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सीढ़ियाँ

MORE BYइन्तिज़ार हुसैन

    स्टोरीलाइन

    "यह एक नास्तेल्जिक कहानी है। बीते दिनों की यादें पात्रों के अचेतन में सुरक्षित हैं जो सपनों के रूप में उन्हें नज़र आती हैं। वो सपनों के अलग- अलग स्वप्नफल निकालते हैं और इस बात से बे-ख़बर हैं कि ये अतीत के धरोहर हैं जिनकी परछाईयाँ उनका पीछा कर रही हैं। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि उन सपनों ने उन्हें अपनी पुनर्प्राप्ति की प्रक्रिया पर मजबूर कर दिया है।"

    बशीर भाई डेढ़ दो मिनट तक बिल्कुल चुप बैठे रहे, यहाँ तक कि अख़्तर को बेकली बल्कि फ़िक्र सी होने लगी, उन्होंने आहिस्ते से एक ठंडा साँस लिया और ज़रा हरकत की तो अख़्तर की जान में जान आई मगर साथ में ही ये धड़का कि जाने इनकी ज़बान से क्या निकले।

    वक़्त क्या था?

    वक़्त? अख़्तर सोच में पड़ गया, वक़्त का ध्यान नहीं है।

    वक़्त का ध्यान रखना चाहिए। बशीर भाई उसी सोच भरे लहजे में बोले, इसके बग़ैर तो बात ही पूरी नहीं होती, अव्वल शब है तो ऐसी फ़िक्र की बात नहीं, शैतानी वसवसे आते हैं जिनकी बुनियाद नहीं, आख़िर शब है तो सदक़ा दे देना चाहिए। अख़्तर का दिल धड़कने लगा था, रज़ी उसी तरह ख़ामोश था, बस आँखों में तहय्युर की कैफ़ियत ज़्यादा गहरी हो गई थी।

    मेरी आदत है कि वक़्त ज़रूर देख लेता हूँ। बशीर भाई की आवाज़ अब ज़रा जाग चली थी। और फिर अपना तो ऐसा क़िस्सा है कि कुछ होना होता है तो ज़रूर पहले देख जाता है, और हमेशा तड़के में, आँख पट से खुल जाती है, लगता है कि अभी जागते में कुछ देखा था...

    यहाँ जब मैं आया हूँ तो कई महीने सर-गर्दां फिरता रहा, बड़ा परेशान, बेहतरी की कोई सूरत निकली, ख़ैर, एक रोज़ क्या देखता हूँ कि नाना मरहूम हैं, मस्जिद से निकले हैं, हाथ में पेड़ों का दोना है, ताज़ा हरे पत्तों का दोना है, दोने में से एक पेड़ा  लिया है और मुझे दे रहे हैं... पट से आँख खुल गई... सुबह की अज़ान हो रही थी, उठा, वुज़ू किया, नमाज़ को खड़ा होगया... ये समझ लो कि तीसरे दिन नौकरी मिल गई।

    रज़ी और अख़्तर बड़े इन्हिमाक से सुन रहे थे, सैयद उसी तरह उनकी चारपाइयों की तरफ़ करवट लिए आँखें बंद किए लेटा था और सोने की कोशिश कर रहा था।

    बशीर भाई! अख़्तर बोला, मुझे तो मुर्दे बहुत ही दिखाई देते हैं, ये क्या बात है?

    मुर्दे को देखना बरकत की निशानी है, उम्र ज़्यादा होती है।

    मगर... ये...? अख़्तर झिझक गया।

    हाँ, इसकी सूरत ज़रा मुख़्तलिफ़ हो गई। बशीर भाई अपने लहजे से ये साबित कर रहे थे कि कोई ज़्यादा फ़िक्र की बात नहीं है। मुर्दे को साथ खाते देखना कुछ अच्छा नहीं... काल की निशानी है। बशीर भाई चुप होते-होते फिर बोले और अब के क़दरे बुलंद आवाज़ में,मगर तुम्हें तो वक़्त का पता नहीं, बे-वक़्ते ख़्वाब पर एतबार नहीं करना चाहिए, एहतियातन सदक़ा दे दो। सैयद ने झुँझलाहट से करवट ली और उठके बैठ गया। यारो तुम कमाल लोग हो और अख़्तर तो, मैं जानूँ, सोता ही नहीं, आधी रात तक ख़्वाब बयान करता है, आधी रात के बाद ख़्वाब देखने शुरू करता है, क्यों भई अख़्तर तुझे सोने को घड़ी दो घड़ी मिल जाती है। अख़्तर गरमाए हुए लहजे में बोला,अजब आदमी हो, हर बात को मज़ाक़ में लेते हो।

    अजीब आदमी तो तुम हो, रोज़ ख़्वाब देखते हो, आख़िर मैं भी तो हूँ, मुझे क्यों ख़्वाब नहीं दिखते।

    ख़्वाब तो ख़ैर बशर की फ़ितरत है, सबही को देखते हैं, बस कम ज़ियादा की बात है। बशीर भाई कहने लगे।

    मगर मेरी फ़ितरत कहाँ रफ़ू चक्कर हो गई, मुझे तो सिरे से ख़्वाब दिखता ही नहीं।

    बिल्कुल नहीं दिखता? अख़्तर ने हैरानी से पूछा।

    जिस रोज़ से याँ आया हूँ, उस रोज़ से कम से कम बिल्कुल नहीं देखा।

    हद हो गई, सुन रहे हो बशीर भाई?

    हद तो तुम्हारे साथ हुई है। सैयद कहने लगा,मैं हैरान हूँ कि इस डेढ़ बालिश्त के कोठे पे तुम कैसे ख़्वाब देख लेते हो, कमाल कोठा है, चार चारपाइयों में छत छुप जाती है, रात को कभी उठता हूँ तो चारपाई से क़दम उतारते हुए लगता है कि गली में गिर पड़ूँगा... हमारे घर की छत थी कि... कहते-कहते रुका, फिर आहिस्ते से बोला,गए को क्या रोना, अब तो शायद जली हुई ईंटें भी बाक़ी हों।

    सैयद ने उठ कर मुंडेर पर रखी हुई सुराही से पानी पिया, कहने लगा,पानी गर्म है कब की भरी हुई है सुराही?

    भरी हुई तो तीसरे पहर ही की है। बशीर भाई बोले,मगर ये उदड़ी हो गई है, अब कल को कोरी सुराही लाएंगे।

    लालटेन की बत्ती मंदी कर दूँ? सैयद पूछने लगा,बूरी लगती है रौशनी।

    कम कर दो और कोने में रख दो, अब थोड़ी देर में चाँद भी निकल आएगा। बशीर भाई ने जवाब दिया।

    सैयद ने लालटेन को कम करते-करते हिला के देखा,तेल कम है, रात को गुल हो जाए। वो मुँह ही मुँह में बड़बड़ाया और बुझती हुई बत्ती को इक ज़रा ऊँचा कर लालटेन एक तरफ़ मुंडेर के नीचे रख दी, लालटेन की हल्की रौशनी एक छोटे से कोने में सिमट गई और छत पे अंधेरा छा गया, बिस्तर यूँ रज़ी और अख़्तर की चारपाइयों पर भी थे लेकिन इस अँधेरे में सैयद का चाँदनी बिस्तर चमक रहा था। बशीर भाई की चारपाई पे बिस्तर के नाम बस एक-दो सोती थी जो उन्होंने समेट कर तकिया बतौर सिरहाने रख ली थी और छत पे छिड़काव करते हुए एक भरा लोटा अपनी खरी चारपाई पे छिड़क दिया था। जिसकी वजह से इनकी नंगी पीठ ही को तरी नहीं मिल रही थी बल्कि भीगे बालों की सौंधी ख़ुशबू ने उनके शामा को भी मुअत्तर कर रखा था।

    बशीर भाई। रज़ी बहुत देर से गुम सुम बैठा था, उसने खनकार के गला साफ़ किया और फिर बोला,बशीर भाई, ख़्वाब में बड़ा अलम देखें तो कैसा है? बशीर भाई ने सोचते हुए जवाब दिया, बहुत मुबारक है लेकिन ख़्वाब बयान करो। अख़्तर रज़ी की तरफ़ हमा-तन मुतवज्जा हो गया, सैयद ने आहिस्ते से करवट बदली, और दूसरी तरफ़ मुँह कर लिया, उसने फिर आँखें बंद करके सोने की कोशिश शुरू कर दी थी।

    वो दिन याद है ना बशीर भाई आपको कि आप नमाज़ के लिए उठे थे और मुझसे पूछ रहे थे कि आज इतनी सवेरे कैसे उठ बैठे, अस्ल में उस रात मुझे नींद नहीं आई, जाने क्या हो गया, रात भर करवटें लेते गुज़र गई और तरह-तरह के ख़्याल, वसवसे, सुबह के होन में एक झपकी सी आई, क्या देखता हूँ कि... रज़ी की ज़बान ज़रा-ज़रा लड़खड़ाने लगी और बदन में कपकपी सी पैदा हुई,कि हमारा इमाम बाड़ा है और... इमामबाड़ा है और वाँ बड़ा अलम निकल रहा है... बड़ा अलम,  बिल्कुल उसी तरह, वही सब्ज़ लहराता हुआ पटका, लचकता हुआ चाँदी का पंजा, ऐसा चमक रहा था पंजा, ऐसा कि मेरी आँखों में चकाचौंद हो गई, बस इतने में मेरी आँख खुल गई।

    बशीर भाई लेटे से उठकर बैठ गए और आँखें उन्होंने बंद कर ली थीं, अख़्तर पे  ऐसा रोब तारी हुआ था कि सारा जिस्म सकते में गया था, ख़ुद रज़ी के जिस्म में अब तक एक हल्की सी कपकपी बाक़ी थी, सैयद ने भी करवट लेकर इनकी तरफ़ मुँह कर लिया था, बंद आँखें खुल गई थीं और ज़ेहन के अँधेरे में एक रोज़न बन रहा था कि एक किरन उससे छन कर रौशन लकीर बनाती हुई अंदर पहुँच रही थी। अज़ाख़ाने के लोबान से बसे हुए अँधेरे में चमकते हुए अलम, चाँदी और सोने के ज़ू देते हुए पंजे, सब्ज़ सुर्ख़ रेशमी पटकों के सुनहरे रुपहले गोटे से टँके हुए किनारे, बीच छत में आवेज़ाँ वो झमक-झमक करता हुआ झाड़ जिसमें शीशे की सफ़ेद-सफ़ेद कोने-दार अनगिनत फलियाँ लटक रही थीं। जिसकी एक टूटी हुई फली नामालूम तरीक़े पे जाने कहाँ से उसके पास आगई थी, बाहर से सफ़ेद और एक बंद करके दूसरी आँख पे लगा के देखो तो अंदर से हफ़्त-रंग।

    बहुत अजीब ख़्वाब है। अख़्तर बड़बड़ाया।

    ख़्वाब नहीं है। बशीर भाई हौले से बोले।

    अख़्तर और रज़ी दोनों उन्हें तकने लगे। बशीर भाई ने सवाल किया, तुम सो गए थे या...?

    पूरी तरह सोया भी नहीं था, बस एक झपकी आई थी। बशीर भाई सोच में पड़ गए, फिर आहिस्ते से बोले,ख़्वाब नहीं था, बशारत हुई है। रज़ी ख़ामोशी से उन्हें तकता रहा, उसकी आँखों में तहय्युर की कैफ़ियत देर से तैर रही थी, अब अचानक ख़ुशी की चमक लहराई लेकिन जल्द ही मांद पड़ गई और उसकी जगह तशवीश की कैफ़ियत ने ले ली।

    अबके बरस... वो फ़िक्र-मंदाना धीमी आवाज़ में बोला,हमारे इमामबाड़े में बड़े अलम का जुलूस नहीं निकला था।

    क्यों?

    बशीर भाई और अख़्तर दोनों फ़िक्र-मंद हो गए।

    हमारे ख़ानदान के सब लोग तो याँ पे चले आए थे, बस मेरी वालिदा वहाँ रह गई थीं, उन्होंने कहा था कि मरते दम तक इमामबाड़ा नहीं छोड़ूँगी, हर साल अकेली मोहर्रम का इंतज़ाम करती थीं और बड़ा अलम उसी शान से निकलता था।

    फिर?

    बहुत ज़ईफ़ हो गई थीं वो, मैं पहुँच भी नहीं सका, बस... उसकी आवाज़ भर्रा गई, आँखों में आँसू छलक आए। बशीर भाई और अख़्तर के सर झुक गए, सैयद उठके बैठ गया था। बशीर भाई ने ठंडा साँस लिया।

    एक घर में रहते हो और तुमने बताया भी नहीं। अख़्तर बहुत देर के बाद बोला।

    क्या बताता।

    बशीर भाई और अख़्तर फिर गुम सुम हो गए, उनके ज़ेहन कुछ ख़ाली से हो गए थे। सैयद के ज़ेहन में रोज़न खुल गया था और किरन अँधेरे में आड़ा तिरछा रस्ता बनाती हुई सफ़र कर रही थी, मोहर्रम के दस दिनों और चेहलुम के कुछ दिनों के अलावा साल भर उसमें ताला पड़ा रहता था, अनजान को जानने की ख़्वाहिश जब बहुत ज़ोर करती तो वो चुपके-चुपके दरवाज़े पे जाता, किंवाड़ों की दराड़ों में से झाँकता, वहाँ से कुछ नज़र आता तो किंवाड़ों के जोड़ों पे पैर रख ताला लगी हुई कुंडी पकड़ दरवाज़े से ऊपर वाली जाली में से झाँकता, झाँकता रहता, यहाँ तक कि अँधेरे में नज़र सफ़र करने लग पड़ती और झाड़ झिलमिल-झिलमिल करने लगता! बहुत देर हो जाती और उससे ज़्यादा कुछ नज़र आता और उसका दिल रोब खा के आपही आप धड़कने लगता और वो आहिस्ते से उतर कर बाहर हो लेता।

    तहख़ाना जिसकी खिड़की अँधेरे ज़ीने में खुलती थी, उससे भी ज़्यादा तारीक था, उसके अँधेरे से उस पे रोब तारी नहीं हुआ था, बस डर लगता था, उसमें रहने वाला कौड़ियाला सांप अगरचे अम्माँ जी की रिवायत के मुताबिक़ बग़ैर छेड़े किसी से कुछ कहता था और चुनाँचे एक दफ़ा रात को ज़ीने पे चढ़ते हुए उनका हाथ भी उस गुल गुली शय पे पड़ गया था। मगर वो खंकारे सड़ सड़ करता हुआ खिड़की के अंदर घुस गया। फिर भी खिड़की में खड़े होकर जम के तहख़ाने के अँधेरे का जाइज़ा लेने की जुरअत उसे कभी हुई। कौड़ियाले सांप को वो कभी देख सका, लेकिन बंदी क़समें खाती थी कि उसने अपनी आँख से उसे देखा है।

    झूटी।

    अच्छा तू मत मान।

    खा क़सम  अल्लाह की।

    उसे फिर भी पूरी तरह यक़ीन नहीं आया, अच्छा कैसा था वह?

    काला, काले पे सफ़ेद कौड़िएं सी, कौड़िएं... मैंने जो झाँका तो दीवाल पे चढ़ रहा था, झट से खिड़की बंद करली। उसका दिल धड़-धड़ करने लगा, वो एक-दूसरे को तकने लगे, सहमी-सहमी नज़रें धड़-धड़ करते हुए दिल, सीढ़ियों पे बैठे-बैठे वो एक साथ उठ खड़े हुए और उतर कर सेहन में कुँएँ की पक्की मन पे जा बैठे। दोनों कुएँ में झाँकने लगे, उजाला मद्धम पड़ते-पड़ते हल्का हल्का सा ये बना जो गहरा होता गया, फिर बिल्कुल अंधेरा होगया! अँधेरे की तह में लहरें लेता हुआ पानी कि जा बजा बिजली की तरह चमकता और अंधेरिया होता चला जाता या चमकती काली पड़ती लहरों पे दो परछाइयाँ।

    जिन्न।

    हट बावली, जिन्न कहीं कुएँ में रहते हैं।

    फिर कौन है यह?

    उसने बुज़ुर्गाना लहजे में जवाब दिया,कोई भी नईं है, तू तो पगली है... अच्छा देख मैं आवाज़ लगाता हूँ। और उसने कुएँ में मुँह डाल के ज़ोर से आवाज़ दी,कौन है? अँधेरे में एक तो गूँज पैदा हुई और चमकती काली लहर या आवाज़ पैदा हुई कौन है? दोनों ने डर के जल्दी से गर्दनें बाहर निकाल लीं।

    अंदर कोई है? बंदी का दिल धक-धक कर रहा था।

    कोई भी नहीं। उसने इस बे-एतनाई से जवाब दिया जैसे वो बिल्कुल नहीं डरा है। वो दोनों चुपचाप बैठे रहे, फिर वो डर आप ही आप ज़ाइल होने लगा, बंदी ने बैठे-बैठे एक साथ सवाल किया,सैयद कुएँ में इतना बहुत सा पानी कहाँ से आता है? वो उसकी जहालत पे हँस पड़ा,इतना भी नहीं पता, ज़मीन के अंदर पानी ही पानी है, कुएँ का पानी जब ही तो कभी ख़त्म नहीं होता।

    ज़मीन के अंदर अगर पानी भरा हुआ है... वो सोचते हुए बोली,तो फिर साँप कहाँ रहते हैं?

    साँप कहाँ रहते हैं? वो भी सोच में पड़ गया, साँप पानी का थोड़ा ही बस ज़मीन का बादशाह है, ज़मीन के अंदर पानी है तो साँप कहाँ रहता होगा? और फिर राजा बासठ का महल कैसे बना होगा? इतनी देर में बंदी ने दूसरा सवाल कर डाला, सैयद साँप पहले जन्नत में रहता था?

    हाँ!

    जन्नत में रहता था तो ज़मीन पे कैसे गया?

    उसने गुनाह किया था, अल्लाह मियाँ का अज़ाब पड़ा, उसकी टाँगें टूट गईं और वह ज़मीन पे पड़ा।

    गुनाह, बंदी की आँखों में फिर डर झलकने लगा, और फिर दोनों का दिल हौले-हौले धड़कने लगा। फिर बंदी उठ खड़ी हुई,हमें तो प्यास लग रही है, हम घर जा रहे हैं।

    उसने जल्दी से मन पे पड़ा हुआ चमड़े का डोल संभाल लिया, कुएँ का पानी पिएंगे, बहुत ठंडा होता है। और उसने फुर्ती से कुएँ में डोल डाला, रस्सी उसकी उंगलियों और हथेलियों की जिल्द को रगड़ती छीलती तेज़ी से गुज़रने लगी और फिर एक साथ पानी के डोल के डूबने का मीठा सा शोर हुआ जिससे उसके सारे बदन में मिठास की एक लहर सी दौड़ गई। दोनों मिल कर भरा डोल खींचने लगे और दिलों में एक अजीब सी लज़्ज़त जागने लगी। मीठे ठंडे पानी से फिर डोल जब बाहर आया तो पहले बंदी ने डोल थामा और उसने ओक से जी भर के पानी पिया और फिर डोल थाम के बंदी के गोरे हाथों की ओक में पानी डालना शुरू किया, गोरे हाथों से बनी हुई ढलवाँ गहरी होती हुई ओक, मोती सा पानी, पतले-पतले होंट, उसने एक मर्तबा पानी की धार इतनी तेज़ की कि उसके कपड़े तर बतर हो गए और गले में फँदा लग गया...

    अस्ल में वो मन्नत का अलम था। रज़ी कह रहा था,हमारी वालिदा के कोई औलाद होती थी, वो करबलाए मुअल्ला गईं, इमाम के रौज़े पे तो हर शख़्स जा के दुआ मांग लेता है, वो साबिर हुए ना। मगर... वालिदा कहती थीं कि छोटे हज़रत की दरगाह पे वो जलाल बरसता है कि वहाँ दाख़िल होते ही रअशा तारी हो जाता है, कोई दिन नहीं जाता कि मोजिज़ा होता हो। जिस वक़्त वालिदा पहुँची हैं उसी वक़्त एक अजीब वाक़िआ हुआ, एक शख़्स दरगाह से निकल रहा था, निकलते-निकलते दरवाज़े ने उसके पैर जकड़ लिए, आगे हिल सकता है पीछे हट सकता है, और बदन सुर्ख़ जैसे बिजली गिरी हो... उसकी माँ ज़ार-ओ-क़तार रोवे, बहुत देर हो गई तो एक ख़ुद्दाम पास आया कि बीबी, तेरे बेटे से कोई बे-अदबी हुई, छोटे हज़रत को जलाल गया है, अब तू इमाम की सरकार में जा, वो मना सकते हैं छोटे हज़रत को, माँ रोती पीटती इमाम के रौज़े पे गई और ज़रीह पकड़ ली... उसकी आवाज़ में सरगोशी की कैफ़ियत पैदा होने लगी। इतने में क्या देखते हैं कि दरगाह में एक नूर फैल गया और अचानक उस शख़्स की हालत दुरुस्त होगई।

    कमाल है। अख़्तर ने बहुत आहिस्ते से कहा। बशीर भाई ने एक जबाही ली और फिर गुम मथान हो गए।

    उसने अस्ल में झूटी क़सम खाई थी। रज़ी आहिस्ते से बोला।

    बशीर भाई और अख़्तर की ख़ामोशी से फ़ायदा उठा कर रज़ी फिर शुरू हो गया, वहाँ तो वालिदा ने कहा जो हो सो हो दरगाह से गोद भर के जाऊँगी, रात भर ज़रीह को पकड़े दुआ माँगती रहीं, रोती रहीं, तड़के में एक साथ आँख झपक गई, क्या देखती हैं कि दरगाह में शेर दाख़िल हो रहा है, हड़बड़ा के आँख खोल दी, सामने अलम पे नज़र पड़ी, पंजे से शुआएँ फूट रही थीं और एक ताज़ा चम्बेली का फूल वालिदा की गोद में पड़ा...

    हाँ साहब बड़ी बात है इनकी। बशीर भाई आवाज़ को इक ज़रा ऊँचा करते हुए बोले।

    वो अलम... रज़ी की आवाज़ में एक पुर-जलाल ख़्वाब की सी कैफ़ियत पैदा हो गई थी। असली अलम है, फ़ुरात में से निकला था, ज़रीह के सिरहाने सब्ज़ पटके में लिपटा खड़ा रहता है, अजीब दबदबा टपकता है, और आशूरा को इससे ऐसी शुआएँ फूटती हैं कि निगाह नहीं ठहरती... जैसे सूरज चमक रहा हो...

    सैयद को सचमुच लग रहा था कि शुआएँ उसकी आँखों को खैरा कर रही हैं और आँखों से होती हुई ज़ेहन की अंधेरी कोठरी में लहरिये बनाती हुई चल रही हैं, अंधेरी कोठरी लौ दे रही थी और ढके छुपे गोशे उजियाले हो रहे थे, जगमगाते अँधेरे, मुनव्वर ख़्वाब, दमकता चेहरा, ज़ौ देते अलम, लौ देती पतंगें। पतंग कि कट के चलती तो लगता कि बंदी रूठ के जा रही है, बंदी कि कट करके जाती तो दिखाई देता कि पतंग कट गई, ख़्वाब कि सीढ़ियाँ तै करता चला जा रहा है, कि लहरिये निवाड़ की तरह फैलती चली जा रही हैं और पतंग की डोर चुटकी में आते-आते निकल गई है। सीढ़ियाँ जो कभी सुरंग में से होती-होती निकलतीं और कभी फ़िज़ा में ऊँची होती चली जातीं, वो चढ़ता चला जाता, चढ़ता चला जाता, फिर उसका दिल धड़कने लगता कि अब गिरा, फिर किसी गहरे कुएँ में गिरने लगता, आहिस्ता-आहिस्ता, गिरते-गिरते फिर उठने लगता, और डर से एक साथ उसकी आँख खुल जाती।

    अम्माँ जी, मैंने ख़्वाब देखा कि में ज़ीने पे चढ़ रहा हूँ।

    पैग़म्बरी ख़्वाब है बेटा, तरक़्क़ी करोगे, अफ़सर बनोगे।

    अम्माँ जी ख़्वाब में अगर कोई पतंग उड़ती देखे।

    नईं बेटा ऐसे ख़्वाब नहीं देखते। अम्माँ जी बोलीं, पतंग देखना अच्छा नईं, परेशानी आवारा वतनी की निशानी है।

    अम्माँ जी, मैंने ख़्वाब देखा कि जैसे में हूँ, ज़ीने पे चढ़ रहा हूँ, चढ़ता चला जा रहा हूँ, बहुत देर बाद कोठा आया है और ज़ीना ग़ायब... और मैं कोठे पे अकेला खड़ा रह गया हूँ और पतंग...

    नईं बेटा ये ख़्वाब नईं है। अम्माँ जी ने उसकी बात काट दी,दिन भर तू कोठों, छतों को खोंदे है, वही सोते में भी ख़्याल रहवे है... ऐसे ख़्वाब नहीं देखा करते।

    अम्माँ जी मैंने ख़्वाब में देखा कि जैसे हमारा कोठा है और मुंडेर पे एक बंदर... अम्माँ जी ने बात काट दी और अब के डाँट के बोलीं, अच्छा अब तू सोवेगा नईं।

    अच्छा अम्माँ जी वो कहानी तो पूरी करो।

    हाँ तो कहाँ तक वो कहानी हुई थी, ख़ुदा तुम्हारा भला करे।

    शहज़ादी ने पूछा कि तुम कौन हो।

    हाँ ख़ुदा तुम्हारा भला करे, शहज़ादी उसके सर कि ये बतावे तू कौन है, उसने बहुत मना किया कि नेक-बख़्त तू नुक़सान उठावेगी, मत पूछ, मगर शहज़ादी अंटवांटी-खंटवांटी ले के पड़ गई कि जब तक तू  बतावेगा नहीं, बात नईं करूँगी। अच्छा बीबी, तेरी यही मंशा है तो चल दरिया पे वाँ बताऊँगा, दोनों चल पड़े, दरिया पे पहुँच गए, बोला कि देख मत पूछ, बोली कि ज़रूर पूछूँगी, फिर गर्दन तक आया। फिर मना किया फिर मानी, फिर मुँह तक आया, फिर कहा देख पछतावेगी, अब भी वक़्त है, उसने कहा ज़रूर पूछूँगी, उसने ग़ोता लगाया, अंदर से काला फन निकला और पानी में ग़ायब हो गया...

    चाँदी से उस फूल को मस करके अलम बनवाया था,उसी साल मेरी पैदाइश हुई...

    मुतबर्रिक समझना चाहिए उसे। बशीर भाई बोले।

    मगर... रज़ी की ज़बान लड़खड़ाने लगी और बदन में रअशा पैदा हो गया,मगर वो।

    क्या मतलब? बशीर भाई ने सवाल किया।

    वो ग़ायब हो गया।

    कैसे? बशीर भाई और अख़्तर दोनों चौंक पड़े।

    उस साल जुलूस नहीं निकला। रज़ी के बदन में अब तक थर थरी थी,एक हमारे पड़ोसी हैं, कहते थे कि इमामबाड़े में उस रात किसी ने चराग़ तक नहीं जलाया। सुबह की नमाज़ को में उठा तो देखा कि इमामबाड़े में गैस की सी रौशनी हो रही है... सुबह को जाके देखा तो ये माजरा नज़र आया कि सब अलम रखे हैं बड़ा अलम ग़ायब... धुँदलाते हुए अंधेरे फिर रौशन होने लगे, कुएँ की मन पे बैठे-बैठे अचानक धूप में एक साया डगमगाता नज़र आया। पतंग और दोनों तीर की तरह ज़ीने में और ज़ीने से जल्दी-जल्दी सीढ़ियाँ चढ़ते हुए कोठे पे हो लिये।

    किधर गई? उसने चारों तरफ़ निगाह दौड़ाई।

    बंदी ने वुसूक़ से कहा,गिरी तो इसी छत पे है।

    इस छत पे है तो फिर कहाँ है?

    और एक साथ बंदी की गिरफ़्त उसकी आस्तीन से फिर आस्तीन के साथ बाज़ू पे  जकड़ती चली गई,सैयद...बंदर...

    वो डर गया,कहाँ?

    वो? उसने आँखों से दीवार की तरफ़ इशारा किया। दीवार पे एक बड़ा सा बंदर बैठा था, दोनों को देख के ऊँघते-ऊँघते एक साथ खड़ा हो गया, और बदन के सारे बाल सेह के कांटों की तरह खड़े हो गए, उनके पाँव जहाँ के तहाँ जमे रह गए और जिस्म सुन पड़ गया, बंदर खड़ा रहा, गुर्राया, फिर आहिस्ता-आहिस्ता मुंडेर पे चलता हुआ दीवार के सहारे नीचे गली में उतर के आँखों से ओझल हो गया।

    जब वो वापस ज़ीने पे पहुँचे तो दिल धड़-धड़ कर रहे थे और बदन से पसीने की तलय्याँ चल रही थीं, बंदी ने अपनी क़मीज़ से मुँह पोछा, गर्दन साफ़ की, बिगड़ी हुई लटें सँवारीं, फिर वो दोनों सीढ़ी पे बैठ गए, उसने सहमी-सहमी नज़रों से बंदी को देखा जिसकी दहशतज़दा आँखें ज़ीने के अँधेरे में कुछ और ज़्यादा दहशत-ज़दा लग रही थीं, वो डर गया, चलो। बे-इरादा उठ खड़ा हुआ, दोनों सीढ़ियाँ उतरने लगे, उतरते-उतरते पहले मोड़ पे वो रुका और अंधेरे ज़ीने से बाहर उस रौशन-दान में देखने लगा जिससे नज़र आने वाला मैदान और उससे परे फैले हुए दरख़्त एक ग़ैबी दुनिया सी लगते थे।

    उधर मत देखो। बंदी ने उसे ख़बरदार किया।

    क्यों?

    उधर एक जादूगरनी रहती है। वो अपनी दहशतज़दा आँखों को चमका के कहने लगी, उसके पास एक आईना है जिसे वो आईना दिखाती है वो उसके साथ लग लेता है।

    झूटी।

    अल्लाह की क़सम।

    उसने डरते-डरते एक मर्तबा रौशन-दान में से झाँका,कहीं भी नईं है।

    अच्छा मैं देखूँ। वो रौशन-दान की तरफ़ बढ़ी। उसने बहुत कोशिश की लेकिन रौशनदान तक उसका मुँह नहीं पहुँच सका, उसने लजाजत से कहा,सैयद हमें दिखा दे। उसने बंदी को इस अंदाज़ से सहारा दिया कि सीढ़ी से उसके पैर उठ गए और चेहरा रौशन-दान के सामने गया, और उसे लगा कि जैसा मीठे पानी से भरा डोल इसने थाम रखा है...

    अंधेरे में उतरती हुई किरन उलझ कर टूट गई, उसने करवट ली और उठकर बैठ गया, अख़्तर, बशीर भाई, रज़ी तीनों सोए पड़े थे, बल्कि बशीर भाई ने बाक़ायदा ख़र्राटे भी लेने शुरू कर दिए थे, चाँद चढ़ने लगा था और चाँदनी उसके सिरहाने से उतरती हुई पाएँती तक फैली चली थी, वो उठकर मुंडेर के नीचे वाली अंधेर में छुपी हुई उस नाली पर पहुँचा जो बरसात में बारिश के पानी के लिए निकास के लिए और बाक़ी दिनों में पेशाब करने के काम आती थी, फिर वहाँ से उठकर उसने सुराही से शीशे के ग्लास में पानी उंडेला और ग़ट-ग़ट भरा ग्लास पी गया। अब ख़ासा ठंडा हो गया था, कोने में रखी हुई लालटेन को उसने देखा कि बुझ चुकी है, चारपाई पे लेटते हुए उसकी नज़र रज़ी पे पड़ी और उसे गुमान सा हुआ कि वो अभी सोया नहीं है।

    रज़ी।

    रज़ी ने आँखें खोल दीं, हूँ।

    सोए नहीं तम?

    सोने लगा था कि तुम्हारी आहट से आँख खुल गई।

    दोनों चुप हो गए, रज़ी की आँखें आहिस्ता-आहिस्ता बंद होने लगीं, अख़्तर और बशीर भाई उसी तरह सोए पड़े थे, अब अख़्तर ने भी आहिस्ता-आहिस्ता ख़र्राटे लेने शुरू कर दिए थे। उसने लम्बी सी जमाई ली और करवट लेते हुए फिर रज़ी को टहोका, रज़ी सो गए क्या?

    रज़ी ने फिर आँखें खोल दीं, नहीं, जागता हूँ। उसने नींद से भरी हुई आवाज़ में जवाब दिया।

    रज़ी। उसने बड़ी सादगी से जिसमें दुख की एक रमक़ भी शामिल थी पूछा,मुझे आख़िर ख़्वाब क्यों नहीं दिखते?

    रज़ी हंस दिया, अब ज़रूरी तो नहीं कि हर शख़्स को रोज़ ख़्वाब ही दिखा करें। दोनों फिर चुप हो गए, रज़ी की आँखों में नींद तैर रही थी, वो करवट लेकर फिर आँखें बंद कर लेना चाहता था कि सैयद ने उसे फिर मुख़ातिब कर लिया, मैंने बचपन में एक ख़्वाब देखा था कि...एक पतंग के पीछे मैं ज़ीने पे चढ़ रहा हूँ और सीढ़ियाँ हैं कि...

    ये ख़्वाब है? रज़ी हँस दिया,भई ये तो इधर-उधर के ख़्यालात होते हैं जो रात को सोते में सामने जाते हैं। सैयद सोच में पड़ गया, क्या वाक़ई वो ख़्वाब नहीं है, वो सोचने लगा, तो फिर क्या उसकी सारी ज़िंदगी ही ख़्वाबों से ख़ाली है, उसे कभी कोई ख़्वाब नहीं दिखाई दिया?

    उसके तसव्वुर ने फ़ज़ाए याद में तैरते झिलमिल करते कई एक गालों को चुटकी में पकड़ा, मगर फिर उसे याद आया कि वो ख़्वाब तो नहीं असली वाक़िआत हैं, उसने अपनी पूरी पिछली ज़िंदगी में निगाह दौड़ाई, हर वाक़िआ में, हर गोशे में एक ख़्वाब की कैफ़ियत दिखाई दी मगर कोई ख़्वाब गिरफ़्त में आसका, उसे यूँ महसूस हुआ कि ख़्वाब उसके माज़ी में रुल मिल गए हैं या वो कोई अबरक़ मिला गुलाल है कि रौशनी के ज़र्रों ने उसमें दमक तो पैदा कर दी है मगर वो अलग नहीं चुने जा सके, या इमामबाड़े में टँगे हुए झाड़ की कोई फली है कि बाहर से सफ़ेद, अंदर रंग ही रंग जिन्हें बाहर नहीं निकाला जा सकता, या कुएँ की गहराई में चमकता काला पड़ता पानी के दोनों में फ़र्क़ नहीं किया जा सकता।

    रज़ी जागते हो?

    हूँ... रज़ी की आवाज़ ग़नूदग़ी से बोझिल हो चली थी।

    अब इतने तवील ख़्वाब के बाद कोई ख़्वाब देखे। वो बड़बड़ाने लगा, मुझे तो अपना वो मकान ही एक ख़्वाब सा लगता है, नीम तारीक ज़ीने में चलते हुए लगता है कि सुरंग में चल रहे हैं, एक मोड़ के बाद दूसरा मोड़, दूसरे मोड़ के बाद तीसरा मोड़, यूँ मालूम होता कि मोड़ आते चले जाएंगे, सीढ़ियाँ फैलती चली जाएंगी कि इतने में एक दम से खुली रौशन छत जाती, लगता कि किसी अजनबी देस में दाख़िल हो गए हैं... कभी-कभी तो अपनी छत पे अजीब वीरानी सी छाई होती, ऊँचे वाले कोठे की मुंडेर पे कोई बंदर ऊँघते ऊँघते सो जाता जैसे अब कभी नहीं उठेगा, फिर कभी एक साथ झुर-झुरी लेता और कोठे से नीचे की छत पे और नीचे की छत से ज़ीने की तरफ़... हम दोनों का दिल धड़कने लगा, वो आहिस्ता-आहिस्ता अँधेरे ज़ीने की सीढ़ियों पा उतरता रुकता नीचे आया। हम दालान के सतून के पीछे छुप गए, कुएँ की मन पे जा बैठा... बैठा रहा... फिर ग़ायब होगया... या शायद कुएँ में उतर गया...

    रज़ी की नींद ग़ायब होने लगी, उसने ग़ौर से सैयद की तरफ़ देखा, वो फिर दिल ही दिल में गोया हुआ,हम कुएँ में झाँकने लगे, फिर हम ज़ोर से चिल्लाए, कौन है? सारा कुआं गूँज गया और एक लहरिया किरन पानी में से उठकर अंधेरे में पैच बनाती बल खाती बाहर निकल सारे आँगन में फैल गई जैसे किसी ने रात में महताबी जलाई हो, चमकते हुए पानी पे एक अक्स तैर रहा था... पतंग... मैंने नज़र ऊपर की, एक बहुत बड़ी अध-कटी पतंग, आधी काली आधी सफ़ेद कट गई थी, और उसकी डोर कि धूप में बावले की तरह झिलमिला रही थी। मुंडेर से आँगन में, आँगन से सर पे, मैंने हाथ बढ़ाया मगर हाथों में से निकलती चली गई, में तीर की तरह ज़ीने से दौड़ा... ज़ीने में अंधेरा... तहख़ाने की खिड़की के पास पहुँच के मेरा दिल धड़कने लगा, मैंने आँखें मीचीं और ऊपर चढ़ता चला गया, एक मोड़, सीढ़ियाँ, फिर सीढ़ियाँ, उसके बाद फिर सीढ़ियाँ... जैसे चढ़ते-चढ़ते सदी गुज़र गई हो... फिर खुला ज़ीना गया, मगर सीढ़ियों का फिर वही चक्कर, सीढ़ियाँ, और फिर सीढ़ियाँ, और फिर...

    यार तुम तो ख़्वाब की सी बातें कर रहे हो। रज़ी ने हैरान हो के उसे देखा। सैयद ख़ामोश हो गया।

    चाँद और ऊपर आया था और चाँदनी उसकी पाएँती से उतरती हुई सामने वाली दीवार के किनारों को छूने लगी थी, सुराही के बराबर रखा हुआ ग्लास कहीं-कहीं से यूँ चमक रहा था जैसे उसमें चंद किरनें मुक़य्यद हो गई हों, बशीर भाई और अख़्तर बदस्तूर सो रहे थे, ख़ुनकी हो जाने की वजह से बशीर भाई ने दो सोती सिरहाने से हटा कर अपने ऊपर डाल ली थी और अख़्तर की टाँगों पर पड़ी हुई दुलाई अब सीने तक गई थी। रज़ी कई मिनट तक आँखें बंद किए पड़ा रहा, फिर उकता कर आँखें खोल दीं।

    सैयद!

    हूँ... सैयद की आवाज़ में ग़ुनूदग़ी का असर पैदा हो चला था।

    सो रहे हो? यार मेरी नींद उड़ गई। सैयद ने नींद से बोझल आँखें खोलीं, रज़ी की तरफ़ देखते हुए पुर-इसरार लहजे में बोला,मेरा दिल धड़क रहा है, कोई ख़्वाब दिखेगा आज। और उसकी आँखें फिर बंद होने लगीं।

    स्रोत:

    (Pg. 303)

      • प्रकाशक: एजुकेशनल बुक हाउस, अलीगढ़

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