Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

जुवारी

MORE BYग़ुलाम अब्बास

    स्टोरीलाइन

    यह एक शिक्षाप्रद और हास्य शैली में लिखी गई कहानी है। जुवारियों का एक समूह बैठा हुआ ताश खेल रहा था कि उसी वक़्त पुलिस वहाँ छापा मार देती है। पुलिस के पकड़े जाने पर हर जुवारी अपनी इज्ज़त और काम को लेकर परेशान होता है। जुवारियों का मुखिया नक्को उन्हें दिलासा देता है कि थानेदार उसका जानने वाला है और जल्द ही वे छूट जाएँगे। लेकिन छोड़ने से पहले थानेदार उन्हें जो सज़ा देता है वह काफ़ी दिलचस्प है।

    पुलिस ने ऐसी होशियारी से छापा मारा था कि उनमें से एक भी बच कर नहीं निकल सका था और फिर जाता तो कहाँ, बैठक का एक ही ज़ीना था जिस पर पुलिस के सिपाहियों ने पहले ही क़ब्ज़ा जमा लिया था। रही खिड़की, अगर कोई मनचला जान की परवाना कर के उसमें से कूद भी पड़ता तो अव्वल तो उसके घुटने ही सलामत रहते और बिल-फ़र्ज़ ज़्यादा चोट आती तो भी उसे भागने का मौक़ा मिलता क्योंकि पुलिस के निस्फ़-दर्जन सिपाही नीचे बाज़ार में बैठक को घेरे हुए थे और यूँ वो सब के सब जुवारी, जिनकी तादाद दस थी पकड़ लिए गए थे।

    इत्तिफ़ाक़ से उस दिन जो जुवारी इस बैठक में आए थे उनमें दो एक पेशावरों को छोड़ कर बाक़ी सब कभी-कभार के शौक़िया खेलने वाले थे और यूँ भी इज़्ज़तदार और आसूदा हाल थे। एक ठेकादार था, एक सरकारी दफ़्तर का ओह्देदार, एक महाजन का बेटा था, एक लारी ड्राईवर था और एक शख़्स चमड़े का कारोबार करता था।

    उनमें दो शख़्स ऐसे भी थे जो बे-गुनाह पकड़ लिए गए थे। उनमें एक तो मनसुख पनवाड़ी था। हर-चंद वो भी कभी खेल भी लिया करता था मगर उस शाम वो क़तअन इस मक़सद से वहाँ नहीं गया। वो दुकान पर एक दोस्त को बिठा कर दस के नोट की रेज़गारी लेने आया था। रेज़गारी ले चुका तो चलते एक खिलाड़ी के पत्तों पर नज़र पड़ गई , पत्ते ग़ैर-मामूली तौर पर अच्छे थे। ये देखने को कि वो खिलाड़ी क्या चाल चलता है ये ज़रा की ज़रा रुका था कि इतने में पुलिस गई। बस फिर कहाँ जा सकता था!

    दूसरा शख़्स एक उम्र रसीदा वसीक़ा नवीस था जो ठेकादार को ढूँढता ढूँढता इस बैठक में पहुँच गया था। ठेकादार से उस की पुरानी साहिब सलामत थी और वो चाहता था कि ठेकादार उसके बेटे को भी छोटा मोटा ठेके का काम दिला दिया करे। वो कई दिन से ठेकेदार की तलाश में सरगर्दां था और आख़िर मिला भी तो कहाँ, जहाँ तो ठेकादार को खेल से फ़ुर्सत और उसे इतने आदमियों के सामने मतलब की बात कहने का यारा। ठेकेदार खेल में मुनहमिक था और वसीक़ा नवीस इस सोच में कि वो कौन सी तर्कीब हो सकती है जिससे ये खेल घड़ी-भर के लिए थम जाए और दूसरे सब लोग उठ कर बाहर चले जाएँ। मगर इस क़िस्म की कोई सूरत उसे नज़र आती थी। उधर ठेकेदार था कि घंटों से बराबर खेले जा रहा था। आख़िर वसीक़ा नवीस मायूस हो कर चलने की सोच ही रहा था कि इतने में पुलिस गई और जुवारीयों के साथ उसे भी धर लिया गया।

    उन दोनों ने अपनी बेगुनाही के बहतेरे सबूत दिए मगर पुलिस ने एक सुनी। बाक़ी के लोग पुलिस के इस अचानक धावे से ऐसे दम-ब-ख़ुद रह गए थे कि किसी के मुँह से एक लफ़्ज़ तक निकला। सिपाहियों ने बड़ी होशियारी के साथ पहले सबको बैठक से नीचे उतारा, फिर उनके गिर्द घेरा डाल कर उन्हें पैदल थाने ले चले।

    ये भी ग़नीमत हुआ कि झुटपुटे का वक़्त था। धुँदलके में ज़्यादा लोगों की नज़र पड़ी और ये लोग कोट के कालर या पगड़ी के शिमले में मुँह छुपाए, तेज़ तेज़ क़दम उठाते हुए जल्द ही थाने पहुँच गए जहाँ थानेदार के हुक्म से उन सबको हवालात में बंद कर दिया गया।

    हवालात की यकसूई में जब उन लोगों को तमाशाइयों की इस्तिहज़ा भरी नज़रों और सिपाहियों के कड़े तेवरों और करख़्त लहजों से अमान मिली और जान पहचान के लोगों से मुडभेड़ का ख़ौफ़ भी रहा तो क़ुदरती तौर पर सबसे पहले उनका ध्यान बैठक के मालिक की तरफ़ गया जो इन सब के साथ ही हवालात में बंद था। हर शख़्स उसको अपनी बर्बादी का बाइस समझता था। चुनांचे सबको उस पर सख़्त ग़ुस्सा रहा था। अगर ये शख़्स एहतियात से काम लेता मकान को सराय बना लेता कि हर ऐरा ग़ैरा मुँह उठाए चला रहा है, बैठक के बाहर किसी मुख़्बिर का इंतिज़ाम करता, नीज़ पुलिस वालों से अपने तअल्लुक़ात ख़ुशगवार रखता तो उन लोगों पर ये बुरा वक़्त कभी आता।

    बैठक के मालिक का नाम तो ख़ुदा जाने क्या था मगर सब लोगों उसे नक्को नक्को कहा करते थे। ये शख़्स दरिमयाने क़द और छरेरे बदन का था। शरबती आँखें जिनमें सुरमे के डोरे। सफ़ेद रंगत, छोटी छोटी मूँछें , चेहरे पर चेचक के मिटे मिटे से दाग़, दाँत पानों के कसरत-ए-इस्तेमाल से सियाही माइल सुर्ख़ हो गए थे। घुंघरियाले बाल जो हर वक़्त आंवले के तेल में बसे रहते। बाएं तरफ़ से मांग निकली हुई। दाएँ तरफ़ के बाल एक लहर की सूरत में पेशानी पर पड़े हुए , मलमल का कुर्ता जिसमें सोने के बटन लगे हुए। गले में छोटा सा सोने का तावीज़ सियाह डोरे में बंधा हुआ। उसका कुर्ता हमेशा उजला होता मगर धोती उमूमन मैली। सर्दियों में उस लिबास पर एक पुराना सुर्ख़ दोशाला ज़री के हाशिए वाला ओढ़ लिया करता। इस की हरकात में बला की फुर्ती थी। जितनी देर में कोई मश्शाक़ से मश्शाक़ जुवारी एक दफ़ा ताश फेंटे और बाँटे ये इतनी देर में कम से कम दो दफ़ा ताश फेंटता और बांट लेता था।

    नक्को पहले ही इस हमले के लिए तैयार था। पुलिस के छापे मारने से लेकर उस वक़्त तक तो उसने चुप साधे रखी थी और इस सारे क़ज़िए में इस का रवय्या एक बेगाने का सारहा था मगर अब जब कि सब तरफ़ से इस पर तेज़ नज़रों के हमले शुरू हुए तो उसने एक झुरझुरी ली और अपनी मुदाफ़िअत में एक लतीफ़ मुस्कुराहट, जिसमें ख़फ़ीफ़ सी शोख़ी मिली हुई थी, अपने होंटों पर तारी की। ये मुस्कुराहट चंद लम्हे क़ाएम रही फिर उसने निहायत इत्मिनान के साथ सब पर एक नज़र डाली और बड़ी ख़ुद-एतिमादी के लहजा में कहा,

    “आप लोग बिल्कुल भी फ़िक्र करें। मैं आप को यक़ीन दिलाता हूँ कि आप में से किसी का भी बाल बीका होगा। मेरे हाँ पिछले पाँच बरस में आज तक ऐसा नहीं हुआ था। उसे तो, क्या कहना चाहिए, मज़ाक़ समझो मज़ाक़।”

    जुवारियों ने नक्को की इस बात को सुना, पर उससे उनके ग़ुस्से में ज़रा भी कमी हुई बा'ज़ ने गर्दन हिलाई, बा'ज़ ने बाज़ू झटक दिए।

    “हूँ, मज़ाक़ समझें। ये अच्छी रही!” ठेकेदार ने कहा।

    “लाहौल वला कुव्वत” चमड़े के सौदागर ने ज़रा चमक कर कहा, “अजीब आदमी हो यार, यहाँ लाख की इज़्ज़त ख़ाक में मिल रही है और तुम उसे मज़ाक़ बता रहे हो!”

    “नाराज़ क्यों होते हो शैख़-जी, मैं ने जो कहा, आपका बाल भी बीका होगा। मूंछों पर ताव देते निकलोगे मूंछों पर ताव देते!”

    “चल हट लपाड़िया कहीं का, ठेकादार ने कहा।

    “लपाड़िया कौन, मैं?” नक्को ने तुनक कर कहा। “ख़ैर जो जी में आए कह लो मगर मैं फिर कहता हूँ कि तुम में से किसी पर आँच तक आएगी।”

    वो जुवारी जो किसी सरकारी दफ़्तर में एकाऊंटेंट था उसे जुए से सख़्त नफ़रत थी मगर जब कभी उसकी बीवी, बच्चों को लेकर मैके जाती तो उसको बैठक ही की सूझती। दफ़्तर से उठ कर सीधा वहीं का रुख करता। हर बार हारता और अपने को कोसता। अह्द करता फिर कभी आऊँगा। अगले रोज़ सबसे पहले पहुँचता, उस शख़्स ने नक्को की ये बात अनसुनी कर के फ़र्याद के लहजे में कहना शुरू किया,

    “अरे भाई मैं लुट गया, मैं सरकारी आदमी, मेरी इज़्ज़त दो कौड़ी की हो गई, हाय मेरी बीवी बच्चे, नक्को ने मुझे बर्बाद कर दिया, हाय...”

    “सुनो तो सही मलिक साहिब...”

    “अरे क्या ख़ाक सुनूँ, हाय वो कौन सा मनहूस दिन था जब मैंने तेरी सूरत देखी, अरे यारो मैं सरकारी मुलाज़िम। अगर दफ़्तर वालों के कान में भनक भी पड़ जाये तो बदनामी...अरे बदनामी को तो गोली मारो यहाँ पंद्रह बरस की मुलाज़िमत से हाथ धोने पड़ें हाय मेरे बीवी बच्चे...

    महाजन का बेटा जिसने दौलत कमाने का ये सहल और दिलचस्प तरीक़ा नया नया सीखा था अब तक तो बड़े ज़ब्त से काम ले रहा था मगर मलिक का ये वावेला सुनकर यकबारगी धाड़ें मार मार कर रोने लगा। सब लोग उसकी तरफ़ मुतवज्जा हो गए।

    “सब्र करो छोटे शाह जी सब्र करो।” नक्को ने कहा, “तुम तो यार औरतों की तरह रोने लगे। मर्द बनो। अरे भाई ये तो बात ही कुछ नहीं है।”

    “मेरे पिता जी को पता चल गया।” महाजन के बेटे ने सिसकियाँ ले-ले कर कहा, “तो वो एक दम मुझे घर से निकाल देंगे।”

    “अरे यार छोड़ भी, कोई घर से निकालेगा।” नक्को ने कहा,

    “नक्को” मलिक ने कहा, “ये सब तेरा किया धरा है।”

    “मलिक साहिब।” नक्को ने पुरज़ोर लहजे में कहा, “आप बिल्कुल भी परेशान हों। आप मेरी बात मानें, जो मैं कह रहा हूँ कि आप पर ज़रा आँच आएगी। यूँ निकाल लाऊँगा जैसे मक्खन में से बाल निकालते हैं।”

    “बस रहने दे भाई।” मलिक ने मलामत आमेज़ लहजा में कहा, “अगर यही दम-ख़म था तो पुलिस को आने ही क्यों दिया होता!।”

    “मलिक साहब आप मेरी बात मानें। मैं आप से सच कहता हूँ आप का बाल भी बीका होगा। बात असल में यूँ है कि थानेदार अपना ही आदमी है। समझे आप, वो बड़ा मेहरबान है। वो आपको कुछ नहीं कहेगा। मेरे मुँह पर थूक देना अगर कुछ कहा।”

    नक्को की ये बात सुन कर सब जुवारी पल भर को ख़ामोश कुछ सोचते रहे। बा'ज़ तो डूबते को तिनके का सहारा के मिस्दाक़ उस की बात का यक़ीन कर लेना चाहते थे और बा'ज़ के चेहरे से ज़ाहिर होता था जैसे वो कुछ फ़ैसला नहीं कर सके कि उन्हें नक्को पर भरोसा करना चाहिए या नहीं। अलबत्ता ये ज़ाहिर था कि रफ़्ता-रफ़्ता उनका ग़ुस्सा उतरता जा रहा था।

    देखो नक्को। चमड़े वाले शैख़जी ने कहा, “मैं सौ पचास की परवाह नहीं करता, मगर मेरी इज़्ज़त बच जाए। वैसे बात तो कुछ भी नहीं है और यूँ मेरा बहनोई ख़ुद सब इन्सपेक्टर पुलिस है, मगर तौबा तौबा ये किसी से कहने वाली बात है!”

    “कौन? मनसुख पनवाड़ी के मुँह से बे-साख़्ता निकल गया। वो इतने बड़े बड़े आदमियों को इस मुसीबत में अपना साझी देख कर अपना दुखड़ा भूल गया था।

    “अजी यही आपके थानेदार साहब बहादुर।” ये कह कर नक्को हंस पड़ा।

    वो जुवारी जो लारी चलाता था कोने में खड़ा कुछ देर नक्को को बहुत ग़ौर से देखता रहा, फिर उसके क़रीब आया और उसकी आँखों में आँखें डाल कर निहायत संजीदगी के साथ कहने लगा,

    “देख नक्को! मुझे सुब्ह-सवेरे लारी में ख़ुश्क मेवा भर के दूर ले जाना है ठेकेदार मेरा इंतिज़ार कर रहा होगा। अगर तेरी वाक़ई यहाँ किसी से वाक़फ़ियत है तो कोई ऐसी तर्कीब कर कि मैं सुबह से पहले पहले यहाँ से ख़लासी पा जाऊँ।”

    यूँ तो धीरे धीरे सभी लोग आख़िरकार नक्को की बातों पर कान धरने लगे थे मगर उस लारी ड्राइवर ने जिस लहजे में नक्को से ख़िताब किया उसने क़तई तौर पर नक्को के साथियों में इसका इक़्तिदार क़ाएम कर दिया। नक्को ने भी उसे महसूस किया और अपनी इस कामयाबी पर उसकी आँखें चमक उठीं, अलबत्ता लारी ड्राईवर ने जमात से अलैहदा हो कर तन्हा अपनी ज़ात के लिए जो सिफ़ारिश की थी उसको सबने पसंद किया और उसे लारी ड्राइवर की ख़ुद ग़र्ज़ी और कमीनगी पर महमूल किया गया।

    नक्को ने, जिसके लहजे में, अब और भी ख़ुद-एतिमादी पैदा हो चुकी थी, लारी ड्राईवर से बड़े सर पर सताना अंदाज़ में कहा,

    “मिर्ज़ा जी! मेरी जान घबराओ नहीं। इसका भी इंतिज़ाम हो जाएगा।”

    “इंतिज़ाम वनतिज़ाम ख़ाक नहीं होगा। “अचानक वसीक़ा नवीस ने झल्ला कर कहा”, मिर्ज़ा तुम भी इस डींगिए की बातों में गए। जो सर पर पड़ी है उसे ख़ुद ही भुगतो।

    नक्को ने वसीक़ा नवीस के उस ग़ैर मुतवक़्क़े हमले को बड़ी चाबुक-दस्ती से रोका, वो खिलखिला कर हंस पड़ा।

    “लो बड़े मियाँ की बात सुनो। उसने कहा, हूँ, इंतिज़ाम नहीं होगा और यहाँ माल जो खिलाया जाता है हर महीने। भाइयो में फिर कहता हूँ कि उसे मज़ाक़ ही समझो। मैं हिंदू-मुस्लमान वाली कसम खा के कहता हूँ कि किसी का बाल भी बीका होगा। वो यूँ कि थानेदार...अब क्या बताऊँ तुम्हें... वो हंस पड़ा, कह जो दिया अपना ही आदमी है...अब तुम कहलवा के ही रहोगे पर ज़िक्र विक्र कर बैठना किसी से वर्ना फंस जाओगे, मेरा दोष नहीं होगा। वो बात यूँ है कि थानेदार...अब तुमसे क्या छुपाना...भई मेरी उसकी रिश्तेदारी है। सुन लिया? क्यों बड़े मियाँ अब तो हो गई तसल्ली। इतना नहीं समझते कि अगर ऐसी बात होती तो पिछले पाँच बरस से इतने बड़े शहर में ये धंदा भला कैसे चलता रहता।”

    नक्को ने अपने चारों तरफ़ नज़र दौड़ाई। इक़्तिदार की इमारत पहले से कहीं ज़्यादा मुस्तहकम हो चुकी थी।

    इन जुवारियों में एक शख़्स था जिसके चेहरे से कोई सदमा या रंज ज़ाहिर नहीं होता था वो इस सारे वाक़िए के दौरान बिल्कुल ख़ामोश रहा था। वो अट्ठाइस बरस का एक दुबला पतला नौजवान था, लिबास और वज़ा क़ता की तरफ़ से ख़ासा बे-पर्वा मालूम होता था। मुद्दत हुई उस शख़्स ने नातजुर्बाकारी की वजह से एक ख़ासी माक़ूल रक़म हार दी थी बस उसी दिन से ये अह्द कर रखा था कि जिस रोज़ हारी हुई रक़म को वापस जीत लूँगा जुए का फिर कभी नाम लूँगा। इस बैठक में आने से घंटा दो घंटे पहले किसी बाग़ में बैठ कर खेल का एक प्रोग्राम सा बना लिया करता। चालें तक सोच रखता। बेहद एहतियात से खेलता। न-ताव खाता न-जोश, मगर बद-क़िस्मती से हारी हुई रक़म रोज़ बरोज़ बढ़ती ही चली जा रही थी और उसके साथ साथ उसका क़र्ज़ भी।

    उस शख़्स को रुसवाई या क़ैद और जुर्माने का ज़रा गम था, अलबत्ता इस बात की फ़िक्र ज़रूर थी कि ये सब के सब डरपोक हैं। बच गए जब भी और फंस गए जब भी उस बैठक का रुख़ करेंगे।

    उधर नक्को ने अब हालात पर क़ाबू पा लिया था। अगरचे वो रात रात में किसी मुख़्लिसी का इंतिज़ाम भी नहीं कर सका था ताहम उसने किसी किसी तरह हर शख़्स को ये यक़ीन दिलाया था कि थानेदार अगर उसका क़रीब का नहीं तो दूर का क़ुराबतदार ज़रूर है और सुबह होते ही उन्हें रिहा कर दिया जाएगा। चुनांचे सब लोग ज़मीन पर वो फटे पुराने बदबूदार कम्बल बिछा कर जो सिपाहियों ने लाद दिए थे नख़्पत से हो कर पड़े रहे।

    “ओहो। ग़ज़ब हो गया!”अचानक नक्को ने कहा और लेटे लेटे उठ कर बैठ गया।

    “क्यूँ, क्यूँ, ख़ैर तो है?” अंधेरे में जुवारियों ने पूछा।

    “भई अगर पता होता कि यहाँ रात काटनी पड़ेगी तो ताश साथ लेते आते और मज़े से सारी रात खेलते...कहो तो अभी किसी सिपाही को भेज कर ताश और मोम-बत्ती मंगा लूँ?”

    “न बाबा माफ़ करो।” कई आवाज़ें एक साथ सुनाई दीं।

    “तुम जानो।” नक्को ने बेपर्वाई से कहा गोया ऐसा करने में उन्हीं का नुक़्सान है। “वर्ना अच्छी ख़ासी दिल-लगी रहती। सुबह को थानेदार को सुनाते तो वो भी ख़ूब हंसता...”

    अगले रोज़ सुब्ह नौ बजे के क़रीब एक सिपाही हवालात के सलाख़दार दरवाज़े के बाहर कर खड़ा हुआ और बुलंद आवाज़ से पुकार कर कहने लगा,

    “ओ जुवारियो उट्ठो। तुम्हारी दारोगा साहब के सामने पेशी है।”

    जुवारी देर से इस हुक्म के मुंतज़िर थे। सबकी नज़रें बे-इख़्तियार नक्को की तरफ़ उठ गईं। नक्को नज़रें तिरछी कर के एक ख़ास अदा से मुस्कुरा दिया।

    पाँच मिनट के बाद ये दसों आदमी थाने के छोटे से मैदान में क़तार बांधे खड़े थे। पाँच, दस मिनट, आधा घंटा गुज़र गया मगर थानेदार का कहीं पता था। इस दौरान नक्को बराबर अपने लतीफों, फब्तियों और हंसी मज़ाक़ की बातों से अपने साथियों का जी बहलाता रहा, मगर जब एक घंटा गुज़र गया और थानेदार नज़र आया तब तो सब जुवारी बहुत घबराए, हंसी उनके होंटों से ग़ायब हो गई, सब के चेहरे उतर गए और एक बदगुमानी की लहर उनमें फैल चली। वो बार-बार फ़िक्र मंदी के साथ नक्को की तरफ़ मुस्तफ़्सिराना नज़रों से देखते और नक्को जवाब में हर एक को हाथ से सब्र का इशारा कर देता। इस अर्से में दो तीन सिपाही उन जुवारियों के पास से गुज़रे और नक्को ने हर एक को ख़ान साहब जी, ख़ान साहब जी कह कर अपनी तरफ़ मुतवज्जा करना चाहा , मगर तो उन्होंने नक्को की बात का कोई जवाब दिया और पलट कर ही उसकी तरफ़ देखा।

    आख़िर जब उन्हें खड़े खड़े पूरे दो घंटे गुज़र गए और उनकी टांगें थक कर चूर हो गईं तो एक स्याह लारी थाने के अंदर दाख़िल हुई। उसमें से थानेदार और कई सिपाही निकले। थानेदार के हाथ में कुछ काग़ज़ात थे और सिपाहियों के कंधों पर बंदूक़ें उन्हें ख़ाली हाथ लोटते देखकर मालूम होता था कि जिस मुहिम पर वो सुबह ही सुबह गए थे उसमें उन्हें कामयाबी नहीं हुई और ये मुहिम ज़रूर कुछ बड़ी ही अहम मुहिम होगी, जभी तो थानेदार परेशान परेशान सा नज़र रहा था।

    नक्को दूर ही से थानेदार को देख कर उछल पड़ा।

    “वह गया मेरा मोतीयों वाला।” उसने कहा, “बस अब घबराओ नहीं। दो तीन ही मिनट में बेड़ा पार हुआ चाहता है।”

    ये कह कर नक्को ने दूर ही से थानेदार को एक फ़र्शी सलाम किया। थानेदार की या तो उस पर नज़र नहीं पड़ी या फिर उसने दानिस्ता नज़रें फेर लीं और वो सिपाहियों की बैरकों में चला गया।

    “नक्को” वसीक़ा नवीस ने तान आमेज़ लहजा में कहा, “मैं जानूँ थानेदार की तुम पर नज़र नहीं पड़ी वर्ना वो तुम्हारे सलाम का जवाब ज़रूर देता।”

    “अजी तौबा करो।” नक्को ने कहा, “थानेदार मेरे सलाम का जवाब कभी नहीं देगा। भाई वो उस वक़्त रोब में है, रोब में, क्या समझे! थानेदारी है कुछ मज़ाक़ थोड़ा ही है। हमसे सीधे मुँह बात करे तो सिपाहियों पर रोब कैसे जमा रहे। कल को यही सिपाही उसके नाक चने चबवा दें और सिपाही तुम जानो मदारी के बंदर की तरह होते हैं कि जब तक लाठी नज़र आती रहे डुगडुगी पर नाचते रहते हैं, जहाँ मदारी ने ज़रा ढील दी बस लगे ऐंठने, सर पर सवार होने...

    पाँच मिनट के बाद थानेदार चंद सिपाहियों के साथ बातें करता हुआ बार्कों में से निकला और उन जुवारियों के पास से गुज़रता हुआ थाने के फाटक पर जा खड़ा हुआ और वहाँ खड़े खड़े बदस्तूर सिपाहियों से बातें करता रहा।

    इतने में थानेदार के दफ़्तर में टेलीफ़ोन की घंटी बजी। ज़रा सी देर में एक सिपाही दौड़ता हुआ थानेदार के पास पहुँचा। जब थानेदार तन्हा वापस रहा था तो नक्को ने एक बार फिर उसे सलाम किया। थानेदार ने घूर कर उसकी तरफ़ देखा और फिर तेज़ तेज़ क़दम उठाता हुआ दफ़्तर में चला गया।

    “कहा था ना।” नक्को ने फ़तहमंदाना लहजे में कहा, “वो मेरे सलाम का जवाब नहीं देगा। क्यूँ जवाब दिया?”

    सब जुवारी ख़ामोश रहे।

    “एक दिन...” नक्को ने फिर कहना शुरू किया, “थाने में बस वो और मैं ही थे कोई सिपाही आस-पास नहीं था। बस फिर क्या था। इतनी गुदगुदियाँ कीं कि हंसा हंसा के बुरा हाल कर दिया।”

    थानेदार कोई आध घंटे तक दफ़्तर के अंदर ही रहा। ये लोग फिर बे-सब्र हो चले थे कि इतने में वही सिपाही जिसने सुब्ह कर पेशी की इत्तिला दी थी दफ़्तर से निकला और सीधा उनके पास कर अपने अखड़ लहजे में कहने लगा,

    “ओ जो उरियो! सुनो। दारोग़ा साहब ने हुक्म दिया है कि तुम सब के सब धोती पाजामा खोल के ज़मीन पर एक क़तार में औंधे लेट जाओ। फिर तुम में से सिरे वाला आदमी एक एक कर के उठे और हर एक के दस दस जूते लगा के ख़ुद दूसरे सिरे पर औंधा लेट जाए। ग़र्ज़ इसी तरह सब के सब बारी बारी हर एक के दस दस जूते लगाएँ।

    थानेदार का ये हुक्म इतना ग़ैर मुतवक़्क़े था कि सब जुवारी हक्का-बका रह गए और सरासीमा हो कर सिपाही का मुँह तकने लगे।

    “उल्लुओं की तरह मेरा मुँह क्या तक रहे हो। अगर हुक्म समझ में आया हो तो फिर सुना दूँ?” ये कह कर जवाब का इंतिज़ार किए बग़ैर सिपाही ने वही अल्फ़ाज़ फिर दोहरा दिए।

    इस पर वसीक़ा नवीस और मनसुख पनवाड़ी बे-इख़्तियार आगे लपक कर सिपाही के क़दमों से लिपट गए।

    “ख़ान साहब हम बिल्कुल बेक़सूर हैं। उन्होंने यक ज़बान हो कर गिड़गिड़ा कर कहा, ये सब लोग गवाही देंगे कि हम बिल्कुल बेगुनाह हैं। जिस वक़्त पुलिस आई हम तो खेल रहे थे और इस इरादे से वहाँ गए थे। हम बे-गुनाह हैं। ख़ुदा जानता है कि हम बिल्कुल बेक़ुसूर हैं।

    “मैं गवाही ववाही कुछ नहीं जानता।” सिपाही ने कहा, “दारोग़ा साहब ने सब के लिए यही हुक्म दिया है। हाँ और सुनो! उन्होंने कहा है अगर ये लोग राज़ी हों तो उन सबको फिर हवालात में बंद कर दिया जाए। देखो, देर करो। मुझे दारोग़ा साहब के साथ अभी अभी बाहर जाना है। लारी तैयार खड़ी है। तुमने देर की तो मैं फिर सबको हवालात में बंद कर दूँगा।

    वसीक़ा नवीस और मनसुख दोनों मायूस हो के फिर क़तार में खड़े हुए। उनका ये अंजाम देख के किसी जुवारी को लब हिलाने की जुर्रत हुई और वो सख़्त परेशान हो कर एक दूसरे का मुँह तकने लगे। उनकी समझ में आता कि क्या- किया जाए। उनकी नज़रें बार बार नक्को पर पड़तीं थीं जो गोया दीवारों को छेदती हुई थानेदार को ढूँढ निकालना चाहती थीं।

    “देखो देखो”, सिपाही ने कहा, “तुम लोग देर कर रहे हो मुझे मजबूरन तुम सबको हवालात ही में बंद कर देना पड़ेगा।”

    इस पर भी जुवारी अभी लैत-ओ-लाल ही कर रहे थे कि अचानक किसी के धड़ाम से ज़मीन पर गिरने की आवाज़ आई।

    ये नक्को था जो धोती खोले ज़मीन पर औंधा पड़ा था। उसे इस हाल में देख कर मनसुख की हिम्मत बंधी और उसने भी नक्को की पैरवी कर ही दी। एकाऊंटेंट मलिक इधर उधर देख रहा था कि सिपाही ने पीछे से आ, गुद्दी से पकड़ कर ज़बरदस्ती नीचे बिठा दिया और उसने नाचारा अपने नेकर के बटन खोल दिए।

    सिपाही के इस सुलूक को देख कर दूसरे जुवारी आप ही आप ज़मीन पर लेट गए। सिर्फ चमड़े वाले शैख़ जी खड़े रह गए। उनकी आँखों में आँसू भरे हुए थे और सूरत से इंतिहा दर्जे की मज़लूमी बरस रही थी। उनका हाथ बार बार कमर-बंद पर पड़ता था मगर वहीं रह जाता था।

    ऐसे मुअज्ज़िज़ और शरीफ़ सूरत आदमी को ऐसी परेशानी में देख कर सिपाही का दिल पसीज गया और वो जान-बूझ कर वहाँ से टल गया। शैख़-जी ने दिल कड़ा किया, पगड़ी के शिमले से आँसू पोंछे, गर्दन फिरा कर अपने इर्द गिर्द नज़र डाली और फिर इंतिहाई मजबूरी के साथ बिल आख़िर उन्होंने भी थानेदार के हुक्म की तामील कर दी।

    सिरे पर लारी ड्राईवर था। सबसे पहले जूते लगाने की उसकी बारी थी। जिस वक़्त वो उठा तो नक्को ज़ोर से खंखकारा, “मिर्ज़ा जी सँभल के। उसने कहा, “सब अपने ही आदमी हैं हाँ। देखने में ज़ोर का हाथ पड़े मगर...समझ गए ना...”

    लारी ड्राईवर ने अभी पाँच तक ही गिनती की थी कि वही सिपाही थाने के दफ़्तर से निकला और उसे हाथ के इशारे से रोक दिया। दारोगा साहब कहते हैं”, उसने पास कर कहा, “अगर तुम लोगों ने ठीक तरह से जूते लगाए तो में अपने सिपाहियों से जूते लगवाऊँगा।” ये कह कर वो फिर चला गया।

    जुवारियों ने मस्लिहत इसी में समझी कि ख़ुद ही आपस में ज़ोर ज़ोर के जूते लगवा लें चुनांचे कोई बीस मिनट के बाद, जब हर एक ने हर एक के दस दस जूते लगाए तो वो इस काम से निमट, चुनांचे कपड़े झाड़, उठ खड़े हुए। इतने में वही सिपाही फिर आया और कहने लगा, जाओ अब के दारोगा साहब ने तुम्हारा क़ुसूर माफ़ कर दिया है, फिर कभी जुआ ना खेलना।

    ये लोग थाने में से यूँ निकले जैसे अपने किसी बड़े ही अज़ीज़ क़रीबी रिश्तेदार को दफ़न कर के क़ब्रिस्तान से निकले हों। थाने से निकल कर कोई सौ गज़ तक तो वो चुप-चाप गर्दनें डाले चला किए। इसके बाद नक्को ने यकबारगी ज़ोर का क़हक़हा लगाया। इतने ज़ोर का कि वो हंसते हंसते दोहरा हो गया। “क्यों देखा!” उसने कहा, “न चालान, मुक़द्दमा, क़ैद, जुर्माने में। कहता था इसे मज़ाक़ ही समझो!”

    स्रोत:

    Kulliyat-e-Ghulam Abbas (Pg. 91)

    • लेखक: ग़ुलाम अब्बास
      • प्रकाशक: रहरवान-ए-अदब, कोलकाता
      • प्रकाशन वर्ष: 2016

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

    GET YOUR PASS
    बोलिए