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इंतिहाई निगहदाश्त

परवीन आतिफ़

इंतिहाई निगहदाश्त

परवीन आतिफ़

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    मेरा शक यक़ीन में बदलता जा रहा है। डुगडुगी बजाने वाला अब ख़ुद भी थक चुका है। मेरे मिट्टी के ढेर बदन में अब ऊपर वाले के इशारों पे नाचने की सकत नहीं रही। हस्पताल के इंतिहाई निगहदाश्त के कमरे में फुर्ती से इधर उधर भागते सफ़ेद कोटों के चेहरों पे फैलती मायूसी देखकर मुझे इक गो ना कामरानी का एहसास हो रहा है। आधी सदी ज़िंदगी का कचरा सीने पे धरने के बाद फ़ना के अमीक़ समुंदर में ग़र्क़ाब हो जाने के बाद में इस बेनयाज़ को शिकस्त देने में कामयाब हो जाऊंगा जिसने ज़िंदगी के पहले पाँच बरसों के अंदर अंदर जब मैं ज़मीन-आसमान, चांद-तारों, झरनों-आबशारों, गीतों-मोहब्बतों के तिलस्माती हुस्न से अभी वाक़िफ़ भी नहीं हुआ था अभी मेरी दुनिया माँ-बाप, लाला, आपी अपनी ट्राईस्किल और पिछवाड़े वाले दर्ज़ी चचा से आगे कुछ भी नहीं थी। मुझ पर फ़ालिज गिरा कर मुझे मंझी से मंझी कर दिया। ज़िंदगी के ताबूत में बंद करके हुक्म दिया गया कि हसीं तो क़ायम रहेंगी लेकिन बदन कभी ज़िंदा होगा।

    माँ की सूरत तो अब मेरे ज़ह्न में एक ग़ैर मरई मुहब्बत के एहसास से ज़्यादा कुछ भी नहीं लेकिन क़ुर्बत-ए-मर्ग के लम्हात में भी इसके आँसूओं की जलन में अपने मिट्टी बदन पे जूं की तूं महसूस करता हूँ खिड़की की सिल पे बैठा मौत का गिध नुमा परिंदा मुझे झोप कर ले जाने के शौक़ में बार-बार पर फ़ड़फ़ड़ाता है लेकिन टोटियों, इंजेक्शनों, नालियों में जकड़े रहने के बावजूद मैं जानता हूँ अभी वो घड़ी नहीं आई जब सीन पूरा हो जाने के बाद डायरेक्टर कट की आवाज़ लगाता है। क़ह्हार-जब्बार से भी मेरे बदन के आधे हिस्से की ज़िंदगी कशीद करते वक़्त मेरे फ़ायदे की ग़लती यही हुई कि वो मेरे ज़ह्न की सारी बत्तियां गुल करना भूल गया। इसीलिए फ़िल्म ख़त्म होते होते भी कई गुज़श्ता एपिसोड (episode) मेरे इर्दगिर्द मुसलसल चल रहे हैं... मेरी माँ तो मेरे लोथड़ा बदन को दुबारा ज़िंदा करने की ख़्वाहिश में मुझे बारह-तेरह बरस की उम्र तक घसीटते घसीटते इस क़दर थक गई थी कि एक रात मेरे साथ सोई सोई वो ख़ुद अबदी नींद सो गई। हम दो ही बहन भाई थे। मैं बहन के दस बरस बाद पैदा हुआ था। उसे रब ने चांद तारों की किरनें पीस पीस कर बनाया था, मैं गोल-मटोल कुम्हार के चक्के पर लापरवाही से ढाला होथन मथना था। पर बीमारी से पहले लाला आपी हर घड़ी मुझे गपलू, बब्लू सदक़े वारियां करती, ढाक पे लटकाए रखती थी। लाला आपी तो सिंड्रेला थी ही लेकिन उसकी ज़िंदगी का पैदाइशी मसला ये भी था कि वो ज़िंदगी के किसी भी बदसूरत पहलू या इन्सान को बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। नरम ख़ू और रहम दिल होने के बावजूद बस बदनुमाई और बदसूरती की क़ुरबत उसे दमे का दौरा डाल देती थी। अमीर-कबीर गुलज़ार भाई छोटी उम्र में उसका हाथ मांगने पर मजबूर भी उसका मिस एशिया जैसा क़द-बुत और चेहरा देखकर ही हुए थे।

    माँ तो मेरे फ़ालिजज़दा मुँह से गिरने वाली रालें भी अपनी ही चुन्नी से साफ़ करती थी लेकिन उसकी अचानक मौत के बाद ख़ुशबुओं में भीगी नाज़ुक इंदाम आपी के पास इसके सिवा कोई चारा था कि मुझे अपनी महलनुमा कोठी के एक कमरे में डाल कर दो-तीन मुलाज़िम मेरी राखी पर छोड़ दे। कमरे का एक दरवाज़ा भी बाहर नौकर क्वाटरों में खुलता था। वो मेरी एक ही आवाज़ पर भागे भागे अंदर आजाते थे। मेरी ज़बान में लुक्नत तो थी लेकिन दूसरों को बात समझाना ज़्यादा मुश्किल था। आपी अपनी दौलत के ज़रिये मुझे हर तरह की तकलीफ़ से बचा कर रखना चाहती थी। ये एक बात कि ज़िंदगी की भाग दौड़ हंगामों ने मेरे लिए उसके पास बहुत कम वक़्त छोड़ा था , ना ना करते भी पोलियो के बाद एहसास-ए-जुर्म तो मेरे वजूद में उसी दिन सरायत कर गया था जिस दिन मुझे ये इल्म हुआ कि अपने जिस्म की तमाम फ़ित्री रतूबतों और ग़लाज़तों का इख़राज मुझे बिस्तर के अंदर ही अंदर करना होगा और वो भी किसी दूसरे के रहम-ओ-करम से शुरू में अधेड़ उम्र आशिक़ मसीह बाजी से हासिल करदा भारी तनख़्वाह के एवज़ बेड पैन और पेशाब की बोतल मुझे इस्तिमाल तो करवा देता था लेकिन उन्हें ऊपर ऊपर से खंगाल कर ग़ुस्लख़ाने में उसी तरह फेंकता कि सारी फ़िज़ा मुतअफ़्फ़िन हो जाती। मैं तो अपनी मकरूह ज़िंदगी का आदी हो चुका था। बाहर से आने वाले लोग जब चंद मिनट कमरे में रुक सकते तो मुझे अंदाज़ा हो जाता कि मेरे कमरे का माहौल दूसरों के लिए क़ाबिल-ए-बर्दाश्त नहीं है। आपी की कभी कभी आमद से पहले तो सारे लालची मुलाज़िम कमरा हस्पताल के वी आई पी रुम की तरह चमका देते लेकिन जितने दिन वो आसके, जी जनाब जी, हाँ जनाब करने के इलावा वो मुझे पानी पिलाने में भी घंटों लगा देते थे। माँ की मुशफ़िक़ झलकियाँ तो जान कनी के इन लम्हों में भी मेरे दिमाग़ में जूं की तूं महफ़ूज़ हैं। मेरे मुँह के दाएं टेढ़े हिस्से को अपने हाथ से खोल कर जब वो निवाला उसमें रखती और चबाते चबाते जब वो मेरी नीम मुर्दा बराछों से बाहर गिरने लगता तो वो आबदीदा हो कर अपनी झोली आगे कर देती। इसमें गिरा बिल्लो, मेरी झोली में सौ दफ़ा गिरा मेरा बच्चा।

    वो कहती मुलाज़िम तो भारी तनख़्वाहों के बावजूद महीने दो महीने में आपी से कह देते कि मेरे बोझल वजूद को सदा साफ़-सुथरा रखना, सँभाल लेना उनके बस में नहीं था। पंद्रह हज़ार रुपये माहाना का मेल नर्स भी पाँच हफ़्तों के अंदर अंदर ही ये कह कर नौकरी छोड़ गया था कि उसकी रीढ़ की हड्डी कमज़ोर थी और मुझे हिलाना-जुलाना उसके बस में था। इंतिहाई निगहदाश्त कमरे में सर्दी लम्हा लम्हा बढ़ती जा रही है। नाक मुँह पर जकडी नालियों की वजह से बोलने से माज़ूर हूँ। चाक-ओ-चौबंद नौजवान डाक्टर जब हर तरह की भाग दौड़ के बावजूद मुझे आहिस्ता-आहिस्ता फ़ना के समुंदर में उतरते देखते हैं तो अपने किसी सीनियर के मश्वरे पर कुछ मज़ीद टेक्नोलोजी मुझ पर लाद देते हैं और इस नाक मुँह पर जुड़ी नालियों और टोटियों की वजह से मैं उन्हें ये नहीं बता सकता कि मैं यख़-बस्ता पानियों में डूब रहा हूँ और इस डूबने का एहसास पुरसुकून है, मुझे अपनी ज़िंदगी की क़ैद बामुशक़क़्त से आज़ाद होना चाहिए लेकिन मेरी प्यारी माँ जाई बहन? जिनके गुलज़ार भाई अपने बड़े बड़े प्लाज़ों की कंस्ट्रक्शन छोड़कर हर बरस पाकिस्तान नहीं आसकते और वो अपने प्लाज़ों के झरोकों से बरसती अशर्फ़ियों की बारिश में मेरी बहन को भिगोतें हैं, मेरी वजह से बेचारी आपी पाकिस्तान से बाहर भी ज़्यादा नहीं जा सकती लेकिन शदीद गर्मी और लोडशेडिंग से घबरा कर वो अपनी अमीर-कबीर सहेलियों के साथ गर्मियां अपने ही मुल्क के पहाड़ी इलाक़ों में घूम घूम कर गुज़ारती है। इस बार भी जाने से पहले मुझसे कहती थी, बब्लू तुम चाहो तो मैं तुम्हारा मरी जाने का बंदोबस्त कर दूँ। मौत जो गे मुलाज़िम ही आएं बाएं शाएं करने लगते हैं, तुम्हारे साथ नहीं जाना चाहते। नहीं आपी, आप जाएं, घर जैसा आराम मुझे बाहर कभी नहीं मिल सकता। जनरेटर गुज़ारा चलालेगा, मैंने हस्ब-ए-साबिक़ हौसले से कह दिया था।

    मैं जानता था आपी भी मुझे मरी की सदा सिर्फ़ गुंग्लुओं से मिट्टी उतारने की ख़ातिर देती थीं। मैं ये भी जान चुका था कि ऊपर वाले ने मेरे साथ बहुत बड़ा छल किया है। चरिंद, फूल, शजर हजर, दरिया, पहाड़ सिर्फ़ उन लोगों के लिए हैं जिनके बदन मुकम्मल हों जो अपनी ग़लाज़तें ख़ुद सँभाल सकते हों। अनासिर का अथाह हुस्न मुझे सिर्फ़ टीवी की उस स्क्रीन के पीछे से झाँकता था जो मेरे बिस्तर के सामने लटका दिया गया था। मैंने तो छक छक करती धुआँ उड़ाती रेल या दुम के पीछे से धुंए की लकीरें बुनते आसमानों में गुम होते जहाज़ को भी महज़ टीवी पर लगने वाली फ़िल्म के ज़रिये ही देखा था। उनमें बैठ कर सफ़र कैसे करते हैं, ये तो मैंने तसव्वुर भी नहीं किया था।

    इस बार आपी को गुलज़ार भाई ने दुबई में अपने किसी शॉपिंग माल के इफ़्तिताह के लिए बुलाया था। जाने से पहले वो चाहते थे आपी उनके शान-ओ-शौकत का लुत्फ़ उनके साथ खड़ी हो कर उठाए। इल्म नहीं था कि पुरानी शूगर की वजह से मेरी अंतड़ियां अचानक ख़ून थूकने लगेंगी और मेरी काल कोठड़ी का ताला खोल दिए जाने का फ़रमान जारी हो जाएगा। चौकीदार ने कल मुझे बताया था। जद्दे में उमरे के दौरान आपी को मेरी मख़्दूश हालत का इल्म हो चुका था। हस्पताल वालों को एडवांस डालर भेज दिए गए हैं। उमरे के सीज़न की वजह से उन्हें जल्दी सीट नहीं मिल रही। सीट मिलते ही वो वापस सीधी मेरे पास चली आयेंगी

    नगो के बैनों की आहिस्ता-आहिस्ता हस्पताल में फैलती आवाज़ इल्हामी है। उस जैसी गर्म-ओ-सर्द चशीदा ढीट औरत सिर्फ़ उसी के लिए बैन डाल सकती है जो वाक़ई दूसरे किनारे पहुंच चुका हो। मैं जानता हूँ मेरे लिए रोने पर उसे उसकी ज़रूरियात भी मजबूर कर रही हैं लेकिन वक़्त-ए-रुख़्सत अगर मैं कहूं कि मेरे लिए बैन डाल कर रोने वाली इस बेहंगम औरत के सिवा दुनिया में कोई दूसरा नहीं है तो वो मुबालग़ा नहीं होगा।

    मुनकिर-नकीर लिखते हैं तो लिखें। इसकी अदा सिर्फ़ बेनियाज़ी नहीं है बे इंसाफ़ी भी है। जाते-जाते ज़ह्न का जल-बुझ जल-बुझ हिस्सा बोलता है, अगर मैं अपने बदन के ज़िंदा मुतहर्रिक हिस्से के साथ लटकते भारी मुर्दा मास को काट कर अलग कर सकता तो मैं भी अपने आपको साफ़-सुथरा मुअत्तर रख सकता था। पर अब जाते-जाते कहना चाहता हूँ कि ज़िंदगी सर-नगूँ करने वाले सहतमंदों और मुझ जैसे कसीर-उल-तादाद कोढ़ियों के दरमियान बेवजह एक नाक़ाबिल उबूर दीवार-ए-चीन खड़ी कर दी जाती है। हम बेगुनाह ज़िंदगी की रंग पिचकारियों से खेलते, मोहब्बतों के खेल रचाते लोगों को सिर्फ़ दूर दूर से देख सकते हैं अपनी नहूसतों की दीवार टाप कर उनमें शामिल नहीं हो सकते। इसी क़ुर्बत-ए-मर्ग के लम्हे भी मुझे याद हैं, आपी एक बार मेरी शदीद महरूमियों से शर्मिंदा मुझे व्हील चेयर में उंडेल कर रिश्तेदारों की शादी में भी लेकर गई थी, हुजूम को देखकर मेरे ख़ून का फ़िशार तो जो बढ़ा सो बढ़ा, चच चच! हाय हाय! करते तरस खाने वाले मेरे गर्द यूं जमा होने लगे जैसे मैं दुनिया का कोई नवां अजूबा था इससे पहले कि मैं वहां धाड़ें मार मार कर रोने लगता या फ़रस्ट्रेशन से उन्हें गालियां देने लगता, मैंने असलम और अल्लाह रखे से कहा मुझे फ़िल फ़ौर वापस घर ले जाओ...

    आख़िरी मुलाज़िम सैफ़-उल्लाह जब अपनी भारी तनख़्वाह वाली नौकरी ये कह कर छोड़ गया कि बाहर वाला आधा ज़िंदा आधा मुर्दा बदन तो हिम्मत करके साफ़ कर लेता हूँ लेकिन भय्या की बीमारी तो अंदर से ही दिन भर बदबू छोड़ती है, वो नहीं सहारी जाती।

    थुलथुले बदन वाली क़दआवर नगो चौड़ी काफ़ी देर से कोठी की सफ़ाई सुथराई पर मामूर थी। वहम की हद तक सफ़ाई पसंद होने की वजह से नगो को भारी तनख़्वाह दे कर आपी उससे दिन भर झाड़ू पोचे फिरवाती रहती। आपी की कुशादा दस्ती की वजह से उसके सामने सधाए हुए जानवर की तरह दिन भर सेट स्टैंड में मसरूफ़ रहती थी क्योंकि उसके नशई शौहर और बच्चों का उसके बग़ैर कोई दूसरा कफ़ील था।

    सैफ़-उल्लाह की शदीद बदतमीज़ी के बाद आपी ने बादल नख़्वास्ता मेरी तमाम ज़िम्मेदारी 'नगो चौड़ी' के हवाले कर दी। उसने पहले दिन ही अपने दोनों मज़बूत बाज़ुओं में मुझे उठा कर मुझे बेड पैन पर बिठाते हुए कहा। हम ईसाई लोग तो सदियों से आप लोगों के गू-मूत सँभालते हैं, आपकी दफ़ा मुझे कौनसी मौत आजाएगी। जब यीसू मसीह ख़ुद कोढ़ियों को सीने से लगा सकते हैं तो मुझ कम ज़ात का क्या नख़रा?

    वो मेरी हवन्नक़ ज़िंदगी का पहला दिन था जब मुझे मेरी ग़लाज़तें सँभालने वाले हाथों में ग़ुस्से और झुँझलाहट का एहसास नहीं हुआ। वो मुझे ऐसी ख़ुशदिली से सँभाल रही थी जैसे कोई माँ अपने गंदे बच्चे को सँभालती है। एहतियात से बेड पैन मेरे नीचे रखने के बाद उसने मुँह दूसरी तरफ़ करके टप्पे गाने शुरू कर दिए थे।

    उसकी सँभाल में तवज्जो और शफ़क़त तो थी लेकिन वो मेरे तकिए तले पड़े नोटों पर इस तरह झपटती जैसे चील छीछड़ों पर झपटती है। क्यों छीनती हो मुझसे इतने पैसे? शर्म नहीं आती मेरी मजबूरी का फ़ायदा उठाते हुए?

    जनाब-ए-आली! इस कुत्ते की औलाद अपने ख़सम 'स्टीफ़न' की ख़ातिर बेग़ैरत हो गई हूँ। मैं इश्क़ पुछे ज़ात मेरे हुज़ूर! तीन दफ़ा तो नशे के हस्पताल से ईलाज करा चुकी हूँ उस भड़वे का। आते ही दुबारा ले जाते हैं उसे उसके नशई दोस्त उसे ज़हर पिलाने, आपसे क्या पर्दा मुझे तो अभी माहाना तारीखें भी नहीं आई थीं जब मेरा दिल स्टीफ़न की शरबती आँखों ने लूट लिया था। आप मासूम क्या समझें हुज़ूर, मेरे पेट की ख़ाली सीपी में मोती भी तो उसी के वजूद ने पिरोए थे ना... अपने उन तीनों प्यारों के लिए अभी तो सिर्फ़ अपनी ग़ैरत बेचती हूँ कभी जान बेचनी पड़ी तो दरेग़ नहीं करूँगी। जनाब, आपकी ख़ैर ख़ैरात जो भी ले जाती हूँ उसी से दिया जलता है मेरी अँधेरी कोठड़ी का।

    'नगो चौड़ी' ये भी अच्छी तरह जानती थी कि मेरी क़ुर्बत से ज़्यादातर दूर भागने वाली आपी अपनी ग़ैरमौजूदगी की तलाफ़ी मुझ पर नोटों की बारिश बरसा कर करती थी और वो नोट मुलाज़िमों को अटेरने के इलावा मेरे किसी काम नहीं आसकते थे।

    'नगो मिहतरानी' ने जब मेरे बदन का चार्ज सँभाला तो मैं उन्नीसवां टाप रहा था। आधा चेहरा घने बालों से भरा था। आधे मफ़लूज हिस्से पर सूखी पुरानी घास जैसे बदरंग बाल उग रहे थे। उन्नीस-बीस की उम्र तक मैं मर्द की मर्दानगी के किसी भेद से भी वाक़िफ़ था। चंद महीनों से अपने बेकरां बदन की मालिक मिहतरानी पेशाब की बोतल मेरे मुज़्महिल मर्दाना अज़ू के साथ लगाते लगाते उसे अपनी खुरदुरी उंगलियों से सहलाती तो अचानक रीढ़ की हड्डी में चालीस वॉल़्ट बल्ब जैसी हल्की हल्की शुआएं जगने लगतीं। नसों के मुर्दा जाल में तवानाई का लज़ीज़ एहसास जाग उठता, क्या कर रही हो बदतमीज़, में आहिस्ता से बड़बड़ाता चारों चक जहांगीर हैं सरकार... वो ज़ोर से क़हक़हा लगाती... अपने ख़ां साहिब को मैंने मर्दों में से एक भरवां मर्द बनाया तो 'नगो चौड़ी' नाम नहीं। जो कुछ ज़िंदा नहीं लगता वो भी ज़िंदा करके दिखाऊँगी एक दिन। वो मेरी डाँट सुनी अन-सुनी करके 'निका मोटा बाजरा माही वे' गाती हुई निकल जाती और मैं घंटों लेटा इस अनोखी रोशनी और तवानाई के बारे में सोचता रहता जिसके बटन मिहतरानी के खुरदुरे हाथों में पोशीदा थे। कुछ ही दिनों के अंदर अंदर नगो ने मुझे इस घड़ी-भर के तलज्ज़ुज़ का आदी बना दिया था। मैं सुबह उठते ही बेचैनी से उसका इंतिज़ार करने लगता, नोटों से उसकी झोली भर देता जिनसे वो नशे के आदी 'स्टीफ़न' की तवज्जो हासिल करने में कामयाब हो जाती और मुझ पर अपने ढीले ज़नाना बदन के मज़ीद भेद खोलने लगती। आहिस्ता-आहिस्ता मेरे और पैंतालीस साला 'नगो' के दरमियान एक बाक़ायदा पोशीदा रिश्ता क़ायम हो चुका था। मेरे बदन के मुर्दा तोदे में ज़िंदगी आफ़त की चिंगारी भड़काना किसी मोजज़े से कम था। मेरी मैली कुचैली मुतअफ़्फ़िन दुनिया में एक औरत के वजूद की वजह से रंग खिलने लगे थे। पिछली जून में शदीद गर्मी और लोडशेडिंग से तंग लाला आपी ने जब अपनी अमीर-कबीर सहेलियों के साथ कोहसारों का रुख़ किया तो नगो कई रातें मेरी देख-भाल के बहाने सरवेंट क्वार्टरों में बसर करने लगी थी। दूसरे मुलाज़िमों के सोने के बाद वो लोडशेडिंग के घुप अंधेरों में मेरे पास आती और एक सधाए हुए जानवर की तरह मुझे अपने बदन की हर नुक्कड़ से खेलने की इजाज़त दे देती। कुछ देर में मैं अपने आपको उसके उथल-पुथल मास के ढेर का मालिक समझने लगता। ज़िंदगी के लज़ाइज़ की मामूली सी झलक ने भी मेरे अंदर जीने की उमंग पैदा कर दी थी।

    माँ की वफ़ात से लेकर 'नगो चौड़ी' की मेरी ज़िंदगी में आमद तक मुझे किसी ऐसे इन्सानी लम्स का तजुर्बा नहीं था जिसमें क़बूलियत या हमदर्दी की कोई मामूली सी चस भी मौजूद होती। वो मैली थी या बदसूरत, उसने मुझे ज़िंदगी के गुलज़ार की सह्र अंगेज़ झलक दिखाई थी इन्सान से इन्सान की जड़ित की अहमियत उजागर की थी। उन दिनों मैं उसके लिए कुछ भी करने को तैयार था।

    स्टीफ़न का बदन नशे की ज़्यादती की वजह से बुरादा बन चुका था। उसकी जवान बहन की शादी की तमाम ज़िम्मेदारी अपने भाई और भाबी पर ही थी। स्टीफ़न को तो मिस्री ममी बना कर नगो ने घर में डाल रखा था। पर भरी बिरादरी में वो अपने नीम मुर्दा शौहर की थूड़ी थूड़ी नहीं कराना चाहती थी।

    सिरहाने पड़े मॉनीटर पर मेरे दिल की जल-बुझ जल-बुझ लाइनें देख कर डाक्टर लोग दुबारा इधर उधर भागने लगे हैं... वेंटीलेटर... वेंटीलेटर की खुसर फुसर साफ़ सुनाई दे रही है। दसियों बार टेलीविज़न पर और मेरे पास आने जानेवाले दुकानदार तबक़े से मैं मरने वालों के आख़िरी लम्हात का हाल सन चुका हूँ, दिल भले झटके खाता रहे। जब तक इन्सानी ज़ह्न की बस्ती गुल हो मौत जीत नहीं सकती।

    मेरी डूबी डूबी बीनाई के बावजूद मेरे ज़ह्न की फिरकी जूं की तूं चल रही है। सफ़ेद रेश डाक्टर ने मुझे दिल का जो टीका लगाया है उसने सांस एक-बार फिर रवाँ-दवाँ कर दिए हैं।

    नन्द की शादी की फ़िक्र में घुली नगो ने उस रात मेरे बदन की मुकम्मल मालिश के बाद मुझसे मदद की इल्तिजा उसी लहजे में की थी जैसे औरतें अपने कमाऊ मर्दों से करती हैं। मेरे ख़ानदान की जवानी के सदमे में लिली की शादी की ज़िम्मेदारी को भी अच्छी तरह पूरा करना चाहती हूँ, स्टीफ़न नामुराद को दुनिया के सामने ज़लील होता नहीं देख सकती। क्या कहते हो मेरी सरकार?

    उसने धीरज से मेरी क़मीज़ के बटन खोलते हुए कहा, ज़िंदगी-भर क़दम चूमती रहूंगी।

    लुच्ची... मैं हंसा।

    मेरी सरकार आप भी कौनसे कम लुच्चे हैं, आऊँ तो आपको भी इस नीच की लगन लगी रहती है। अब इस दरबार से उठकर जाऊं भी कहाँ?

    सयाहत या सैर के लिए जाते वक़्त आपी शायद मेरी ख़ुद-एतिमादी बढ़ाने की ख़ातिर अपने पूरे घर की चाबियाँ मुझे ही देकर जाया करती थी। ज़ेवर, कैश तो ज़्यादातर बैंकों में ही बंद रहते थे... लेकिन कमरों में सजे नवादिरात की क़ीमत भी लाखों से कम थी। बहुत ज़्यादा नहीं लेकिन अपनी ज़रूरत के मुताबिक़ आधी रात बरकत मसीह के मुश्टंडे भाई लेकर आओ और बाक़ी मुलाज़िम जब गहरी नींद सो जाएं तो घर से कुछ क़ीमती अशिया उठा कर ले जाओ और उनसे अली की शादी का बंदोबस्त कर लो। मैंने घर की चाबियाँ उसे पकड़ाते हुए कहा। सुबह डाके डाके का शोर पड़े तो तुम्हें भी मौजूद होना चाहिए। चीज़ें एहतियात से बेचना, काम प्रोग्राम के मुताबिक़ पूरा हो गया। डाके की ख़बर सुनकर पुलिस आई तो मेरी बेबसी देख कर मुलाज़िमों से गाली ग्लोच करती रही। मैंने थानेदार को कुछ पैसे देकर आपी के आने तक किसी मुलाज़िम को थाने कचहरी नहीं जाने दिया। 'नगो' ने मेरी मुर्दा ईखो को ज़िंदगी बख़शी थी। मेरी अपनी ही ज़ात से नफ़रत को कम किया था। सह्र अंगेज़ हक़ायक़ से पर्दा उठाया था। चंद महंगी अशिया की गुमशुदगी आपी के लिए किसी बड़े ख़सारे का बाइस नहीं थी। 'नगो' का अपनी बिरादरी में सुर्ख़रु होना मेरे लिए बाइस इत्मिनान था, आपी वापसी पर परेशान तो हुई लेकिन नुक़्सान से ज़्यादा उसे दुख था तो मेरी बेबसी का... शुक्र है बब्लू उन भेड़ियों ने तेरे कमरे का रुख़ न, किया तुम्हें कोई नुक़्सान पहुंच जाता तो मैं अपने आपको कभी माफ़ कर सकती। हिफ़्ज़ मातक़द्दुम के तौर पर आपी ने 'नगो' समेत उन तमाम मुलाज़िमों को नौकरी से फ़ारिग़ कर दिया जिन्हें वो पीछे घर छोड़कर गई थीं। अगले रोज़ 'नगो' मुझे दातागंज बख़्श के मज़ार की तरह सर से पांव तक चूमती। तशक्कुर से भरी मेरी ज़िंदगी से ग़ायब हो गई थी। स्टीफ़न की इज़्ज़त की ख़ातिर उसने मेरी ज़ात की भी बलि चढ़ा दी थी।

    मेरे कमरे की फ़िज़ा एक-बार फिर घुटन और ताफ़्फ़ुन से लिथड़ गई। किसी अपनाईयत भरी इन्सानी छुवन के बग़ैर मेरी फ़ालिजज़दा रगों में दौड़ता ख़ून मुंजमिद लोथड़ों में तब्दील होने लगा था। मेरे आधे ज़िंदा हिस्से ने भी मिट्टी से मिट्टी होने का फ़ैसला कर लिया था। मैंने एक-आध बार अपनी बहन से कहा भी था कि 'नगो' की तरह दिल लगा कर मुझे कोई नहीं सँभाल सकता लेकिन उसने मेरी बात सुनी अनसुनी कर दी थी। मेरी आपी मेरी बेहतरीन गॉडफादर थी लेकिन वो ये नहीं जानती थी कि 'नगो' के चले जाने के बाद मेरी रूह ने भी हफ़्त आसमानों में उड़ान भरने का फ़ैसला कर लिया था।

    आज वो मुझे अंदर आकर एक नज़र देखने की ख़्वाहिश में सुबह से कई दफ़ा धक्के खा चुकी है। ये इंतिहाई निगहदाशत का कमरा है। वो नहीं जानती यहां डाक्टरों की मरीज़ के साथ खु़फ़ीया कार्रवाई में कोई मुख़िल नहीं हो सकता। ये ज़िंदगी और मौत के दरमियान आख़िरी युद्ध है। बाहर बैन डालती काली-पीली चौड़ी कैसे जान सकती है कि इंतिहाई निगहदाश्त कमरा दरअसल वो हेलीपैड है जहां से इन्सान को उसकी आख़िरी परवाज़ पर रवाना किया जाता है और हैलीकाप्टर के डबल इंजन की आवाज़ तो मेरे दिमाग़ के परख़चे उड़ा रही है, अल्लाह करे आपी को आज ही वापसी की सीट मिल जाये।

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