुआ खेलते, ठर्रा पीते बल्कि सारे शिवा जी पार्क के ग़ुंडे डार्थी के जाते ही साहब के बंगले पर टूट पड़ते और रात गए तक हुल्लड़ मचा रहता।

    शराब जब ख़ूब चढ़ जाती है तो वो सक्खू बाई को उस आदमी के पास छोड़कर किसी बहाने से चला जाता। सक्खू बाई समझती थी कि वो गनपत का उल्लू बना रही है और आहिस्ता-आहिस्ता वो साहब की ख़िदमत करते करते बीवी की इवज़ी भी भुगतने लगी। इसी तरह गनपत के चक्कर से छुट्टी मिली। वो कमबख़्त उल्टा उस की सारी तनख़्वाह एंठ लिया करता था। उन्ही दिनों गणपत फ़ौज में से बैरे की हैसियत से मिडल ईस्ट चला गया और सक्खू बाई मुस्तक़िल मेम साहब की जगह जम गई। बस जब छुट्टियों में मेम साहब आती तो वो अपनी खोली में मुंतक़िल हो जाती। और जब वो अपनी पतली कोकदार आवाज़ में... “आयो। दूद” पुकारती तो वो फ़ौरन सब काम छोड़ छाड़ के “यस मेम साहब” कह कर लपकती। यूं तो मेमसाहब से सीख कर वो अपने आप को बड़ी अंग्रेज़ीदाँ समझने लगी थी। अंग्रेज़ी ज़बान में यस, नो, डैम फ़ूल, स्वाईन के सिवा और है ही क्या।

    हाकिमों का उन चंद अलफ़ाज़ में ही काम निकल जाता है। लंबे चौड़े अदबी जुमलों की ज़रूरत नहीं पड़ती। ताँगे के घोड़े को टख़ टख़ और चाबुक की ज़बान ही काफ़ी होती है। मगर सक्खू बाई को ये नहीं मा’लूम था कि अंग्रेज़ की गाड़ी में जुता हुआ मरियल घोड़ा अलिफ़ हो कर गाड़ी लोट चुका था और अब उस की लगामें दूसरे हाथों में थीं। उस की दुनिया बड़ी महिदूद थी। वो ख़ुद, उसके दो बच्चे और उसका ‘मर्द’।

    जब मेम साहब हिंदुस्तान आया करती थी। जब भी सक्खू बाई बड़ी फ़राख़-दिली से इवज़ी छोड़कर फिर नैनी के साथ नीचे काम करने लगती। उसे मेम साहब से क़त’ई कोई हसद नहीं था। मेमसाहब मग़रिबी हुस्न का नमूना हो तो हो। हिन्दुस्तानी मेयार-ए-हुस्न के तराज़ू में उसे तौला जाता तो जवाब सिफ़र मिलता। उसकी जिल्द खुर्चे हुए शलग़म की तरह कच्ची कच्ची थी। जैसे उसे पूरी तरह पकने से पहले डाल से तोड़ लिया गया हो। या ठंडी बे-जान अँधेरी क़ब्र में बरसों दफ़न रखने के बाद निकाला हो। उसके छिदरे मैली चांदी के रंग के बाल बिलकुल बुढ़ियों के बालों की तरह लगते थे। इसलिए सक्खू बाई के दर्जे के लोग उसे बुढ़िया समझते थे या फिर सूरज-मुखी जिसे हिंदुस्तान में बड़ा क़ाबिल-ए-रहम समझा जाता है। जब वो मुँह धोए होती तो उसकी पैंसिल से बनाई हुई भवें ग़ायब होतीं। चेहरा ऐसा मालूम होता गोया किसी ने तस्वीर को सस्ते रबड़ से बिगाड़ दिया हो।

    फिर डार्थी सर्द थी, अजनबी थी। जैक्सन का वजूद उस के लिए एक घिनौनी गाली था। वो अपने को निहायत बदनसीब और मज़लूम समझती थी। और शादी को ना-कामयाब बनाने में हक़-ब-जानिब थी। ख़्वाह जैक्सन कितने ही बुलंद ओहदे पर पहुंच जाता वो उस पर फ़ख़्र नहीं कर सकती थी, क्योंकि उसे मालूम था कि ये सारे ओहदे ख़ुद डार्थी के बाप के दिलाए हुए हैं जो किसी भी अहमक़ को दिला दिए जाते तो वो आसमानों को छू लेता।

    उसके बरख़िलाफ़ सक्खो बाई अपनी थी... गरमा-गरम थी। उसने पवन पुल पर अलाव की तरह भड़क कर हज़ारों के हाथ तापने का सामान मुहय्या किया था। वो गनपत की रखेली थी जो उसे पुरानी क़मीज़ की तरह दोस्तों को उधार दे दिया करता था। उसके लिए जैक्सन साहब देवता था। शराफ़त का अवतार था। उसके और गनपत के प्यार के तरीक़े में कितना फ़र्क़ था, गणपत तो उसे मुँह का मज़ा बदलने के लिए चबा-चबा कर थूकता। और साहब एक मजबूर ज़रूरतमंद की तरह उसे अमृत समझता। उसके प्यार में एक बच्चे जैसी लाचारी थी।

    जब अंग्रेज़ अपना टाट प्लान लेकर चले गए तो वो नहीं गया। डार्थी ने उसे बुलाने के सारे जतन कर डाले। धमकियां दीं मगर उसने इस्तीफ़ा दे दिया और नहीं गया।

    “साहब तुम्हें अपने बच्चे भी याद नहीं आते?” मैंने एक दिन उससे पूछा।

    “बहुत याद आते हैं। फ़लू शाम को देर से आती है ओर पट्टू लौंडों के साथ खेलने चला जाता है। मैं चाहता हूँ वो कभी मेरे पास भी बैठें”, वो उड़न घाईयाँ बनाने लगा।

    “पट्टू और फ़्लोमिना नहीं। अस्थिर और लज़ा”, मैंने भी ढिटाई लाद ली।

    “नहीं... नहीं...” वो हंसकर सर हिलाने लगा। “पिल्ले सिर्फ़ कुतिया से मानूस होते हैं उस कुत्ते को नहीं पहचानते जो उनके वजूद में साझेदार होता है”, उसने अपनी असली आँख मारकर कहा।

    “ये जाता क्यों नहीं यहां पड़ा सड़ रहा है।” ये मैं ही नहीं आस-पास के सब ही लोगों को बेचैनी सी होती थी।

    “जासूस है, उसे जान-बूझ कर यहां रखा गया है ताकि ये मुल्क में दुबारा बर्तानवी राज को लाने में मदद दे”, कुछ लोग यूं भी सोचते। गली के लौंडे जब वो दिखाई देता, यही पूछते।

    “साहब विलायत कब जाएगा?”

    “साहब कुइट इंडिया है को नइं करता?”

    “हिंदुस्तान छोड़ दो साहब!”

    “अंग्रेज़ी छोरा चला गया।”

    “वो गोरा गोरा चला गया।”

    “फिर तुम काय को नहीं जाता?” सड़क पर आवारा घूमने वाले लौंडे उस के पीछे घेरी लगाते आवाज़ कसते।”

    “हूँ... हों हों... जाएगा... जाएगा बाबा”, वो सर हिला कर मुस्कुराता और अपनी खोली में चला जाता।

    तब मुझे उस के ऊपर बड़ा तरस आता। कहाँ हैं दुनिया के रख वाले जो हर कमज़ोर मुल्क को तहज़ीब सिखाते फिरते हैं। नंगों को पतलून और फ़्राकें पहनाते फिरते हैं। अपने सफ़ेद ख़ून की बरतरी का ढोल पीटते हैं। उनका ही ख़ून है जो जैक्सन के रूप में कितना नंगा हो चुका है। मगर उसे कोई मिशनरी ढाँकने नहीं आता।

    और जब गली के लफ़ंगे थक-हार कर चले जाते तो वो अपनी खोली के सामने बैठ कर बीड़ी पिया करता। उसकी इकलौती आँख दौर-ए-उफ़ुक़ पर इस मुल्क की सरहदों को तलाश करती जहां ना कोई गोरा है। ना काला ना कोई ज़बरदस्ती जा सकता है। ना सकता है और ना वहां बदकार माएं अपने नाजायज़ बच्चों को तेरी मेरी चौखट पर जिनको ख़ुद अपनी बावक़ार दुनिया बसा लेती हैं।

    सक्खू बाई आस-पास के घरों में कमाईन का काम करती... अच्छा ख़ासा कमा लेती। उसके अलावा वो बाँस की डलियां, मेज़ कुर्सी वग़ैरा बना लेती थी। इस ज़रीये से कुछ आमदनी हो जाती। जैक्सन भी अगर नशे में ना होता तो उल्टी सीधी बे पेंदे की टोकरीयां बनाया करता। शाम को सक्खू बाई उस के लिए एक ठर्रे का अद्धा ला देती जो वो फ़ौरन चढ़ा जाता और फिर उससे लड़ने लगता। एक रात उसने ना जाने कहाँ से ठर्रे की पूरी बोतल हासिल कर ली और सारी रात पीता रहा। सुब्ह-दम वहीं खोली के आगे पड़ कर सो गया। फ्लोमीना और पट्टू उस के ऊपर से फलाँग कर स्कूल चले गए। सक्खू बाई भी थोड़ी देर उसे गालियां देकर चली गई। दोपहर तक वो वहीं पड़ा रहा। शाम को जब बच्चे आए तो वो दीवार से पीठ लगाए बैठा था। उसे शदीद बुख़ार था जो दूसरे दिन बढ़कर सरसाम की सूरत इख़्तेयार कर गया।

    सारी रात वो ना जाने क्या बुराता रहा। ना जाने किसे किसे याद करता रहा, शायद अपनी माँ को जिसे उसने कभी नहीं देखा था। जो उस वक़्त किसी शानदान ज़याफ़त में शरीक ‘अख़लाक़ी इस्लाह बंदी’ पुर कर रही होगी। या वो बाप याद रहा हो जिसने नस्ल चलाने वाले सांड की ख़िदमत अदा करने के बाद उसे अपने जिस्म से बही हुई ग़लाज़त से ज़्यादा एहमीयत ना दी। और जो उस वक़्त किसी दूसरे मह्कूम मुल्क में बैठा क़ौमी इक़्तेदार क़ायम करने के मंसूबे बना रहा होगा। या डार्थी के तानों भरे एहसान याद रहे थे। जो बेरहम किसान के हंटरों की तरह सारी उम्र उस के एहसासात पर बरसते रहे या शायद वो गोलीयां जो उस की मशीन गन से निकल कर बे-गुनाहों के सीनों के पार हुईं और आज पलट कर उसी की रूह को डस रही थीं। वो रात-भर चिल्लता रहा सर पटख़ता रहा। सीने की धौकनी चलती रही। दरोदीवार ने पुकार पुकार कर कहा, “तेरा कोई मुल्क नहीं... कोई नसल नहीं... कोई रंग नहीं।”

    “तेरा मुल्क और नस्ल सक्खू बाई है जिसने तुझे बेपनाह प्यार दिया क्योंकि वो भी अपने देस में ग़रीब-उल-वतन है। बिलकुल तेरी तरह। इन करोड़ों इन्सानों की तरह जो दुनिया के हर कोने में पैदा होजाते हैं। ना इनकी विलादत पर शादयाने बजते हैं ना मौत पर मातम होते हैं!”

    “पो फट रही थी। मिलों की चिमनियां धुआँ उगल रही थीं और मज़दूरों की क़तारों को निगल रही थीं। थकी हारी रंडियां अपने रात-भर के ख़रीदारों के चंगुल से पंडा छुड़ा कर उन्हें रुख़स्त कर रही थीं।

    “हिंदुस्तान छोड़।”

    “कुइट इंडिया।”

    तान और नफ़रत में डूबी आवाज़ें उस के ज़हन पर हथौड़ों की तरह पड़ रही थीं। उसने एक-बार हसरत से अपनी औरत की तरफ़ देखा जो वहीं पट्टी पर सर रखकर सो गई थी। फ़्लोमिना रसोई के दरवाज़े में टाट के टुकड़े पर सो रही थी। पट्टू उस की कमर में मुँह घुसाए पड़ा था। कलेजे में एक हूक सी उठी और उसकी असली आँख से एक आँसू टपक कर मैली दरी में जज़्ब हो गया।

    बर्तानवी राज की मिटती हुई निशानी एरिक विलियम जैक्सन ने हिंदुस्तान छोड़ दिया।

    स्रोत:

    Badan Ki Khushbu (Pg. 17)

    • लेखक: इस्मत चुग़ताई
      • प्रकाशक: रोहतास बुक्स, लाहौर
      • प्रकाशन वर्ष: 1992

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